~ पुष्पा गुप्ता
ख़बरें बेचैन करती हैं उन्हें, जो सरोकारी हैं। कनाडा में ‘किल इंडिया‘ रैली को जस्टिन ट्रूडो की सरकार ने जिस तरह अनुमति दी, वह सचमुच चिंताजनक है. शक़ ज़ाहिर किया गया है कि भारत सरकार समर्थक एजेंसियाँ चुन-चुन कर सिख नेताओं को मरवा रही हैं। सोशल मीडिया इस प्रतिरोध को मज़बूत करने का माध्यम बन चुका है। हैशटैग ‘खालिस्तान फ्रीडम रैली‘ जिस तरह से ट्रैंड करता रहा है, उसे रोकने में सरकारें निष्फल साबित हुई हैं।
19 जून को कनाडा में खालिस्तान टाइगर फोर्स (केटीएफ) के प्रमुख हरदीप सिंह निज्जर की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। भारत सरकार ने निज्जर को ‘डेजिग्नेटेड आतंकी‘ घोषित कर रखा था। कुछ महीने पहले भारत सरकार ने 41 आतंकियों की लिस्ट जारी की थी, उसमें हरदीप निज्जर का नाम भी शामिल था।
निज्जर जालंधर का रहने वाला था। उसने जालंधर में 2022 में एक हिंदू पुजारी की हत्या करवाई थी, उसके बाद से फरार हो गया। कनाडा में हरदीप सिंह निज्जर के हत्यारे कौन थे? कुछ पता नहीं चल पाया।
उसी तरह केएलएफ के नेता अवतार सिंह खांडा की ब्रिटेन में 15 जून को बर्मिंघम के एक अस्पताल में मौत हो गई थी, कुछ लोगों को शक है कि उन्हें जहर दिया गया था। खांडा वो शख्स था, जिसने 19 मार्च 2023 को लंदन में भारतीय उच्चायोग पर हमले में प्रमुख भूमिका निभाई थी। वह ‘वारिस पंजाब दे‘ संगठन का प्रमुख अमृतपाल सिंह का राइटहैंड माना जाता था।
उसकी मौत के बाद से अमृतपाल सिंह भी चौकन्ना हो गया था। खंाडा संगरूर के सांसद सिमरनजीत सिंह मान के नेतृत्व वाले शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) से भी संबद्ध था। सिमरनजीत सिंह मान ने खांडा की मौत पर ट्वीट किया, ‘सुनकर बहुत दुख हुआ कि सरदार अवतार सिंह खंाडा अब इस दुनिया में नहीं रहे।
अवतार सिंह खांडा का इस तरह जाना पार्टी और पूरे खालसा पंथ के लिए एक बड़ी क्षति है, उन्होंने सिख संघर्ष में महत्वपूर्ण योगदान दिया, वह 2011 से इंग्लैंड में रह रहे थे।’
इससे एक माह पहले 6 मई को लाहौर में दो हथियारबंद लोगों ने खालिस्तान कमांडो फोर्स के प्रमुख परमजीत सिंह पंजवार की हत्या कर दी थी। 23 जनवरी को केएलएफ के मुख्य चेहरों में से एक हरमीत सिंह उर्फ हैप्पी पीएचडी को भी लाहौर में एक लोकल गैंग ने मार डाला था।
जो लोग खालिस्तान की राजनीति कर रहे हैं, उनका आरोप है कि इन मौतों के पीछे भारतीय एजेंसियों का हाथ है। उन्हें शक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल पर है। विगत दिनों एनएसए डोभाल का ब्रिटेन और अमेरिका दौरे को आरोप लगाने वाले लिंक कर रहे हैं।
कई सोशल मीडिया यूजर्स ये मानते हैं कि ये मौतें भारत की खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के सीक्रेट मिशन का नतीजा है। लेकिन जो सरकार पाकिस्तान में सर्जिकल स्ट्राइक पर डंका पीटती रही, वही सरकार सिख चरमपंथियों की एक-एक कर मारे जाने की घटनाओं पर चुप है।
