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*भाषा-साहित्य : हिंदी का कोई भला नहीं करेगी नुक्ते पर नुक्ताचीनी*

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      ~ पुष्पा गुप्ता 

हिंदी की शुद्धता-अशुद्धता की चिंता के बीच हाल के वर्षों में एक तरफ भाषा की ‘पवित्रता’ का आग्रह सामने आ खड़ा हुआ है, तो दूसरी तरफ कुछ लोग हिंदी को आम आदमी की समझ और पहुंच तक बनाने के नाम पर ‘इजी लैंग्वेज’ का इस्तेमाल कर रहे हैं। ‘आसान भाषा’ और ‘भाषा की शुद्धता’ के इन हिमायतियों की कोशिशें हिंदी का भला तो नहीं ही करेंगी, नुकसान जरूर पहुंचाएंगी।

       कोई भी भाषा किसी ‘रीजन’ की होती है, किसी ‘रिलीजन’ की नहीं – इस वाक्य में ‘रीजन’ और ‘रिलीजन’ का इस्तेमाल दुरूह या क्लिष्ट भाषा से बचने के लिए नहीं किया गया। बल्कि उस पंच के लिए किया गया जो ‘क्षेत्र’ और ‘धर्म’ लिखने से पैदा नहीं होता। वैसे, यह सच है कि भाषा कभी भी किसी धर्म की नहीं होती, वह क्षेत्र की होती है और इसी नाते वह खुद को फैलाने के लिए अन्य क्षेत्रों से जुड़ती हुई अपने आप को समृद्ध करती है।

       ऐसे में अगर हम हिंदी की ‘पवित्रता’ के नाम पर इस भाषा में शामिल हो चुके दूसरी भाषाओं के शब्दों को खोज-खोजकर खारिज करते जाएंगे तो हिंदी विपन्न होगी, समृद्ध नहीं। इसी तरह व्याकरण के नाम पर नए और सार्थक प्रयोगों को अगर हम बाधित करेंगे, तो भाषा का नयापन बरकरार नहीं रह सकता। मुझे ध्यान है कि स्नातकोत्तर में मोहन राकेश के नाटक आधे-अधूरे की समीक्षा में मैंने लिखा था ‘जीवन में बहुत-कुछ ऐसा होता है…’। 

     इस वाक्य को अशुद्ध बताते हुए एक प्रोफेसर ने कहा था कि हिंदी व्याकरण के मुताबिक ‘बहुत’ और ‘कुछ’ का इस्तेमाल एकसाथ नहीं होता। तब मैंने उनसे इतना ही कहा था कि मुझे व्याकरण का ज्ञान तो नहीं, लेकिन जब अंग्रेजी में ‘मोर एंड लेस’ और उर्दू में ‘कमोबेश’ का इस्तेमाल होता है, तो हिंदी में हम बहुत-कुछ का इस्तेमाल क्यों नहीं कर सकते। मेरा आज भी मानना है कि अगर व्याकरण इन चीजों का निषेध करता है तो हमें ऐसे व्याकरण को संशोधित करने की जरूरत है।

कोई भी भाषा सिर्फ भाव व्यक्त नहीं करती, वह संस्कृति, संस्कार और परिवेश भी अभिव्यक्त करती है। यही बात हिंदी के साथ भी लागू होती है। गौर करें कि किसी कहानी, उपन्यास या नाटक में जो अलग-अलग वर्ग के पात्र होते हैं, उन सबकी भाषा भी अलग-अलग होती है। उनकी शब्दावलियां अलग होती हैं। महाभारत और रामायण के पात्रों को याद करें तो वहां भी यह बात दिख जाएगी। एक बात और कि हिंदी साहित्य की समृद्ध परंपरा बताने के लिए हम 10वीं शताब्दी के पहले तक के साहित्य को अपना बताते हैं।

