प्रफुल्ल कोलख्यान
अब झारखंड और महाराष्ट्र विधानसभाओं के चुनाव की प्रक्रिया 20 नवंबर 2024 को ‘मतदान प्रक्रिया’ के पूरी होने और 23 नवंबर 2024 को सभी उप-चुनाव के परिणाम निकलने के दिन गिने-चुने रह गये हैं। चुनाव और चुनाव परिणाम तो लोकतंत्र में महत्वपूर्ण होते ही हैं। लेकिन इस समय चुनौती सत्ता के अदल-बदल से कहीं अधिक है। लोकतंत्र के सामने प्रमुख चुनौती लोकतांत्रिक सत्ता के लोकतांत्रिक चरित्र को बचाये रखने की है।
दुनिया भर के शासक समूहों में लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति सम्मान के भाव में भारी गिरावट आई है। लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट से मानवाधिकार के सारे प्रसंग धूमिल हुए हैं। भारत जैसे देश में मानवाधिकार के सवाल राजनीतिक और सामाजिक रूप से ही नहीं सांस्कृतिक रूप से भी बहुत जटिल रहा है। ये जटिलताएं धर्म के परिसर में बनी और हिंदू व्यवस्था में अपरिवर्तनीय रूप में प्रचलित और राज-पोषित वर्ण-व्यवस्था के कारण बनी हैं।
वर्ण-व्यवस्था का सब से बड़ा दोष यह है कि इस में योग्यताओं को निर्योग्यताओं से प्रतिबंधित कर दिये जाने के प्रावधानों को लागू करने के लिए बहुतेरे उपाय हैं। इन उपायों का संबंध अंतर्गुंफित धार्मिक मूल्यों, सांस्कृतिक नैतिकताओं, राजनीतिक गतिविधियों से जरूर है। ये जटिलताएं सामाजिक संबंधों में टीसती हुई रसौलियों की तरह बनी रही हैं।
आजादी के आंदोलन के दौरान डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के राजनीतिक प्रयासों और महात्मा गांधी के समाज-धार्मिक प्रयासों से इन रसौलियों के उपचार की प्रक्रिया शुरू हुई। बाबासाहेब और महात्मा गांधी की उपचार दृष्टि में महत्वपूर्ण भिन्नता थी। बाबासाहेब के मन में यह बात रही होगी कि एक बार आजादी मिल जाने के बाद महात्मा गांधी के उपचार संबंधी प्रयास अपनी तेजस्विता और प्रासंगिकता दोनों खो देंगे, जिस के बाद में सच हो जाने से आज इनकार नहीं किया जा सकता है।
बाबासाहेब की उपचार संबंधी दृष्टि राजनीतिक और संवैधानिक उपायों की मांग करती थी। हालांकि बाबासाहेब यह भी जानते थे कि सामाजिक स्तर पर स्वीकृति नहीं होने से उपचार संबंधी राजनीतिक और संवैधानिक प्रावधानों को लागू करना मुश्किल ही होगा। इस अर्थ में महात्मा गांधी के प्रयासों के महत्व को भी बाबासाहेब जानते और स्वीकार करते थे।
आज का लोकतांत्रिक भारत एक स्तर पर उन्हीं मुश्किलों से जूझ रहा है। इन्हीं मुश्किलों से जूझने के औजार के रूप में जातिवार जनगणना को देखा जा सकता है। देखा जा सकता है कि किस प्रकार राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी सत्ता हासिल करने के बाद किस तरह से जातिवार जनगणना के सवाल का मुकाबला कर रही है। जातिवार जनगणना में आरक्षण का प्रसंग तो है ही, लेकिन मूल प्रसंग है भारत की सामग्रिक न्याय व्यवस्था में विवेक के पासंग को पहचानने का।
विवेकहीनता और विक्षिप्त विवेक की कारसाजी और कारस्तानी के चलते भारत की सामग्रिक व्यवस्था के न्याय-विमुख होते जाने के भारत में आंतरिक उबाल है। इस आंतरिक उबाल को सिर्फ बाहर-बाहर से दिख जानेवाले उथल-पुथल के सामयिक विश्लेषण से समझना मुश्किल भी है और भ्रामक भी है। कहना न होगा कि भ्रामक वाग्मिता (Misleading Rhetoric) अब लगभग बेअसर हो गई है।
चुनाव परिणाम के बाद राजनीति के एक प्रसंग में नये सिरे से राज्य-शक्ति के सक्रिय होने के गहरे लक्षण दिख रहे हैं। राज्य-शक्ति की सक्रियता का वास्तविक स्वरूप और प्रभाव क्या होगा अभी से समझा तो जा सकता है लेकिन कहा नहीं जा सकता है, बस थोड़ा इंतजार!
