गणतंत्र दिवस के दो दिन पूर्व पहले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को देश का सर्वोच्च अलंकरण ‘भारत रत्न’ (मरणोपरान्त) प्रदान करने के पखवाड़े के भीतर ही भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को भी इसी पुरस्कार से नवाजा जाना जहां एक ओर भाजपा की केन्द्र सरकार द्वारा देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान के राजनैतिक दुरुपयोग की ओर इशारा करता है, वहीं पार्टी व सरकार की वैचारिक विसंगति की भी पोल खोलता है। दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े व्यक्तियों को बहुत थोड़े अंतराल में पुरस्कृत करना बताता है कि भाजपा तेजी से खोती अपनी जमीन को पाने के लिये ऐसी बदहवास है कि उसे सूझ नहीं रहा है कि वह कहां जाये। कह सकते हैं कि दो भारत रत्नों के बीच भाजपा फंसी हुई है और बाहर निकलने के लिये वह जिस प्रकार से हाथ-पैर मार रही है, उससे उसकी स्थिति न केवल हास्यास्पद हो रही है बल्कि उसका वैचारिक खोखलापन भी उजागर हो रहा है।
इन दो लोगों को अलंकरण दिये जाने के पीछे अपनी वजहें और उद्देश्य हैं। कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दिये जाने पर चर्चा करें तो साफ़ है कि हाल के दिनों में भारतीय राजनीति में सामाजिक न्याय का जो विमर्श बड़ी जगह बना रहा है, उससे भाजपा का चिंतित होना लाजिमी है। सामाजिक न्याय में समतामूलक समाज की अवधारणा अंतर्गुम्फित है जिसके जरिये संसाधनों एवं अवसरों में सभी वर्गों व समुदायों की न केवल समान भागीदारी की कल्पना है बल्कि अनुपात के अनुसार यह होनी ज़रूरी बताई गई है। कर्पूरी ठाकुर उन लोगों में से हैं जिन्होंने काफ़ी पहले इसके पक्ष में आवाज उठाई थी। पहली बार दिसम्बर 1970 से जून 1971 तक एवं दूसरी बार जून 1977 से अप्रैल, 1979 तक बिहार के मुख्यमंत्री रहने के दौरान उन्होंने पिछड़ों एवं अति पिछड़ों को उनका वाजिब हक दिलाया था। उनका लोकप्रिय नारा था- ‘सौ में नब्बे शोषित हैं, शोषितों ने ललकारा है। धन, धरती और राजपाट में नब्बे भाग हमारा है।।’ उनके काम की शैली इस प्रकार थी कि उनके द्वारा वंचितों को उनका हक़ देने के बावजूद बिहार में सामाजिक वैमनस्य पनप नहीं पाया था और अन्य वर्गों ने भी इस व्यवस्था की आवश्यकता को स्वीकार किया था।
इसके विपरीत भाजपा के सपनों का ऐसा समाज है जिसमें सभी शक्तियों के केन्द्रीयकरण की बात कही जाती है- सारी राजनैतिक ताक़त उसके हाथों में हो, सभी कारोबार चंद लोगों के द्वारा संचालित किये जायें एवं सामाजिक आधिपत्य समाज के उच्च वर्गों का ही हो। निचले तबकों का न तो सशक्त राजनैतिक प्रतिनिधित्व हो, न ही वे आर्थिक रूप से सम्पन्न हों और जहां तक उनकी सामाजिक स्थिति की बात है तो वे दोयम दर्जे के समझे जायें। यह मनुवादी सामाजिक व्यवस्था है जिसमें भाजपा एवं उसकी मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को विश्वास है। वह तो भारतीय संविधान को खारिज कर मनुस्मृति को लागू करना चाहती है। इसी दिशा में उसके बढ़ने के प्रयास हैं।
सवाल यह है कि ऐसी विचारधारा के चलते आखिर क्योंकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पहले कर्पूरी ठाकुर एवं अब आडवाणी को भारत रत्न देना पड़ा। अगर कोई यह सोचता है कि उन्होंने ऐसा इन दोनों के प्रति सम्मानस्वरूप किया है, तो उसे इस ग़लतफ़हमी को निकाल देना चाहिये। कर्पूरी को दिया पुरस्कार इस पार्श्वभूमि पर है कि पिछले कुछ समय से राहुल गांधी बड़े जोर-शोर से जातिगत जनगणना की बात कर रहे हैं और इस बात की वकालत कर रहे हैं कि देश में जिस वर्ग की जितनी आबादी है उसे सत्ता व नौकरियों में उतनी भागीदारी मिलनी चाहिये। कोरोना के चलते 2021 में देश में जनगणना नहीं हो पाई थी और केन्द्र सरकार इसे कराने का इरादा भी नहीं रखती क्योंकि इसके कारण वस्तुस्थिति सामने आ जायेगी। राहुल बता रहे हैं कि देश में सबसे ज्यादा जनसंख्या पिछड़े व अति पिछड़ों की है। तत्पश्चात दलित (एससी) व आदिवासियों की है। इसी अनुपात में लोगों की भागीदारी होनी चाहिये।
वे बतलाते रहे हैं कि सचिव स्तर के 90 अधिकारियों में केवल 3 ही ओबीसी हैं और देश के सिर्फ 5 प्रतिशत बजट पर ही उनका नियंत्रण है। राहुल गांधी की फ़िलहाल जारी ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ इसलिये लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रही है क्योंकि लोगों को इसका महत्व अब समझ में आ रहा है। जब कर्पूरी को इस पुरस्कार का ऐलान हुआ तब राहुल की यात्रा बिहार प्रवेश करने के नज़दीक थी तथा वहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से पाला बदलवाने की तैयारी भाजपा कर चुकी थी। नीतीश संयुक्त विपक्षी गठबन्धन इंडिया से तो छिटकें, साथ ही वे सामाजिक न्याय के चेहरे न रहें और राहुल के हाथ से भी वह मुद्दा छिन जाये- इन्हीं उद्देश्यों से पहला भारत रत्न दिया गया था। यह अलग बात है कि नीतीश को तो भाजपा ने निशस्त्र कर दिया परन्तु अब उसके (सामाजिक न्याय के) एकमात्र झंडाबरदार राहुल बन गये हैं।
इसके साथ ही राममंदिर का मसला भाजपा व नरेंद्र मोदी को वैसा डिविडेंड देता अब नज़र नहीं आ रहा जिसकी उम्मीद थी। साथ ही, राममंदिर के उद्घाटन समारोह में आमंत्रण देकर भी श्री आडवाणी को आने से रोकना लोगों को इसलिये पसंद नहीं आया क्योंकि राममंदिर आंदोलन का पुरोधा पार्टी के वयोवृद्ध नेता को ही माना जाता है। मंदिर उद्घाटन समारोह में सारी आभा को श्री मोदी द्वारा लूट लिये जाने को भी यकीनन भाजपा के हार्डकोर काडर ने सख़्त नापसंद किया होगा। नरेंद्र मोदी की आलोचना हुई, सो अलग। सो, पहले कर्पूरी ठाकुर और अब लालकृष्ण आडवाणी को भारत रत्न देना भाजपा की उहापोह को ही दर्शाता है।
देशबन्धु में संपादकीय