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 प्रेम जवानी या हुस्न पर इतना भी आश्रित नहीं जैसा पुरुष कवियों ने दिखाया है: एक नज़रिया

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मोहन मुक्त

‘मुझसे पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न मांग’ 

फैज़ अहमद फैज़ की बेहद मशहूर नज़्म, इतनी मशहूर कि कुछ लोग इसे ‘कालजयी’ रचना कहते हैं, न जाने कितनी बार पढ़ी, गयी और सराही गई है। कुल मिलाकर इसे एक क्लासिक का दर्जा हासिल है लेकिन गुस्ताख़ी माफ़ हो मुझे ये कभी पसन्द नहीं आयी। पहली बार सुनने में भी नहीं। मैं अपनी समझ से इसकी समीक्षा (अगर इसे माना जा सके) या इस पर एक नज़रिया आपके सामने रख रहा हूं।

लेकिन पहले कविता को देख लेते हैं, सुविख्यात वेबसाइट rekhta.org ने इस कविता को उर्दू कविता की युगांतरकारी रचना मानते हुए इसका परिचय इस तरह दिया है –  

“With this poem, Faiz’s focus changes from traditional Urdu poetry to ‘poetry with purpose’, poetry with social conscience pursuing social causes. And Faiz admitted it, before the start of this poem, with a quote from a Persian poet, Nizami: ‘Dil-e-bufro-khatm, jaan-e-khareedun’ (‘I have sold my heart and bought a soul’).

मुझसे पहली-सी मुहब्बत मिरे महबूब न मांग

मैनें समझा था कि तू है तो दरख़शां है हयात

तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर का झगड़ा क्या है

तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात

तेरी आखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है

तू जो मिल जाये तो तकदीर नगूं हो जाये

यूं न था, मैनें फ़कत चाहा था यूं हो जाये

और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वसल की राहत के सिवा

अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिसम

रेशमो-अतलसो-किमख्वाब में बुनवाए हुए

जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म

ख़ाक में लिबड़े हुए, ख़ून में नहलाये हुए

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से

पीप बहती हुयी गलते हुए नासूरों से

लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे

अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे

और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वसल की राहत के सिवा

मुझसे पहली-सी मुहब्बत मिरे महबूब न मांग

सबसे पहले तो फैज़ अहमद फैज़ की ये कविता प्रेम की बेहद अपूर्ण और कुछ हद तक आपत्तिजनक तस्वीर पेश करती है। पहली बात समझने और महसूस करने योग्य यह है कि प्रेम का मांगा जाना ही ग़लत सन्दर्भ है, प्रेम मांगने की चीज़ नहीं है।

दुनिया के दुःख अन्याय शोषण का अहसास होने पर क्या निजी ज़िंदगी में प्रेम समाप्त हो जाता है, या फिर समाप्त हो जाना चाहिए  या शायर कहना चाह रहा है कि निजी ज़िंदगी में प्रेम से भरे लोग अन्याय के खिलाफ लड़ाई को समय या तवज्जो नहीं दे पाएंगे।  प्रेम का बेहद ज़रूरी दुनियावी मुद्दों से ऐसा अलगाव क्या वांछनीय है, ज़रूरी है? क्या प्रेम इतनी एकांतिक गतिविधि है या होनी चाहिए? अगर हां तो फिर इस गलत दुनिया में प्रेम है ही क्यों? क्या प्रेम केवल उम्र का आकर्षण या दिमाग़ी फ़ितूर है?

दूसरी बात ये पहली सी मोहब्बत क्या है? क्या जब शायर ने पहली सी मोहब्बत महसूस की थी या वो उसे जिया था, तब दुनिया बेहद खूबसूरत थी। तब अन्याय, शोषण कुछ नहीं था या शायर को इसका अंदाज़ा नहीं था। और अगर अंदाज़ा होता तो क्या शायर प्रेम में नहीं पड़ता या फिर आज जिन्हें दुनिया के ग़लत ताने-बाने का बोध है क्या वो प्रेम न करें? क्या ऐसे लोग प्रेम में नहीं पड़ेंगे? अन्याय के विरुद्ध लड़ाई क्या प्रेम के बिना ही की जा सकती है? क्या सामाजिक संघर्ष में प्रेम के लिये जगह नहीं? मतलब जो प्रेम मे हैं क्या वो सामाजिक संघर्ष के योग्य नहीं है?

