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प्रेम नहीं है मनुष्य देह और मंदिर तक सिमट जाना 

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         अनामिका, प्रयागराज 

    प्रेम को सेक्स का और कथित ईश्वर की भक्ति का पर्याय मानने के इस दौर मै यह नरमादा के बीच संभोग और बुतों की पूजा तक सिमट कर रह गया है. यह प्रेम का बेहद संकीर्ण, विकृत और घटिया रूप है. यह प्रेम है ही नहीं.

      प्रेम की उड़ान में पहला सूत्र है अपने (व्यस्टि) को प्रेम करें. दूसरा सूत्र है अन्यों (समष्टि) को प्रेम करें। जो भी आपके चारों ओर आपको छोड़ कर शेष दिखाई पड़ रहा जीवन है, उनके प्रति यदि सदाशयता, सदभाव, प्रेम अहिंसा और करुणा का भाव न हो, तो आप कभी भी उस प्रेम की ओर अग्रसर न हो सकेंगे, जो कि परमात्मा तक ले जाता है।

     क्राइस्ट ने कहा है कि जब तू मंदिर में प्रार्थना को जावे और घुटने टेक कर परमात्मा की तरफ हाथ उठावे और यदि तुझे याद आ जाए कि तेरा कोई पड़ोसी तुझसे नाराज है, तो पहले जा और उससे प्रेम कर। परमात्मा को छोड़ दे। यहीं और जा, उसको प्रेम कर और क्षमा मांग और उससे शांति स्थापित कर। क्योंकि जिस व्यक्ति ने अभी मनुष्यों से भी शांति स्थापित करने में सफलता नहीं पाई, वह स्वयं और परमात्मा के बीच शांति कैसे स्थापित कर सकेगा। निश्चित ही जो व्यक्ति अभी मनुष्यों के तल पर भी प्रेम को नहीं फैला सका, वह परमात्मा के तल पर प्रार्थना को कैसे फैला सकेगा?

       एक साधु किसी गांव में ठहरा था। एक आदमी उसके पास आया और उसने उससे कहा कि मैं परमात्मा को पाना चाहता हूं। मैं क्या करूं? साधु ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा होगा, बाहर से भीतर तक देखा होगा और उसे पूछा–एक बात पूछूं तो फिर मैं कुछ कहूं। तुझे किसी से प्रेम है? उस व्यक्ति ने सोचा होगा कि प्रेम तो परमात्मा के मार्ग पर एक अयोग्यता है, सो उसने कहा मुझे किसी से भी प्रेम नहीं है। मैं तो सिर्फ परमात्मा को पाना चाहता हूं। साधु ने कहा फिर थोड़ा गौर से सोचो। थोड़ा अपने भीतर खोजो। पत्नी से, बच्चों से, परिवार से, मित्रों से किसी से प्रेम है? उस आदमी ने कहा, मुझे किसी से कोई प्रेम नहीं है। मैं तो परमात्मा को पाना चाहता हूं। वह साधु चुप हो गया और उसकी आंखों में आसूं भर आएं। वह परमात्मा का खोजी बहुत हैरान हुआ। 

     उसने कहा आप रोते क्यों हैं और आप चुप क्यों हैं? उस साधु ने कहाः यदि तुझे किसी से प्रेम होता, तो उस प्रेम को परमात्मा की प्राप्ति में बदला जा सकता, लेकिन तुझे किसी से प्रेम ही नहीं है, तो द्वार ही टूट गया। लेकिन धर्म के नाम पर तो ऐसे बहुत से उपदेश है, जो आपको सिखाते हैं कि किसी से प्रेम न करें। वे सारे उपदेश आपके अहंकार को केंद्रित कर देंगे। वे आपको परमात्मा तक पहुंचाने में सफल नहीं हो सकते, क्योंकि प्रेम तो उसका द्वार है। 

       प्रेम से इतना भय क्यों है? शायद इसलिए कि कहीं वह हमें बांध न लें? लेकिन प्रेम तो तभी बांधता है, जब हम और प्रेम फैलाने में असमर्थ होते हैं। अर्थात प्रेम नहीं, प्रेम की कमी ही बांधती है। प्रेम थोड़ा है तो ही बंधन बनता है। छोटा प्रेम ही बांधता है। प्रेम विशाल हो, तो बंधनों को तोड़ बहने लगता है। वह जब आकाश जैसा बड़ा होता है, तब तो उस पर कहीं भी सीमा नहीं रह जाती है।

