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सादगी भरा जीवन जीने की सीख देने वाला प्रणेता महात्‍मा गांधी

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अरुण कुमार डनायक

अरुण कुमार डनायक

सादगी से जीवन जीने के लाभ की महत्ता को बढ़ाने के लिए प्रतिवर्ष राष्ट्रीय सादगी दिवस लेखक और दार्शनिक हेनरी डेविड थोरो के सम्मान में मनाया जाता है। डेविड सादा जीवन जीने की वकालत करते हैं। देश/ दुनिया के संदर्भ में सादगी की प्रतिमूर्ति महात्‍मा गांधी को भी माना जाता है। उनकी जीवन शैली और रहन सहन सादगीमय जीवन की कहानी को बयां करती है।

अन्तराष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने वाले विभिन्न दिवसों की भांति इस दिवस को मनाने की कल्पना भी अमेरिका से आई है। पश्चिमी दुनिया में औद्योगिक क्रांति, मशीनीकरण और सर्वसुविधा सम्पन्न जीवन शैली ने मनुष्य को भी मशीन बना दिया है और उसे सुख की जगह तनाव ही दिया है। अब तथाकथित विकास से पीछे जाना उनके लिए संभव नहीं दिखता और इसीलिए वे तरह – तरह के उपाय कर लोगों को शांतिपूर्वक सादगी से परिपूर्ण जीवन जीने के लिए प्रेरित करते रहते हैं।

पश्चिमी दुनिया के उलट एशिया के देशों विशेषकर भारत में जीवन शैली सादगी भरी एवं प्रकृति के निकट रही है। हमारे उपनिषदों विशेषकर ईशोपनिषद के प्रथम श्लोक ईशावास्यम इदम सर्वम……… से हमें प्रकृति के संसाधनों का आवश्यकतानुसार उचित उपयोग करने की शिक्षा मिलती है। लेकिन आज का भारत अब शायद पिछली सदी जैसा नहीं रह गया है। आज का भारतीय आवागमन, वार्तालाप, घरेलू कार्यों आदि के लिए मशीनों पर हद से अधिक निर्भर हो गया है। पिछली सदी के अंतिम दशक तक आमजन सामान्य दूरियाँ पैदल चलकर तय करते थे अब वे सदा मोटरसायकिल पर सवार दिखते हैं। मोबाइल ने सुख-दुख के समाचारों का आदान-प्रदान सरल व त्वरित बनाया है, लेकिन इसने व्यक्तिगत दूरियाँ बढ़ा दी हैं। अन्य बहुत-सी मशीनों ने मानव श्रम को बचाने के साथ ही मनुष्य को आलसी बना दिया है। सादा जीवन उच्च विचार की कल्पना कहीं खो गई है।

हाथ-पैरों का इस्तेमाल करने में ही सच्चा सुख

हम दूर नहीं जाएँ और महात्मा गांधी के जीवन के संदेश को पढ़े तो पाएंगे कि इस आधुनिक सभ्यता जिसे उन्होंने ‘शैतानी सभ्यता’ कहा था। बुराईयों के बारे में उन्होंने हमें 1909 में हिन्द स्वराज के माध्यम से चेताया था। उन्होंने कहा था कि “ऐसा नहीं था कि हमें यंत्र वगैरा की खोज करना नहीं आता था। लेकिन हमारे पूर्वजों ने देखा कि लोग अगर यंत्र वगैरा की झंझट में पड़ेंगे, तो गुलाम ही बनेंगे और अपनी नीति छोड़ देंगे। उन्होंने सोच-समझकर कहा कि हमें हाथ-पैरों से जो काम हो सके वही करना चाहिए। हाथ-पैरों का इस्तेमाल करने में ही सच्चा सुख है, उसी में तंदरुस्ती है।“ गांधीजी ने इसीलिए आश्रमों के माध्यम से सामूहिक जीवन शैली अपनाने की वकालत की। उनके द्वारा स्थापित आश्रम एक प्रकार के तपोवन ही थे। आश्रमवासी एक दूसरे का पूरा ख्याल रखें, अपने सुख-दुख एक-दूसरे से साझा करें और शरीर श्रम किए बिना भोजनादि ग्रहण नहीं करें, ऐसे नियम गांधीजी ने बनाए थे। सामूहिक भोजन, सामूहिक कताई, सामूहिक साफ सफाई और सामूहिक प्रार्थना के माध्यम से महात्मा गांधी ने लोगों में सामाजिक एकता की भावना को मजबूत करने में सफलता पाई। उनकी स्वयं की आवश्यकताएं न्यूनतम थी और उनसे प्रेरणा पाकर पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, सरदार पटेल जैसे धनाढ्य लोगों ने भी अपनी जीवन शैली बदल डाली।