प्रेम की सामान्य मानवीय गतिविधि को सामाजिक संघर्ष में बाधा क्यों माना जाना चाहिए?

मुझे तो लगता है कि प्रेमी/प्रेमिका का अपना संघर्ष ख़ुद में सामाजिक संघर्ष है।

इस कविता की जो सबसे आपत्तिजनक बात मुझे लगती है वो है:

‘अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे’

प्रेम को पूरी तरह देह पर आश्रित कर दिया गया है। मान लें कि हुस्न दिलकश न रहे तो क्या प्रेम भी नहीं रहेगा? अब इसे दूसरी तरह से सोचिये कि अगर यही कविता कोई औरत लिख रही होती तो क्या वो प्रेम को देह या उम्र पर इस हद तक निर्भर रहने देती? क्या वो ये कहती कि हालांकि तुम अब भी हैंडसम और जवान हो लेकिन मेरी प्राथमिकतायें अब कुछ और हैं, इसलिए मेरी पहले जैसी तवज्जो की अपेक्षा मत करो।

मुझे नहीं लगता कि कोई औरत ये कहेगी। कम से कम मैंने तो किसी स्त्री की कविता में ये बात नहीं पढ़ी। प्रेम के बने रहने के कारणों में जवान और हैंडसम होने को ऐसा महत्व देते हुए मैंने किसी स्त्री रचना में नहीं देखी। ये मूलतः पुरुषों के दिमाग का फ़ितूर है (प्रेम फ़ितूर नहीं है),जो स्त्री के ‘ऑब्जेटिफिकेशन’ तक चला जाता है।

यहां मैं स्पष्ट कर दूं कि मैं प्रेम के लिए देह के महत्व को कम नहीं मान रहा। मैं केवल यह कह रहा हूं कि लंबे समय तक प्रेम के बने रहने में दैहिक आकर्षण की भूमिका कमतर होती चली जाती है औरतों के प्रेम में ये ज़्यादा महसूस किया जा सकता है।

फैज़ नहीं समझ पाए कि औरत के लिए हमारे समाज में प्रेम अपने आप में एक क्रांति है।

औरत जब प्रेम और देह पर लिखती है तो वो यहां तक लिखती है –

“तेरा पहलू तेरे दिल की तरह आबाद रहे

तुझ पे गुज़रे न कयामत शब ए तनहाई की”

– परवीन शाक़िर

फैज़ सहित प्रेम को देह पर गैरआनुपातिक रूप से निर्भर करने वाले किसी भी पुरुष कवि या शायर की इस पूरे उपमहाद्वीप में ऐसी कोई कविता नहीं मिलती जो परवीन शाक़िर जैसी बात पूरी सहजता और ईमानदारी से कह पाए। अब इसके कारणों पर जाते हैं और पश्चिम की प्रज्ञा से इसकी तुलना करने की कोशिश करते हैं-

मेरी एक पसंदीदा फ़िल्म है- क्रिश्चियन दुग्वे की ‘हिटलर द राइज ऑफ इविल’। इसके एक दृश्य में हिटलर विरोधी एक सोशल डेमोक्रेट पत्रकार कोर्ट में हिटलर के लिए तालियां बजते देख बेहद खिन्न हो जाता है और आपा खो बैठता है। उसकी हालत देख कर उसकी आम तौर पर गैर राजनीतिक पत्नी उसे कहती है-

“असाधारण समय में असाधारण कदम उठाने होते हैं।”

पत्रकार को ये बात सुनकर जादुई अहसास होता है। वो अपनी पत्नी को चूमता है और थैंक्यू डियर कह कर निकल जाता है और जोर-शोर से अपने काम में जुट जाता है।

