~ पुष्पा गुप्ता
पांडव वनवास में थे जब अर्जुन दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिए निकला हुआ था. उन्ही दिनों नारद पांडवों से मिलने आये थे. नारद ने युधिष्ठिर को तीर्थों पर जाने के लिए उत्साहित किया.
देवर्षि ने कहा था कि युधिष्ठिर को तीर्थ यात्रा का कुछ अधिक ही पुण्य फल मिलेगा क्यों कि वह अनेक ब्राह्मणों को भी साथ ले जा रहा था जो बिना उस के अवलम्बन के राक्षसों से भरे रास्तों पर उन पवित्र स्थलों के लिए नहीं जा सकते थे. नारद ने यह भी बताया कि युधिष्ठिर से मिलने के लिए तीर्थों पर वाल्मीकि, कश्यप, आत्रेय, कौण्डिन्य, विश्वामित्र, गौतम, असित, देवल, मार्कण्डेय, गालव, भरद्वाज, वसिष्ठ, उद्दालक, शौनक, व्यास, दुर्वासा जैसे ऋषि,मुनि और महान तपस्वी उस के आगमन की अपेक्षा कर रहे हैं.
तीर्थ पर निकला युधिष्ठिर का दल समुद्र तट पर आया था जहाँ गंगा सागर में मिलती है. उस पवित्र स्थल पर स्नान कर वे कलिंग की दिशा में बढे और वैतरणी नदी के उत्तरी तट पर पहुंचे जहाँ कभी स्वयं धर्मराज ने पूजा की थी. वैतरणी में स्नान कर युधिष्ठिर और उसके साथी महेंद्र पर्वत पर आये. वहां अनेक ऋषि तपस्या कर रहे थे. युधिष्ठिर के साथ चल रहे लोमश ने पांडवों को उन ऋषियों का परिचय दिया.
वहीँ भार्गव राम के अनुगामी अकृतव्रण से युधिष्ठिर ने राम के दर्शन करने की अपनी इच्छा बताते हुए उस से राम के हाथों हैहय राजा अर्जुन के वध की कथा सुनाने की प्रार्थना की.
अकृतव्रण ने राम के जन्म से ले कर हैहय राजा कार्तवीर्य अर्जुन के वध तक की कथा सुनाई, जो इस प्रकार है :
हैहय वंश में कभी किरातवीर्य नाम का एक राजा हुआ करता था. उस के पुत्र सहस्त्रबाहु कार्तवीर्य ने दत्तात्रेय (1) की स्तुति-पूजन आदि से उनकी अनुकम्पा अर्जित कर ली थी. दत्तात्रेय की कृपा से वह अत्यंत शक्तिवान हो गया था और उसे एक दिव्य रथ भी मिल गया था जिस पर चढ़ कर वह देवताओं और साधुओं को कुचलता फिरता था.
उन्ही दिनों कान्यकुब्ज में गाधी नाम का एक विख्यात राजा था. हमारी कथा के समय गाधी वानप्रस्थ हो चुका था. वन में ही उसे एक कन्या हुई थी सत्यवती. सत्यवती के सौंदर्य पर मुग्ध हो भृगु के वंशज ऋचीक ने गाधी से उसके हाथ मांगे. गाधी के परिवार में कन्या दान के विनिमय में वर पक्ष से कुछ लेने की परंपरा थी (2). ऋचीक तपस्वी था और वह भी भृगु का वंशज, यह सोच गाधी ने कुछ नहीं माँगा पर उस के नहीं मांगने पर भी ऋचीक ने वरुण से ले कर एक सहस्त्र तीव्रगामी अश्व गाधी को दिए थे.
विवाह समारोह संपन्न हो जाने के बाद भृगु अपने परिवार की पुत्रवधु से मिलने आये. पुत्र और पुत्रवधु के व्यवहार से प्रसन्न हो भृगु ने सत्यवती को कहा कि वह जो चाहे उन से मांग ले. सत्यवती ने अपने और अपनी माँ के लिए पुत्र मांगे. भृगु मान गए और कहा कि पुत्र प्राप्ति के लिए अपने ऋतु काल में दोनों माँ-पुत्री स्नान कर दो अलग अलग वृक्षों का आलिंगन करें – माँ एक अश्वथ (पीपल) का और पुत्री एक उदम्बर (संभवतः गूलर (3)) का. भृगु ने सत्यवती को खीर से भरे दो पात्र भी दिए और चिह्नित किया कि माँ और बेटी को किस किस पात्र से खीर ले कर खाना है. यह सब बता कर भृगु अन्तर्धान हो गए.
