-डॉ. मंगल मेहता
(मालवा अंचल के प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ मंगल मेहता का आज 92वां जन्म दिवस है। इस अवसर पर दुर्गादास राठौड़ पर लिखी उनकी ऐतिहासिक कहानी प्रकाशित कर रहे हैं जो उनके कहानी संग्रह भाग डॉ.मंगल मेहता की कहानियां भाग- 5 से साभार ली है। – सम्पादक)
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प्रभात बेला ढली ही थी। बापजी दीवान घोड़ा दौड़ाते केदारेश्वर की ओर चल दिये। जाना तय नहीं था। दीवानजी की हवेली में बेचैनी पूर्ण हलचल मच गई।
पहले भी अनेक बार गए थे पर अकेले नहीं। संगी-साथी, चाकर, हजूरी वगैरा साथ रहते। आज जब वे कोटाद्वार से निकले थे तो रणधीरसिंह साथ आ लगा था पर उन्होंने उसे साथ आने के लिए मना कर दिया था। जरूर ही उन्हें आक्रोश था। किस बात पर? बापजी दीवान के तैश को सभी जानते थे। उसमें मात्र उग्रता और रोष की झलक ही नहीं रहती थी, बुद्धि की तेजी और सजकता के भी दर्शन होते थे। न्याय-अन्याय की परख, आन-मान की रक्षा की भावना भी रहती थी। इसी ने उन्हें जीवन में भटकन दी थी। जोधपुर की मान रक्षा के लिए सर्वस्व अर्पित किया था। संपूर्ण अरावली को खंगाल डाला था। नद्दी-नाले, गुफा-खोह भटकते रहे थे। क्या विलास की तृप्ति के लिए? मात्र मान-यश के लिए? देश के संस्कारों की रक्षा के लिए और धर्म निर्वाह के लिए यह बखेड़ा पाला था। और जोधपुर ने क्या ही उचित पुरुस्कार दिया! राजवंशियों की अपनी रीति होती है। उसे नीति कह लो। चाटूकारिता, मन सुहानी बातें, चुहलता और मुस्कान की निचली परत में मचलती दू:रभिसंधियां, स्वार्थ प्रेरणाएं क्या नहीं करा देती। कानों का कच्चापन व्यक्ति को किस धार ला पटकता है। कहा तो गया राठौड़ दुर्गादास के राज्य पर बहुत अहसान है उससे उऋण नहीं हुआ जा सकता। स्वतंत्र क्षेत्र सौंप, राज्य उनकी क्षमता का लाभ लेना उचित मानता है। पर क्या इसके पीछे उन्हें राज्य से दूर रखने का मंतव्य नहीं था। वह जयपुर-जोधपुर, मारवाड़ क्षेत्र की घटनाचक्रों से दूर रहें। उनका जो महत्त्व उभरा है वह धुंधला जाए। लोगों के साथ उनके संबंध सूख जायें कि वे उनका साथ न जुटा सकें। व्यवस्था की विशेषता होती है कि अपने संगी-साथियों को मनमानी करने देती हैं, उन्हें अपनी विलासिता के साधन जुटाने देती है कि समाज की अच्छाई के लिए उनका ध्यान न जाये। जो व्यवस्था अभी है, वही अच्छी है। ‘खम्मा’ के टेके लगाते रहे। उसकी सोच न बने।
खटका तो उन्हें जोधपुर छोड़ते हो गया था। उन्होंने भी मान लिया था कि अब यहां काम नहीं रहा तो चल देना उचित है। राजा-रानी, दरबारी किसके हुए हैं! पुरुषार्थ ही साथ देता है। यह भूमा, यह जीवनदायी जलदेव, यह सर्वव्यापी पवनदेव यह ब्रह्मांड आकाश, ये दीप्तिवान ज्योतियॉं उनके अपने हैं। वही सगे नाती-गोती हैं। इनसे लेते ही रहे हैं।
मैदान के पेड़ों-झाड़ियां की सघनता के बीच से अश्व वेगवान सरपट गति से खड़ी चढ़ाई चढ़ने लगा। पर्वत की धार-धार।
मंदिर का अपना एकांत। जन कोलाहल से रहित होने के कारण अपनी एक विशिष्ट निर्मलता, देवता की पावनता और सघन हरितमा, नागचम्पा पुष्पों की गंध- यह सब मन को राहत प्रदान करते हैं। मन को उद्वलित विचलित नहीं होने देते। आज इसलिए तो आए हैं।
