डॉ. प्रिया
*कर्माकर्मविहीनञ्च क्रियाकारकवर्जितम् ।*
*निष्कलं निश्चलं शान्तं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ||*
एक शिष्ट ने एक दिन. एक सन्त से इस प्रकार प्रश्न किया :
शिष्टः महाराज ! श्रुति- स्मृतिरूप शास्त्र में विधान किये हुए अर्थ का नाम कर्म है और शास्त्र में निषेध किये अर्थ का नाम विकर्म है , यह बात तो समझ में आती है । शास्त्रविहित कर्म करना चाहिये और शास्त्रनिषिद्ध कर्मसे बचना चाहिये , यह ठीक है ; परन्तु अकर्म क्या है , यह समझ में नहीं आता।
कर्म न करने को यानी चुपचाप बैठ जाने को अकर्म कहें तो यह बन नहीं सकता , क्योंकि चुपचाप बैठना हो ही नहीं सकता. चुपचाप बैठने से तो प्राणी का जीवन ही नहीं रहेगा। कारण खाने पीने , चलने फिरने , व्यापारादि करने से ही तो प्राणियोंका जीवन चलता है । तब चुपचाप बैठना तो अकर्म का अर्थ है नहीं , फिर अकर्मका क्या अर्थ है ?
गीतामें कर्म में अकर्म देखने को और अकर्म में कर्म देखने को कहा है. ऐसा देखने वाले को बुद्धिमान् बताया है. यह बात समझमें नहीं बैठती। कृपा करके सरल रीतिसे समझाइये।
सन्त : कर्म , विकर्म और अकर्म का स्वरूप बताने के लिये ही भगवान ने कहा है :
*कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्रकर्मकृत् ॥*
( गी ०४।१८ )
हे अजुन ! देह , इन्द्रिय , बुद्धि आदि का श्रुति – स्मृतिरूप शास्त्र – विहित जो व्यापार है , उसका नाम कर्म है और शास्त्र – निषिद्ध व्यापार का नाम विकर्म है।
यह कर्म – विकर्मरूप कर्म वस्तुतः तो देह – इन्द्रियादि में ही रहता है , असङ्ग आत्मा में कर्म नहीं रहता तो भी वह व्यापाररूप कर्म मैं करता हू ‘ ऐसा सबको अनुभव होता है यानी सब अपने को कर्ता मानते हैं।
इस प्रतीति के बल से आत्मा में कर्म आरोपण करने में आता है । जैसे नदी के किनारे के वृक्षों में यद्यपि वास्तव में चलनरूप क्रिया नहीं होती तो भी नौका में बैठे हुए पुरुष नौका के चलने से नदी के किनारे के वृक्षों में चलनरूप क्रिया का आरोपण करते हैं.
इसी प्रकार शास्त्र – विचार से रहित मूढ पुरुष अक्रिय आत्मा में देहेन्द्रियादि के व्यापार रूप कर्म का आरोपण करते हैं।
आत्मामें कर्म आरोपित है. वस्तुतः आत्मा अकर्ता है. इस प्रकार विचार कर आत्मा में कर्मका अभाव देखना ही कर्म में अकर्म देखना है।
भाव है कि जैसे नौका में बैठे हुए पुरुष यद्यपि किनारे के वृक्षों में चलनरूप कर्मका आरोपण करते हैं तो भी वस्तुतः वृक्षोंमें चलनरूप क्रिया नहीं है. इसी प्रकार मूढ पुरुष यद्यपि अक्रिय आत्मा में देहादि के व्यापाररूप कर्म का आरोपण करते हैं तो भी अक्रिय आत्मा में परमार्थ से कर्मो का अभाव ही है , इस प्रकार देखना कर्म में अकर्म देखना है।
