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कहानी : रामू की कविता

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सुधा सिंह

समय बीतने के साथ रामू ज्यादा से ज्यादा शक्तिशाली होता चला गयाइं रामू जो भी चाहता, कर और पा सकता थाI लेकिन फिर भी कहीं कोई कमी रह गयी थी, कोई अतृप्ति, कोई अपूर्ण आकांक्षा जो रामू को लगातार सालती रहती थीI

आखिर धीरे-धीरे रामू ने अपनी उस चाहत की भी शिनाख्त कर ली I रामू का मन कविता लिखने को ललक रहा थाI रामू ने बहुतेरे कवियों पर कृपा की थी, उन्हें पद-पीठ-प्रतिष्ठा दी थी I पर स्वयं कविता लिखने की बात ही कुछ और थी Iशब्दों का यह खेल रामू को जादू सरीखा लगता थाI
बचपन में गुरूजी के खूब डंडे खाकर भी रामू किसी कविता की दो पंक्तियाँ याद नहीं कर पाता थाI बहरहाल, रामू ने अपनी यह दिली चाहत अपने अकेले राज़दार दोस्त श्यामू तड़ीपार के सामने रखी I फिर क्या था, रामू को कविता सिखाने के लिए फ़ौरन एक तजुर्बेकार उस्ताद को उनके घर से टांग लाया गयाI
उस्तादजी ने रामू को कविता के रहस्य, गुर और तकनीक सिखाने की शुरुआत छन्दशास्त्र और सौंदर्यशास्त्र की पढ़ाई से कीI सौन्दर्यशास्त्र के अमूर्तनों से तो रामू को न जाने क्यों उबकाई सी आने लगती थीI उसने फैसला सुनाया कि वह बिना सौंदर्यशास्त्र पढ़े कविता लिखेगा.
उस्तादजी ने कहा, कोई बात नहीं और फिर छंदशास्त्र पढाने लगे, क्योंकि उनका मानना था कि छंदमुक्त कविता में भी जीवन की लय वही साध सकता है जिसे छंदों का अभ्यास हो I रामू को सैनिक अनुशासन पसंद था, इसलिए वह भी छंदबद्ध कविता को ही कविता मानता था क्योंकि उसमें शब्द उसे बेहद अनुशासित लगते थे I लेकिन छंदशास्त्र की जब पढ़ाई शुरू हुई और मात्रिक-वर्णिक छन्द आदि के बारे में बताया जाने लगा तो रामू का भेजा हिल गयाI
उसने उस्तादजी को गुर्राकर आदेश दिया कि वह उसे कविता लिखने का शॉर्टकट बतायें और छंदशास्त्र के पचड़े में न फंसायेंI उस्तादजी का माथा घूम गयाI गला सूख गयाI

फिर उन्होंने रामू को एक आसान रास्ता बताया I सबसे पहले उन्होंने रामू को शब्द खोजकर तुक मिलाने की तरक़ीब बताई I उन्होंने बताया कि पहले इन शब्दों को नोट कर लीजियेI फिर इनके पीछे भाव के हिसाब से वाक्य जोड़ देने होंगे और उनकी मात्राएँ गिनकर समान कर देनी होंगी जोड़-तोड़ करके I रामू खुश हुआ I सबसे पहले उसने राष्ट्रीय गौरव पर कविता लिखने के लिए तुक वाले शब्द जुटाने शुरू कियेI
‘देश’ से तुक मिलाकर उसने दूसरा शब्द ढूंढा — ‘गणवेश’, फिर ‘कलेश’, ‘पेश’, ‘शेष’ और ‘ठेस’I तुक वाले कुछ शब्द तो मिल गए पर लाख कोशिश करके भी रामू कविता नहीं लिख पायाI फिर रामू ने गंगा पर कविता लिखने के लिए तुक वाले शब्द जुटाने शुरू कियेI ‘गंगा’ के तुक में सिर्फ ‘चंगा’,’नंगा’,’लफंगा’,’पंगा’ और ‘दंगा’ शब्द ही उसके दिमाग में आये और यह कविता भी बनने से रह गयीI

फिर उस्तादजी ने सलाह दी कि पहले बिना विषय सोचे वह किसी भी शब्द से तुक मिलाने का अभ्यास करेI उन्होंने रामू को जब ‘छन्द’ शब्द से तुक मिलाने को कहा तो रामू ‘कलाकंद’,’दंदफंद’,’मतिमंद’ और ‘गंद’ से आगे कुछ भी नहीं सोच पायाI हारकर उस्तादजी ने नयी तरक़ीब निकालीI उन्होंने रामू से कहा कि उसके दिमाग में बस जो भी ख़याल आयें, उन्हें वह गुनगुनाता जाये और तुक मिलाता जायेI
कभी-कभी इसतरह से भी, दिल में जो भाव होते हैं, वे स्वतः कविता में आ जाते हैंI

कई दिनों तक गुनगुनाते रहने के बाद आखिरकार रामू से एक कविता बन ही गयी जो कुछ इसतरह थी :
“आना जी आना हमारे दर आना
टेंट में हो जो कुछ, हमें दे जाना
हम हैं फ़कीर, हमसे क्या पाना
चलो नापो रस्ता, सुनाओ मत ताना. “
इन पंक्तियों के बाद अचानक रामू को अपने स्वच्छता मिशन की याद आ गयी और तुरत उसके मुंह से यह पंक्ति निकल पडी —
“खुले में कभी मत करना पाखाना.”

इस कविता को सुनाने के बाद उस्तादजी को दिल का दौरा पड गयाI लेकिन रामू ने अपना अभ्यास उत्साहपूर्वक जारी रखा और अर्थ सोचे बिना कई दिनों तक कुछ-कुछ गुनगुनाता रहाIफिर उसकी जो दूसरी कविता बनी, वह कुछ इसतरह थी :
“ये तो अपना धंधा है
भले कहो तुम गन्दा है
थैली-थैली चन्दा है
धंधा फिर भी मंदा है
लोकतंत्र का फंदा है
खुश अपना हर बन्दा है.”

उस्तादजी तब अस्पताल की बेड पर लेटे थे I कविता सुनकर वे कराहते हुए बोले, “यह कविता बहुत यथार्थवादी है और आजकल यथार्थवाद चलन में नहीं है I” पास में श्यामू बहुत चिंतित खडा थाI उसने सकुचाते हुए कहा,”सरजी, ये दिल की बात अपने आप कविता में आ जाने वाली तकनीक कुछ ठीक नहीं है, इससे काफी समस्याएँ पैदा हो सकती हैंI”

बात कुछ-कुछ रामू की समझ में भी आने लगी थीI रामू को अब कविता से नफ़रत होने लगी थी, लेकिन फिर भी उसे लगता था कि एक ताकतवर आदमी की ख्याति एक कवि के रूप में भी होनी ही चाहिएI सवाल अब चाहत का नहीं बल्कि ज़रूरत का थाI अतः कुछ ज़रूरी फैसले लिए गएI उस्तादजी को रामू के लिए कविता लिखने का काम सौंप दिया गया और उन्हें साहित्य अकादमी का अध्यक्ष बना दिया गयाI

रामू कविता भी लिखता है — इस बात से रामू की प्रतिष्ठा में चार चाँद लग गएI रामू वास्तव में कविता से नफ़रत करता है लेकिन कवियों को पालतू बनाना उसे अच्छा लगता हैI
कुछ कवि रामू को पितातुल्य, कुछ भ्रातातुल्य, कुछ गुरुतुल्य और कुछ ईश्वरतुल्य बताते हैं I रामू खुश होता हैI

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