दुनिया के महत्वपूर्ण देशों की व्यवस्था में और खासकर भारत की पारंपरिक व्यवस्था में पहले से ही मानवाधिकार और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति बहुत सम्मान नहीं रहा है। दुनिया के अन्य देशों में मैग्ना कार्टा लिबरटैटम (1215), फ्रांसीसी क्रांति (1789-1799), और रूसी क्रांति (1917) से वैश्विक स्तर पर मानवाधिकार और लोकतंत्र के लिए व्यवस्था में जगह बनी। विश्व-युद्धों से इस जगह का महत्व अधिक गंभीरता से स्थापित हो गया। ‘शीत युद्ध’ एवं तमाम राजनीतिक उथल-पुथल और विपरीत वैश्विक परिस्थितियों के बावजूद लोकतंत्र और मानवाधिकार के प्रति संवेदनशीलता और सतर्कता बरतने का ध्यान शासक समूहों ने रखा।
1990 के बाद उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण (उनिभू) ने जो रफ्तार पकड़ी। उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण (उनिभू) के भूमंडलीकरण में छिपा ‘राष्ट्र-तत्व’ और उदारीकरण में अंतर्निहित ‘उदारता’ का ‘सब कुछ’ सिमटकर ‘निजीकरण’ में समाहित हो गया। भारत में तो और भी गजब हो गया! भारत में ‘निजीकरण’ का मतलब राष्ट्र के ‘सब कुछ’ का स्वामित्व कुछ ही घरानों के निजी हाथों में सिमटते चले जाना हो गया! इस में होनेवाली बाधाओं को दूर करने के लिए ‘अनुकूल राजकीय नीतियां’ बनने लगीं। मामला यहीं तक नहीं रुका, व्यापारिक और पूंजी घराने राज-काज में राजनीतिक हस्तक्षेप करने की ओर बेझिझक बढ़ने लगे।
निर्वाचित सरकार पर अ-निर्वाचित शक्तियों के कब्जा की राज-दशा (Deep State) सामने आने लगी। लोकतांत्रिक सरकार बहुत तेजी से कॉरपोरेट सरकार में बदलने लगी। संवैधानिक संस्थानों का बेजा इस्तेमाल बाधक राजनीतिक दलों, विपक्ष के नेताओं के खिलाफ विवेकहीन ढंग से होने लगा। तैनाती-तरक्की-तबादला के चक्र और चक्कर में फंसे नौकरशाहों का क्या हुआ, ‘शक्ति के पृथक्करण’ के सिद्धांत का क्या हुआ! यह बहुत कठिन प्रसंग है। इस पर भविष्य में बहुत सारी पुस्तकें लिखी जा सकती है। अभी तो इतना ही कि इस प्रकरण में लोकतंत्र की पहले से संकुचित जगह और अधिक संकीर्ण होती चली गई।
जीवन में वह मुश्किल क्षण होता है, जब शक्ति-हीन आदमी के पास सहज आत्म-बोध के शब्दहीन कथ्य के अलावा कोई सबूत नहीं होता है। बेवकूफ, कभी-कभी तो राजद्रोही तक, समझ लिये जाने का जोखिम उठाने से कतरानेवाले कभी सही बात बोल नहीं सकते हैं। सच कहने के लिए जोखिम से अनजान बच्चों जैसी मासूमियत या सुकरात जैसा हौसला, हिम्मत और हुलास चाहिए। वह कहां मिलेगा! बच्चों जैसी मासूमियत, कभी हार न मानने वाला हौसला, कभी न पस्त होने वाली हिम्मत और आग में फूल खिलाने का हुलास हो तभी कोई बिना हकलाये कह सकता है कि राजा नंगा है! यह सब न हो तो ‘दहाड़ते मिथ्या-तत्व’ के सामने जीवनयापन का सच बहुत मुश्किल से टूटनेवाली खामोशी की चादर में खुद को लपेटने लगता है।
