अग्नि आलोक
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लो हिया बनाना चाहते थे अंबेडकर को सभी भारतीयों का नेता

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अक्षय मुकुल

लो हि या लि खते हैं, “डॉ क्टर अंबेडकर मेरे लि ए भा रती य रा जनी ति में एक महा न व्यक्ति थे और गां धी जी की तरह ही हिं दुहिं दुओं
में भी बहुत महा न थे. सा भा र नेहरू मेमो रि यल संग्रहा लय और पुस्तका लय
लो हि या दलि त नेता बी . आर. अंबेडकर को अपनी नई पा र्टी में शा मि ल करने के लि ए बेता ब थे. द प्रिं टप्रिं के लि ए 2018 के
एक लेख में का नून के छा त्र अनुरा ग भा स्कर ने लो हि या द्वा रा अम्बेडकर को पा र्टी में ला ने के प्रया सों का वि स्तृत वर्णन
कि या है. 10 दि संबर 1955 को लो हि या ने अंबेडकर को एक पत्र लि खा . उन्हों ने अंबेडकर को अपनी नई पत्रि का मैनका इंड
के लि ए एक लेख लि खने के लि ए आमंत्रि त कि या , जि समें वे अंबेडकर द्वा रा “जा ति की समस्या को पूरी तरह से दि खा ना “
चा हते थे. लो हि या ने मध्य प्रदेश में संसदी य अभि या न में अंबेडकर के बा रे में जो भा षण दि ए थे, उनका उल्लेख कि या .
उन्हों ने यहां तक कहा कि वो चा हते हैं कि अंबेडकर सि र्फ “अनुसूचि त जा ति के नहीं , बल्कि भा रती य लो गों के भी नेता बनें.”
लो हि या के कुछ सहयो गि यों ने सि तंबर 1956 में अंबेडकर से सो शलि स्ट पा र्टी और अंबेडकर के अखि ल भा रती य अनुसूचि त
जा ति फेडरेशन के बी च संभा वि त गठबंधन पर चर्चा की . अंबेडकर ने 24 सि तंबर 1956 को लो हि या को वा पस लि खते हुए
कहा कि अपनी दि ल्ली की अगली या त्रा के दौ रा न वो लो हि या से मि लना चा हते हैं. पत्र में अंबेडकर ने लो कतंत्र में एक
मजबूत वि पक्ष की आवश्यकता पर बल दि या , और “नई जड़ों वा ली एक नई रा जनी ति क पा र्टी की वका लत” की .
1 अक्टूबर 1956 को लो हि या ने अपने सहयो गि यों को लि खा और अंबेडकर के सा थ उनकी प्रस्ता वि त बैठक के महत्व पर
चर्चा की . उन्हों ने लि खा कि बैठक न केवल इसके रा जनी ति क परि णा मों के लि ए महत्वपूर्ण हो गी , बल्कि “इस बा त के लि ए
एक बड़ी हो गी कि पि छड़ी और अनुसूचि त जा ति यां भी उनके जैसे महा न व्यक्ति को पैदा कर सकती हैं.” उन्हों ने उसी दि न
अंबेडकर को पत्र भी लि खा जि समें उन्हें स्वा स्थ की उचि त देखभा ल करने का अनुरो ध कि या . 5 अक्टूबर 1956 को
अंबेडकर ने लो हि या को अपनी प्रस्ता वि त बैठक का समय नि र्धा रि त करने के लि ए लि खा .

बैठक हो ने से पहले 6 दि संबर 1956 को अंबेडकर का नि धन हो गया .
लो हि या ने लि मये को 1 जुला ई 1957 को लि खा , “आप अच्छी तरह से समझ सकते हैं कि डॉ क्टर अंबेडकर की आकस्मि क
मृत्यु पर मेरा दुख कुछ हद तक व्यक्ति गत रहा है. ये हमेशा से मेरी महत्वा कां क्षा थी कि हम उन्हें न केवल संगठना त्मक
रूप से बल्कि पूरे वैचा रि क अर्थों में भी अपनी ओर आकर्षि त करें और वो पल नि कट आ गया था .” लो हि या आगे लि खते हैं,
“डॉ क्टर अंबेडकर मेरे लि ए भा रती य रा जनी ति में एक महा न व्यक्ति थे और गां धी जी के अला वा हिं दुहिं दुओं में भी बहुत महा न

हिं दूहिं दूथे. इस तथ्य ने मुझे हमेशा शां ति और वि श्वा स दि या है कि हिं दूहिं दूधर्म की जा ति व्यवस्था एक दि न नष्ट हो सकती है.”


आंबेडकर और लो हि या के दर्शन में जा ति
लो हि या और डा . बी .आर. आंबेडकर के वि चा र, क्रमशः , नी ची जा ति यों और दलि तों के आंदो लनों की प्रेरक शक्ति रहे हैं।
लो हि या और आंबेडकर समका ली न थे एवं जा ति वा द का वि रो ध दो नों का एजेंडा था । यह आश्चर्यजनक है कि इसके बा वजूद
दो नों की वैचा रि क समा नता एं खो जने के प्रया स बहुत कम हुए हैं
BY PANKAJ KUMAR पंकज कुमा र ON JULY 10, 2017 NO COMMENTSREAD THIS ARTICLE IN
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यद्यपि आंबेडकरवा दी और समा जवा दी आंदो लनों ने भा रती य समा ज का का फी हद तक प्रजा तां त्रि करण कि या है[1] परंतु
जा ति प्रथा को उखा ड़ फेंककर एक समता वा दी समा ज के नि र्मा ण की उनकी परि यो जना अभी भी अधूरी है। प्रजा तां त्रि करण
की बहुचर्चि त दूसरी लहर[2] के दो दशक बा द, ऐसा लगता है कि सा मा जि क न्या य की रा जनी ति और नी ति यां एक बड़े
गति रो ध का सा मना कर रही हैं (या दव, 2009:1)। सन् 2017 के उत्तरप्रदेश वि धा नसभा चुना वों में समा जवा दी पा र्टी (सपा )
और बहुजन समा ज पा र्टी (बसपा ) का जो हश्र हुआ, वह भा रत में नी ची जा ति की रा जनी ति में घुस आईं बुरा ईयो को
प्रति बिं बिबिंबित करता है। ये बुरा ईयां इस अर्थ में मूलभूत और महत्वपूर्ण है कि वे सा मा जि क न्या य के वि चा र को ही नका र

करने वा ली है। आज दलि त, आदि वा सी , ओबी सी और मुसलमा नों जैसे वि भि न्न सा मा जि क समूह और समुदा य अगर एक-
दूसरे के वि रूद्ध नहीं तो एक-दूसरे से अलग बा तें तो कर ही रहे हैं। सा मा जि क न्या य की रा जनी ति अपने मूल सा मा जि क