देह – इन्द्रियादि सत्वादि तीनों गुण वाली माया का परिणाम है इसलिये देहादि सर्वदा व्यापाररूप कर्म करने वाले हैं , उन देहादिमें वस्तुतः कभी भी कर्मका प्रभाव नहीं होता तो भी देह – इन्द्रिय आदि में कर्म के अभाव का आरोपण होता है।
दूर देश में चलते हुए पुरुषोंमें यद्यपि वस्तुतः गमनरूप क्रियाका अभाव नहीं है तो भी दूरत्वरूप दोष के कारण उनमें गमनरूप क्रिया के अभाव का आरोपण किया जाता है , अथवा जैसे आकाश में स्थित चन्द्र नक्षत्र आदि में वस्तुतः गमनरूप क्रिया का आभाव नहीं है , वे सर्वदा चलते ही रहते हैं , तो भी दूर के कारण उन चन्द्रादि में गमनरूप क्रिया के अभाव का आरोपण होता है । इसी प्रकार सदा व्यापाररूप कर्म वाले
देह – इन्द्रियादि में वस्तुतः कर्म का अभाव नहीं है तो भी ‘ मैं चुपचाप बैठा हूं , कुछ भी नहीं करता।
इस प्रकार की अभ्यासरूप प्रतीतिvके बल से देहादि में कर्म के अभाव का आरोपण करने में आता है। इस प्रकार देह – इन्द्रिय आदि में आरोप की हुई व्यापार उपरामतारूप जो अकर्म है , उस अकर्म में देह – इन्द्रिय आदि के सर्वदा व्यापारत्वरूप वास्तविक स्वरूपका विचार करके , कर्म देखने का नाम अकर्म में कर्म देखना है।
भाव यह है कि जैसे दूर देश में चलने वाले पुरुष तथा आकाश में गतिशील चन्द्रादि में यद्यपि दूरी के कारण गमनरूप क्रिया का अभाव प्रतीत होता है तो भी वस्तुतः वे क्रिया वाले ही हैं. वैसे ही ‘ मैं चुप बैठा हू ‘ , कुछ करता नहीं हू इस प्रकार की अभ्यासरूप प्रतीति के बल से यद्यपि देह – इन्द्रियादि में व्यापाररूप कर्म का अभाव प्रतीत होता है , तो भी देह – इन्द्रिय आदि वस्तुतः कर्म वाले ही हैं।
उदासीन अवस्था में भी ‘ मैं उदासीन होकर स्थित हूँ ‘ इस प्रकार का अभिमान भी कर्म ही है। इस प्रकार देखने का नाम अकर्म में कर्म देखना है। ऐसे कर्म में अकर्म देखने वाला और अकर्म में कर्म देखने वाला पुरुष परमार्थ – दर्शी है , क्योंकि वह यथार्थ देखने वाला है यानी अक्रिय आत्मा को अक्रिय देखता है और क्रिया करने वाले देहादि को क्रिया करने वाला देखता है। परमार्थदर्शी होने से वही सब मनुष्यों में बुद्धिमान् है , वही योगयुक्त है और वही सब कर्मो को करने वाला है। ‘
कर्मण्यकर्म यः पश्येत् ‘ इस प्रथम पद से भगवान ने कर्म तथा विकर्म का वास्तविक स्वरूप दिखलाया है क्योंकि ‘ कर्म ‘ शब्द विहित कर्म और निषिद्ध कर्म दोनों का वाचक है और ‘ अकर्मणि च कर्म यः ‘ इस दूसरे पाद से भगवान ने अकर्मका वास्तविक स्वरूप दिखलाया है।
भगवान का तात्पर्य यह है ‘ कि हे अर्जुन ! तू जो मानता है कि कर्म बन्धन का हेतु है इसलिये मुझे करना नहीं चाहिये , मुझे चुपचाप होकर बैठ जाना चाहिये , तेरा यह मानना मिथ्या है क्योंकि ‘ मैं कर्मों का कर्ता हूँ.
