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जैनियों की अंदरूनी बातें:क्यों नहीं नहाते जैन संत

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   ~ डॉ. विकास मानव 

जैन मत के 24वें और अंतिम तीर्थंकर  महावीर स्वामी का जन्म करीब 2600 साल पहले कुंडलपुर, वैशाली (बिहार) में हुआ था। उनका जन्म का नाम वर्धमान था। पिता राजा सिद्धार्थ और माता त्रिशला के घर अवतरित हुए थे। उन्होंने कुल 72 साल इस दुनिया में गुजारे, जिसमें से 30 साल वह घर पर रहे। 

    माता-पिता ने शादी का प्रस्ताव रखा, पर उन्होंने विवाह मार्ग का त्याग कर संन्यास मार्ग चुन लिया। भगवान महावीर ने 12 साल तक साधना की और 42 साल की आयु में केवल ज्ञान (पूर्ण ज्ञान जिसमें तीनों लोक स्पष्ट दिखाई देते हैं) प्राप्त किया।

     इसके बाद 30 साल तक अहिंसा धर्म का प्रचार किया। वह कार्तिक कृष्ण अमावस्या के दिन इस धरती से प्रस्थान कर मोक्ष में विराजमान हुए।

*जैन मत की शाखाएं :*

 जैन मत की दो शाखाएं हैं- दिगम्बर और श्वेताम्बर। इनमें फर्क यही है कि दिगम्बर जैन मुनि वस्त्र धारण नहीं करते, वहीं श्वेताम्बर जैन मुनि श्वेत वस्त्र धारण करते हैं। श्वेताम्बर भी तीन अलग परंपराओं को मानते हैं। इनमें एक मूर्तिपूजक हैं, वे मूर्ति का श्रृंगार करते हैं। दूसरे, मूर्ति के बिना ही स्थानक में पूजा करते हैं। तीसरे श्वेतांबर तेरापंथी हैं जो मूर्ति पूजा के खिलाफ हैं। 

    दिगम्बर (दिक्+अम्बर) का मतलब है ‘दिशा ही जिसका अंबर यानी वस्त्र है’ और उसे ही धारण करना है। हालांकि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परंपराओं की महिला साध्वी श्वेत वस्त्र धारण करती हैं। 

     आत्मसाधना में सबसे बड़ी बाधा होते हैं 10 परिग्रह (क्षेत्र, मकान, सोना, चांदी, धन, धान्य, दास, दासी, वस्त्र और बर्तन)। दिगम्बर परंपरा में वैराग्य का मतलब है मन का संसार से उदासीन हो जाना। भगवान महावीर ने यह पहले अपने जीवन में उतारा और फिर मुनियों से कहा कि यह मार्ग अपनाएं। 

*चातुर्मास और त्योहार :*

बारिश (मॉनसून) के 4 महीनों में जैन मुनि चलते-फिरते नहीं क्योंकि बरसात में केंचुए, मेढक, टिड्डे, बिच्छू, चींटे आदि और कई तरह की वनस्पतियां जमीन पर दिखती हैं। उन्हें नुकसान न हो, इसका ध्यान रखा जाता है। इस दौरान वे एक स्थान पर रहकर धर्म के काम करते हैं। जैन समुदाय अगस्त-सितंबर में पर्युषण पर्व मनाता है। 

     श्वेताम्बर परंपरा में पर्युषण पर्व भाद्रपद कृष्ण त्रियोदशी को शुरू होता है और भाद्रपद शुक्ल पंचमी को खत्म हो जाता है यानी 8 दिन तक चलता है। आठवां दिन संवत्सरी का होता है। आखिरी दिन से दिगम्बर परंपरा का दशलक्षण पर्व शुरू हो जाता है, जो 10 दिन का होता है। 

    भाद्रपद शुक्ल पंचमी से शुरू होकर भाद्रपद शुक्ल चौदस तक चलता है। इसके एक दिन बाद क्षमावाणी पर्व दिगम्बर जैन मनाते हैं जो एक दिन का ही होता है। इस दिन जाने-अनजाने में होनेवाली गलतियों के लिए माफी मांगी जाती है।

*दिग्गम्बर वस्त्र त्याग

     वस्त्र त्यागने के पीछे जैन मत का प्रमुख सिद्धांत ‘अपरिग्रह’ है। दिगम्बर मुनि चारों दिशाओं को वस्त्र की तरह शरीर पर धारण करते हैं। ऐसा माना जाता है कि वस्त्र लोगों के विकारों (कमियों) को ढकने के लिए पहने जाते हैं। उनके मुताबिक वस्त्रों की व्यवस्था करना और साफ-सफाई में समय देना, क्या पहनें, कैसे पहनें जैसी चिंता करना भी दुनियादारी के जंजाल में फंसना है।

