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गैर-ओबीसी व्यक्ति को सीएम बनाना रही भाजपा की सबसे बड़ी भूल

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जो घटनाक्रम यूपी में पिछले चार-पांच दिनों से चल रहा है, वह इसका प्रमाण है कि ओबीसी फिर से भाजपा के खिलाफ गोलबंद हो रहे हैं। वे बार-बार ये कह रहे हैं कि भाजपा ऐसी पार्टी है, जिसमें ऊंची जाति के लोगों का वर्चस्व है। फारवर्ड प्रेस से विशेष बातचीत में प्रो. संजय कुमार

[उत्तर प्रदेश में चुनावी माहौल के संदर्भ में जो कुछ सामने आ रहा है, उसे लेकर तमाम तरह की कयासबाजियां व दावे किये जा रहे हैं। खासकर भाजपा के दलित-ओबीसी विधायकों, मंत्रियों व नेताओं द्वारा एक-एक कर सपा की सदस्यता लेने के बाद परिदृश्य में जो बदलाव आया है, उसके निहितार्थ क्या हैं। इसी आलोक में चुनावी विशेषज्ञ व सीएसडीएस के निदेशक प्रो. संजय कुमार से फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार ने दूरभाष पर बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत की पहली कड़ी] 

उत्तर प्रदेश में जो चुनाव पहले बहुकोणीय लग रहा था, अब वह दो खेमों के बीच सीधा मुकाबला बनता लग रहा है। हाल के दिनों में हुई गतिविधियों के संबंध में आपकी प्राथमिक टिप्पणी क्या है?

वैसे तो उत्तर प्रदेश में कई पार्टियां चुनाव लड़ रही हैं, जिनमें समाजवादी पार्टी (सपा), भाजपा कांग्रेस, बसपा, एआईएमआईएम सहित तमाम क्षेत्रीय पार्टियां हैं। इनमें राष्ट्रीय लोक दल है और ओमप्रकाश राजभर जी की पार्टी भी है। कुछ पार्टियों ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर लिया है, और कुछ पार्टियों ने भाजपा के साथ। कांग्रेस अभी भी चुनावी मैदान में है और अकेले चुनाव लड़ रही है। बसपा भी अपना दम ठोक रही है और अकेले चुनाव लड़ने का दावा कर रही है। बसपा ने कई सीटों के लिए अपने उम्मीदवार भी घोषित कर दिए हैं। तो एक तरफ भाजपा ने गठबंधन बनाया है तो दूसरी तरफ सपा ने भी गठबंधन बनाया है। देखने में तो ऐसा लगेगा, जैसे चार पार्टियां लड़ रही हैं, क्योंकि सपा है, भाजपा है, कांग्रेस है और बसपा है। लेकिन जिस तरह से यूपी में चुनावी माहौल बना है, उसे देखते हुए लगता है कि दो ध्रुवीय मुकाबला है। एक तरफ सपा का गठबंधन है तो दूसरी तरफ भाजपा गठबंधन। जैसे-जैसे चुनाव आगे बढ़ता जा रहा वैसे-वैसे यह दो ध्रुवीय होता जा रहा है। आज से महीने, डेढ़ महीने तक तो भाजपा आगे दिखाई पड़ती थी और समाजवादी पार्टी उसके पीछे चल रही थी। तो कुछ लोगों के दिमाग में सवाल था कि क्या समाजवादी पार्टी ही टक्कर दे रही है या बसपा भी टक्कर में आएगी? लेकिन जैसे-जैसे चुनाव आगे बढ़ रहा है और बिल्कुल एक आम मतदाता के नजरिए से अगर यू.पी. को देखें तो सभी को लगता है, कि चुनाव यहां दो ध्रुवीय है। जिस तरह से भाजपा से अब टूट करके उसके नेता सपामें जा रहे हैं, उससे इस बात को बल मिल रहा है कि सपा ही भाजपा को टक्कर दे रही है। स्पष्ट रूप से अब यह चुनाव दो ध्रुवीय है और इसमें शक-सुबहा की कोई बात नहीं है।

