मुनेश त्यागी
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महान क्रांतिकारी और आजादी के अमर सेनानी करतार सिंह सराभा बहुत ऊंचा स्थान रखते हैं। भारत की आजादी में शामिल होने के कारण उन पर देशद्रोह का मुकदमा चला कर, उन्हें 19 साल की उम्र में ही फांसी की सजा दे दी गई थी। वे भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में बलिदान देने वाले सबसे कम उम्र के फांसी पर चढ़ने वाले नौजवान थे। करतार सिंह सराभा का कद इतना ऊंचा था कि शहीद ए आजम भगत सिंह, शहीद करतार सिंह सराभा का चित्र हमेशा अपनी जेब रखते थे और वे कहा करते थे कि “यह मेरा गुरु, साथी और भाई है।”
इस परम देशभक्त विद्रोही करतार सिंह सराभा की आयु अभी 19 साल भी नहीं हुई थी कि उन्होंने स्वतंत्रता देवी की बालि देवी पर अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। 19 वर्ष की आयु में ही उन्होंने इतने काम कर दिखाए थे कि सोच कर हैरानी होती है। उनका आत्मविश्वास, उनका आत्म त्याग, उनके जैसी लगन और आजादी के लिए इतनी चेतना, बहुत कम लोगों में देखने को मिलती है। हिंदुस्तान में ऐसे इंसान बहुत कम पैदा हुए हैं जिन्हें सही अर्थों में विद्रोही कहा जा सकता है, परंतु इन गिने चुने स्वतंत्रता सेनानी बलिदानियों में, करतार सिंह सराभा का नाम सूची में सबसे ऊपर आता है।
उनकी रग रग में क्रांति का जज्बा समाया हुआ था। उनकी जिंदगी का एक ही लक्ष्य था, एक ही इच्छा और एक ही आशा थी,,,,भारत को आजादी दिलाने के लिए सशस्त्र क्रांति। क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी करतार सिंह सराभा का जन्म 1896 में ग्राम सराभा, जिला लुधियाना, पंजाब में हुआ था। वे अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे। उनकी छोटी सी उम्र में ही उनके पिताजी का देहांत हो गया था। उनका लालन पोषण उनके चाचा और दादाजी ने किया था।
उन्होंने पहले दसवीं की परीक्षा पास की और फिर पढ़ने के लिए कॉलेज में जाने लगे। वे स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम के साथ-साथ दूसरी पुस्तकें भी पढ़ते पढ़ते रहे और यही से वे अमेरिका जाने की बात करने लगे। परिवार के लोगों ने उन्हें अमेरिका भेज दिया। अमेरिका जाकर कदम-कदम पर उनके कोमल हृदय पर चोट लगने लगी। गोरे अमेरिकियों द्वारा भारतीयों के लिए प्रयोग की जाने वाली जबान जैसे ,,,”तुच्छ हिंदू” और “काला आदमी” सुनते सुनते वे पागल हो जाते थे। उन्हें कदम कदम पर देश की इज्जत और सम्मान खतरे में नजर आने लगे। घर की याद आने पर जंजीरों में जकड़ा हुआ अपना विवश भारत भी उन्हें याद आ जाता था।
अमेरिका में उन्होंने भारतीय मजदूरों को संगठित करना शुरू कर दिया और उनमें आजादी की भावना उभरने लगी। वहीं पर उनकी मुलाकात जलावतन देशभक्त भगवान सिंह से हुई। यह काम करते-करते उन्होंने एक अखबार निकालने की जरूरत महसूस की और इसके बाद “गदर” नाम का अखबार निकाला जाने लगा। करतार सिंह सराभा इसमें काम करने लगे और उनकी कलम में बहुत गहरा जोश भरा होता था। इस अखबार में उन्होंने कहा था कि “देश सेवा करना बहुत मुश्किल है, जबकि बातें करना बहुत आसान है, जिन्होंने देश सेवा के रास्ते पर कदम उठा लिया है, वे ही लाख मुसीबतें झेलते हैं।”