मगर, भारत सरकार ने ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के विरूद्ध आपत्ति दर्ज़ की है। सरकार ने उनके यहां सिख अलगाववादियों के प्रदर्शन को लेकर सवाल किया है।
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बाग्ची ने 6 जुलाई 2023 को मीडिया ब्रीफिंग में कहा था कि भारतीय राजनयिकों के विरूद्ध पोस्टर हम स्वीकार नहीं कर सकते। ब्रिटेन के विदेश मंत्री जेम्स क्लेवरली की प्रतिबद्धता पर हमें भरोसा है कि ज़मीन पर उसके नतीजे दीखेंगे।
भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने दिल्ली में तीन जुलाई को मीडिया से बात करते हुए कहा था, ‘हमने कनाडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे मित्र देशों से अनुरोध किया है कि वो खालिस्तानी समर्थकों को जगह न दें. ये कट्टरपंथी चरमपंथी विचारधाराएं हमारे, उनके या हमारे संबंधों के लिए अच्छे नहीं हैं. (हम) इन पोस्टरों का मुद्दा भी उठाएंगे।‘ लेकिन भारतीय विदेश मंत्री की अपील क्या नक्कारखाने में तूती की आवाज़ साबित हो रही है? एक बात यह भी घ्यान देने योग्य है कि जिन देशों में खालिस्तान समर्थक रैलियाँ करने के वास्ते सक्रिय हैं, वो सभी जी-20 के सदस्य देश हैं। क्या इसकी काली छाया जी-20 की शिखर बैठकों पर भी पड़ेगी?
फरवरी में ऑस्ट्रेलिया के ब्रिस्बेन में भारतीय वाणिज्य दूतावास में तोड़-फोड़ की सूचना मिली थी। इसके प्रकारांतर, मार्च 2023 में लंदन और ओटावा स्थित भारतीय उच्चायोगों और सैन फ्रांसिस्को में हमारे वाणिज्य दूतावास में खालिस्तान समर्थकों द्वारा की गई तोड़फोड़ व उत्पात के मामलों की जांच एनआईए कर रही है।
सैन फ्रांसिस्को में वाणिज्य दूतावास को 2 जुलाई को दूसरी बार हमले का सामना करना पड़ा था। उस हमले में चरमपंथियों के एक समूह ने आगजनी का प्रयास किया, मगर दमकलकर्मियों ने तुरंत आग बुझा दी। इन घटनाओं को घ्यान से देखें तो लगता है कि विदेश स्थित खालिस्तानी ठिकानों को खाद पानी का स्रोत रोकने में मोदी सरकार की एजेंसियां सफल नहीं हो पा रही हैं।
हम पीएम मोदी की यात्रा पर गौरवगान करते थकते नहीं, लेकिन जब बात हमारे दूतावासों पर हमले और तिरंगे के अपमान की आती है, बगलें झांकने लगते हैं। कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो वैसा ही कर रहे हैं, जैसा पाकिस्तान का प्रधानमंत्री कश्मीर के मामले में करता है।
जस्टिन ट्रूडो को यह इसलिए भा रहा है, क्योंकि इससे उनका वोट बैंक दिनों-दिन मज़बूत हो रहा है। कनाडा की कुल आबादी का डेढ़ प्रतिशत सिख हैं, तो वहां सरकार उनकी न सुने, ऐसा संभव नहीं। भारत में सिखों की संख्या 1.7 प्रतिशत है।
मानकर चलिये कि कुछ वर्षों में कनाडा में प्रवास करने वाले सिख भारत जितने हो जाएंगे। 18 सितंबर 2022 को ब्रैम्टन में खालिस्तान पर रेफरंडम का आयोजन किया गया। उस मतसंग्रह में एक लाख से अधिक सिखों की हिस्सेदारी ने कई सवाल खड़े किये हैं।
कनाडा में 13 लाख 75 हज़ार भारतवंशियों की आबादी में लगभग चार लाख हिंदू और पांच लाख सिख हैं, बाक़ी दूसरे मतों को मानने वाले। जस्टिन ट्रूडो की लिबरल पार्टी सिख अतिवाद की सरपरस्त बन चुकी है।