      हम काव्य परंपरा पर गर्व करते हुए आज की आधुनिक कविताओं से लेकर रासो काव्य तक यात्रा कर जाते हैं। जबकि यह जानते हैं कि तब से लेकर आज तक हिंदी बहुत बदल चुकी। इतनी कि द्विवेदी युग के पहले की कविताओं में हम चाहें भी तो आज की हिंदी का चेहरा नहीं दिख पाता।

हिंदी भाषी प्रदेशों में हिंदी की शुचिता के जो सवाल उठ रहे हैं, वह दरअसल हिंदी की चिंता से नहीं बल्कि हिंदुत्व की चिंता से प्रेरित हैं। यह एक खास विचारधारा से प्रेरित चिंता है जो भारत की कौमी एकता के बनिस्बत हिंदू राष्ट्र का समर्थन करती है। यही वजह है कि उन्हें ‘वजह’ पर ‘ऐतराज’ नहीं होता, आपत्ति होती है और ‘कारण’ उन्हें लुभाता है। उन्हें हिंदुत्व जिस तरह से खतरे में नजर आता है, उसी तरह हिंदी की समृद्धि उन्हें संतप्त करती है और वे हिंदी को उर्दू शब्दों से मुक्त कर हिंदी की ‘पवित्रता’ कायम करना चाहते हैं।

      भाषा की राष्ट्रवादी शुचिता से हटकर अब इसकी समृद्धि के मूल सवाल पर चिंता करने की जरूरत है। हिंदी की समृद्धि का मतलब दूसरी भाषाओं के शब्दों को ग्रहण करना तो है ही, हिंदी के अपने शब्द गढ़ना भी उतना ही जरूरी है। दुर्भाग्य से यह जरूरी कोशिश पूरी हिंदी पट्टी से गायब है। जिस तरह हिंदी पट्टी के लोगों ने ‘त्रिभाषा सूत्र’ अपनाने में सुगमता की चाह में बेईमानी की, वैसी ही बेईमानी अब वे नए शब्द गढ़ने में कर रहे हैं।

       अगर ‘त्रिभाषा सूत्र’ का पालन करने के क्रम में इन्होंने सहभाषा के रूप में संस्कृत चुनने के बजाए किसी अहिंदी प्रदेश की भाषा का विकल्प रखा होता, तो अहिंदी प्रदेशों में आज की तरह हिंदी का विरोध नहीं हो रहा होता। ऐसे ही नए शब्द गढ़ने के बजाए दूसरी भाषाओं विशेष कर अंग्रेजी के शब्द हू-ब-हू अपना लेने से हिंदी की छवि और प्रकृति थोड़ी कमजोर पड़ने लगी है। गौर करें न कि ‘इंग्लिश’ के लिए हिंदी ने ‘अंग्रेजी’ लिखना ज्यादा श्रेयस्कर समझा। ‘रेस्टोरेंट’ के लिए ‘रेस्तरां’ गढ़ा और अंग्रेजी के ‘अल्टिमेटम’ की जगह हिंदी ने ‘अंतिमेत्थम’ बनाया।

हाल के वर्षों में ‘लिव-इन’ के लिए ‘सहजीवन’ शब्द चल पड़ा। तो गढ़ने की यह कला हम भूलते जा रहे हैं। समाचारों के मुद्रण और दृश्य दोनों माध्यमों में भाषा के साथ खेलवाड़ होता आप देख सकते हैं। ‘ब्रेकिंग न्यूज’ की जगह ‘अभी-अभी’ जैसे शब्द क्यों नहीं चलाए जा सकते। बल्कि कई बार तो हिंदी में घुसे हुए अंग्रेजी शब्द जैसे जोड़ (पैच, पैबंद) की तरह दिखते हैं, उर्दू के शब्द उतने ही घुले-मिले दिखते हैं।