इसके बाद वे भारत लौट आए और यहां आकर बड़े जोरों शोरों से आजादी के लिए काम करने लगे। संगठन की कमी थी, लेकिन वह किसी तरह पूरी हो गई। दिसंबर 1914 में मराठा नौजवान विष्णु गणेश पिंगला भी आ गए। उनकी कोशिश से ही सचिन्द्र नाथ सान्याल और रासबिहारी पंजाब आ गए। करतार सिंह सराभा ही हर जगह पहुंचकर आजादी के लिए काम करने लगे, गुप्त मीटिंगें भी करने लगे और विद्यार्थियों में प्रचार प्रसार करने लगे। इसी के साथ-साथ उन्होंने फिरोजपुर छावनी के सैनिकों से भी अपना गठजोड़ कायम कर लिया था।
इस समय उन्हें हथियारों की जरूरत महसूस हो रही थी। हथियार खरीदने के लिए धन की जरूरत थी, तो उन सबने डकैती डालकर धन इकट्ठा करने की कोशिश की। एक गांव में डकैती डालने के दौरान उनकी भेंट एक मां से हुई। उस मां कहा “बेटा ऐसे धर्मात्मा और सुशील नौजवान होकर, आप इस काम में किस तरह शामिल हुए? करतार सिंह का भी दिल भर आया और ने कहा,,, मां जी, रुपए के लालच में हमने यह काम शुरु नहीं किया है, अपना सब कुछ दांव पर लगा कर डकैती डालने आए हैं। भारत मां को आजाद कराने के लिए और लड़ने के लिए, हथियार खरीदने के लिए, रुपए की जरुरत है, वह कहां से लाते? मां जी आजादी के लिए इसी महान काम को करने के लिए हम रुपए कहां से लाते, इसी महान काम के लिए, आज इस काम को करने को मजबूर हुए हैं।”
मां ने फिर कहा कि बेटा इस लड़की की शादी करनी है, इसके लिए कुछ रुपए तो छोड़ जाओ। इसके बाद उन्होंने अपना सारा धन मां के सामने रख दिया और कहा, जितना चाहे ले लो। कुछ पैसा रखकर मां ने बाकी सारा रुपया करतार सिंह की झोली में डाल दिया और आशीर्वाद दिया,,, बेटा जाओ तुम कामयाब होओ।” इस प्रकार हम देखते हैं कि करतार सिंह का दिल कितना भावनाओं से भरा हुआ, पवित्र और विशाल था?
फरवरी 1915 में “गदर विद्रोह” यानी सशस्त्र स्वतंत्रता संग्राम की तैयारी तय की गई। याद रहे की गदर की योजना 1913 में अमेरिका में गदर पार्टी ने बनाई थी। यह आजादी के लिए सशस्त्र आंदोलन था। इसमें सभी धर्म के लोग शामिल थे, यानी यह आजादी का एक धर्मनिरपेक्ष आंदोलन था। इस गदर के बाद पकड़े गए 315 स्वतंत्रता सेनानियों “गदरी बाबाओं” को काले पानी की उम्र कैद की सजा दी गई थी।
करतार सिंह सराभा, इस गदर यानी स्वतंत्रता संग्राम को सफल बनाने के लिए आगरा, कानपुर, इलाहाबाद, लखनऊ, मेरठ और कई जगह पर विद्रोह के लिए अपने साथियों से मिलकर आए। आखिर वह दिन करीब आने ही लगा, जिसका बड़ी देर से इंतजार हो रहा था। सब ने मिलकर तय किया कि 19 फरवरी 1915 को भारत में विद्रोह किया जाएगा। इसी की तैयारी चल रही थी कि एक देशद्रोही और भारत मां के दुश्मन और आजादी के दुश्मन किरणपाल सिंह ने गद्दारी कर दी और अंग्रेजों को ग़दर का सारा राज बता दिया। इसके बाद अंग्रेजों ने सारे हिंदुस्तानी सिपाही निहत्थे कर दिए गए, उनसे हथियार छीन लिए गए। उनकी धड़ाधड़ गिरफ्तारियां की गई और वे निराश होकर लाहौर लौट आए।
करतार सिंह सराभा की ख्वाहिश थी कि देश की आजादी के लिए लड़ाई हो और वे अपने देश के लिए लड़ते-लड़ते प्राण न्योछावर कर दें। इसके बाद उन्हें सरगोधा के नजदीक गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी के समय वे बहुत खुश थे। वे हमेशा ही कहा करते थे कि “वीरता और हिम्मत से मरने पर मुझे “विद्रोही” की उपाधि देना। कोई याद करे तो मुझे “विद्रोही करतार सिंह” कह कर याद करना।””
