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काशी : एक संस्कृति का मरना

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ज्योतिषाचार्य पवन कुमार ( वाराणसी)

  _लेख में वाराणसी के अस्सीघाट की दिसम्बर, 2017 की तस्वीर है. घाट की सीढ़ियों पर खड़े नंदी कुछ सोच रहे हैं. तब काशी की गंगाघाटी की पक्काप्पा संस्कृति के विनाश की कहानी शुरू नहीं हुई थी लेकिन योजना बन रही थी._
    साल 2017 के खत्म होते-होते जनवरी-फरवरी, 2018 में धरोहर बचाओ संघर्ष समिति अपने अस्तित्व में आ गई थी. जुलूस, धरना, प्रदर्शन का दौर शुरू हो गया था.

मैं एक दर्शक की तरह जो कुछ घटित हो रहा था, उसे देखता रहा और जो कुछ मैंने देखा उसे लिपिबद्ध भी किया. तब लोगों में अपनी विरासत व धरोहर के प्रति लगावा था.
यह उनकी बातों से पता लगता था. “जान देंगे, घर नहीं” के पोस्टर पक्कामहाल की गलियों में लगा था. फिर अचानक संघर्ष समिति में बिखराव शुरू हो गया. लड़ते-लड़ते लोग भागने लगे.
मैंने लड़ाई से भागते हुए लोगों को भी देखा है. बस..! कुछ साथी रह गए जो अब भी मोर्चे पर डटे हैं. यह एक अंतहीन लड़ाई है जो जारी है. घाट की सीढ़ी पर खड़ा नंदी आखिर क्या सोच रहे हैं ?
मुझे लगता है कि वह सोच रहे हैं कि घाट की सीढ़ियों से गंगा जी इतनी दूर क्यों चली गई हैं. कुछ तो कारण होगा. ऐसे ही कोई नदी अपनी धारा में बदलाव नहीं करती है.

जब तक नदियां, झील, तालाब, कुएं, समुद्र, पहाड़, जंगल आदि पृथ्वी पर हैं, तभी तक जीवन का अस्तित्व है. उनके खत्म होते ही जीवन को संकट पैदा हो जाएगा. हवा और पानी को अपनी सुविधाओं के लिए हम प्रदूषित कर चुके हैं जो जीवन की बुनियादी जरूरत है.
अभी हम विकास के दौर से गुजर रहे हैं. उसका नशा इतना खूबसूरत है कि कुछ भी सोचना नहीं चाहते हैं. कोरोना की दूसरी लहर में ऑक्सीजन की तलाश में भटकते हुए लोगों को हम देख चुके हैं.
हम अपनी एक विकसित गंगाघाटी की पक्काप्पा संस्कृति को रौंद करके उसके मलबे पर अपनी जीत का जश्न मना रहे हैं. कितने देवी-देवता मलबे में दब गए, इसे बताने वाला कोई नहीं है. सड़क सभ्यता इसी तरह बिजली की चकाचौंध बिखेरती हुई दबे पांव गलियों में घुसती है.

फिर गलियां सड़क बन जाती हैं. छोटे-छोटे घर बहुमंजिली ईमारतों में तब्दील कर दिए जाते हैं. फिर शुरू होता है संगठित व्यापार का धंधा..!
फिलहाल यही हमारा विकास है. यह देखना मजेदार होगा कि शिव भक्त कब तक इस चकाचौंध से प्रेरित होते रहेंगे. (चेतना विकास मिशन)

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