      ‘लेखनी’ की जगह ‘पेन’ से लिखना तकलीफ देता है, जबकि ‘कलम’ सुविधाजनक और अपनी लगती है। मजेदार बात यह कि अंग्रेजी में संज्ञावाचक शब्दों का कोई लिंग नहीं, इसलिए हिंदी में छूट लेते हुए कोई इसे ‘अच्छी पेन’ लिखता है तो कोई ‘अच्छा पेन’। उर्दू में कलम पुंलिंग है लेकिन हिंदी ने अपने यहां इसे स्त्रीलिंग का संस्कार दिया। स्त्रीलिंग संस्कार देने के पीछे शायद वजह यह रही हो कि उर्दू में कलम के कई अर्थ हैं – लेखनी/पेन, पेड़ की डाली जो काटकर लगाई जाती है, काटा हुआ, तराशा हुआ, कनपटी के बाल, किसी पदार्थ का लंबा और पतला टुकड़ा’ और यह कलम पुंलिंग है।

      हिंदी में ‘लेखनी’ के अर्थ में ‘कलम’ पुंलिंग हो गई, जबकि शेष सारे अर्थ में वह पुंलिंग रह गया। अब इस बात पर आप अपना कलम (कनपटी के बाल) खुजाएं या चाहें तो भाषा रचने वालों का सिर कलम कर दें, कलम अपना काम करती रहेगी। भरोसा करें यह ‘लेग पुलिंग’ करने की कोशिश नहीं है, पर अभी-अभी ध्यान गया कि यह ‘पुंलिंग’ शब्द (जिसे कभी ‘पुंल्लिंग’ भी लिखा जाता रहा था), अब पुलिंग होता जा रहा है।

इस क्रम में इस बात पर भी ध्यान जाता है कि हिंदी में घुस रहे अंग्रेजी शब्दों पर उतनी आपत्ति नहीं होती, जितनी उर्दू से आए शब्दों पर होने लगी है। हां, यह मानता हूं कि भाषा आपकी ऐसी होनी चाहिए जो आपके भाव तो व्यक्त करे ही, उस भाव के साथ उसका परिवेश भी झलकाए। भाषा बरतने के मामले में कई सोच काम करती है।

       कुछ लोग भाषा की अस्मिता, उसकी पहचान के नाम पर तमाम उर्दू शब्दों से (जो हिंदी में रच-बस चुके हैं उनसे भी) परहेज करना चाहते हैं, जबकि कुछ लोग भाषा की सुंदरता और बहाव का हवाला देकर (कई बार अपनी विद्वता जताने के लिए भी) हिंदी शब्दों से किनारा करने की कोशिश करते हैं। ऐसी तमाम स्थितियां हिंदी के हित में तो नहीं ही हैं, लेखन के फैलाव के लिए भी घातक हैं। दरअसल, भाषा संदर्भों के अनुसार होनी चाहिए, माहौल के मुताबिक होनी चाहिए। अब कोई लिखे कि ‘बादशाह राम की बेगम सीता की जुबान पर सरस्वती बसती थीं’ तो यह वाक्य अपना अर्थ तो दे जाता है, लेकिन भाषा के संदर्भ में लेखक की नादानी और नासमझी की ओर ज्यादा इशारा करता है।

     भाषा बरतने की तमीज किसी व्याकरण से नहीं समझाई या सिखाई जा सकती, वह अनुभवों, परिवेश और अध्ययन का नतीजा होती है।

हिंदी हो चुके उर्दू शब्दों के इस्तेमाल को लेकर आपत्ति जताने वालों का एक तर्क यह भी होता है कि जब उर्दूवालों ने हिंदी शब्दों को नहीं अपनाया, तो हमलोग उर्दू शब्दों को क्यों अपनाएं। इस (कु)तर्क का सामान्य सा जवाब मेरे पास यही है कि आप दीन-हीन या समृद्ध पड़ोसी की नकल कर अपना घर नहीं चलाते। आपकी जरूरतें अपनी हैं, आपके साधन अपने हैं। आप अपने अनुसार ही अपने घर की चीजें तय करते हैं। भाषा के संदर्भ में भी यही बात कहना चाहता कि यह आपकी निजी पसंद का मामला है।