    *दिगम्बर परंपरा में पद :*

      आचार्य

यह सर्वोच्च पद है। आचार्य उन मुनियों को कहा जाता है जो आध्यात्मिक मार्गदर्शन करते हैं और संघ का नेतृत्व करते हैं। आचार्य का मुख्य काम शिक्षा और दीक्षा देना होता है। इस श्रेणी में आचार्य, ऐलाचार्य और लघुचार्य शामिल होते हैं।

    उपाध्याय

उपाध्याय का काम संघ में पठन-पाठन करने का होता है।

मुनि: मुनि का काम साधना और उपासना करना होता है।

*भोजन का नियम :*

दिगम्बर जैन मुनि पूरे दिन में केवल एक बार (आमतौर पर सुबह 10 से 12 बजे के बीच) भोजन करते हैं। जब वे आहार (भोजन) के लिए निकलते हैं तो विशेष विधियों और नियमों का पालन करते हैं। 

     सुबह देव-दर्शन के बाद विधि (नियम) ले लेते हैं। जब श्रद्धालु उनका पड़गाहन (विशेष स्वागत) करते हैं यानी वे प्रार्थना करते हुए शब्दों का उच्चारण करते हैं तो इस दौरान श्रद्धालुओं (श्रावकों) के पास नारियल, कलश और लौंग जैसे चीजों का होना जरूरी होता है। 

     अगर ये चीजें नहीं होतीं तो मुनि बिना आहार लिए लौट आते हैं। वे स्वाद के लिए भोजन नहीं करते। एक जगह पर खड़े होकर दोनों हाथों को मिलाकर अंजुलि बनाते हैं और उसी में भोजन करते हैं। अगर अंजुलि में भोजन के साथ कोई अपवित्र पदार्थ, बाल या जीव मिल जाए तो वे तुरंत अपने हाथ छोड़ देते हैं और उस भोजन को स्वीकार नहीं करते। इसके बाद वे पानी भी नहीं पीते। 

*जल पीने का तरीका :*

  दिगम्बर मुनि सिर्फ शुद्ध जल ही पीते हैं। वे कुएं या बोरिंग या धरती के किसी भी कुदरती स्रोत का जल पी सकते हैं। जल केवल 

एक बार भोजन करते वक्त ही लिया जाता है। वे जूस और दूध भी ले सकते हैं। लेकिन चाय-कॉफी या दूसरे ठंडे-गर्म ड्रिंक नहीं लेते.

*स्नान वर्जित :*

दीक्षा लेने के बाद जैन मुनि और साध्वी कभी स्नान नहीं करते क्योंकि वे अपने शरीर को अस्थायी और नश्वर मानते हैं। वे मानते हैं कि आत्मा की शुद्धि और पवित्रता केवल ध्यान, तपस्या और ज्ञान से ही संभव है, न कि शरीर की सफाई से। 

     दूसरा, स्नान करने से सूक्ष्म जीवों का जीवन संकट में पड़ सकता है। हालांकि वे गीले कपड़े से रोजाना अपने शरीर को पोंछ लेते हैं।

*हमेशा पैदल यात्रा :*

दिगम्बर मुनि हमेशा पैदल यात्रा करते हैं। वे वाहन या सवारी का इस्तेमाल नहीं करते। पैदल चलना उनकी साधना और तपस्या का हिस्सा है। आपातकाल में जब पैरों में ताकत न हो या इमरजेंसी हो तो वीलचेयर ले सकते हैं। उनका कोई स्थायी निवास नहीं होता इसलिए उनका कोई आई कार्ड जैसे पासपोर्ट या वोटर आईडी भी नहीं होता। 

*संलेखना के नियम :*

दिगम्बर जैन मुनि सल्लेखना (समाधि) करते हैं। माना जाता है कि जब इंद्रियां काम न करें और शरीर काम करना बंद कर दे तो उसे धर्म के लिए छोड़ दो। अपनी कषाय (मन के विकार) को कम करते हुए मुनि मीठा, भारी पदार्थ, घी-तेल से बनी चीज़ें छोड़ देते हैं और रूखी चीज़ें लेते हैं- जैसे छाछ, पानी या रूखा अनाज। फिर जैसे-जैसे पाचन क्रिया कम होती जाती है, आहार का त्याग करते जाते हैं। अंत में केवल पानी का प्रयोग करते है। इस तरह देह त्याग देते हैं।

*केश लोचन :*

दिगम्बर मुनि सबसे पहले परिजनों को मन से अलग करते हैं और फिर अपने शरीर के हर हिस्से के बालों को उखाड़ देते हैं। बाल उखाड़ते वक्त यह भावना रखते हैं कि इस कष्ट के साथ उनके पाप कर्म भी निकल रहे हैं। केशलोच के लिए कंडे (उपले) की राख का इस्तेमाल करते हैं ताकि हाथ की पकड़ अच्छी रहे। आचार्य, उपाध्याय और मुनि केशलोच के दिन उपवास रखते हैं।

