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…. तो बेहतर होता!

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    ~ आरती शर्मा

ज़्यादा नहीं, मरने से बस दो या तीन दिन पहले
मुझे उसकी पूर्वसूचना मिल जाती,
कुछ पूर्वाभास सा हो जाता
तो बेहतर होता।
कोई बोझ नहीं होता,
हृदय पंख सा हल्का होता
और मैं यूँ लेटी रहती
जैसे अंतरिक्ष में मेरी चारपाई
इधर-उधर डोल-भटक रही हो
और मैं हुक्का गुड़गुड़ाती
शीरे में सना ख़ुशबूदार देसी तम्बाकू पीती
चीज़ों पर सोचने से मुक्त होती चली जाती
एकदम कुछ भी न सोचने की ओर,
कि जैसे चेतना हवा में घुल जाती
शरीर निष्प्राण होने से पहले।
बस इतनी सी अहमक़ाना चाहत है कि
थोड़ी मोहलत मिल जाये
सभी शिकायतों, उलाहनों, नापसंदगियों,
सफ़ाई देने जैसी इच्छाओं
और हर प्रकार की चिढ़ों, पूर्वाग्रहों ,
पश्चातापों, आत्मसंतुष्टियों,
और न पूरी हुई कामनाओं की
नासूर जैसी पीड़ा से मुक्त हो जाने के लिए।
न कोई वसीयत
न कोई विरासत
न अंतिम संदेश जैसी कोई चीज़
न कोई चाहत
न कोई शिक़ायत
न कोई स्मृति
न कोई सपना
न कोई अफ़सोस
न कोई इन्तज़ार
न कोई राग न कोई विराग
न लिखने को कोई कविता
न कहने को कोई कथा
न भरने को कोई खाता-बही।
जीवन जितना भारी हो
लदा-फदा प्रतिबद्धताओं, ज़िम्मेदारियों,
कामनाओं, दैहिकताओं, विचारों
और कविताओं और
मनुष्य-सुलभ सबकुछ से,
जिनका होना-पाना मुमकिन हो,
मौत उतनी ही भारमुक्त हो,
यह चाहत अपने आप में कविता जैसी ही है।
तो इसलिए सोचा बंधु,
कि इस बात को ही बयान करते हुए
एक कविता लिख दूँ
अपनी ख़ातिर
और अपनी तरह से सोचने वाले
सच्चे हृदय वाले उन थोड़े से कवि मित्रों की ख़ातिर
जो हारों और मायूसियों और विश्वासघातों के समय में
ग्रेनाइट की चट्टान जैसी मजबूत इरादों वाली
कविताएँ लिख सकते हैं
और ऐसी पारदर्शी, स्वच्छ, तरल कविताएंँ भी,
जिन्हें देखते ही
मामूलीपन का मुकुट पहने
निष्कपट लोग कह उठें
कि अरे, इनमें तो जैसे समूचा हृदय ही
उड़ेल कर रख दिया गया है!

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