देश के जाने-माने अर्थशास्त्री और पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह का 92वें वर्ष की उम्र में निधन हो गया। डॉ. मनमोहन सिंह ने भारत की अर्थव्यवस्था को नई दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे एक अर्थशास्त्री, शिक्षाविद्, नौकरशाह और राजनीतिज्ञ रहे, जिन्होंने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में दो बार कार्य किया। उनका जन्म 26 सितंबर, 1932 को हुआ था और उन्होंने अपनी शिक्षा पंजाब विश्वविद्यालय और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से प्राप्त की। 1982 से 1985 तक वे भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर रहे और पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार में वित्त मंत्री का दायित्व भी संभाला। 1991 में भारत में आर्थिक सुधारों की शुरुआत करने का श्रेय उन्हें दिया जाता है। उन्होंने 2004 से 2014 तक अपने प्रधानमंत्री काल के दौरान कई महत्वपूर्ण नीतियों और कार्यक्रमों को लागू किया था।
एच एल दुसाध
26 दिसंबर की रात देश ने स्वाधीनोतर भारत का अपना विरल अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री खो दिया। उम्र संबंधी परेशानी से जूझ रहे डॉ. मनमोहन सिंह 26 दिसम्बर की शाम अचानाक अपने घर में अचेत हो गए। इसके बाद आनन–फानन में उन्हें रात 8.06 बजे एम्स के आपातकालीन विभाग में भर्ती किया गया पर, दो बार बाईपास सर्जरी से गुजरने वाले डॉ. सिंह को बचाया न जा सका। अचानक उंनके निधन की खबर पाकर राष्ट्र स्तब्ध रह गया और उनके अवदानों से धन्य कृतज्ञ राष्ट्र सोशल मीडिया पर उनके प्रति अश्रुपूरित श्रद्धांजलि का सैलाब पैदा कर दिया। लोग नम आंखों से राष्ट्र निर्माण उनके योगदान को याद करने में एक दूसरे से होड़ लगा रहे हैं। 1991 में, जब भारत को गंभीर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री, पीवी नरसिम्हा राव ने, अराजनीतिक सिंह को वित्त मंत्री के रूप में अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया। अगले कुछ वर्षों में, कड़े विरोध के बावजूद, उन्होंने कई संरचनात्मक सुधार किए, जिससे भारत की अर्थव्यवस्था उदार हुई। हालाँकि ये उपाय संकट को टालने में सफल साबित हुए और एक प्रमुख सुधारवादी अर्थशास्त्री के रूप में विश्व स्तर पर सिंह की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई।
प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के समय के सुधारवादी अर्थशास्त्री जब नई सदी में अप्रत्याशित रुप से प्रधानमंत्री बने, वह अपने अर्थशास्त्रीय सोच को जमीन पर उतारने का और बड़ा अवसर पाए और विश्व स्तर पर और बडी़ छाप छोड़ने में सफल हुए। 2004 में, जब कांग्रेस के नेतृत्व वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सत्ता में आया, तो इसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अप्रत्याशित रूप से सिंह के लिए प्रधानमंत्री पद छोड़ कर उन्हें पीएम की कुर्सी पर बिठाया। अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों की राय रही है कि सोनिया गांधी ने दो कारणों से वरिष्ठ कांग्रेसियों और संप्रग के सहयोगियों का विरोध झेलकर भी डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया। उनमें पहला कारण था 1984 दंगों से आहत सिख समुदाय की भावनाओं पर मरहम लगाना। इस दिशा में मनमोहन सिंह को पीएम बनाने से बेहतर कुछ हो नहीं सकता था। डॉ. मनमोंहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने से सिख समुदाय के बीच एक सकारात्मक सन्देश गया, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। सोनिया गांधी का दूसरा मकसद था अर्थशास्त्री के रूप में डॉ. सिंह के विराट अनुभव को देशहित में सद्व्यवहार करना रहा। पश्चिम पंजाब के गाह में, जो आज पाकिस्तान है, में जन्मे डॉ. सिंह के भारत का प्रधानमंत्री बनने से सोनिया गांधी का दोनों मकसद पूरा हुआ। डॉ. सिंह 2004 से 2014 तक भारत के 13वें प्रधानमन्त्री के रूप देश की सेवा किये। इस क्रम में वह जवाहरलाल नेहरु और इंदिरा गांधी के बाद लम्बे समय तक काम करने वाले तीसरे प्रधानमंत्री के रूप में इतिहास जगह बनाये। भारत के पहले गैर-हिन्दू प्रधानमंत्री डॉ. सिंह जवाहरलाल नेहरु के बाद पहले ऐसे प्रधानमंत्री रहे जो पूरे पांच साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद फिर से चुने गए, जहां तक प्रधानमन्त्री के रूप में उनकी उपलब्धियों का सवाल है, वह ऐतिहासिक और गर्व करने लायक रहीं।
मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार द्वारा अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) और भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के छात्रों के लिए 27% आरक्षण लागू करने का निर्णय) 2006 में आरक्षण के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन हुआ। हालांकि, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 10 अप्रैल 2008 को कानून को बरकरार रखा।
डॉ मनमोहन सिंह ने देश के लिए किए अनेक काम
मनमोहन सिंह की उपलब्धियाँ गिनाने में आम से खास लोग होड़ लगाते दिख रहे हैं। उनकी जिन उपलब्धियों की सोशल मीडिया से लेकर अखबारों खूब चर्चा हो रही हैं उनमें एक यह यह भी है कि उनके कार्यकाल में 200 से अधिक केन्द्रीय विद्यालय और 8 आईआईटी खुले। यही नहीं उन्होंने 23 पीएसयू खड़े और मात्र तीन का निजीकरण किये। इसके महत्त्व का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री वाजपेयी अपने कार्यकाल में 17 पीएसयू खड़ा किये और सात बेच दिए, जबकि उनके बाद मोदी खड़ा किये जीरो और निजीकरण किये 23 का, लेकिन डॉ. सिंह की ढेरों उपलब्धियों के मध्य जिस खास उपलब्धि की लोगों द्वारा अनदेखी की जाती रही है, वह है सामाजिक न्याय के मोर्चे पर उनकी उपलब्धियाँ .मंडल उत्तरकाल में सामाजिक न्याय के मोर्चे पर मनमोहन सिंह के कार्यकाल में में जितना काम हुआ, खुद कांग्रेस के लोग तक उसकी अनदेखी करते रहे हैं और आज भी कर रहे हैं।
सोनिया एरा में मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रीतव में कंग्रेस ने सामाजिक न्याय का जो इतिहास रचा वह दूसरे दलों क़े लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है। इसी दौर में कांग्रेसी दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में भोपाल से डाइवर्सिटी का क्रांन्तिकारी विचार निकला, जिसके फलस्वरूप आज ठेका, सप्लाई, डीलरशिप, मंदिरों के पुजारियों की नियुक्ति में आरक्षण लागू होने के साथ बहुजनों में संख्यानुपात में हर क्षेत्र में संख्यानुपात में हिस्सेदारी की आकांक्षा पनपी। इसी दौर में वाजपेयी के विनिवेश नीति पर अंकुश लगाने के साथ उच्च शिक्षा में ओबीसी को आरक्षण मिला। इसी दौर में 2012 में ओबीसी को पेट्रोलियम प्रोडक्ट के डीलरशिप में आरक्षण मिला और अमेरिका के डाइवर्सिटी पैटर्न पर निजी क्षेत्र में आरक्षण देने का बलिष्ठ प्रयास किया। दलित- आदिवासियों को एमएसएमई के प्रोडक्ट की सप्लाई में 4% आरक्षण मिलने के साथ राजीव गाँधी फ़ेलोशिप मिलना शुरू हुई, जिससे भारी संख्या में एससी-एसटी वर्ग के युवाओं को कॉलेज/यूनिवर्सिटियों में शिक्षक बनने का मौका मिला।