आधा र को वि स्ता र नहीं दे सकी है (उपरो क्त, 2-3)। हि न्दुत्व की शक्ति यों की जी त न केवल सा मा जि क न्या य के वि चा र
और उसकी नीं व को कमजो र करने वा ली है, वरन् वह उस ‘इज्जत‘ को भी मि टा ने वा ली है जि से स्वतंत्रता के बा द के भा रत
में नी ची जा ति यों ने कठि न प्रया सों से अर्जि त कि या है। आज आवश्यकता इस बा त की है कि एक व्या पक गठबंधन का
नि र्मा ण कि या जा ए। इस गठबंधन का उद्धेश्य केवल चुना व जी तना नहीं हो ना चा हि ए। उसे भेदभा व, शो षण और अपमा न
के वि रूद्ध संघर्ष और प्रजा तां त्रि क सि द्धां तों और मूल्यों के संवर्धन के प्रति प्रति बद्ध भी हो ना चा हि ए।[3]
हमें आज बहुजन रा जनी ति के चिं तकों और उसके आधा रभूत ग्रंथों की ओर लौ टना हो गा और इस प्रश्न पर वि चा र करना
हो गा कि अंधका र के इस दौ र में हम सा मा जि क न्या य की रा जनी ति को कि स तरह पुनर्जी वि त कर सकते हैं। लो हि या और
आं बे के वि ति यों औ लि तों के आं दो नों की प्रे क्ति हे हैं यं

डा . बी .आर. आंबेडकर के वि चा र क्रमशः नी ची जा ति यों और दलि तों के आंदो लनों की प्रेरक शक्ति रहे हैं। यह अत्यंत
आश्चर्यजनक और वि डंबना पूर्ण है कि इन दो नों नेता ओं को अका दमी शि यनों [4] और इन दो नों के तथा कथि त चुना वी
गुटों [5] ने छो टे-छो टे घेरों में कैद कर दि या है। लो हि या और आंबेडकर समका ली न थे और जा ति वा द का वि रो ध दो नों का
एजेंडा था । यह आश्चर्यजनक है कि इसके बा वजूद, दो नों में वैचा रि क समा नता एं ढूढ़ने के बहुत कम प्रया स हुए हैं। क्या इन
दो नों के वि चा रों के अति -सरली करण और उनके मतभेदों को नजरअंदा ज कि ए बगैर, उनकी सो च में को ई सा मंजस्य
स्था पि त कि या जा सकता है? क्या इन दो नों व्यक्ति त्वों की वि चा रधा रा त्मक धा रा ओं के मि लन से न्या य और समा नता
का एक नया , स्वदेशी सि द्धां त उभर सकता है?
आंबेडकरवा द और लो हि या वा द में जो मतभेद हैं, उनकी जड़ में जो प्रश्न है वह यह है कि क्या जा ति हि न्दू धर्म का
अवि भा ज्य हि स्सा है – और इसलि ए जा ति को नष्ट करने के लि ए धर्म को नष्ट करना आवश्यक है – या जा ति केवल
धा र्मि क सि द्धां तों के वि रूपण से उपजी है। आंबेडकर और लो हि या के परि प्रेक्ष्यों में अंतर के का रण ही दो नों ने जा ति गत
दमन के वि रूद्ध संघर्ष के लि ए अलग-अलग रणनी ति यों का वि का स कि या और उन पर अमल कि या । जा ति के हि न्दू धर्म
से रि श्ते के मुद्दे के अला वा , दो नों के वि चा रों में सां मजस्य स्था पि त कि या जा सकता है। बल्कि हम यह भी कह सकते हैं
कि लो हि या ने आंबेडकर की परि यो जना को ही आगे बढा या और उसे अधि क समग्र और व्या वहा रि क स्वरूप दि या । परंतु
समा जवा दी और आंबेडकरवा दी आंदो लनों ने इन वि चा रकों के सि द्धां तों के सा थ वि श्वा सघा त कि या और ये आंदो लन मा त्र
बहुजनों के एक तबके के हि त सा धन के उपकरण बनकर रह गए।
मतभेद
लो हि या और आंबेडकर के बी च के मतभेदों की जड़ें, औपनि वेशवा द के वि रूद्ध रा ष्ट्री य आंदो लन में थीं । स्वतंत्रता के पहले
और उसके बा द भी , आंबेडकर और लो हि या , रा जनी ति के दो वि परी त ध्रुवों पर खड़े थे। स्वतंत्रता के पहले तो उनके बी च
कि सी वैचा रि क सेतु का नि र्मा ण संभव ही नहीं था । लो हि या उग्र रा ष्ट्रवा दी थे और वे औपनि वेशि क सत्ता के ढां चे में मूलभूत
वि रो धा भा स देखते थे। वे अंग्रेजों के सा थ कि सी भी प्रका र के समझौ ते के खि ला फ थे। इसके वि परी त, आंबेडकर के लि ए
रा ष्ट्री य/औपनि वेशि क सत्ता के बी च का अंतर सबसे महत्वपूर्ण नहीं था । वे सा मा जि क मुक्ति के अपने परम लक्ष्य की
प्रा प्ति के लि ए औपनि वेशि क सत्ता धा रि यों सहि त कि सी से भी हा थ मि ला ने को तत्पर थे (या दव, 2009:1)। अतः आंबेडकर