14 अप्रैल 2013 से जस्टिन ट्रूडो लिबरल पार्टी के अध्यक्ष हैं। उन्हें यह पार्टी विरासत में मिली है, उनके पिता पियरे ट्रूडो जो कनाडा के पूर्व प्रधानमंत्री रहे हैं, बेटे को उसी नीति पर चलने का रास्ता बता गये हैं। 23 जून 1985 को एयर इंडिया की फ्लाइट में ब्लास्ट से 329 लोग मारे गये थे, तब भी सिख चरमपंथ को काबू करने में यह देश नाकाम रहा था।
गाहे-बगाहे खालिस्तान के निर्माण पर मतसंग्रह कराये जाते हैं। 18 सितंबर 2022 को ब्रैम्टन में खालिस्तान पर रेफरंडम का आयोजन किया गया। उस मतसंग्रह में एक लाख से अधिक सिखों की हिस्सेदारी ने कई सवाल खड़े किये हैं।
मतसंग्रह के पांच दिन बाद 23 सितंबर को भारत सरकार के विदेश मंत्रालय ने एक एडवाजरी जारी करते हुए कनाडा में रह रहे अनिवासी भारतीयों व छात्रों से कहा था कि वो हेट क्राइम से सतर्क रहें। उन्हें कोई इसका शिकार बनाता है, तो वो ‘मदद पोर्टल‘ पर जाएं, और अपनी शिकायत रजिस्टर्ड करें।
खालिस्तान पर मतसंग्रह से पहले टोरंटो स्थित बीएपीएस स्वामीनारायण मंदिर की दीवारों को भारत विरोघी ग्रैफिटी से कुछ उपद्रवी तत्वों रंग दिया था। वहां खालिस्तान समर्थक स्लोगन भी उकेर दिये थे। टोरंटो में भारतीय वाणिज्य दूतावास की दीवारों पर भी ऐसा कुछ हुआ था, उसके कुछ विजुअल्स पाकिस्तान के जियो न्यूज़ ने दिखाये थे।
ऐसी करतूत में सिख फॉर जस्टिस (एसएफजे) का नाम सबसे आगे है। कुछ इसी तरह के उत्पात ऑस्ट्रेलिया के मैलबॉर्न में देखने को मिले थे, जहां स्वामीनारायण मंदिर, इस्कॉन व गौरी शंकर मंदिर पर हमला हुआ था।
दो दशकों में काफी कुछ बदला है। कनाडा में रहने वाले सिख भी बदल गये। ख़ासकर नई पीढ़ी। जुलाई 2006 में अमेरिका से जो भारत की न्यूक्लियर डील हुई, उसमें उस इलाके में मजबूत सिख लॉबी की बड़ी भूमिका रही थी। कनाडा में भारतीय प्रवासियों में सिखों की संख्या 34 फीसदी है, और हिंदू 27 प्रतिशत हैं।
इसी हवाले से प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने तंज करते हुए कहा था, ‘हमारे कैबिनेट में जितने सिख हैं, मोदी मंत्रिमंडल में भी नहीं होंगे।’ यह बात तो हंसी-मजाक की थी। मगर, प्रवासियों के बीच समुदाय की राजनीति का साइड इफेक्ट यह हुआ कि कनाडा में सिख बनाम हिंदू की राजनीति आरंभ हुई। ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और ब्रिटेन में भी यही हो रहा है।
यह ठीक है कि विदेश में हिंदू राजनीति का फायदा भारतीय जनता पार्टी ने उठाया, मगर बाकी भारतवंशियों की आवाज नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई। संघ के लोग मानते हैं कि यूके से उत्तर अमेरिका तक उसके चालीस लाख समर्थक एक बड़ी ताकत हैं।
लेकिन प्रवासी सिख समुदाय संघ की ताक़त क्यों नहीं हैं, इस सवाल पर संघ प्रमुख कब ग़ौर करेंगे? पंजाब में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कमज़ोर है, इसकी वजह से भी सिख चरमपंथ की जड़ें विदेश में मज़बूत हुई हैं।