*फोन का इस्तेमाल नहीं :*

दिगम्बर मुनि किसी भी तरह के इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जैसे फोन, कंप्यूटर, टीवी आदि से दूर रहते हैं। हालांकि प्रवचन के दौरान वे माइक्रोफोन इस्तेमाल कर सकते हैं। 

*सोने का तरीका :*

दिगम्बर मुनि आमतौर पर जमीन पर सोते हैं। वे बिस्तर या किसी आरामदायक जगह पर नहीं सोते क्योंकि उनका मकसद भौतिक सुखों से दूर रहना होता है।

*इलाज-सर्जरी :*

दिगम्बर मुनि साधना और तपस्या से ही अपने शरीर और मानसिक स्थिति को ठीक रखने की कोशिश करते हैं। वे अल्होकल, मांस और मधु से रहित दवाइयां यानी शुद्ध आयुर्वेदिक दवाएं ही लेते हैं। वे कुदरती इलाज को प्राथमिकता देते हैं। 

*ऐसे होती है साधना :*

दिगम्बर साधु अपनी साधना में पूर्ण रूप से आत्म-नियंत्रण, तपस्या और ध्यान को शामिल करते हैं। वे दिनभर ध्यान, योगाभ्यास करते हैं और धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करते हैं। यह अनिवार्य है कि बाहरी चीजों जैसे स्थान, इलेक्ट्रिक उपकरणों या श्रावकों के समूहों से कोई लगाव न हो। शाम के समय जैन मुनि प्रवचन भी करते हैं और श्रावकों की शंकाओं का समाधान भी। 

    ये रोजाना सुबह जल्दी उठकर बाहरी वस्तुओं से अपना संबंध खत्म करते हुए, केवल आत्मा के साथ संबंध स्थापित करके, राग-द्वेष से मुक्त होकर समभाव की स्थिति में, मध्यस्थ भाव के रूप में आत्मा में लीन होने के लिए ध्यान करते हैं।

*श्वेताम्बर परंपरा में पद :*

श्वेताम्बर परंपरा में आचार्य, उपाध्याय और प्रवर्तक ये प्रमुख पद होते हैं। प्रवर्तक एक प्रशासनिक पद होता है, जो संघ की गतिविधियों की निगरानी और देखरेख करता है। चूंकि साध्वी समुदाय की संख्या ज्यादा होती है, इसलिए महिला साध्वियों की व्यवस्था को सही तरीके से संभालने के लिए उन्हें भी प्रवर्तनी पद दिया जाता है।

   *भोजन का नियम :*

श्वेताम्बर परंपरा के मुनि सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक आहार (जिसे गोचरी कहते हैं) कर सकते हैं। आमतौर पर वे तीन बार भोजन करते हैं, जो समय के हिसाब से तय होता है। हालांकि कई मुनि और साध्वियां एक या दो बार भोजन करते हैं या उपवास करते हैं। मुनि अपना आहार गोचरी के हिसाब से घर-घर जाकर इकट्ठा करते हैं। मुनि किसी भी धर्म और किसी भी वर्ण के शुद्ध शाकाहारी घर से भोजन ले सकते हैं। 

*जल और तरल पदार्थ :*

मुनि पीने के लिए शुद्ध छना हुआ जल (जिसे प्रासुक कहते हैं) का सेवन करते हैं। इसके अलावा, वे दूसरे तरल पदार्थ जैसे दूध, चाय, छाछ आदि भी ले सकते हैं।

*वस्त्र पहनने का नियम :*

श्वेतांबर परंपरा के साधु लज्जा निवारण और तन को ढकने के लिए सूती कपड़े का उपयोग करते हैं। वे सफेद सूती वस्त्र पहनते हैं, जैसे मलमल और आम भाषा में तहमद, जिसे साधु की भाषा में चोल पट्टा कहा जाता है। यह कपड़ा थोड़ा मोटा होता है। इसके अलावा, वे ऊनी वस्त्र भी पहन सकते हैं, लेकिन असली ऊनी कपड़ा आजकल कम मिलता है, इसलिए वे एक्रेलिक से बने गर्म शाल या आसन का उपयोग करते हैं। हालांकि, मुख्य रूप से वे सूती वस्त्र ही पहनते हैं और केवल उतने वस्त्र लेते हैं जितने उनके उपयोग के लिए आवश्यक होते हैं। चातुर्मास के दौरान, वे चार महीने तक नए वस्त्र नहीं लेते। चातुर्मास से पहले वे उतने ही वस्त्र लेते हैं जिनसे उनका काम चार महीने तक चल सके। 