का परि पेक्ष्य, गो पा ल गुरू के शब्दों में, रा ष्ट्र के वि चा र तक सी मि त नहीं था (गुरू, 2011)।
आंबेडकर का तर्क यह था कि जा ति व्यवस्था हि न्दू धर्म का अवि भा ज्य हि स्सा है। उन्हों ने लि खा , ‘‘हमें यह स्वी का र करना
चा हि ए कि हि न्दू जा ति व्यवस्था का पा लन इसलि ए नहीं करते क्यों कि वे अमा नवी य या सि रफि रे हैं। वे जा ति व्यवस्था का
पा लन इसलि ए करते हैं क्यों कि वे अत्यंत धा र्मि क हैं‘‘ (आंबेडकर 2014 : 286)।
आश्चर्यजनक रूप से लो हि या , जा ति के प्रश्न और उसके हि न्दू धर्म से संबंध के बा रे में मौ न सा धे रहे। चूंकि इस वि षय पर
उनके स्पष्ट वि चा र उपलब्ध नहीं हैं इसलि ए इस बा रे में कि सी भी नि ष्कर्ष पर पहुंचना मुश्कि ल है। लो हि या शा यद गां धी से
सहमत थे, जि नका यह मा नना था कि जा ति व्यवस्था हि न्दू धर्म की एक वि कृति है और उसका हि न्दू धर्म के मूलतत्व से
को ई संबंध नहीं है (आंबेडकर, 2014 : 350)। लो हि या का कहना था कि धा र्मि क सुधा र महत्वपूर्ण हैं और उनके अनुसा र,
‘‘धर्म को जा ति के कचरे से भी मुक्त करना हो गा ‘‘ (लो हि या 1964 : 141)।
लो हि या के लि ए जा ति व्यवस्था का सबसे बुरा पक्ष था ब्रा म्हण और बनि ए का पा खंड। ये दो नों जा ति यां ही भा रत का
शा सक वर्ग थीं (देखें लो हि या , 1964 : 106-112)। लो हि या , हि न्दू धर्म पर हमला क्यों नहीं करना चा हते थे? आंबेडकर का
सी धा मत था कि हि न्दू धर्म को नष्ट कि या जा ना चा हि ए। लो हि या ने हि न्दू धर्म के खि ला फ कुछ क्यों नहीं कहा , इसे
समझने के लि ए हमें इन दो नों चिं तकों की पृष्ठभूमि पर नजर डा लनी हो गी । लो हि या , हि न्दी /हि न्दू बहुल क्षेत्र से थे, जहां
ऊँची जा ति यों के पुनरूथा नवा दी /सुधा रवा दी संगठनों का लंबा इति हा स था । इस इला के में नी ची जा ति यों के उस प्रका र के
आंदो लनों ने कभी जड़ें नहीं पकड़ीं , जि स प्रका र के आंदो लन महा रा ष्ट्र में फुले और तमि लना डु में पेरि या र के नेतृत्व में चले
और जि न्हों ने हि न्दू धर्म और ब्रा म्हणवा द को चुनौ ती दी । हि न्दी पट्टी में हि न्दू धर्म का वि रो ध करना शा यद बहुत कठि न
था ।
आंबेडकर जहां जा ति और उसके हि न्दू समा ज पर प्रभा व के बा रे में चिं ति त थे, वहीं लो हि या का मुख्य सरो का र यह था कि
जा ति ने कि स प्रका र पूरे रा ष्ट्र को पति त कि या है। आदि वा सि यों के मसले पर भी दो नों के बी च मतभेद थे। जहां आंबेडकर
आदि वा सि यों को असभ्य और बर्बर मा नते थे वहीं लो हि या के लि ए वे जा ति के वि रूद्ध संघर्ष में आवश्यक भा गी दा र थे।
लो हि या ने आंबेडकर से कई बा र यह अपी ल की कि वे अनुसूचि त जा ति यों की बजा ए सभी भा रती यों के नेता बनें। आंबेडकर
की मृत्यु के बा द लो हि या ने लि खाः
मैं हमेशा से भा रत के हरि जनों को एक वि चा र से परि चि त करवा ने का प्रया स करता रहा हूं। यह वि चा र मेरा अपना है। डा .
आंबेडकर और श्री जगजी वन रा म, भा रत के दो अलग-अलग प्रका र के आधुनि क हरि जन हैं। डा . आंबेडकर वि द्वा न,
सत्यनि ष्ठ, सा हसी और स्वतंत्र व्यक्ति थे। उन्हें दुनि या के सा मने सच्चे भा रत के प्रती क के रूप में प्रस्तुत कि या जा
सकता था । परंतु वे कटु और एकां ति क थे। वे गैर-हरि जनों के नेता नहीं बनना चा हते थे। मैं यह समझ सकता हूं कि पि छले
पां च हजा र सा लों में हरि जनों ने जो कष्ट भो गे हैं उनका प्रभा व उन पर आज भी है। और ठी क यही मेरा तर्क भी है। मैं
आंबेडकर जैसे महा न भा रती यों से आशा करता था कि वे कभी न कभी इस प्रभा व से ऊपर उठ सकेंगे। परंतु मृत्यु जल्दी आ
गई। मैं आंबेडकर को ….व्यक्ति गत तौ र पर नहीं जा नता परंतु मेरे लि ए यह दुः खद है कि आंबेडकर जैसे लो ग संप्रदा यवा द
से ऊपर नहीं उठ सके (लो हि या , 1964 : 19, 36-7)।