     इसलिए प्रेम को बड़ा करें, विशाल करें, उस पर कोई सीमा न लगाएं–कोई शर्त न लगाएं–वह निरंतर फैलता ही जाए। वह जिस पर बरसे उसका भी अतिक्रमण न करें। वह कहीं रुके न–ठहरे न। प्रेम के कहीं रुक जाने के भय से ही तो तथाकथित अध्यात्मवादी, प्रेम से ही भयभीत हो उठे हैं। किंतु यदि मेरा प्रेम रुकता है, तो वह प्रेम का नहीं मेरा ही कसूर है। उसके लिए प्रेम से शत्रुता कैसे उचित है? प्रेम का दोष प्रेम में नहीं, प्रेमी में है। 

      प्रेम रुकता है, क्योंकि प्रेमी ओछा है–संकीर्ण है। लेकिन इससे जो प्रेम के विरोध में हो जाए वह तो और भी ओछा और संकीर्ण हो जाएगा। ऐसे तो उसमें जो थोड़ी-बहुत विशालता थी, वह भी विनिष्ट हो जाती है। तथाकथित धार्मिक लोगों के अति संकीर्ण मन होने का कारण यही है। 

      मेरी दृष्टि में तो प्रेम को बढ़ाना है और स्वयं को खोना है। लेकिन जो प्रेम को खोता है वह केवल अहं को ही बचा पाता है। प्रेम को फैलाओ। जैसे हम सरोवर में पत्थर को फेंक देते हैं। एक जगह पत्थर गिरता है और फिर उसकी लहरें किनारे की ओर बढ़ने लगती हैं और वे तब तक बढ़ती जाती हैं, जब तक की दूर अज्ञात किनारों को न छू लें। 

     ऐसा ही प्रेम कहीं भी उठे, किसी के प्रति उठे, सागर में उठी लहरों की तरह बढ़ता जाए, उस समय तक जब तक कि परमात्मा के किनारे न छू लें। तो ऐसा प्रेम ही प्रार्थना बन जाता है। तो फिर प्रेम ही प्रार्थना हो जाता है।

    फिर प्रेम जितना पाया जाता है उतना ही स्वयं से भी दिया जाता है। ऐसे ही प्रेम की गहराइयों पर गहराइयां उभरती हैं और धीरे-धीरे प्राण अपनी समग्रता में प्रेम और केवल प्रेम में ही परिणत हो जाते हैं। लेकिन प्रेम की इस पूर्णता का प्रारंभ सदा दान से होता है। 

     जो मांग से इसका प्रारंभ चाहते हैं, वे कभी प्रारंभ कर ही नहीं पाते। प्रेम तो सम्राट है। वह भिखारी नहीं है। इसलिए जो उसे मांगता है, वह पाता तो है ही नहीं, और इस असफलता में ही क्रमशः देने में भी असमर्थ होता जाता है। और जितनी यह असफलता बढ़ती है उतना ही पाना असंभव होता जाता है। इसलिए स्मरण रखें कि प्रेम देना है। बिना कुछ मांगे देना है। उसे प्रतिदान की आशा से मुक्त करें। वह सौदा नहीं है। वह तो बस दान ही है। उसका आनंद उसके देने में ही है, उसके बदले में कुछ पाने में नहीं। वह तो दिए जानें में ही इतना दे जाता है कि बदले में कुछ पाने का प्रश्न ही नहीं। इसलिए ही तो प्रेम देने वाला उसे स्वीकार करने वाले के प्रति सदा ही अनुगृहीत होता है। 

     प्रेम के दान में–अशेष और असीम दान में ही तो प्राणों को परमात्मा तक ले जाने वाले पंख मिलते हैं। मित्र, प्रेम के पंखों को फैलाएं और परमात्मा के प्रकाश में उड़ें। प्रेम के पंख मिलते ही अपने–पराए मिट जाते हैं और जो शेष रह जाता है, वही परमात्मा है। प्रेम के अभाव में तो मनुष्य को अहंकार की पत्थर सी सख्त भूमि पर ही रहना होता है, जहां कि घृणा, हिंसा और क्रोध के कंटीले पौधें बहुलता से उगते हैं। लेकिन प्रेम के पंख पाकर उसे इस भूमि पर रहने की कोई भी आवश्यकता नहीं है।