‘ इस प्रकारका कर्तृत्व अभिमान जबतक रहता है तबतक ही विहित कर्म और निषिद्ध कर्म उसको बन्धन करते हैं । कर्तृत्व अभिमान से रहित शुद्ध को केवल देह – इन्द्रियादि का धर्म मानकर किये हुए कर्म बन्धन नहीं करते।
यही बात ‘ न मां कर्माणि लिम्पन्ति’ इत्यादि वचनों से पूर्व में कह चुका हूं । हे अर्जुन ! कर्तृत्व अभिमान होने पर ‘ मैं चुपचाप बैठा हूँ ‘ इस प्रकार की उदासीनता के अभिमान रूप जो कर्म है , वह कर्म भी बन्धन का हेतु है ; क्योंकि
कर्तृत्वाभिमानी पुरुष ने वस्तु का वास्तविक स्वरूप नहीं इसलिये हे अर्जुन ! कर्म , विकर्म और अकर्म इन तीनों वास्तविक स्वरूप को जानकर कतृत्व अभिमान से रहित होकर और फलकी इच्छा छोड़कर तू शुभ कर्मो को ही कर ! “
इस श्लोकका दूसरा अर्थ इस प्रकार है :
प्रत्यक्षादि प्रमाणजन्य ज्ञानका जो विषय हो , उसका नाम कर्म है। यह दृश्यरूप तथा जड़रूप प्रपञ्च ऐसा ही है , इसलिये प्रपञ्चका नाम कर्म है। क्रियारूप होने से भी प्रपञ्चका नाम कर्म है।
जो वस्तु प्रत्यक्ष प्रमाणजन्य ज्ञानका विषय न हो , वह वस्तु अकर्म कहलाती है । ऐसा स्व प्रकाश , सर्वभूत का अधिष्ठानरूप चैतन्य है इसलिये चैतन्यरूप परमात्मादेव अकर्म है। अक्रिय होनेसे भी चैतन्य अकर्म है। जो पुरुष जगत्-रुप कर्म में अपनी सत्ता – स्फुरण से अनुस्यूत स्वप्रकाश – अधिष्ठान – चैतन्यरूप अकर्म को परमार्थ दृष्टि से देखता है और जो पुरुष उस स्वप्रकाश अधिष्ठान – चैतन्यरूप अकर्म में इस मायामय दृश्य प्रपञ्चरूप कर्म को कल्पित देखता है अर्थात् द्रष्टा चैतन्य का तथा दृश्य प्रपञ्च का कोई सम्बन्ध ही नहीं है , इसलिये वस्तुरूप से दृश्य प्रपञ्च द्रष्टा चैतन्य में है ही नहीं , इस प्रकार जो देखता है , वही बुद्धिमान् , योगयुक्त और सब कर्मोंका कर्ता है।
श्रुति कहती है :
*यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति । सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजिगुप्सते ||*
अर्थात् – ‘ जो पुरुष सर्व भूतों को अधिष्ठान आत्मामें कल्पित देखता है , और सर्वभूतों में सत्ता – स्फुरणरूप आत्मा को अनुस्यूत देखता है , वह परमार्थदर्शी पुरुष किसी की निन्दा नहीं करता इसलिये सबसे श्रेष्ठ है। “
लोक में चैतन्य आत्मा का तथा दृश्य जगत्का परस्पर अभ्यास होने पर भी जो पुरुष परमार्थ – दृष्टिसे शुद्ध चैतन्य को ही • देखता है , वह विद्वान् पुरुष ही सब मनुष्यों में बुद्धिमान् है , उसके सिवा दूसरा बुद्धिमान् नहीं है , क्योंकि इस लोक में भी यथार्थ – दर्शी ही बुद्धिमान् कहलाता है , अयथार्थ – दर्शी बुद्धिमान् नहीं कहलाता।
जैसे रज्जु को रज्जु जानने वाला पुरुष ही बुद्धिमान् कहलाता है और रज्जु को सर्प जानने वाला बुद्धिमान् नहीं कहलाता. इसी प्रकार सर्व के अधिष्ठानरूप शुद्ध चैतन्य को देखने वाला मनुष्य ही परमार्थ – दर्शी होने से बुद्धिमान् है और अनात्म प्रपञ्च को देखने वाला अज्ञानी पुरुष मिथ्या – दर्शी होने से बुद्धिमान् नहीं हो सकता।
परमार्थ दर्शी पुरुष ही बुद्धि के साधनरूप योग से युक्त है और अन्तःकरण की शुद्धि से एकाग्रचित्त वाला है. ऐसा होनेसे सर्व कर्मो का कर्ता भी है।
हे भावुक ! आत्मा को अकर्ता जानकर देह , इन्द्रिय और बुद्धि से शास्त्र – विहित शुभ निष्काम कर्म करना , इतना ही कर्म , विकर्म और अकर्म के स्वरूप जानने का प्रयोजन है और यही मोक्ष का साधन और स्वरूप है। मोक्ष ही आत्मारूप अकर्म है।