      अगर आप उर्दू ही क्यों, किसी भी भाषा से हिंदी में आए शब्दों का उपयोग नहीं करना चाहते, तो न करें। पर जो लोग लिखने-बोलने में अन्य भाषाओं से आए शब्दों का इस्तेमाल सहज रूप में कर रहे हैं, उनपर आपत्ति भी न जताएं। हम सचिन तेंदुलकर की बल्लेबाजी की आलोचना यह कह कर नहीं करते सकते कि वह जहीर खान की तरह गेंदबाजी करना नहीं जानते या अजहरूद्दीन के कलात्मक क्षेत्ररक्षण या बल्लेबाजी की तुलना में धोनी की विकेटकीपिंग या बल्लेबाजी को नहीं रख सकते।

     सामान्य सी बात है कि आपके पास जैसी भाषा है, जैसे शब्द हैं, जिसमें आप सहज हैं, वैसा ही लिखें। पढ़ने वाले आपकी भाषा को अपनी समझ और पसंद की कसौटी पर कसेंगे।

हम अपने दैनंदिन (रोज के) जीवन में कई शब्द ऐसे इस्तेमाल करते हैं जो उर्दू से आए हैं। सच तो यह है कि इनका इस्तेमाल करते हुए हमारा ध्यान भी नहीं जाता। ऐसे ही कुछ शब्दों पर ध्यान दें –

ईमानदार निष्ठावान
इनाम पुरस्कार
इंतजार प्रतीक्षा
इत्तफाक संयोग
सिर्फ केवल, मात्र
शहीद बलिदान
यकीन विश्वास, भरोसा
इस्तकबाल स्वागत
इस्तेमाल उपयोग, प्रयोग
किताब पुस्तक
मुल्क देश
कर्ज ऋण
तारीफ प्रशंसा
तारीख दिनांक, तिथि
इल्जाम आरोप
गुनाह अपराध
मुजरिम अपराधी
मुलजिम आरोपित (प्रचलन में ‘आरोपी’)
कानून विधि
शुक्रिया धन्यवाद, आभार
सलाम नमस्कार, प्रणाम
मशहूर प्रसिद्ध
अगर। यदि
ऐतराज। आपत्ति
सियासत राजनीति
इंतकाम प्रतिशोध
इज्जत मान, प्रतिष्ठा
इलाका क्षेत्र
एहसान आभार, उपकार
एहसास अनुभव
मसला समस्या
इश्तिहार विज्ञापन
इम्तिहान परीक्षा
कुबूल स्वीकार
मजबूर विवश
मंजूर स्वीकृत
मौत मृत्यु, निधन
बेइज्जती तिरस्कार
दस्तखत हस्ताक्षर
हैरानी आश्चर्य
कोशिश प्रयास, चेष्टा
किस्मत भाग्य
फैसला निर्णय
हक अधिकार
मुमकिन संभव
फर्ज कर्तव्य
उम्र आयु
साल वर्ष
शर्म लज्जा
सवाल प्रश्न
जवाब उत्तर
जिम्मेदार उत्तरदायी
फतह विजय
धोखा छल
काबिल योग्य
करीब समीप, निकट
जिंदगी जीवन
हकीकत सत्य, सच
झूठ मिथ्या, असत्य
जल्दी शीघ्र
इनाम पुरस्कार
तोहफा उपहार
इलाज उपचार
हुक्म आदेश
शक संदेह
ख्वाब स्वप्न
तब्दील परिवर्तित
कसूर दोष
बेकसूर निर्दोष
कामयाब सफल
गुलाम दास
जन्नत स्वर्ग
जहन्नुम/दोजख नर्क
खौफ डर
जश्न उत्सव
मुबारक बधाई/शुभेच्छा
लिहाजा अर्थात
लिहाज सम्मान
निकाह विवाह/शादी
आशिक प्रेमी
माशूका प्रेमिका
हकीम वैद्य
रुह/ईमान आत्मा
खुदखुशी आत्महत्या
इजहार व्यक्त
बादशाह राजा
ख्वाहिश महत्त्वाकांक्षा
जिस्म शरीर/अंग
हैवान दैत्य/असुर
रहम दया
बेरहम निर्दयी
खारिज रद्द
इस्तीफा त्यागपत्र
रोशनी प्रकाश
मसिहा देवदूत
पाक पवित्र
कत्ल हत्या
कातिल हत्यारा