बहरहाल पहली बार 22 मई, 2004 को प्रधानमंत्री बनने वाले मनमोहन सिंह दूसरी बार, 22 मई, 2009 को पीएम के रूप में शपथ लिए और 14 मई , 2014 तक काम किये। उनका पीएम के रूप में दो बार का कार्यकाल ही सोनिया एरा के कांग्रेस का स्वर्णिम काल रहा। इस दौर में सोनिया गांधी की अध्यक्षता में डॉ. सिंह ने प्रधानमंत्री के रूप में देश के निर्माण में जो योगदान दिया, उससे बहुत लोगों ने डॉ. सिंह को नोबेल पुरस्कार के योग्य माना। इस विषय में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और देश के जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक संतोष पॉल की 18 नवम्बर, 2021 की यह टिपण्णी काबिलेगौर है।
वर्ष 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सोनिया गांधी के नेतृत्व में सत्ता में वापस आया, जिन्होंने पूर्वी गोलार्ध में सबसे सम्मानित अर्थशास्त्री की नियुक्ति प्रधानमन्त्री के रूप करने की सिफारिश की। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह उस समय के अग्रणी अर्थशास्त्रियों और प्रशासकों को अपनी टीम में शामिल किया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने हार्वर्ड से एमबीए करने वाले प्रतिभाशाली पी. चिदम्बरम को अपने वित्त मंत्री के रूप में शामिल किया। 2004 से 2014 तक के 10 वर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था के स्वर्णिम वर्ष बने। इस उल्लेखनीय दशक में भारत की जीडीपी औसतन 8.1% की दर से बढ़ी। 2006-07 में वास्तविक जीडीपी वृद्धि रिकॉर्ड 10.08% तक पहुंच गई, जो स्वतंत्र भारत के आर्थिक इतिहास में अब तक की दूसरी सबसे बड़ी वृद्धि के रूप में चिन्हित हुई, जो 1988-89 में राजीव गांधी के कार्यकाल के दौरान हासिल की गई बेजोड़ 10.2% के पीछे है।
विश्व इतिहास में उनकी उपलब्धि को उल्लेखनीय बनाने वाली बात यह है कि यह तेजी से विकास एक जवाबदेह और समावेशी लोकतंत्र के खाके पर हासिल किया गया था। चीन के विपरीत विकास, लोकतंत्र की कीमत पर नहीं था या सत्तावादी दमन की इमारत पर नहीं बना था। एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के रूप में डॉ. सिंह के अत्यंत प्रभावशाली कार्य की यदि कोई अद्वितीय उपलब्धि है, तो वह 271 मिलियन लोगों को बहुआयामी गरीबी से बाहर निकालना है। यह आसान नहीं था. डॉ. सिंह के दो कार्यकालों में कई प्रमुख कानूनों का निरंतर और ऊर्जावान अधिनियमन और परियोजनाओं का कार्यान्वयन हुआ।
मनरेगा के साथ अनेक गरीबों के लिए लागू लिए कई कानून
2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन(एनआरएचएम), 2009 में भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई), महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005 (मनरेगा), बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 (आरटीई) ), 2011 में शहरों में गरीबों और बेघरों को आवास प्रदान करने वाली राजीव आवास योजना (आरएवाई), राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013, भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्वास में उचित मुआवजे और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013, जिसमें समानता की मांग की गई थी। भूमि अधिग्रहण के कारण किसानों और आजीविका से वंचित लोगों के लिए, और सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 उठाए गए कुछ कदम हैं। डॉ. सिंह का सदैव मार्गदर्शक प्रकाश, कल्याणकारी अर्थशास्त्र के प्रति उनकी गहरी और स्थायी प्रतिबद्धता थी। जगदीश भगवती और अरविंद पनगढ़िया जैसे कई आलोचक, जो अटलांटिक के दूसरी तरफ आराम से रह रहे थे, ने यह देखने से इनकार कर दिया कि नरेगा और अन्य कार्यक्रम गरीबी को कम करने के साथ-साथ एक बढ़ी हुई और निरंतर घरेलू मांग भी पैदा कर रहे थे जो इतनी थी विकास को गति देने में सहायक थी।
अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार में एक मौलिक अस्तित्व संबंधी समस्या है। यह पुरस्कार आर्थिक सिद्धांतकारों को जाता है। यहां तक कि स्वीडन के पूर्व मंत्री और प्रभावशाली नीति निर्माता गुन्नार मिर्डल जैसे अपवाद को भी उनके शैक्षणिक कार्यों के लिए नोबेल से पुरस्कृत किया गया था। यह नीतिगत स्तर पर काम करने वाले अर्थशास्त्रियों के पास कभी नहीं गया। ऐसा इसलिए है क्योंकि नोबेल समिति का मानना है कि अर्थशास्त्र एक सटीक विज्ञान है और वित्तीय मॉडल भौतिकी जैसे सटीक विज्ञान की तरह बनाए जा सकते हैं। हालाँकि, जमीनी स्तर का अर्थशास्त्र – जैसा कि डॉ. सिंह द्वारा निपटाया गया है-कहीं अधिक जटिल है और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को केवल सिद्धांतों के आधार पर नहीं, बल्कि निरंतर प्रवाह में विविध सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारकों के माध्यम से संचालित करना पड़ता है। अर्थव्यवस्था को मंत्रमुग्ध कर देने वाली विकास दर की ओर ले जाना, अर्थव्यवस्था में साहसिक संरचनात्मक परिवर्तन लाना और साथ ही लाखों भारतीयों को गरीबी से बाहर निकालना, एक औसत और गहरी उपलब्धि है जो किसी भी सैद्धांतिक अर्थशास्त्री की समझ और सामर्थ्य दोनों से परे है।
डॉ. सिंह ने भारत को एक बड़े आर्थिक संकट को टालने में मदद की थी और इसे चीन के मुकाबले उच्च विकास पथ (2004-2014) पर खड़ा किया था। नोबेल समिति के लिए डॉ. सिंह के काम पर गौर करने का समय आ गया है, जिन्होंने लोकतंत्र का त्याग किए बिना या जीडीपी में तेजी लाने की वेदी पर समावेशी विकास हासिल करने में सक्षम अर्थशास्त्र में उनके विश्वास को कम किए बिना लगातार अग्रणी आर्थिक उपलब्धियां हासिल की हैं। इतने वर्षों में जब मैं पद पर रहा हूँ, चाहे वित्त मंत्री के रूप में या प्रधानमंत्री के रूप में”, डॉ. सिंह की याद ताजा करती है , “मैंने सत्ता के उत्तोलक को एक सामाजिक विश्वास के रूप में उपयोग करने के लिए इसे एक पवित्र दायित्व के रूप में महसूस किया है जिसका उपयोग परिवर्तन के लिए किया जाना चाहिए’।‘ अर्थव्यवस्था और राजनीति, ताकि हम गरीबी, अज्ञानता और बीमारी से छुटकारा पा सकें जिससे अभी भी लाखों लोग पीड़ित हैं’ ।
प्रधानमंत्री के रूप में 10 वर्षों तक सेवा करने के बाद, 1.2 अरब पुरुषों और महिलाओं के देश को अपने आखिरी संबोधन में, वह विश्वास के साथ कह सकते थे कि ‘विकसित वैश्विक अर्थव्यवस्था के एक प्रमुख शक्ति केंद्र के रूप में भारत का उदय एक ऐसा विचार है जिसका समय आ गया है।‘ यह देखना होगा कि क्या समय आ गया है कि नोबेल समिति शिक्षा जगत में सबसे दुर्जेय अर्थशास्त्री डॉ. सिंह के 7 दशकों के काम को मान्यता दे और उसके बाद, वास्तविक समय में वास्तविक दुनिया में, दुनिया के सबसे महान लेखकों में से एक के रूप में अपनी प्रेरणा अर्जित करे सबसे दुर्जेय अर्थशास्त्री को’
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