भारत के वर्तमान शासक समूह ने अतीत की भ्रामक महानताओं, कल्पित और सम्मोहक भविष्य के धागों से बुने गये सुनहरा जाल को फैलाकर मतदाता समाज को ‘वर्तमान विमुख’ बनाने में गजब की सफलता हासिल कर ली। मतदाता समाज को भारत के वर्तमान शासक समूह ने अपनी आत्म-मुग्धता के दल-दल में घसीट लिया।
हिंदुत्व की राजनीति की मूल शक्ति हिंदू-मुसलमान के तनाव से निकलती है। यहां गौर करने लायक बात यह है कि न तो सभी हिंदू एक ही स्थिति के हैं और न मुसलमान ही एक स्थिति के हैं। पहले भी नहीं थे, न हो सकते हैं। आबादी के अपने-पराये होने का कोई एक ही आधार सक्रिय नहीं होता है।
एक आधार पर कुछ लोग अलग समूह में गिने जा सकते हैं तो दूसरे आधार पर वे एक समूह में गिने जाते हैं। धर्म का आधार लेने पर कृष्ण और करीम अलग-अलग समूह में गिने जायेंगे लेकिन आर्थिक आधार पर गिने जायें तो हो सकता है कि वे एक ही समूह में गिने जायें।
कहने का आशय यह है कि विभिन्न आधारों पर विभिन्न समूह बन सकते हैं और बनते भी हैं। सीधा, सरल और सहज बुद्धि से समझा जा सकता है कि जीवन के जितने आधार होते हैं उतने ही सामाजिक-समूह भी होते हैं। विभिन्न सामाजिक-समूहों में होना उन के बंटे होने का नहीं जीवंत होने का नैसर्गिक लक्षण है।
सिर्फ ‘मतदान’ के लिए एकजुट होना या एकत्र होना एक होने का लक्षण नहीं, भेड़िया धसान का लक्षण होता है। आम लोगों की समझ में भेड़िया धसानों का मतलब खूब आता है। भेड़िया धसानों और भगदड़ों से रोज-रोज जमीन पर जूझनेवाले लोगों को ऊंचे-ऊंचे मचान पर बैठकर नफरती चीख के साथ राजनीतिक ठगी के ठहाके लगानेवाले भेड़िया धसानों का मतलब भला क्या समझायेंगे!
असल में हिंदू-मुसलमान के तनाव के दुश्चक्र में दोनों तरफ से गरीब, वंचित लोग ही फंसते हैं। दोनों तरफ के अपने-अपने शक्ति-संपन्न अपराधी होते हैं। कई बार उस तरफ के अपराधी को इस तरफ से ‘शक्ति’ मिलती है तो कई बार इस तरफ के अपराधी को उस तरफ से संरक्षण मिलता है। बीच में मारे जाते हैं दोनों तरफ के ‘गरीब लोग’। जनता की जिंदगी तो हर बार बुरी तरह से प्रभावित होती है। ऐसे उपद्रव और फसाद के समय लाचार लोग अपने-अपने धर्म के ‘‘महा-पुरुषों’’ के पास अपनी-अपनी आत्मा को गिरवी रखकर जान की भीख मांगने पहुंचते हैं।
आत्मा को गिरवी रखकर जान बचानेवाला एहसानमंद आदमी एक वोट तो जान बचानेवालों के कहे अनुसार कम-से-कम अपना एक वोट देकर एहसान का बोझ थोड़ा तो हलका कर ही सकता है और करता भी है। कैसे न करे? संकट के समय ये आत्मा को गिरवी रखकर कर जान की भीख देनेवाले ‘महा-पुरुष’ देवताओं और फरिश्ताओं की तरह से प्रकट होते हैं। देवताओं और फरिश्ताओं ने इस तरह से भी लोकतंत्र की जन-भूमि, ‘पब्लिक स्फीयर’ को अपने दखल में ले लिया है।