इन सबके अलावा भी रोज हम ढेर सारे ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, जो उर्दू से आकर हिंदी में समा गए हैं। क्या इन शब्दों को आप भी उर्दू का ही मानते हैं? इनसे हिंदी भाषा समृद्ध हुई है या भ्रष्ट? ऐसी ही जिद पर बैठी हमारी देवभाषा संस्कृत अब मृतप्राय हो चुकी। तप की शुद्धता के नाम पर शंबूक की हत्या तो हम कर चुके, कम से कम भाषा की शुचिता के नाम पर हिंदी की हत्या की कोशिश तो न करें।

गौर करें कि हिंदी में आए उर्दू के इन शब्दों में कहीं भी नुक्ते का इस्तेमाल नहीं किया। दरअसल, हिंदी में ‘क, ख, ग, ज और फ’ पांच ही ऐसे वर्ण हैं जहां हम उर्दू की तरह नुक्ता लगा सकते हैं। लेकिन उर्दू में ऐसे वर्ण कई हैं। जानकार बताते हैं कि उर्दू में ‘ज’ ही 6 तरह के होते हैं, लेकिन 5 ‘ज’ पर नुक्ता लगते हैं, 1 ‘ज’ पर नहीं। अब जरूरी नहीं कि हिंदी पढ़ने-लिखने वाले सारे लोग उर्दू के भी जानकार हों। इसलिए कहां नुक्ता लगेगा या कहां नहीं, उन्हें भी पता नहीं होता।

     एक कार्यक्रम में मनोविनोद करते हुए गीतकार जावेद अख्तर ने बताया था कि कई लोग उनके जावेद नाम के ‘ज’ में भी नुक्ता लगा दिया करते हैं, जो बिल्कुल गलत है। तो ऐसे में बेहतर है कि नुक्ता न लगाया जाए। नुक्ता लगाने के हिमायती कुछ लोगों का मानना है कि उर्दू के कई शब्दों में नुक्ता जरूरी हो जाता है। बगैर नुक्ते के वह शब्द दूसरा ही अर्थ देने लगता है। उदाहरण के तौर पर वे ‘राज’ और ‘राज़’ बताया करते हैं। वे बताते हैं कि बगैर नुक्ता वाले ‘राज’ का मतलब ‘शासन’ होता है जबकि नुक्ता के साथ वाले ‘राज़’ का मतलब ‘गुप्त’।

       इससे ज्यादा बड़ा फर्क ‘जलील’ और ‘ज़लील’ में नजर आता है। जलील का मतलब ‘सम्मान’ होता है जबकि ‘ज़लील’ का अर्थ ‘नीच’। हिंदी बोलने वालों के लिए ‘चाय ताजी’ होती है, लेकिन उर्दू के जानकार हमेशा ‘ताज़ा चाय’ बोलेंगे। दरअसल, उर्दू में ‘ताज़ी’ भी एक शब्द है जिसका अर्थ ‘देशी घोड़ा और शिकारी कुत्ता’ होता है।

नुक्ता लगाने का यह तर्क गले से नीचे नहीं उतर पाता। हिंदी में ऐसे ढेर सारे शब्द हैं जिनके रूप एक हैं, मगर उनके अर्थ भिन्न हैं। अर्थ की भिन्नता बताने के लिए हमने शब्दों का रूप नहीं बदल दिया। बल्कि लक्षणों के आधार पर अर्थ निकालने की परंपरा विकसित की। ‘कहा’ का बहुवचन रूप ‘कहीं’ वाक्यों में बहुत बार इस्तेमाल होता है। मसलन, ये बातें फलां ने कहीं। लेकिन इस ‘कहीं’ का अर्थ हम ‘somewere वाले कहीं’ के रूप में नहीं लेते।   