मेवाड़ ने राजकुंवारीजी के विवाह में जयपुर को सौंप दिया था। ईश्वरसिंह, माधौसिंह की पारिवारिक कलह में क्षेत्र उपेक्षित हो गया था। विधर्मियों और मराठाओं पर निगाह रखने के लिए उन पर भार डाला गया। राठौर रट्टराम (रतलाम) तीतरौद(सीतामऊ) में राज्य बना चुके थे। इसके पीछे की मुगलों की मंशा को समझना जरूरी था। इसलिए दुर्गादास को रामपुरा में ला पटका गया।
उन्हें सौंपा गया तो उनकी यही इच्छा रही कि क्षेत्र की प्रजा सुखी हो। संपन्न हो। तभी उनसे सहयोग मिल सकता है। प्रजा के विमुख होने पर किसी का मुकाबला नहीं किया जा सकता। झूठ बोल धोखे कितने ही रचा लो। शंखोंद्वार में मेला लगाया। मेले में रामपुरा के राजवंशियों की विलासिता की चर्चा सुनी थी। अनाचार की भी। इसे ही रोकने का यत्न किया तो विरोध प्रबल हो उठा। विरोध ही नहीं, और न जाने क्या-क्या बातें? स्वार्थ की ढलान कहां विकृतियां नहीं ला देती। बड़े शब्द, प्रभावपूर्ण रीति से उच्चारे गए शब्द जितने खोखले उतनी ही ऊंची हूंकार यह मणका तो जगजाहिर है।
मंदिर के नीचे पहुंच अश्व की वल्गा खींची। घोड़ा रुका। नीचे उतरे। शीश पर बड़ा श्वेत साफा, तन पर श्वेत घुटनों तक लंबा तनीदार झगा, फटकेदार धोती और पैरों में मोचडियां। कमर में लटकती मखमली तलवार और उसी के पट्टे में सदा की संगिनी कटार। खिचड़ी दाढ़ी और गलमूच्छों से भरा चेहरा। रातड़ली अंखियां। दो ड़ग भी न बढ़े कि एक आदमी दौड़ा आया, उसने मुजरा किया और घोड़े की रास पकड़ ली। घोड़े की अयाल पर हाथ फेरा और पेड़ की छांव में ले जाकर बांध दिया। वह घास लेने चल दिया। उन्होंने गुहार दी- ‘जय एकलिंग, जय शिव’
आवाज की बुलंदगी को लोग पहचानते थे। मंदिर से इधर-उधर से लोग आ जूटे। झुक-झुककर जुहार करने लगे- ‘जय अंबे, जय भवानी’
‘घणी खम्मा पधारो बापजी’
सभी के साथ मंदिर के प्रांगण में चले। घोड़ा हिनहिना रहा था। नागचम्पा की गंध पर्वत की गौरव गाथा गा गई। मंदिर में घंटिकाएं गूंजने लगी। झरने की झर-झर निरंतर ध्वनित हो रही थी।
वृद्ध पुजारीजी अभिषेक की तैयारी में जुटे। कुंड में स्नान कर बापजी दीवान भी आ गए। पूजा का विधि विधान होने लगा। मंत्रोच्चार भी।
वीरजी को कांसा (ग्रास,गांसा) वही आरोगना था। उनके स्वभाव से सब परिचित थे। समय पर जो मिल जाये, उसी में तोष कर लेते। हां, वे अकेले कभी नहीं खाते थे।
भोजनोपरांत वे दक्षिण की ओर के दलान में पोढे। तभी पुजारी कूकाजी आ गये। वहीं, सामने की ओर बैठ गये। बोले- ‘पधारो’
‘विराम करो वीरजी। मैं थोड़ी देर से आऊं।’
‘पंडितजी महाराज, दुर्गादास के भाग्य में विराम कहां? जी उचट गया सोचा भगवान की सेवा करता चलूं। फिर पता नहीं कहां भटकना पड़े? मरणो भलो विदेश में, जहां न अपनों कोय’- और वे हंस पड़े।
‘दाता, आप यहीं विराजें। विराम मन को स्वस्थ करेगा।’
‘पुजारी महाराज, यहां आने का यह अंतिम अवसर हो यह जान प्रसाद भी ग्रहण कर लिया।’
अनुभवी कूकाजी अनुमान लगा रहे थे। बोले- ‘वीरजी, किसी से कोई अपराध हुआ? किसी ने वीरजी के सम्मान पर आघात किया?’