जिस विचार या विचारधारा का कोई राजनीतिक, आर्थिक परिणाम और सामाजिक प्रभाव नहीं निकलता है, उस की वैधता और स्वीकृति होने के बावजूद उस की व्यावहारिक स्वीकार्यता कमजोर होने लग जाती है। विचारधारा की लड़ाई का सामाजिक स्तर पर बहुत महत्व है लेकिन व्यक्ति के स्तर पर नमक-रोटी का अपना महत्व है। विचारधारा की लड़ाई सचमुच बहुत बड़ी है। आम आदमी के लिए तो नमक-रोटी की लड़ाई भी कम बड़ी नहीं होती है! गरीब आदमी यह दोहरी लड़ाई नहीं लड़ पाता है। उस के एक वोट पर सब की टकटकी लगी रहती है।
‘मतदान’ की गोपनीयता के खंडित होने के कई पवित्र उपायों में से एक है गिरवी आत्मा की आंख में झांक लेना! हार के लिए सामूहिक जिम्मेवारी निर्धारित करना और लोगों को एक दूसरे से पांच साल तक ‘त्यौहारों’ के समय परस्पर लड़ाते-भिड़ाते रहना। इस तरह लड़ाते-भिड़ाते से नफरती माहौल की लौ कम नहीं होती है।
कुछ लोगों को नफरती माहौल में एकता के सूत्र और सत्ता की सफलता के पुष्प-पराग भले ही मिलते हों, जनता का जीवन तो तबाह हो रहता है। जनता के जीवन में पुष्प-पराग नहीं केवल कांटे, कांटे और कांटे ही चुभते रहते हैं। वे जानते हैं नफरती माहौल विपक्ष के लिए आपदा और उन के लिए अवसर है। वे इस अवसर को कभी हाथ से जाने नहीं देते हैं।
भारत के लोकतंत्र का अधिकतर हितधारक अपनी समझ का अधिकांश नमक-रोटी के अवसरों को विकसित कर रोटी-नमक-प्याज के जुगाड़ में लगा देता है। भारत का अधिकतर मतदाता ‘लोकतांत्रिक पहरा’ में रहता है। भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में लोकतंत्र के लिए जगह बचाने का काम फिलहाल चुनौतियों घिरा हुआ है। क्या स्थिति ऐसी ही रहेगी, यह तो ‘बड़ों’ को सोचना ही होगा। कहीं ऐसा न हो कि सोचने-समझने का काम पूरा होने के पहले ही सभ्यता की वर्तमान व्यवस्था के गर्भ में कोई महा-विस्फोट हो जाये! बस डरे हुए मन की आशंका भर है। उपयोगितावाद की अतियों की बात रहने दें तो लोकतंत्र के संदर्भ में यह सवाल तो उठता ही है न कि उपयोगिता के अलावा जीवन और लोकतंत्र के बीच संबंध का और क्या बल्कि क्या-क्या आधार हो सकता है?
निश्चित रूप से लोकतंत्र वह जैसा भी है, महत्वपूर्ण है। अब लड़ाई चुनावों में जीतने-हारने की नहीं लोकतंत्र के बचाये रखने की है, बाहर भी भीतर भी। जाहिर है कि रोटी-नमक-प्याज के लिए किये जानेवाले संघर्ष और विचारधारा की लड़ाई को अलग-अलग समझना भारी भूल होगी। लंबे समय से यह भूल दुहराई जाती रही है, नतीजा सामने है। वक्त अभी भी है! क्या कहते हैं एन चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार! वे जो भी कहें, लोगों को तो समझना ही होगा कि सवाल सत्ता हासिल करने का नहीं सत्ता के लोकतांत्रिक चरित्र को बचाने का है! फिर कहें, राजनीतिक संघर्ष में मुख्य सवाल सत्ता का नहीं, लोकतंत्र की कारगर जगह को बचाने का है!(
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