पर कुछ ऐसा हुआ कि माँ बेटी ने वृक्षों और पात्रों की अदला -बदली कर ली. भृगु अपनी दिव्य दृष्टि से सब जान गए और कुछ समय बाद पुनः आने पर उन्होंने सत्यवती को कहा कि पात्र और वृक्ष बदल जाने के चलते तुम्हारा पुत्र ब्राह्मण कुल में जन्म ले कर भी चरित्र से क्षत्रिय होगा और तुम्हारी माँ का पुत्र क्षत्रिय कुल में जन्म ले कर भी चरित्र से ब्राह्मण होगा. इस पर सत्यवती ने प्रार्थना की कि उसे वैसा (क्षत्रिय चरित्र वाला) पुत्र नहीं चाहिए, भले वैसा पौत्र उसके घर में आ जाए. भृगु इस के लिए भी मान गए. उचित समय पर सत्यवती ने जमदग्नि को जन्म दिया. जमदग्नि बड़े हो कर एक तेजस्वी ब्राह्मण के रूप में उभरे – ज्ञानवान, धार्मिक और तपस्वी स्वभाव के.
वेद वेदांगों का समुचित अध्ययन कर उन्होंने राजा प्रसेनजित से उसकी कन्या रेणुका के हाथ मांगे. रेणुका के साथ वे वन में आश्रम बना कर तपस्या करने लगे. समय पर जमदाग्नि को पांच पुत्र हुए. राम उनके कनिष्ठ पुत्र थे पर सबसे ओजस्वी.
एक बार राम की माता रेणुका स्नान के लिए आश्रम के निकट एक जलाशय को जा रही थी जब उस ने मार्तिकावर्त के राजा चित्ररथ को अपनी रानियों के साथ जल-क्रीड़ा करते देखा. पुष्प मालाओं से सजे राजा के भव्य रूप को देख पतिव्रता रेणुका के ह्रदय में नहीं चाहते हुए भी अवैध इच्छा के बीज उग आये और वह लज्जित हो मलिन पड़ गयी.
आश्रम में लौटने पर उसके मलिन मुख को देख जमदग्नि अपनी शक्ति से सब जान गया और उसके क्रोध का पारावार नहीं रहा. उस समय आश्रम में उसके चारों बड़े लड़के थे. उस ने उन्हें तत्काल अपनी माता का वध करने का आदेश दिया पर चारो किंकर्तव्यविमूढ़ हो चुप चाप खड़े रहे. यह देख जमदाग्नि ने शाप दे कर उन्हें जड़ कर दिया.
तब तक राम भी आश्रम पहुंचे. राम को भी जमदग्नि ने वही आदेश दिया. आदेश सुन राम ने बिना झिझके अपने परशु (फरसे) से अपनी माँ का गला काट डाला. रेणुका के लुढ़कते सर को देख जमदाग्नि का क्रोध शांत हुआ और उस ने राम से कहा कि वह उनकी सभी इच्छाएं पूरी कर देगा, राम जो चाहे मांग लें. राम ने सबसे पहले अपनी माँ को पुनर्जीवित कर देने की मांग की; और फिर मांगा कि इस क्रूर कृत्य की स्मृति उन्हें कभी विचलित या खिन्न नहीं करे.
जमदग्नि ने उनकी दोनों इच्छाएं तत्काल पूरी कर दी. तब राम ने मातृ-ह्त्या के पाप से विमोचन माँगा, साथ ही अपने भाइयों का यथापूर्व जीवन. अंत में राम ने दीर्घायु के साथ साथ यह भी माँगा कि वे युद्ध में सदैव अपराजित रहें. जमदग्नि ने राम को वह सब कुछ दिया जो राम चाह रहे थे.
एक दिन हैहय राजा कार्तवीर्य आश्रम में आया जब वहां जमदग्नि या उसका कोई पुत्र नहीं था. राम की माता रेणुका ने राजा का यथोचित सत्कार किया पर दम्भी राजा अपने सत्कार से प्रसन्न नहीं हुआ और चलते चलते वह आश्रम की सबसे दुधारू गाय लेता गया. जब राम आये और उन्होंने बछड़े को अपनी माता के लिए पुकारते सुना तो उनसे नहीं रहा गया और वे सशस्त्र हो गाय वापस लाने चल पड़े.