सादगी भरा जीवन जीने की सीख देने वाला प्रणेता महात्‍मा गांधी

स्वतंत्रता के पश्चात लिखे अनेक लेखों और प्रार्थना प्रवचन के माध्यम से महात्मा गांधी ने राजनीतिज्ञों को सादा जीवन जीने का आह्वान किया। वे तो चाहते थे कि स्वतंत्र भारत के गवर्नर आदि राजनेता छोटे मकानों में रहें और राष्ट्रपति भवन जैसे विशाल भवनों में अस्पताल खोल दिए जाएँ। गांधीजी ने सितंबर 1946 में हरिजन में लिखा था कि “अगर कांग्रेस को लोकसेवा की ही संस्था रहना है, तो मंत्री साहब लोगों की तरह नहीं रह सकते और न सरकारी साधनों का उपयोग निजी कामों के लिए ही कर सकते हैं।“ दुर्भाग्यवश आजादी के कुछ महीने बाद ही उनकी हत्या हो गई और उसके बाद भारतीय शासकों, अफसरों और धनाढ्य वर्ग को सादगी भरा जीवन जीने की प्रेरणा देने वाला, नैतिक दबाव डालने में सक्षम कोई राजनेता देश में नहीं हुआ।   

इस सदी के आरंभ से ही दुनिया भूमंडलीकरण की चपेट में आ गई और उदारीकरण की नीतियों के चलते सारा विश्व एक गाँव में बदल गया। इन आर्थिक नीतियों ने अगर गरीब व पिछड़े देशों में पूंजी निवेश को बढ़ावा दिया है तो उसके प्राकृतिक संसाधनों, नैसर्गिक संपदा का बुरी तरह से दोहन भी किया है। पाश्चात्य देशों में श्रमिक वर्ग की अनुपलब्धता ने उन्हें नवीनतम मशीनों की खोज के लिए प्रेरित किया है। आज वैसी मशीन भारत जैसे देशों में बेरोकटोक आयात की जा रही हैं। अधाधुंध मशीनीकरण के कारण एक ओर बेरोजगारी बढ़ रही है और दूसरी ओर अमीर-गरीब के बीच की खाई भी बढ़ रही है। इसने एक नई प्रतिस्पर्धा तथा आवश्यकता से अधिक पाने की लालसा को जन्म दिया है और इस लालसा ने हमें छल कपट से, अनैतिक तरीकों से धन कमाने विवश किया है। ज्यादा से ज़्यादा पाने की लालसा ने सामाजिक दुर्भावना को और अधिक बढ़ाया ही है। इस लिप्सा ने भारतीय जन जीवन में सत्ता, संपत्ति के अनेक नापाक गठजोड़ों  को जन्म दिया है।  

अपनी जरूरतों को सीमित करें, समय के मूल्य को पहचाने

ऐसी परिस्थितियों में हम क्या करें? मशीनीकरण, औद्योगीकरण, उदारीकरण से पैर पीछे नहीं खींचे जा सकते। यह शताब्दी तकनीकी के क्षेत्र में नित्य नई खोजों को समर्पित है। भारतीय जन मानस को उससे दूरी बनाए रखना संभव नहीं है। ऐसे में हमें चाहिए कि हम अपनी जरूरतों को सीमित करें, समय के मूल्य को पहचाने और अपने हाथ-पैरों का अधिकतम उपयोग करें। एक गृहस्थ के रूप में हम ऐसी मशीनों का विरोध करें जो अंतोगत्वा बेरोजगारी को जन्म देती है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि हम अपनी खुशियों को एक-दूसरे के साथ साझा करें, दूसरों की भलाई में अपनी भलाई महसूस करें, दूसरों के दुख के प्रति संवेदनशील हों।

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