आपने पहले भी कहा है कि जो पिछड़ा वर्ग की बात करेगा, वही राज करेगा। तो क्या आपको लगता है कि आरक्षण में बेईमानी और जातिगत जनगणना जैसे सवाल इस चुनाव में निर्णायक होंगे। वजह यह कि भाजपा छोड़कर सपा में जानेवाले लगभग सभी योगी आदित्यनाथ की सरकार पर दलितों और ओबीसी के हितों की उपेक्षा करने का आरोप लगा रहे हैं?

देखिए, कहते हैं न कि समाज में परिवर्तन चक्रीय तौर पर होता है। एक पूरा चक्र होता है। जहां से शुरुआत होती है, परिस्थितियां घूम-फिरकर फिर वापस आ जाती हैं। अगर आप 1970 और 1980 के दशक को देखें, खासकर हिन्दी भाषी प्रदेशों में, मैं खासकर यूपी और बिहार का जिक्र करना चाहूंगा, इन राज्यों में ऐसी राजनीति थी, जिसमें ऊंची जातियों का वर्चस्व था। अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की संख्यात्मक हिस्सेदारी तो तब भी उतनी ही थी, जितनी आज है। दलितों की आबादी का अनुपात भी लगभग पहले जितना ही है। कोई डेमोग्राफिक परिवर्तन तो आया नहीं। ओबीसी आज भी लगभग 50-52 फीसदी हैं और उस समय भी इतने ही होते थे। लेकिन तब वे बिल्कुल हाशिए पर थे। सामाजिक तौर पर हाशिए पर थे ही, राजनीतिक तौर पर तो और भी हाशिए पर थे। पर पूरा का पूरा चुनाव और चुनावी तंत्र अपर कास्ट के कब्जे में था। अपर कास्ट का वर्चस्व था। ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार की राजनीति हम कह सकते हैं। ये बिल्कुल हावी थे। ये संख्या में भले ही ज्यादा नहीं थे, लेकिन उनका राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव इतना था कि पूरे राजनीतिक तंत्र पर इनका कब्जा था। लेकिन वहां से राजनीति धीरे-धीरे आगे बढ़ती है और नब्बे का दशक आता है, जिसे हम पोस्ट मंडल युग कहते हैं। वी.पी. सिंह की सरकार बनती है। मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने की सिफारिश होती है और उसके बाद जब उसकी सिफारिश लागू हुए तथा केन्द्र सरकार की नौकरियों और स्कूल कॉलेजों की शिक्षा में आरक्षण मिलने लगा तब इसका सीधा-सीधा प्रभाव हमें देश की राजनीति पर दिखने लगा। दो राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में खासकर दिखने लगा। यह समय नब्बे का था, जिसको हम पोस्ट मंडल पॉलिटिक्स कहते हैं, जिसमें ऐसी पार्टियों का एक तरह से उदय हुआ, जो ओबीसी के राजनीतिक उत्थान के उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ीं। ऐसा नहीं है कि पहले कोई ऐसी पार्टी नहीं होती थी। पहले भी एकाध पार्टियां रहती थीं, जो छोटी थीं, और उनका प्रभाव बहुत छोटा था। लेकिन बड़े तौर पर उस समय जनता दल हुआ करता था। बाद में उसमें विभाजन के बाद बिहार में जदयू, राजद हो गया तो यूपी में सपा और बसपा। यह पोस्ट मंडल का दौर था। हम कह सकते हैं कि 1996 से लेकर 2009 तक का भारत के उत्तर भारत में चुनावी राजनीति खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में ओबीसी का वर्चस्व रहा। यही वजह है कि यूपी. में सपा और बसपा का दखल