दो नों की वि भि की नैति ति यों में रि क्षि हो है लि तों को शे हि से

दो नों की यह वि चा रगत भि न्नता उनकी रा जनैति क रणनी ति यों में भी परि लक्षि त हो ती है। दलि तों को शेष हि न्दू समा ज से
अलग कर, उनकी एक वि शि ष्ट पहचा न का नि र्मा ण करना आंबेडकर की रणनी ति के मूल में था । परंतु लो हि या की
रा जनी ति अलग करने वा ली न हो कर जो ड़ने वा ली थी (या दव, 2009 : 6-7)। महि ला ओं की समस्या ओं और उनके सुलझा व
की रणनी ति के संबंध में भी दो नों में मतभेद थे। हा लां कि लो हि या संपत्ति पर महि ला ओं के अधि का र के हा मी थे और वि वा ह
की संस्था को महत्वपूर्ण मा नते थे तथा पि उन्हों ने बहुजन महि ला ओं की दुर्दशा को नजरअंदा ज करने के लि ए आंबेडकर
द्वा रा तैया र कि ए गए हि न्दू को ड बि ल की परो क्ष रूप से निं दानिं दा की । उन्हों ने लि खा , ‘‘महि ला ओं को पुरूषों के समा न
अधि का र मि लने चा हि ए। बल्कि , सच तो यह है कि अगर समा नता हा सि ल करनी है तो उन्हें पुरूषों से अधि क अधि का र
मि लने चा हि ए…ये का नून भा रत की 80 प्रति शत से अधि क महि ला ओं के लि ए कि सी का म के नहीं हैं…वे केवल ब्रा म्हण,
बनि या और ठा कुर घरों की कुछ उच्च जा ति यों की महि ला ओं के का म के हैं…यह बि ल अच्छा परंतु अधूरा और द्वि ज हि तों
से प्रेरि त था …। भा रत की बहुसंख्यक महि ला ओं के लि ए पा नी के नलों और शौ चा लयों की अनुपलब्धता सबसे बड़ी समस्या
है‘‘ (लो हि या 1964ः 58-59)।
लो हि या , संभवतः , हि न्दू को ड बि ल के पी छे के फलसफे को नहीं समझ सके। चूंकि महि ला ओं और वि शेषकर ऊँची जा ति यों
की महि ला ओं की लैंगि कता का इस्तेमा ल, जा ति व्यवस्था को चि रस्था यी बना ने के लि ए कि या जा ता रहा है इसलि ए
पि तृसत्ता त्मकता की बेड़ि यों से उन्हें मुक्त करना , जा ति के वि रूद्ध संघर्ष में एक बड़ी वि जय हो ती ।
वर्तमा न में महि ला आरक्षण बि ल के संदर्भ में महि ला ओं के लि ए को टे के अंदर को टे पर चल रही बहस, महि ला ओं के प्रश्न
की लो हि या की समझ से का फी हद तक प्रभा वि त है। लो हि या यह मा नते थे कि सभी महि ला एं पुरूषों की तुलना में पि छड़ी
हुई हैं परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि सभी तबकों की महि ला ओं के सा थ एक सा या बरा बर भेदभा व कि या जा ता है।
भेदभा व के स्तर और उसकी व्या पकता में फर्क हैं और इन्हें भी ध्या न में रखा जा ना चा हि ए।
आंबेडकरवा द और लो हि या वा द में एक अन्य अंतर जा ति के उन्मूलन के प्रश्न के संदर्भ में भी है। कई का रणों से, जि नमें
ब्रा म्हणों का दृष्टि को ण, जा ति व्यवस्था में उन्हें प्रा प्त वि शेषा धि का र और सबसे महत्वपूर्ण, जा ति के धर्म के सा थ संबंध,
शा मि ल हैं, के चलते आंबेडकर यह मा नते थे कि जा ति का उन्मूलन असंभव है। उनकी नि गा ह में मुक्ति का एकमा त्र रा स्ता
था धर्मपरि वर्तन।
इसके वि परी त, लो हि या , जा ति को नष्ट करने के संबंध में आशा वा दी थे। उन्हों ने लि खा ‘‘क्या इस तरह का वि द्रो ह संभव है?
अगर वि द्वा न इससे इंका र करते हैं तो यह उनका अधि का र है। परंतु जो लो ग का र्य करने में वि श्वा स रखते हैं वे इसकी
पुष्टि करेंगे। आज के समय में सफलता की आशा और बढी है‘‘ (लो हि या , 1964 : 85)। जा ति के वि रूद्ध संघर्ष में लो हि या ,
आंबेडकर से भी प्रेरणा ग्रहण करते थे। उनके शब्दों में, ‘‘मेरी दृष्टि में आंबेडकर, भा रती य रा जनी ति के एक महा न
व्यक्ति त्व हैं और गां धी जी को छो ड़कर, वे महा नतम हि न्दुओं जि तने ही महा न हैं। यह तथ्य मुझे हमेशा यह आत्मवि श्वा स
और सां त्वना देता है कि हि न्दू धर्म की जा ति व्यवस्था को कि सी न कि सी दि न नष्ट कि या जा सकता है।
यो गेन्द्र या दव के अनुसा र, जि स अंतर्नि हि त वि रो धा भा स का सा मना सा मा जि क न्या य की रा जनी ति कर रही है, उसका
संबंध बौ द्धि क परंपरा से है (या दव, 2009:5)। इसलि ए, सा मा जि क न्या य को पुनर्जी वि त करने के प्रया स को सफलता तभी
मि लेगी जब हम रा जनी ति के अन्य अक्षों , जैसे वर्ग और लिं गलिं , की मां गों को पहचा नें और उन्हें सा मा जि क न्या य के संघर्ष
का हि स्सा बना एं। वर्गी य ओर लैंगि क मां गों को उठा ने का उद्धेश्य नी ची जा ति यों की एकता को तो ड़ना नहीं है। अगर नी ची
जा ति यां हि न्दुत्व की शक्ति यों की ओर आकर्षि त हो रही हैं तो इसका का रण अन्या य के अन्य अक्षों को नजरअंदा ज कि या
जा ना है (गुड़ा वर्ती , 2014, द हि न्दू)।
समा नता एं
यद्यपि आंबेडकर और लो हि या ने अलग-अलग संदर्भों और का लों में अपना लेखन का र्य कि या परंतु वे दो नों भा रती य
समा ज की अनेक बुरा ईयों के लि ए जा ति व्यवस्था को जि म्मेदा र मा नते थे। इनमें शा मि ल हैं आर्थि क गति ही नता ,
सां स्कृति क अधः पतन और बा हरी शक्ति यों का मुका बला करने में असमर्थता । दो नों ही यह मा नते थे कि जा ति , प्रगति ,
नैति कता , प्रजा तां त्रि क सि द्धां तों और परि वर्तन का नका र है।
आंबेडकर ने उन धा रणा ओं का वि खंडन कि या , जि नके आधा र पर जा ति व्यवस्था को औचि त्यपूर्ण ठहरा या जा ता था ।
इनमें श्रम वि भा जन से लेकर नस्ल की शुद्धता तक की धा रणा एं शा मि ल थीं । उनका तर्क था ‘‘जा ति से आर्थि क दक्षता में
वृद्धि नहीं हो ती । जा ति , नस्ल में सुधा र नहीं कर सकती और ना ही उसने ऐसा कि या है। जा ति ने एक का म अवश्य कि या
है – उसने हि न्दुओं का वि घटन कि या है और उनके मनो बल को तो ड़ा है‘‘ (आंबेडकर, 2014 : 241)।
वि भि न्न जा ति यों के बी च संवा द पर प्रति बंध से सा र्वजनि क एका त्मकता , सा मुदा यि क भा वना और एक हो ने का भा व नष्ट
हुआ और संगठि त हो ने की संभा वना समा प्त हो गई (उपरो क्त 251-256)। लो हि या ने भी रा ष्ट्र की प्रगति के लि ए वि भि न्न
समुदा यों की एकता पर जो र दि या । उन्हों ने लि खा , ‘‘देश पर उदा सी की एक का ली छा या छा ई हुई है क्यों कि यहां कुछ भी
नया नहीं है। यहां पंडि त और जूते बना ने वा ले के बी च खुली बा तची त की को ई संभा वना नहीं है‘‘ (लो हि या , 1964:3)।
लो हि या का तर्क था कि जा ति ने लो गों की जिं दगि यों से रो मां च और आनंद गा यब कर दि या है और इसलि ए, भा रती य इस
धरती के सबसे उदा स और सबसे गरी ब लो ग हैं। आंबेडकर और लो हि या दो नों का यह तर्क था कि जा ति व्यवस्था में कि सी
व्यक्ति के पेशे के पूर्वनि र्धा रण के का रण ही देश गरी बी और बेरो जगा री की गि रफ्त में है। जा ति प्रथा अर्थव्यवस्था की
गति शी लता पर वि परी त प्रभा व डा लती है। आंबेडकर ने लि खा , ‘‘अपने पेशे को बदलने की अनुमति न देकर जा ति , देश में
व्या प्त बेरो जगा री का सी धा का रण बन गई है‘‘ (आंबेडकर, 2104:235) ।
आं बे के नि र्षों को गे ले ते लोहि ने कि सि औ रीरि के भे जि से की