       ईमानदार बनिए जैसे वाक्यों में ‘बनिए’ शब्द जातिसूचक है या सलाह – यह हम संदर्भों के आधार पर ही समझते हैं। ‘नई’ शब्द ‘नया’ के लिए इस्तेमाल किया गया या ‘नहीं के ध्वन्यात्मक अर्थ’ के लिए यह भी हम संदर्भ से ही समझते हैं, तो फिर नुक्ता और बगैर नुक्ता वाले शब्दों का अर्थ संदर्भों के आधार पर क्यों नहीं समझा जा सकता।

नुक्ते को हिंदी में तरजीह देने वाले कुछ लेखकों का मानना है कि वे इसका इस्तेमाल आभूषण के रूप में करते हैं। वे कहते हैं कि नुक्ता से भाषा का सौंदर्य बढ़ जाता है। जब नुक्ते के साथ शब्द को बोले जाते हैं तो उससे ध्वन्यात्मक सौंदर्य भी पैदा होता है। लेकिन इन लेखकों का यह भी मानना है कि हिंदी में जरूरी नहीं है कि नुक्ता लगाए जाएं, गलत जगहों पर तो हरगिज न लगाए जाएं। लेकिन आप आश्वस्त हैं किसी शब्द में नुक्ते को लेकर, तो आप लगाएं। इसके लगाने से हिंदी की सेहत पर कोई नकारात्मक असर नहीं होगा।

     हिंदी में नुक्ते का इस्तेमाल न करने वाले कुछ लेखक मानते हैं कि इससे हिंदी पर दबाव बढ़ेगा। उनका मानना है कि जो लोग हिंदी में नुक्ते का इस्तेमाल कर रहे हैं, वे लोग दरअसल अपनी विद्वता या श्रेष्ठता मनवाने का गैरजरूरी दबाव पैदा करते हैं। वह यह दिखलाना चाहते हैं कि उन्हें नुक्ते का ज्ञान है, वह विदेशज शब्दों के प्रति भी सतर्क और सजग हैं। यह अलग बात है कि उनके लिखे में भी नुक्ते की गड़बड़ियां बहुत आसानी से मिल जाएंगी। इजाज़त जैसे शब्द इज़ाजत के रूप में छपे दिख जाएंगे।

नुक्ते को लेकर एक प्रसंग साझा करता हूं। मेरे बच्चे जब छोटे थे, तो उन्हें उनकी कक्षा में शिक्षक ने बताया कि हिंदी के 7 वर्णों में नुक्ता लगता है। श्यामपट्ट (ब्लैकबोर्ड) पर लिखकर उन्होंने बच्चों से उसे अपनी कॉपी में उतार लेने को कहा। शिक्षक के मुताबिक, नुक्ता वाले हिंदी के वर्ण थे – क, ख, ग, ज, ड, ढ और फ। इस स्थिति के बाद आपको समझने की जरूरत है कि नुक्ते को लेकर हमारे समाज में कितनी समझ है। यह लेख लिखने से पहले मैंने हिंदी भाषी अपने कई ऐसे साथियों से बात की, जिनका वास्ता साहित्य या पत्र-पत्रिकाओं से नहीं है।

     कोई इंजीनियर है तो कोई व्यवसायी और कोई डॉक्टर है तो कोई सॉफ्टवेयर डेवलपर। पर ये सब लोग हिंदी बोलते-लिखते हैं। इन सबसे मैंने हिंदी में नुक्ते को लेकर उनकी राय पूछी। अधिकतर साथियों ने मुझसे पूछा कि ये नुक्ता होता क्या है? जब मैंने उन्हें ‘ग़ज़ल’ का उदाहरण देकर समझाया तो उन्होंने स्वीकार किया कि उन्होंने ऐसा शब्द देखा है, पर उन्हें नहीं पता था कि इसे नुक्ता कहते हैं।