यहां फ़ासिस्ट दौर में भी प्रेम बाधा नहीं ताक़त है। असल में अगर प्रेम है तो वो हमेशा ताक़त ही होता है। संघर्ष करते हुए भी प्रेम  किया जा सकता है और किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा तब होगा जब प्रेम और देह के प्रति आपका नज़रिया साफ़ हो, सम्यक हो, सन्तुलित हो।

पूर्व की प्रज्ञा में, जो कि आम तौर पर पुरुषों के साहित्य में मुखरित हुई है, प्रेम को बाधा माना गया है। चाहे सांसारिक संघर्ष हो या आध्यात्मिक प्रश्न, यहां आम तौर पर प्रेम और देह का निषेध है और प्रेम का मतलब ही देह माना गया है। चाहे घर पत्नी और बच्चे को छोड़ने वाले बुद्ध हों या अपनी पत्नी की स्वतंत्र इच्छा और सहमति के बिना ब्रह्मचर्य को अपना कर उस पर प्रयोग करने वाले मोहन दास गांधी, वास्तविक जीवन और उसके संघर्ष से पलायन करने वाले लोग हमारे आदर्श होते हैं।

पूर्व की प्रज्ञा में बुद्ध की महानता उनके संदेश और बोध के कारण है। लेकिन सामान्य और रोजमर्रा के जीवन में बुद्ध या किसी भी अन्य व्यक्ति के द्वारा किसी महान उद्देश्य के लिए घर छोड़ देने को बहुत ही सम्मान से देखा जाता है।   

प्रेम और देह से पलायन करने वाले या ऐसा करने का उपक्रम करने वाले लोग हमारे यहां सार्वजनिक पदों के लिए आज भी ज़्यादा उपयुक्त माने जाते हैं। भारत में सन्यासियों की असाधारण राजनीतिक ताक़त के पीछे यह मनोविज्ञान भी काम करता है। हालांकि एक समय पश्चिम में भी खासतौर पर प्लेटो के चिंतन में इसे प्राथमिकता दी गई लेकिन ये वहां एक सामान्य मूल्य कभी नहीं बन पाया। और मेरी नज़र में एक अधिक खुले लोकतांत्रिक प्रगतिशील समाज में इसे सामान्य मूल्य होना भी नहीं चाहिए। पूर्व के साथ प्रेम से अलगाव क्रान्ति या परिवर्तन या किसी भी सकारात्मक सार्वजनिक गतिविधि की एक तरह से पूर्व शर्त बन गया है। ये इस पिछड़े हुए समाज के मर्दवादी आधार को पुष्ट करने का औज़ार बना हुआ है।

महान क्रान्तिकारी चे ग्वेरा ने कहा था-

“मैं ज़ोर देकर कहना चाहता हूं कि समस्त क्रांतियों का स्रोत प्रेम है।”    

तो प्रेम से अलगाव पर ज़ोर देने वाली फैज़ की यह कविता किसी भी अर्थ में प्रगतिशील या क्रांतिकारी नहीं है, बल्कि ये प्रगति विरोधी और क्रांति विरोधी है। मेरे लिए हर वो कविता जो प्रेम का निषेध करे या उसके लिए शर्तें तय करे वो कविता क्रांति विरोधी है।

आखिर में टाइटैनिक फ़िल्म का वो दृश्य आपको याद दिलाता हूं, जब जहाज डूब रहा होता है और दो बूढ़े प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे को आलिंगन में लिए हुए बिस्तर पर सो जाते हैं।

प्रेम देह से परे नहीं। कुछ भी देह से परे नहीं। लेकिन प्रेम जवानी या हुस्न पर इतना भी आश्रित नहीं जैसा पुरुष कवियों ने दिखाया है। और न ही वो मुसीबत के समय कम होता है। बल्कि वो तो मुसीबत के समय और मजबूत हो जाता है।

जहाज डूब जाता है प्रेमी भी डूब जाते हैं.. वो पानी में नहीं डूबते वो प्रेम में डूब जाते हैं..

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