आंबेडकर के नि ष्कर्षों को आगे ले जा ते हुए लो हि या ने कहा कि मा नसि क और शा री रि क श्रम के बी च भेद, जि ससे आय की
वि षमता जन्म लेती है, इस देश के सा मा जि क ठहरा व के लि ए जि म्मेदा र है। जा ति व्यवस्था में नवा चा र और वैज्ञा नि क
समझ के लि ए को ई स्था न नहीं है और ये दो नों ही प्रगति की कुंजि यां हैं। लो हि या का तो यहां तक कहना कि अगर वि देशी
भा रत पर वि जय प्रा प्त कर सके तो इसका का रण जा ति से उद्भूत आंतरि क वि वा द थे (लो हि या 1964 : 81)।
भा रत में सा मा जि क क्रां ति क्यों नहीं हुई?
इन दो नों चिं तकों को जि स प्रश्न ने सबसे ज्या दा उद्वेलि त कि या वह यह था कि घो र शो षण व दमन के बा वजूद इस देश में
सा मा जि क क्रां ति क्यों नहीं हुई? भा रत में जा ति क्यों और कैसे अस्ति त्व में बनी रही ? भा रत में सत्ता की प्रकृति क्या थी
और उसने जा ति व्यवस्था को चि रस्था यी बना ने में क्या भूमि का अदा की ? क्या जा ति व्यवस्था इसलि ए का यम रही
क्यों कि उसे औचि त्यपूर्ण सि द्ध कर दि या गया ? क्या समा ज के एक वर्ग पर दूसरे वर्ग के वर्चस्व ने जा ति प्रथा को जिं दा
रखा ? या इसके पी छे ये दो नों का रण थे। अरूण कुमा र पटना यक का तर्क है कि जा ति की शक्ति को समझने के लि ए हमें
जा ति गत वर्चस्व के पदक्रम और उसे वैध ठहरा ने वा ले ढां चों दो नों को समझना हो गा । यह सो चना गलत है कि जा ति केवल
वर्चस्व या केवल औचि त्यपूर्ण ठहरा दि ए जा ने के का रण बनी रही । यह कहना गलत न हो गा कि गां धी और आंबेडकर दो नों
ने जा ति को वर्चस्व के पदक्रम के रूप में देखा (गां धी इसके लि ए अछूत प्रथा शब्द का इस्तेमा ल करते थे और आंबेडकर
श्रेणी बद्ध असमा नता का ) (पटना यक, 2009 : 1)। आंबेडकर का फो कस इस पर था कि कि स तरह ब्रा म्हणों के वर्चस्व के
का रण नी ची जा ति यों की हथि या रों और शि क्षा तक पहुंच बहुत सी मि त हो गई और इस का रण वे क्रां ति नहीं कर सके।
ढां चा गत बा ध्यता ओं के का रण मा नवी य का रक अप्रभा वी हो गए और भा रत में जा ति के वि रूद्ध वि द्रो ह नहीं हो सका
(आंबेडकर, 2014 : 274-276)।
दूसरी ओर, लो हि या का जो र इस प्रश्न पर था कि जा ति को कि स प्रका र औचि त्यपूर्ण व्यवस्था नि रूपि त कर दि या गया ,
कि स तरह उसे लो गों का समर्थन और एक व्यवस्था के रूप में स्वी का र्यता मि ली । लो हि या की जा ति की समा लो चना , जा ति
व्यवस्था की आंतरि क शक्ति को स्वी का र करने पर आधा रि त है। लो हि या की दि लचस्पी मुख्यतः यह पता लगा ने में थी
कि बा हर और भी तर से वि कट प्रति रो ध के बा वजूद, जा ति सदि यों तक कैसे अस्ति त्व मे बनी रही ? क्या उसमें को ई
आंतरि क ता कत है जो उसे जिं दा रखे हुए है? उनका प्रश्न यह है कि बहुजनों ने श्रेष्ठि वर्ग को अपने ऊपर वर्चस्व स्था पि त
करने की स्वी कृति क्यों दी । उन्हों ने उस नैति क व का नूनी ढां चे को स्वी का र क्यों कि या जो उन पर वर्चस्व स्था पि त करता
था (पटना यक, 2009 : 2)।
लो हि या का तर्क यह है अपने बेहतर कौ शल और वि चा रधा रा के चलते, ऊँची जा ति यों ने नी ची जा ति यों को इस षड़यंत्र का
हि स्सा बनने के लि ए तैया र कर लि या । उनका कहना था कि नैति क और सां स्कृति क श्रेष्ठता के का रण नी ची जा ति यों ने
अपनी मर्जी से ऊँची जा ति यों की अधी नता स्वी का र की । यह प्रा धा न्य के संदर्भ में ग्रा मसी के वि चा रों से मि लता -जुलता है।
लो हि या के अनुसा र, ‘‘…वि चा रधा रा त्मक प्रभुत्व की एक लंबी परंपरा ने उनमें ठहरा व ला दि या …सदि यों लंबी अधी नता ने
उन्हें स्थि ति यों को चुपचा प स्वी का र करना सि खा दि या । परि वर्तन से उन्हें वि रक्ति हो गई। वे अच्छे समय और
वि पत्ति का ल दो नों में जा ति से चि पके रहने लगे। वे पूजा , कर्मकां ड और वि नम्रता में बेहतर जिं दगी की तला श करने लगे‘‘
(लो हि या , 1964 : 85)।
परंतु लो हि या भी वर्चस्व और प्रभुत्व की भूमि का से इंका र नहीं करते। उनके अनुसा र, ‘‘जा ति व्यवस्था नी ची जा ति यों को
ऊँची जा ति यों की अपेक्षा अधि क सुरक्षा भा व देती है। वे जा ति व्यवस्था के बि ना स्वयं को असहा य अनुभव करेंगे‘‘
(उपरो क्तः 84)। लो हि या के अनुसा र अगर नी ची जा ति यों ने जा ति के वि रूद्ध वि द्रो ह नहीं कि या तो उसका का रण यह था
कि वे इस व्यवस्था का अंग बने रहने के लि ए सहमत थीं और कुछ हद तक उनके सा थ जो र-जबरदस्ती भी की गई।
आंबेडकर के लि ए वि द्रो ह न हो ने का का रण वर्चस्व या जो र जबरदस्ती था ।
रा जनैति क और सा मा जि क परि वर्तन की प्रकृति
समा ज में कई तरह के वि रो धा भा स हो ते हैं। अपने भवि ष्य के एजेंडे के नि र्धा रण के लि ए सबसे पहले यह जरूरी है कि हम
प्रा थमि क या मुख्य वि रो धा भा स की पहचा न करें और उसकी जड़ों और प्रकृति को समझें। आंबेडकर का कहना था कि
सा मा जि क सुधा र को रा जनैति क सुधा र पर तरजी ह दी जा नी चा हि ए। आंबेडकर और लो हि या दो नों ने भा रत के यथा र्थ की
केवल आर्थि क आधा र पर व्या ख्या करने लि ए कम्यूनि स्टों पर ती खे हमले कि ए। भा रत के सा मा जि क यथा र्थ की
कम्यूनि स्टों की व्या ख्या में जा ति के प्रश्न को या तो दरकि ना र कर दि या जा ता था या उसे केवल उस अधि रचना का एक
हि स्सा मा ना जा ता था , जि सके मूल में आर्थि क संबंध थे। आंबेडकर के अनुसा र, अगर कि सी समा ज में एक वि शि ष्ट का ल
में सत्ता और प्रभुत्व का स्त्रो त सा मा जि क और धा र्मि क हो , तब सा मा जि क और धा र्मि क सुधा र को एक आवश्यक सुधा र के
रूप में स्वी का र कि या जा ना चा हि ए‘‘ (आंबेडकर, 2014 : 230)।
आंबेडकर के अनुसा र, सर्वहा रा तभी क्रां ति करेंगे जब उन्हें यह वि श्वा स हो गा कि क्रां ति के बा द जो समा ज बनेगा , उसमें
जा ति या पंथ के आधा र पर को ई भेदभा व नहीं हो गा । केवल समा नता की चा ह और बंधुत्व का भा व ही उन्हें जा ति के
वि रूद्ध उठ खड़े हो ने के लि ए प्रेरि त कर सकता है। चूंकि भा रत में व्यक्ति स्वयं को केवल नि र्धन नहीं बल्कि कि सी
वि शि ष्ट जा ति के सदस्य के रूप में भी देखता है इसलि ए उसका केवल नि र्धन के रूप में गो लबंद हो ना असंभव है। उनका
कहना था कि अगर समा जवा दी , समा जवा द के स्वप्न को सा का र करना चा हते हैं तो उन्हें यह स्वी का र करना हो गा कि
जा ति का प्रश्न एक मूलभूत प्रश्न है। ‘‘जा ति वह रा क्षस है जो आपके सा मने हरदम रहता है। जब तक आप इस रा क्षस को
मा र नहीं देते तब तक न तो रा जनैति क सुधा र हो सकता है और ना ही आर्थि क सुधा र (उपरो क्तः 233)।