      फिर तो वह उस लोक में उड़कर जा सकता है जहां सौंदर्य है–अनंत सौंदर्य–अक्षय सौंदर्य है–अक्षत सौंदर्य है। इसलिए प्रेम से भरें–सबके प्रति और अकारण–और उठते-बैठते प्रेम से भरे रहें, सोते जागते प्रेम से भरे रहें–प्रेम प्रतिपल हृदय में लहरें लेता रहे–वह आपकी श्वास-प्रश्वास ही बन जाए। फिर तो मंदिर जाने की कोई जरूरत नहीं है। आप उसके मंदिर में पहुंच ही गए।

      प्रेम ही तो उसका मंदिर है। शेष सब मंदिर तो पत्थर के हैं और इसलिए ही झूठे हैं। और पत्थरों के मंदिरों में जाने वालों का हृदय भी पत्थर का ही हो जाता हो, तो आश्चर्य नहीं है। पत्थरों के मंदिरों में बातें तो प्रेम की होती हैं, लेकिन फैलती वहां से घृणा ही है। शायद घृणा और हिंसा ने स्वयं के छिपाने के लिए ही प्रेम के वस्त्र पहन लिए हैं। इसलिए मैं कहता हूं कि प्रेम के मंदिर के अतिरिक्त और किसी मंदिर को प्रभु का मंदिर न मानना। मनुष्य प्रेम के मंदिर तक न पहुंच सके, इसलिए ही उनका आविष्कार हुआ है। शैतान इस चेष्टा में सदा से ही श्रमरत है! प्रेम मंदिर है–प्रेम ही सत्य शास्त्र है, कबीर ने कहा हैः ‘ढाई अक्षर प्रेम के पढ़े सो पंडित होय।’ 

     निश्चय ही जो प्रेम को जान लेता है, उसे फिर कुछ और जानने को शेष नहीं रह जाता है। उसने सब शास्त्र जान ही लिए। और जिसने प्रेम नहीं जाना उसने कुछ भी नहीं जाना। प्रेम से बड़ा कोई ज्ञान नहीं है–भाव नहीं है–अनुभव नहीं है। प्रेम की आंख उस सब को पढ़ लेती है जो पत्ती-पत्ती पर लिखा है, कण-कण में खुदा है, लहर-लहर में छिपा है। मित्र, परमात्मा के हस्ताक्षर हर जगह हैं, फिर आदमियों की किताबों से क्या लेना-देना है। मनुष्य के शब्दों से क्या मिलेगा, और मनुष्य के शब्द कहां पहुंचाएंगे। 

     निश्चय ही मनुष्य के शब्द मनुष्य के ऊपर कभी नहीं पहुंचा सकते। जो मनुष्य से निकलता है, वह मनुष्य के पार नहीं ले जा सकता। मनुष्य के जाने के लिए तो उसे छोड़ कर ही चलना होगा। मनुष्य के शब्द, शास्त्र और सिद्धांत परमात्मा तक पहुंचने में बाधा हैं। परमात्मा तक चलने के लिए तो उसे पढ़ना होगा, जो कि परमात्मा का है। वह प्रेम में पढ़ा जाता है। मनुष्य के शास्त्रों को पढ़ने को मनुष्य की भाषाएं सीखनी पड़ती हैं। परमात्मा का शास्त्र पढ़ने को परमात्मा की भाषा। उसकी भाषा है प्रेम, प्रेम सीखो। यदि परमात्मा तक जाना है तो उसे सीखना ही होगा। परमात्मा की सृष्टि तो चारों तरफ है। वही-वही तो है। लेकिन यदि प्रेम न हो तो, न तो उसे देखा जा सकता है और न जाना। 

       प्रेम की आंख मिलते ही एक चमत्कार हो जाता है। जो दिखाई पड़ता था, वह विलीन हो जाता है, और जो नहीं दिखाई पड़ता था वह प्रत्यक्ष। फिर परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता है।

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