इन प्रसंगों की चर्चा का मकसद महज इतना है कि जब लोक में बोली जानेवाली हिंदी के हम हिमायती हैं, तो फिर इन आम पाठकों पर नुक्ते का एक अतिरिक्त बोझ क्यों दिया जाए। जब हम दुरुह शब्दावलियों से बचने की कोशिश करके एक सामान्य भाषा अख्तियार करना चाहते हैं और इसके लिए दूसरों को भी प्रेरित करते हैं तो फिर नुक्ते के तौर पर एक और ‘अलंकार’ क्यों?

     रही बात ध्वन्यात्मक सौंदर्य की, तो हम हिंदी वर्णमाला के मूर्धन्य ‘ष’ का उच्चारण नहीं बचा पाए, इसे हमसब ‘श’ की तरह बोलते हैं, तो फिर नुक्ते के उच्चारण का कष्ट क्यों? उच्चारण के कष्ट से बचने के नाम पर हमने ‘जिह्वा’ को नजरअंदाज कर ‘जुबान’ का सहारा लिया तो फिर नुक्ते के उच्चारण के अभ्यास का कष्ट हिंदीभाषियों पर क्यों थोपा जाए? और इन सबसे ज्यादा जरूरी बात यह कि हमने दूसरी भाषाओं के शब्दों को अपनी भाषा में शामिल करने के लिए उसका हिंदीकरण किया है, तो यह अभ्यास क्यों छोड़ दिया जाए?

     यह रचनात्मकता हमने अपने लोक और उनकी बोलियों से उठाई है, आज भी वहां विदेशी नामों का स्वदेशीकरण सहज रूप में हो रहा है, नए शब्द खूब बन रहे हैं। हिंदी में उसे परिमार्जित कर शामिल किए जाने पर विचार किया जाना चाहिए।

      लेकिन इन सबके विपरीत जब हिंदी में रचे-बसे उर्दू के शब्दों को खींचकर बाहर करने की कोई कोशिश दिखती है तो ऐसा लगता ही नहीं कि यह भाषा के प्रति कोई शास्त्रीय या लेखकीय चिंता है, बल्कि यह पुरखों से चली आ रही लड़ाई का नतीजा जैसा लगता है, जिसका नाता भाषा से कम और संप्रदाय से ज्यादा हो। एक सच यह भी है कि हिंदी भाषा को व्याकरण के बल पर हांका नहीं जा सकता। भाषा के शब्द रूपों में होने वाले परिवर्तनों को शुद्धता के नाम पर दबाया नहीं जा सकता। बल्कि होना यह चाहिए कि अगर शब्द के रूप में कोई अतार्किक परिवर्तन हो रहा है, तो उसकी वजहें तलाशी जानी चाहिए।

       शब्दों के रूप पर सार्थक विचार और संवाद होने चाहिए और फिर किसी नतीजे पर पहुंचकर शब्द तय किए जाएं और फिर उनके प्रचार-प्रसार के प्रति सजग हुआ जाए। हमें यह समझने की जरूरत है कि किसी भी भाषा में ऐसे परिवर्तन स्वाभाविक हैं। साथ ही यह भी मानना चाहिए कि भाषा को व्याकरण से बांधना जरूरी तो हो सकता है, पर भाषाएं व्याकरण की अनुगामिनी नहीं हो सकतीं।

    अलग-अलग दौर में भाषाएं बदलती रहेंगी, कुछ नए शब्द और संस्कार उनमें जुड़ते रहेंगे और कई मिटते भी रहेंगे। ऐसे में हिंदी भाषा को भी किसी व्याकरण के चौखटे में कस कर नहीं रखा जा सकता। इस चौखटे से इतर भी हिंदी बनती रहेगी, अपना रास्ता गढ़ती रहेगी।

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