दी हो ते लोहि ने आं बे के र्क को औ गे ले ते दि यों की भ्रांति यों औ के र्क

समा जवा दी हो ते हुए भी , लो हि या ने आंबेडकर के तर्क को और आगे ले जा ते हुए समा जवा दि यों की भ्रां ति यों और उनके तर्क
में दो षों की पहचा न की । उनके अनुसा र, जो लो ग केवल रा जनी ति क और आर्थि क सुधा रों की बा त करते हैं और सा मा जि क
सुधा रों के महत्व को नजरंदा ज करते हैं, वे नि हि त स्वा र्थों से प्रेरि त हैं क्यों कि ‘‘रा जनी ति क और आर्थि क क्रां ति के बा द भी
उद्यो ग और रा ज्य के प्रबंधक ऊंची जा ति यों के सदस्य ही बने रहेगें और आमजन आर्थि क और मा नसि क दृष्टि से नी चे ही
बने रहेगें, कम से कम तुलना त्मक रूप से…फर्क सि र्फ यह हो गा कि जहाँ आज ऊंची जा ति यों की उच्च स्थि ति को उनके
जन्म या यो ग्यता के आधा र पर उचि त ठहरा या जा ता है, वहीं तब उन्हें क्षमता ओं और आर्थि क आधा रों पर औचि त्यपूर्ण
बता या जा येगा …वे जन्म के आधा र पर अपना उच्च दर्जा खो देंगे परन्तु यो ग्यता के ना म पर वही उच्च दर्जा उन्हें हा सि ल
रहेगा ‘‘ (लो हि या 1964:96-97)।
पश्चि म बंगा ल में कम्युनि स्ट शा सन के अनुभव से लो हि या की यह आशंका सही सि द्ध हुई कि वर्गी य वि वेचना से
जा ति गत अपमा न, शो षण और दा सता की समझ वि कसि त नहीं हो सकती । आर्थि क संसा धनों के पुनर्वि तरण से उपजी
आर्थि क गति शी लता के सा थ सा मा जि क गति शी लता नहीं आती या आती भी है तो उस अनुपा त में नहीं (भट्टा चा र्य 2016 :
18-19)। रा ज्य की आबा दी में बहुजनों का खा सा हि स्सा हो ने के बा वजूद, पश्चि म बंगा ल में रा जनैति क नेतृत्व और
वि धा नमंडलों में ऊँची जा ति यों का ही बो लबा ला बना रहा (जेफरला टः 2008)।
अतः लो हि या का तर्क यह था कि जा ति गत और लैंगि क पृथक्करण के वि रूद्ध युद्ध कि ए बि ना , नि र्धनता के खि ला फ
युद्ध करना केवल एक ढको सला हो गा । परंतु आंबेडकर के वि परी त, उनका यह तर्क था कि केवल जा ति का वि ना श
अपर्या प्त हो गा , जब तक कि उसके सा थ-सा थ वर्ग का वि ना श नहीं कि या जा ता । आज के भा रत में रा जनैति क एकता के
बा वजूद सा मा जि क उत्पी ड़न के जा री रहने और सा मा जि क रि श्तों में ढां चा गत बदला व न हो ने से हम यह समझ सकते हैं
कि सा मा जि क सुधा र कि तने महत्वपूर्ण हैं।
अवसरों की समा नता की पा रंपरि क धा रणा के आलो चक
समा न अवसर यह सुनि श्चि त करते हैं कि कि सी व्यक्ति की नि यति का नि र्धा रक, परि स्थि ति यां नहीं बल्कि उसका स्वयं
का चुना व हो । न्या य का एक अर्थ नि ष्पक्षता भी है और इस अर्थ में संसा धनों का वि तरण ऐसे कि न्हीं का रकों से प्रभा वि त
नहीं हो ना चा हि ए, जो नैति क दृष्टि से मनमा ने या एकपक्षी य हों ।
आंबेडकर ने हरबर्ट स्पेंसर के ‘सा मा जि क डा र्वि नवा द‘[6] पर प्रश्नचि न्ह लगा ते हुए कहा कि ‘स्वस्थतम की उत्तरजी वि ता ‘

(सरवा ईवि ल आफ द फि टेस्ट) सबसे कमजो र के लि ए वि ना शका री हो गी । भा रत जैसे देशों में जहां भया वह सा मा जि क-
आर्थि क असमा नता है, वहां अवसरों की समा नता की पा रंपरि क अवधा रणा , जो इस वि चा र पर आधा रि त है कि हर व्यक्ति