कार्तवीर्य के एक सहस्त्र बाहु थे जिन्हे राम ने एक के बाद एक काटना शुरू कर दिया. इस बीच कार्तवीर्य के पुत्रों ने आश्रम में जमदग्नि पर आक्रमण कर दिया. जमदग्नि बहुत सिद्ध और तेजवान तपस्वी थे पर पूजा में लीन रहने के कारण वे अपनी रक्षा नहीं कर पाये और अपने पुत्र का नाम पुकारते हुए स्वर्ग सिधार गए. कार्तवीर्य की बाहें काट संध्या काल में जब राम हवन आदि के लिए लकड़ी ले कर आश्रम आये तो उन्होंने अपने मृत पिता का शव देखा.
पिता की मृत्यु के लिए राम ने अपने को दोषी माना – मेरे नहीं रहने के चलते कार्तवीर्य के छुद्र, निर्लज्ज पुत्रों ने एक मृग के समान मेरे निःशस्त्र पिता की ह्त्या कर दी. बहुत देर तक विलाप करने के बाद राम ने अपने दिंवंगत पिता के सारे संस्कार किये. पिता की चिता पर राम ने प्रतिज्ञा की कि वे सृष्टि को क्षत्रिय-विहीन कर देंगे. यथोचित कर्म काण्ड पूरे कर क्रुद्ध राम ने अपने अस्त्र शस्त्र उठाये और अकेले उन्होंने क्षत्रिय-पुत्रों का नाश करना शुरू किया.
सात बार उन्होंने क्षत्रियों को नष्ट किया और कुरुक्षेत्र के समन्तपंचक (4) में क्षत्रियों के रक्त से भरे पांच सरोवर बना दिए. वहां भार्गव राम ने क्षत्रियों के रक्त से अपने पूर्बजों का तर्पण किया. तर्पण के समय उनके पितामह ऋचीक प्रकट हुए थे. ऋचीक की मंत्रणा पर चलते हुए राम ने एक महायज्ञ से देवेन्द्र को तृप्त कर पूरी पृथ्वी का राज्य-भार यज्ञ के पुरोहितों को दे दिया. उसके बाद राम ने दस व्याम (5) चौड़ी और नौ व्याम ऊँची सोने की एक वेदी बनायी. यह वेदी उन्होंने कश्यप ऋषि को दे दी. कश्यप के कहने पर ब्राह्मणों ने उस वेदी के खंड-खंड कर बाँट लिए और तब से ब्राह्मण खाण्डवायन (खंड ग्रहण करने वाले) कहलाये.
क्षत्रिय संहार से राम ने अतुल संपत्ति अर्जित की और अकृतव्रण ने युधिष्ठिर को बताया “तब से वे यहीं महेंद्र पर्वत पर रह रहे हैं. उनका चित्त सब कुछ जनता है, उन्हें पता है कि तुम, राजन, यहाँ आये हुए हो. वे तुम्हारे धर्माचार से प्रसन्न हैं और तुम्हे दर्शन देंगे.”
शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को राम वहां प्रकट हुए. उनकी यथोचित पूजा कर और उनके आशीष ले युधिष्ठिर का दल अगले दिन दक्षिण दिशा में प्रवृत्त हुआ.
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(1) मान्यता है कि महर्षि अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय शिव के अवतार थे. बाद में वैष्णवों ने उन्हें विष्णु का अवतार माना. एक अन्य मान्यता से दत्तात्रेय में तीनो – ब्रह्मा, विष्णु और महेश सम्मिलित रूप में थे. नाथ सम्प्रदाय के लोग उन्हें आदि नाथ मानते हैं. पश्चिम भारत में दत्तात्रेय आज भी दत्त के नाम से भगवन के रूप में पूजे जाते हैं.
(2) ध्यातव्य है कि ऐसी ही परम्परा मद्र देश में भी थी. जब पाण्डु के लिए भीष्म ने शल्य से माद्री का हाथ माँगा था तब शल्य ने भी विनिमय में स्वर्ण-रत्न आदि लिए थे.
(3) उदम्बर शब्द का प्रयोग वट, पीपल, पाकड़, गूलर आदि पांच प्रकार के वृक्षों के लिए किया जाता रहा है
(4) एक मत से, महाभारत काल में समंतपंचक कुरुक्षेत्र का ही दूसरा नाम था.
(5) एक व्याम = दो बाँह।