    :मुंह पर पट्टी*

श्वेताम्बर परंपरा की तीन मुख्य धाराएं हैं: श्वेताम्बर श्रृंगारी मूर्ति पूजक, दूसरा श्वेताम्बर स्थानकवासी और तीसरा श्वेताम्बर तेरापंथी। इनमें से केवल दो परंपराओं के मुनि स्थानकवासी और तेरापंथी अपने मुंह पर वस्त्रिका (कपड़ा) लगाते हैं, खासकर यह सुनिश्चित करने के लिए कि हवा में मौजूद किसी सूक्ष्म जीव की हत्या अनजाने में भी न हो जाए। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परंपरा वाले अपने मुंह पर वस्त्रिका नहीं लगाते। इसके बजाय वे उसे रुमाल की तरह मोड़कर शास्त्र की गाथा कहते वक्त या पूजा-पाठ करते हुए मुंह पर लगा लेते हैं। स्थानकवासी और तेरापंथी परंपराओं में साधु वस्त्रिका को डोरे में बांधकर कान से लटकाते हैं।

*पैदल या सवारी :*

श्वेताम्बर मुनि पैदल चलते हैं। हालांकि, कुछ मुनि जिन्हें शारीरिक पीड़ा हो या बुजुर्ग हो, इसका पालन नहीं करते और वीलचेयर ले लेते हैं। हालांकि, कुछ श्वेतांबर मुनि विदेश यात्रा करते हैं, लेकिन यह अपवाद है। हालांकि श्वेतांबर मुनियों का आई कार्ड होता है। 

*संलेखना नियम :*

श्वेताम्बर परंपरा में संलेखना (संथारा भी कहते हैं) का पूर्ण विधान है। जब ऐसा लगे कि अब यह देह आगे ज्यादा चलाने लायक नहीं है, तब इस प्रक्रिया में साधक धीरे-धीरे अपने खाने-पीने की चीजों को कम करता जाता है। समाधि के दौरान श्वेतांबर मुनि शरीर से जुड़े सभी भौतिक सुखों का त्याग कर देते हैं और अंत में केवल ध्यान में 

लीन रहते हुए शारीरिक रूप से निष्क्रिय हो जाते हैं। संथारा लेने से पहले आचार्य से अनुमति ली जाती है। लेकिन संथारा अनिवार्य नहीं है।

*फोन का इस्तेमाल :*

श्वेताम्बर मुनि-साध्वियां भी अपने आराम के लिए इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल नहीं करते। हालांकि प्रचार के मकसद से कर सकते हैं।

     *केश लोच :*

यह साल में दो बार होता है। चातुर्मास के दौरान, जब पर्युषण पर्व मनाया जाता है। उसमें संवत्सरी पर्व आता है और उससे पहले केश लोच अनिवार्य रूप से किया जाना चाहिए। दूसरा केश लोच होली पर चातुर्मासिक अवसर पर किया जाता है।

*सोने का तरीका :*

मुनि का धर्म है कि वे अपनी शारीरिक आवश्यकताओं के अनुसार कम मात्रा में नींद लें। कोई मुनि बुजुर्ग या बीमार हो तो दिन में भी थोड़ी देर विश्राम कर सकते हैं।

    *इलाज-सर्जरी :*

बीमारी के दौरान बिना अल्कोहल वाली दवाओं का इस्तेमाल करते हैं, जैसे आयुर्वेदिक, एलोपैथिक आदि दवाएं। जरूरत पड़ने पर सर्जरी भी। 

     *साधना :*

श्वेताम्बर मुनि ब्रह्म मुहूर्त में उठकर सबसे पहले प्रतिक्रमण (विशेष अनुष्ठान) करते हैं। इसमें व्यक्ति अपने विचारों, वाणी या कामों से, जानबूझकर या अनजाने में, किसी भी जीव को हुई किसी भी हानि के लिए क्षमा मांगता है। कुछ साधक ध्यान और जाप करते हैं और कुछ शास्त्र अध्ययन करते हैं। सूर्योदय के बाद वे दैनिक क्रियाओं में व्यस्त हो जाते हैं। स्वाध्याय उनके जीवन का अहम हिस्सा होता है। कई जगहों पर उनकी प्रार्थना सभाएं और प्रवचन होते ही हैं। वे समय पर आहार ग्रहण करते हैं। फिर लोगों से संवाद करते हैं। सूर्यास्त से पहले जरूरी काम कर लेते हैं और सूर्यास्त के बाद शाम का प्रतिक्रमण करते हैं। 

     फिर जाप और पाठ करके आराम करते हैं। उनकी साधना के तरीके में मौन व्रत, तपस्या, स्वाध्याय, गाथाओं को याद करना, नई रचनाओं का सृजन और ग्रंथ लेखन भी शामिल हैं।

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