को अपने गुणों के आधा र पर आगे बढने का अधि का र है, वि शेषा धि का र प्रा प्त वर्ग के पक्ष में जा एगी । आंबेडकर की दृष्टि
में कि सी व्यक्ति का सा मथ्र्य जि न का रकों पर नि र्भर करता है, उनमें अनुवां शि क शा री रि क बल और सा मा जि क वि रा सत
जैसे बचपन में मा ता -पि ता द्वा रा देखभा ल, शि क्षा और वैज्ञा नि क ज्ञा न का संचय, शा मि ल हैं, और उसके स्वयं के प्रया स
इस सूची में सबसे अंत में आते हैं। चूंकि बहुसंख्यक लो गों को चुना व करने का अधि का र ही नहीं है इसलि ए उन्हें उनके
हा ला त के लि ए स्वयं जि म्मेदा र नहीं ठहरा या जा सकता । भा रत में सा मा जि क बहि ष्करण की वर्तमा न स्थि ति यों के चलते,
कुछ वर्गों को दूसरे वर्गों पर तरजी ह देना आवश्यक है क्यों कि इसके बि ना समा न अवसर से केवल वि शेषा धि का र प्रा प्त वर्ग
ला भा न्वि त हों गे (आंबेडकर, 2014 : 261-262)।
इसी तरह का तर्क देते हुए लो हि या ने कहा कि जा ति व्यवस्था के का रण भा रत में कुछ कौ शल और यो ग्यता एं वंशा नुगत
बन गईं हैं। जा ति व्यवस्था की कठो रता और उसमें नि हि त बहि ष्करण के का रण व्यक्ति यों को अपने जी वन के लक्ष्यों का
नि र्धा रण करने की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं हो ती । समा ज कुछ कौ शलों को अन्य कौ शलों से उच्च मा नता है और इसके चलते
व्यक्ति यों का सा मा जि क दर्जा स्वमेव असमा न हो जा ता है और उन्हें हो ने वा ले आर्थि क प्रति फल भी असमा न हो ते हैं।
केवल समा न अवसर पर्या प्त नहीं हैं क्यों कि यह ‘‘एक व्यक्ति की यो ग्यता का पां च हजा र सा ल के दमन और परंपरा के
खि ला फ युद्ध हो गा । केवल को ई असा धा रण मेधा या यो ग्यता वा ला व्यक्ति ही इस युद्ध को जी त सकता है। जि न लो गों
का अब तक दमन कि या जा ता रहा है, उन्हें असमा न अवसर देने ही हों गे‘‘ (लो हि या 1964 : 96)।
जा ति का उन्मूलन कैसे हो ?
हि न्दू सुधा रवा दि यों के वि परी त, आंबेडकर और लो हि या का यह दृढ़ मत था कि असमा नता की इस व्यवस्था को सुधा रना
या उसका इला ज करना संभव नहीं है। जा ति -आधा रि त असमा नता का अंत तभी हो सकता है जब जा ति व्यवस्था को ही
समा प्त कर दि या जा ए। उनका मुख्य लक्ष्य जा ति का उन्मूलन था , जि सके बि ना आमजनों के लि ए स्वरा ज अर्थही न
हो ता । दो नों उन सा धनों की तला श में थे, जि नका इस्तेमा ल कर जा ति व्यवस्था को समा प्त कि या जा सके। आंबेडकर
जा ति व्यवस्था की समा प्ति की को ई संभा वना नहीं देखते थे क्यों कि उनका मा नना था कि जा ति व्यवस्था की श्रेणी बद्ध
असमा नता के का रण लो गों को उसके वि रूद्ध एकजुट करना बहुत कठि न हो गा और क्रां ति के बा द यो द्धा ओं को समा न
प्रति फल नहीं मि लेगा ।
लो हि या भी नि हि त स्वा र्थों के का रण जा ति -वि रो धी आंदो लन के कमजो र पड़ने के खतरे की ओर संकेत करते हैं।
उदा हरणा र्थ, मरा ठा , जो एक नी ची जा ति थे और जो जा ति -वि रो धी संघर्ष के का रण आज सत्ता धा री बन सके हैं, उन्हों ने हा ल
में दलि तों के वि रूद्ध आंदो लन कि या और यह मां ग की कि अनुसूचि त जा ति -जनजा ति अत्या चा र नि वा रण अधि नि यम
रद्द कि या जा ए। लो हि या के अनुसा र, ‘‘बा र-बा र, लगा ता र नी ची जा ति यों के वि द्रो ह का इस्तेमा ल इस या उस जा ति को
बेहतर दर्जा देने के लि ए कि या जा ता रहा है। इस वि द्रो ह का लक्ष्य कभी भी जा ति के संपूर्ण ढां चे को नष्ट करना नहीं रहा ‘‘
(लो हि या , 1914 : 91)।
आं बे की नि हों में ति के के लि त्रों की को औ की की भांति के

