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कुलदीप नैयर पत्रकारिता सम्मान: भारतीय मीडिया का बड़ा हिस्सा वर्ण-वर्चस्व से ग्रस्त

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जितेंद्र कुमार 

नई दिल्ली। पांचवां कुलदीप नैयर पत्रकारिता सम्मान समारोह 15 नवम्बर को दिल्ली स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान में हुआ जिसकी अध्यक्षता सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिक प्रो. आशीष नंदी ने की। मंच पर प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशान्त, सचिव अशोक कुमार, विजय प्रताप और सम्मान पाने वाले पत्रकार उर्मिलेश उपस्थित थे। 

आशीष नंदी और कुमार प्रशान्त ने उर्मिलेश को सम्मान राशि एक लाख रुपए और स्मृति चिन्ह भेंट किया। इस मौके पर अपने संबोधन में पुरस्कृत लेखक-पत्रकार उर्मिलेश ने समकालीन भारतीय पत्रकारिता की समस्याओं और चुनौतियों पर प्रकाश डाला। 

उन्होंने कहा कि हमारे मीडिया का बड़ा हिस्सा खासतौर पर टेलीविजन और ज्यादातर भाषायी अखबार ‘गोदी’ बन गये हैं। अंग्रेजी के कई अखबार मुश्किल और चुनौती के बावजूद एक हद तक प्रोफेशनल बने हुए हैं। उनके यहां पत्रकारिता मरी नहीं है। यह सुखद है। भारतीय मीडिया का बड़ा हिस्सा सिर्फ ‘गोदी’ ही नहीं है, वह एक ही तरह के वर्ण-वर्चस्व से ग्रस्त होने के कारण विविधता-विहीन भी है। मीडिया के स्वामित्व और मीडिया के पत्रकारीय संचालन-संपादन में सिर्फ उच्चवर्णीय हिंदू समुदाय के लोग पूर्णत: हावी हैं।

हमारे मीडिया के बड़े हिस्से का लोकतंत्र और संविधान को लेकर न तो गहरी प्रतिबद्घता है और न ही उसके जेनुइन सरोकार हैं क्योंकि उसकी संरचना उसे लोकतांत्रिक मूल्यों की पक्षधरता से रोकती है। न तो उसके स्वामित्व में विविधता है और न पत्रकारिता के संचालन-संपादन करने वाले कर्मियों के बीच विविधता है। उत्तर और मध्य भारत में यह बहुत साफ-साफ दिखता है। भारत की सामाजिक विविधता मीडिया में क्यों नहीं प्रतिबिम्बित होती? 

मीडिया स्वामित्व के प्रश्न पर भारतीय संसद में सन् 2013 में सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय से सम्बद्ध संसद की स्थायी समिति एक बहुत महत्वपूर्ण रिपोर्ट पेश की गई। उसने मीडिया स्वामित्व के कानून में जरूरी लोकतांत्रिक सुधार के लिए कुछ बड़े सुझाव दिये थे। उस रिपोर्ट पर सरकारों ने कोई सुधार कार्यक्रम नहीं शुरू किये। संसदीय समिति के अलावा देश के अनेक संपादकों ने भी समय-समय पर क्रॉस मीडिया स्वामित्व के सवाल को संबोधित करने की सरकार से मांग की। पर कभी कोई पहल नहीं! इससे सत्ता और मीडिया संस्थानों के मालिकों के रिश्तों को समझना कठिन नहीं है।

सम्मान समारोह में अनेक पत्रकार, लेखक, शिक्षक और छात्र मौजूद थे. इससे पहले यह सम्मान रवीश कुमार, निखिल वागले, अजीत अंजुम, आरफा खानम शेरवानी को मिल चुका है। 

इस कार्यक्रम में गौर करने वाली बात यह थी कि अपवादों को छोड़कर सारे सवर्ण व सवर्ण प्रगतिशील पत्रकार गायब थे। यह सवाल इसलिए लाजिमी है क्योंकि इस तरह के कार्यक्रम में सामान्यतया अंग्रेजी का कोई भी पत्रकार शिरकत नहीं करता है जब तक कि वह वक्ता न हो। लेकिन हिन्दी के पत्रकारों के साथ वही बात लागू नहीं होती। वे इस तरह के कार्यक्रम में भागीदारी करते रहे हैं। लेकिन इस आयोजन से एकाएक गायब हो जाना किसकी तरफ इशारा करता है? उर्मिलेश जी की वैचारिकी? नहीं, बिल्कुल नहीं। वे तो वैचारिक रुप से खुद को प्रगतिशील खेमे में ही मानते हैं। फिर जातीय दुराग्रह? बिल्कुल वही। 

जब उर्मिलेश जी अपने वक्तव्य में पत्रकारिता में जाति और उनकी सहभागिता पर प्रश्न उठा रहे थे मेरे इर्द-गिर्द बैठे एक आध प्रगतिशीलों की असहमति की फुसफुसाहट मैं खुद सुन पा रहा था।

सवाल यह है कि उर्मिलेश जी को छोड़कर चार में से तीन पुरस्कार विजेता रवीश कुमार, अजीत अंजुम और आरफा खानम शेरवानी दिल्ली-एनसीआर में रहते/रहती हैं, जबकि निखिल वागले मुबंई में। बातचीत में पता चला कि आरफा साल भर के लिए पढ़ाई के काम से दिल्ली से बाहर चली गयी हैं। लेकिन दिल्ली में रहने वाले रवीश कुमार और अजीत अंजुम को तो इस पुरस्कार समारोह में शामिल होना ही चाहिए था जो पुरस्कार उन्हें खुद मिल चुका है।

सवाल असहज करने वाला है, और यह लिखे जाने के बाद हमला करने वाला सवर्ण प्रगतिशील खेमा काफी तीखे स्वर में हमलावर भी होगा क्योंकि आज भी बीजेपी-संघ के इतर इन्हीं का सभी जगह कब्जा है और वही निर्णयकर्ता हैं। लेकिन हकीकत तो यही है कि कांग्रेस के प्रगतिशील खेमे में दलित-पिछड़ों की ‘आवाज’ सवर्णों के मुंह से ही सुनाई पड़ती है। उर्मिलेश जी ने अपने वक्तव्य में दूसरे शब्दों में इसका जिक्र भी किया था।

फिर भी, कुलदीप नैयर पत्रकारिता सम्मान के ज्यूरी का मैं शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने उर्मिलेश जी को इस पुरस्कार के योग्य समझा!(

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