मुकदमा चला। उस समय करतार सिंह की आयु साढ़े अठारह वर्ष थी। अपने समय के वे सबसे कम उम्र के स्वतंत्रता सेनानी थे। उनके विषय में जज ने लिखा था कि “वह इन अपराधियों में सबसे खतरनाक अपराधियों में से एक हैं। अमेरिका की यात्रा के दौरान और फिर भारत में इस षड्यंत्र का ऐसा कोई हिस्सा नहीं, जिसमें उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका ने निभाई हो।”
इस बारे में जज ने उनसे कहा कि “आप अपना बयान देने के बारे में सोच लीजिए, आपको बड़ी से बड़ी सजा मिल सकती है।” तो इस पर करतार सिंह सराभा ने बड़ी मस्ती से केवल इतना ही कहा था कि “फांसी ही तो चढ़ा दोगे और क्या? हम इससे नहीं डरते।” करतार सिंह ने जज के सामने सबसे जोरदार बयान दिया। उनका बयान बहुत ही जोशीला था जिसमें उन्होंने कहा था कि “मैंने आजादी की लड़ाई लड़ी है। इस अपराध के लिए अगर मुझे उम्र कैद की सजा मिले या फांसी की, लेकिन मैं फांसी को ही प्राथमिकता दूंगा, ताकि फिर जन्म लेकर, जब तक हिंदुस्तान आजाद नहीं हो जाता, तब तक मैं बार-बार जन्म लेकर फांसी पर लटकता रहूंगा। यही मेरी अंतिम इच्छा है।”
इसके बाद करतार सिंह को सिर्फ गालियां ही नहीं, मौत की सजा मिली और उन्होंने मुस्कुराते हुए जजों को धन्यवाद दिया। इसके बाद उनके दादाजी ने उन्हें समझाने की कोशिश की। मगर इस पर उन्होंने कहा कि “मैं प्लेग से या हैजे से नहीं मरना चाहता, मैं महीनों तक बिस्तर पर पड़े रहकर पीड़ा से दुखी, किसी रोग से नहीं बचना चाहता, बल्कि उससे तो फांसी के तख्ते पर झूलकर मर जाना ही ज्यादा बेहतर है और इस प्रकार दादाजी चुप हो गए।
फिर सवाल उठता है कि करतार सिंह सराभा के मरने से किसको क्या लाभ हुआ? वह किस लिए मरे? इसका जवाब बिल्कुल स्पष्ट है कि वे देश की आजादी के लिए मरे, देश की जनता के लिए मरे, देश की गुलामी की जंजीरों को काटने के लिए मरे। उनका आदर्श ही था कि वे देश सेवा के लिए, देश की आजादी के लिए लड़ते हुए मरें। करतार सिंह सराभा पर भारत भूमि को अंग्रेजों की गुलामी की बेडियों से आजाद करने के लिए मुकदमा चला। 16 नवंबर 1915 को जब उन्हें फांसी पर चढ़ाया गया था तब वे हमेशा की तरह ही बहुत खुश थे। इस दौरान उनका 10 पौंड वजन भी बढ़ गया था और वे “भारत माता की जय” कहते हुए, फांसी के फंदे पर झूल गए। करतार सिंह सराभा के साथ उनके छः अन्य स्वतंत्रता संग्राम सैनानी थे, जिन्हें फांसी की सजा दी गई थी। उनके नाम हैं,,,, 1.बक्शीस सिंह, 2.हरनाम सिंह, 3.जगत सिंह, 4.सुरैण सिंह, 5. सुरैण एवं 6.विष्णु गणेश पिंगले।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत भूमि लाखों हजारों बलिदानों के बाद आजाद हुई है। बहुत सारे लोगों ने अपना खून बहाया है। मगर अफसोस की बात है कि जिस आजादी के लिए विद्रोही करतार सिंह सराभा जैसे सैंकड़ों नौजवानों ने अपना जीवन बलिदान कर दिया था, आज यह भारत उनके सपनों का भारत नहीं है। बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि आज गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेज गद्दी पर बैठ गए हैं और इन्होंने करतार सिंह सराभा जैसे सैंकड़ों हजारों शहीदों द्वारा देखे गए आजादी के सपनों को चकनाचूर कर दिया है।