डा . आंबेडकर की नि गा हों में जा ति के उन्मूलन के लि ए शा स्त्रों की सत्ता को नष्ट करना और रक्त की शुद्धता की भां ति के
नि वा रण के लि ए वि भि न्न जा ति यों के बी च रो टी -बेटी के संबंध स्था पि त करना आवश्यक है। लो हि या भी अंतर्जा ती य
वि वा हों की उपयो गि ता पर जो र देते हैं परंतु वे इसमें दो ची जें जो ड़ते हैं। अंतर्जा ती य वि वा ह तभी प्रभा वी हों गे जब वे शूद्रों
और द्वि जों के बी च हों क्यों कि ब्रा म्हणों और बनि यों के बी च वि वा ह से जा ति व्यवस्था पर को ई प्रभा व नहीं पड़ेगा । दूसरे,
यद्यपि उनकी का मना यही थी कि लो ग स्वेच्छा से इस तरह के वि वा ह करें, परंतु उनका कहना था कि द्वि जों और शूद्रों के
बी च अंतर्जा ती य वि वा हों को संस्था गत स्वरूप देने के लि ए सेना और प्रशा सनि क पदों पर भर्ती के लि ए इन्हें आवश्यक
अर्हता बना दि या जा ना चा हि ए। लो हि या का मा नना था कि जा ति और लिं गलिं पर आधा रि त भेदभा व को समा प्त करने का
यही एकमा त्र तरी का है‘‘ (लो हि या , 1964 : 4)। उन्हों ने यह सुझा व भी दि या कि जा ति सूचक ना मों पर प्रति बंध लगा दि या
जा ना चा हि ए। लो हि या , जा ति को नष्ट करने के लि ए रा ज्यतंत्र का उपयो ग करने के हा मी थे।
सच यह है कि समा जवा दी आंदो लन ने अंतर्जा ती य वि वा हों को प्रो त्सा हन नहीं दि या ।[7] जहां तक महि ला ओं के प्रश्न और
जा ति के उन्मूलन के प्रति प्रति बद्धता का सवा ल है, समा जवा दि यों ने लो हि या के सा थ वि श्वा सघा त कि या ।
लो हि या शूद्रों की संकी र्ण सो च से अवगत थे। परंतु उनका प्रस्ता व यह था कि उन्हें सत्ता के केन्द्रों में स्था न दि या जा ए ता कि
वे एक नई वि श्वदृष्टि वि कसि त कर सकें और पूरे रा ष्ट्र के संदर्भों में सो च सकें (लो हि या , 1964:13-14)। जा ति के वि रूद्ध
संघर्ष इसलि ए भी मुश्कि ल है क्यों कि नी ची जा ति यों में ऊँची जा ति यों की तरह बनने की प्रवृत्ति है। उन्हों ने कहा ‘‘यह सच है
कि थो ड़ी सी भी सत्ता पा जा ने के बा द को ई शूद्र कि सी द्वि ज से भी अधि क क्रूरता से व्यवहा र करेगा …वह प्रति ष्ठा पा ने के
लि ए उतना ही बा वला हो गा जि तनी कि उच्च जा ति यां । परंतु हमा री इस कठि न या त्रा में इस तरह की शुरूआती समस्या एं
अपरि हा र्य हैं‘‘ (उपरो क्त:67)।
ब्रा म्हणों के प्रति व्यक्ति गत घृणाघृ णा रखने और उनके वि रूद्ध हिं साहिं सा करने के लि ए द्रवि ड़ आंदो लन की आलो चना करते हुए
उन्हों ने कहा कि कि सी भी जा ति -वि रो धी आंदो लन में द्वि जों के वि रूद्ध शत्रुता या घृणाघृ णा के भा व या उनसे ईष्र्या के लि ए
को ई जगह नहीं हो सकती । को ई भी जा ति -वि रो धी आंदो लन केवल समा नता एवं नि ष्पक्षता के भा वों पर आधा रि त हो
सकता है। यह तभी संभव है जब शूद्र इस बा त का अहसा स करें कि बहुसंख्यक द्वि ज भी वंचि त हैं। उन्हों ने द्वि जों को यह
भरो सा दि ला ने का प्रया स कि या कि जा ति -वि रो धी आंदो लन उनके वि रूद्ध नहीं है बल्कि उसका उद्धेश्य पूरे रा ष्ट्र का
उत्था न है। उन्हों ने लि खा ‘‘मैं जनेऊ धा रि यों का दुश्मन नहीं हूं। मैं उन्हें भी ऊपर ले जा ना चा हता हूं। परंतु मैं जा नता हूं कि
वे ऊपर तभी उठेंगे जब शूद्र, हरि जन, महि ला एं और मुसलमा न भी ऊपर उठेंगे। जनेऊ धा री यह समझना ही नहीं चा हते। वे
सो चते हैं कि यदि पि छड़ी जा ति यां आगे बढेंगी तो उनका पतन हो गा । यह अज्ञा नता ही बुरा ई की जड़ है‘‘ (लो हि या , 1964 :
41-42)।
उनका दा वा था कि जा ति के वि रूद्ध असली लड़ा ई तभी शुरू हो गी जब हरि जनों , शूद्रों , आदि वा सि यों और महि ला ओं को
प्रशा सन, न्या यपा लि का , सेना और उद्यो ग में 60 प्रति शत आरक्षण दि या जा एगा । जा ति के उन्मूलन से समा ज के एक बड़े
वर्ग में स्वा भि मा न का भा व उत्पन्न हो गा और आर्थि क उन्नति से वि भि न्न वर्गों के बी च के अंतर कम हों गे। इस तरह
जा ति और वर्ग दो नों की समस्या एं समा प्त हो जा एंगी ।
समा लो चना त्मक मूल्यां कन
ये दो नों मौ लि क और अनुप्रा णि त चिं तक, सा मा जि क न्या य की रा जनी ति के दो अलग-अलग चरणों का प्रति नि धि त्व करते
हैं। आंबेडकर ने स्वतंत्रता -पूर्व के भा रत में सा मा जि क न्या य के आंदो लन को जन्म दि या । लो हि या उनकी परि यो जना को
आगे ले गए और उन्हों ने सा मा जि क न्या य का भवि ष्य का खा का खीं चा । हमें इन दो नों की चिं तन धा रा ओं का संश्लेषण
करना है।
दो नों सहमत थे कि जा ति यों के रहते समा नता की बा त करना अर्थही न है। दो नों का जो र समा नता , नि ष्पक्षता , बंधुत्व और
न्या य पर था परंतु दुर्भा ग्यवश समका ली न नी ची जा ति यों के आंदो लनों में इन मूल्यों की उपस्थि ति केवल शा ब्दि क जुगा ली
तक सी मि त है। बहुजनों में आए प्रजा तां त्रि क उभा र के बा वजूद, जा ति यों के बी च और जा ति यों के अंदर टकरा व बढ रहे हैं।
जा ति के प्रजा तंत्रि करण ने जा ति यों के छो टे-छो टे टुकड़े कर दि ए हैं और रा ज्य के सी मि त संसा धनों पर कब्जा करने के लि ए
उनके बी च प्रति स्पर्धा प्रा रंभ हो गई है। वि भि न्न जा ति यों मंे एक-दूसरे के प्रति शत्रुता भा व बढ रहा है। इस सबको देखते
हुए आज ऐसा लगता है कि जा ति के उन्मूलन की परि यो जना को पूरा करना असंभव है। यह एक ऐसा आदर्श है जि से कभी
हा सि ल नहीं कि या जा सकता । न तो ऊँची जा ति यां स्वेच्छा से जा ति -वि रो धी आंदो लन का हि स्सा बन रही हैं और ना ही
बहुजन, ऊँची जा ति यों के नि चले और वंचि त तबके को अपने संघर्ष में हि स्सेदा र बना रहे हैं।
जा ति और हि न्दू धर्म के परस्पर रि श्तों को छो ड़कर, आंबेडकर और लो हि या के वि चा रों में सा मंजस्य स्था पि त कि या जा
सकता है। आज आवश्यकता इस बा त की है कि आंबेडकरवा दी और लो हि या वा दी एकसा थ जुड़ें। आज बहुजनों और जा ति
की रा जनी ति केवल चुना वी गणि त पर आधा रि त है। बहुजनवा दी रा जनी ति की अपनी सी मा एं हैं। केवल सत्ता हा सि ल कर
जा ति से नहीं लड़ा जा सकता । बहुजनों की चुना वी रा जनी ति में जो कमि यां हैं, उन्हें सा मा जि क और सां स्कृति क आंदो लन
पूरा कर सकते हैं। केवल चुना वी गुणा -भा ग की जगह गरि मा , न्या य और बंधुत्व के मूल्यों को महत्व दि या जा ना आवश्यक
है। ऊना जैसे आंदो लनों से यह आशा जा गती है कि जा ति नष्ट की जा सकती है और सा मूहि क अन्या य के प्रति रो ध के लि ए
लो ग एकजुट हो सकते हैं। यह कहना मुश्कि ल है कि शेल्डन वा लि न के शब्दों में, ‘एक सा थ का म करने के क्षण‘ (मो मेंटस
ऑफ़ का मना लि टी ) कि तने लंबे चलते हैं। परंतु वे हममें आशा अवश्य जगा ते हैं।

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