‘खुशामद सबको भाती है। बड़ी लुभावनी है यह। न जाने क्या कर ले? सच-झूठ, सफेद-काला। आपने जिंदगी गुजार दी किसी के लिए, वह इसके आगे अकारथ हो जाती है। जो त्याग किया वह निरर्थक हो जाता है। सकल का हित चिंतन करते रहे वह खोखला साबित कर दिया जाता है। यह सब इसी की माया है महाराज। दुर्गादास ने जीवन भर अन्याय, अनाचार असत्य का विरोध किया और आज वह उसी का सहभागी बने! दुर्गादास ने जो किया धर्म निर्वाह के लिए किया। भूमा के लिए किया। महाराज, संसार बड़ा विचित्र है।’
‘बापजी दीवान को किसी ने बहुत पीड़ा पहुंचाई है। मैं छोटा सा आदमी क्या कर सकता हूं? अर्ज ही कर सकता हूं। वीरजी के मन में धरती माता सी धीरता और क्षमता लहराती है।
‘दूसरों के हको पर डाका डालना पाप है। ऐसे दुष्टों के लिए मन में कहां क्षमा रहें? झूठ के ओर छोर का पता नहीं रहता। चरित्रहीनता, दुष्टता एवं क्रूरता से भी ज्यादा है भयावह है। आप ही कहें, दुर्गादास ने क्या परिवार जूटाया। सच्चा राजपूत अकेला नहीं जीता। न्याय के साथ समाज के लिए जीता है। निर्बल को अभय दे प्रसन्न होता है। सब की प्रसन्नता उसके साथ होती है। महाराजजी भूलों पर ध्यान न दें। अवसर आया तो फिर भेंट होगी। फिर भगवान के दर्शन कर पुण्य अर्जित करूंगा। घोड़ा तैयार करा दें।’
‘वीरजी का मन बेचैन है। यहां और विराम करें। रावले में सांडनी भिजवा देते हैं। यहां कष्ट तो होंगे पर दाता का सुभाव सब जानते हैं। भोले लोग हैं यहां। उनमें अपार श्रद्धा और स्नेह हैं। भगवान आशुतोष सा पर्वत का वैराट्य है। नागचम्पा सी मोहकता है। नयन जुड़े रहे ऐसी हरियाली है। वीरजी को यहां भला लगेगा।’
‘परम सत्ता जहां भटकाए जाना ही होता है। परिस्थितियों बहुत कुछ करा देती है। धारा में बहना ही है तो सोचता हूं अंतिम दिन महाकाल की शरण में बिताऊं। अनाम।
घोड़ा हिनहिनाया।
‘वेगवान तैयार है, उसने न्योत दिया। आदमी से पशु सच्चा साथी होता है। पायलागूं महाराज, जय एकलिंग, जय शिव।’
सिर पर सफेद साफा। तन पर लंबा घुटनों तक तनीदार झगा, फड़केदार धोती, पैरों में मौचड़िया, कमर में अभियान में ऐंठती तलवार, कमर पट्टे पर शोभती कटार, खिचड़ी दाढ़ी, गलमुच्छें और बालों से घिरा रोबदार चेहरा। रातड़ली अंरिवयां जिनमें एक संकल्प, एक दर्प।
‘जय अंबे, जय भवानी’- झुककर लोग जोहर कर रहे थे। वेगवान पहाड़ी उतर रहा था। सरपट भागता।