पुष्पा गुप्ता
होइहैँ उहै जो राम रचि रखा (तुलसी) : पूछा गया, तो कुछ क्यों करें. कोई जगा देगा, खाना खिला देगा, ऐसोआराम करा देगा, सुला देगा या रोग-कष्ट देकर मार देगा. जो होना है, वो होगा ही. इसलिए कुछ नहीं करना बनता है.
कुछ न करें, यह भी करना होगा।
यह भी एक ढंग का करना है. कुछ न करें, यानी हम कुछ न करेंगे; यह नकारात्मक कृत्य है, लेकिन है कृत्य ही।
सब उसी पर छोड़ दें. यह छोड़ना भी कृत्य है। कौन छोड़ रहा है? छोड़ना क्या है? क्या छोड़ना क्रिया नहीं है?
‘होनी होय सो होय’ : तो फिर न तो कुछ करने को बचता है, न नहीं करने को बचता है; न तो कुछ पकड़ने को बचता है, न कुछ छोड़ने को बचता है। जो हो रहा है, ठीक हो रहा है; हम केवल दर्शक रह जाते हैं।
न पकड़ना है, न छोड़ना है; न करना है, न नहीं करना है। जो हो रहा है, हो ही रहा है। हम सिर्फ दर्शक रह गए, द्रष्टा रह गए. देखेंगे और देखने से इंच भर इधर-उधर नहीं जाएंगे, कर्ता नहीं बनेंगे। इस अर्थ को नहीं समझे तो भूल में पड़ोगे।
कबीर कहते हैं ‘होनी होय सो होय’. जो होना है सो होगा। तुम क्यों फिकर लेते हो? तुम क्यों चिंता में पड़ते हो? तुम तो द्रष्टामात्र हो। तुम्हें चिंता लेने का, संताप करने का कोई भी कारण नहीं। तुम तो देखो। दुखांत होगा नाटक तो ठीक और सुखांत होगा तो ठीक। तुम्हें क्या पड़ी है?
अगर सामने सवाल उठा कि, ‘तो क्या कुछ न करें? तब करने से न छूटोगे। अब दूसरा निर्णय लिया।
ऐसे निर्णय से हम बैठेंगे, कुछ न करेंगे।’ मगर वह बैठना भी कृत्य हो गया। जबरदस्ती बैठ जाओगे गुफा में जाकर, बार-बार देखोगे बाहर गुफा के कि अभी तक कुछ हो नहीं रहा है! होनी होय सो होय, मगर हो कुछ भी नहीं रहा है और हम बैठे हैं इतनी देर से! बैठने या शवासन में में आपका अहंकार ही रहेगा। यह कुछ बोध नहीं है। यह कोई समझ नहीं है। यह कोई प्रज्ञा से उठी क्रांति नहीं है।
आप कहते हो : सब क्या उसी पर छोड़ दें? तो क्या कुछ बचा लेने का इरादा है कि थोड़ा-बहुत तो बचा लें! मीठा-मीठा गप, कड़वा-कड़वा थू! कि बाकी तू सम्हाल। जब बुरा हो जाए तो कहेंगे ‘होनी होय सो होय’; और जब भला हो जाए तो झंडा लेकर निकल पड़ेंगे कि झंडा ऊंचा रहे हमारा! देखो यह हमने ही किया!
छोड़ोगे तुम! तो छोड़ना कृत्य हो गया। छोड़ने वाला है कौन? सब उस पर छूटा ही हुआ है। पागल हो, जो सोचते हो कि हम पकड़े हैं। सब उसी का है, सब उस पर ही छूटा हुआ है।
आप कुछ कर रहे हो, इस भ्रांति में हो। जो हो रहा है वही हो रहा है; आपके किए से कुछ भी नहीं हो रहा है। नाहक ही हाथ-पैर न मारो।
भोगी भी हाथ-पैर मारते हैं, त्यागी भी हाथ-पैर मारते हैं। संत वह है जो यह समझ लेता है : अपने हाथ-पैर मारने की बात ही नहीं। हम हैं ही नहीं, वही है! हम उसके अंग-मात्र हैं।
जैसे पानी की लहर..सागर की लहर..अलग तो हो नहीं सकती सागर से। सागर ही उसमें नाचता है तो नाचती है। सागर ही सो जाता है तो सो जाती है। यह बोध की बात है।
बस समझ लिया कि सब हो गया। आप और परमात्मा में भेद नहीं है। मान लिया है कि मैं अलग हूं तो झंझटें आ रही हैं। अब अलग मान लिया है तो कुछ करूंगा। और फिर अगर किसी ने कहा कि आपके करने से असफलता हाथ लगती है, दुख हाथ लगता है, तो आप कहते हो: अच्छी बात है, तो नहीं करेंगे! मगर करने की भाषा नहीं बदलती, वही की वही भाषा जारी रहती है। अपनी भाषा में जरा झांक कर देखो।
छोड़ोगे क्या? पकड़ोगे क्या? आप हो कहां? न पकड़ना है, न छोड़ना है. सिर्फ जागना है! मजा यह है : पकड़ो तो बने रहोगे, छोड़ो तो बने रहोगे. इसलिए ‘जागे कि ‘मैं’ मिटे, कर्तापन मिटे। ‘या मिट जाओ तो जाग जाओ।’ मिटना और जागना एक ही घटना के दो पहलू हैं। जागने में अहंकार नहीं बचता। अहंकार,अंधकार है, कैसे बचेगा? जागना प्रकाश है।
होनी होय सो होय’ इसका अर्थ समझो! इसका यह अर्थ नहीं है कि कुछ नहीं करना है, सब उसी पर छोड़ देना है। यह अर्थ नहीं है कि आलस्य में पड़ जाओ, कि अकर्मण्य होकर बैठ जाओ।
नहीं; जानो भलीभांति. आप कुछ नहीं कर रहे. सब वही कर रहा है आपके द्वारा! उसके हाथ हजार हैं। हम सब उसके हाथ। जो हो रहा है उसके द्वारा हो रहा है।
इस अर्थ को लोगे तो चिंता नहीं पकड़ेगी। गलत भी नहीं होगा आपसे. ईश्वर के हाथ बनोगे तो आपसे सही ही होगा. हारोगे तो उसकी हार, जीते तो उसकी जीत है। कैसी चिंता? कैसी अस्मिता? न अकड़ आएगी, न विषाद आएगा। जीवन से ऐसे गुजर जाओगे अछूते! कबीर की तरह अंतत: यह भी कहोगे : “ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया, ऐसे जतन से ओढ़ी कबीरा।”
तो बस,जीवन की पूर्णता आ गई, जीवन में फूल लगे, जीवन में सुगंध उड़ी, आप सार्थक हुए!
अन्यथा लोग ऐसे ही धक्के खाते हैं और मर जाते हैं। बहुत कम लोग हैं जिनके जीवन में फूल लगते हैं, कमल खिलते हैं. सब के जीवन में फूल लग सकते हैं. सबके जीवन में कमल खिल सकते हैं. बस जागो, स्व को साधो.