रहा है। जब भाजपा बीच में सरकार में आई तो उसमें भी उन्होंने कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बनाया। उसने ओबसी. को हाशिए पर नहीं रखा, और ओबीसी नेताओं को फ्रंट पर लाए। यह दौर चलता रहा। बिहार में तो दौर आज भी चल रहा है कि ओबीसी का प्रभाव राजनीति पर बना हुआ है। लेकिन 2014 में जब भाजपा केंद्रीय शासन में आती है तो यह जरूर है कि 2014 के बाद से 2019 तक उन्होंने सोशल इंजीनियरिंग की, उसमें उन्होंने ओबीसी समुदाय के नेताओं को तरजीह दी। उन्हें पता था कि अगर चुनाव में जीत हासिल करनी है तो ओबीसी वोटरों को अपनी ओर लाना होगा। उन्हें लुभाना होगा। इसके लिए ओबीसी नेताओं को तरजीह देनी होगी। यह प्रोसेस चला। लेकिन जब भजपा ने राजनीति पर एक तरह से पकड़ बना ली तब उसके नेता इस बात को भूल गए कि यूपी में किस वजह से उनकी पकड़ बनी थी। यह हुआ था अति पिछड़ा गैर यादव वोटरों की वजह से। लेकिन कहीं न कहीं मुझे लगता है कि भाजपा ने गलती कर दी कि जिनके वोट की बदौलत उसने इतनी बड़ी जीत हासिल की, उसके नेता उसे ही भूल गए। मैं यह नहीं कहता कि अपर कास्ट का वोट उन्हें नहीं मिला था। बल्कि अपर कास्ट का वोट तो उनको ओबीसी के वोट से कहीं ज्यादा मिला। वर्ष 2017 के चुनाव को देखें, 2019 के चुनाव को देखें तो अपर कास्ट का वोट तो उनको 75-80 प्रतिशत उनको मिलता रहा है, जिसमें ब्राह्मण-राजपूत वगैरह हैं। अति पिछड़ा का वोट तो उन्हें 60-70 प्रतिशत के आस-पास मिला। लेकिन तादाद में बहुत अंतर है। ब्राह्मण-राजपूत और ओबीसी की तादाद में बहुत अंतर है। तो अगर एक समुदाय, जिसकी आबादी 35 प्रतिशत है, उसमें अगर आपको 60-70 प्रतिशत तक वोट मिलते हैं, तो उसका बहुत फर्क था। उसका बहुत प्रभाव था भाजपा की बड़ी जीत में। लेकिन मुझे लगता है कि वर्ष 2017 में भाजपा ने बड़ी गलती कर दी। उसने एक ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाया जो इस समुदाय से नहीं थे। मतलब यह कहूं कि इस समुदाय से तो नहीं ही थे, इस समुदाय के प्रति कोई सहानुभुति की भावना भी नहीं रखते थे। कम से कम जिस तरह उनका कार्यकाल रहा और जिस तरीके के आरोप लगे, उससे यही बात निकल कर आती है। तो मुझे लगता है कि यूपी में भाजपा ने कहीं न कहीं यह गलती कर दी कि ऐसे व्यक्ति के हाथ में बागडोर थमा दिया, जो इस समुदाय के नहीं थे। और पांच साल के कार्यकाल में ओबीसी समुदाय के जो नेता भाजपा में थे, उन्हें यहलगने लगा कि उनकी अवमानना हुई है अवहेलना हुई है, उनको नजरंदाज किया गया। मुझे लगता है कि भाजपा अब फिर से, वह जो योगी आदित्यनाथ के शासन का पांच साल का दौर रहा है, जिसमें भाजपा के अंदर ऊंची जातियों का वर्चस्व दिखाई पड़ा, उसका नतीजा है कि फिर से ओबीसी उसके खिलाफ गोलबन्द हो रहे हैं। तो यह जो चक्र था कि पहले अपर कास्ट का वर्चस्व, फिर ओबीसी का वर्चस्व आया और फिर भाजपा के अन्दर कम से कम यूपी में अपर कास्ट का बोलबाला रहा। अपर कास्ट में भी कुछ खास जाति के लोगों का बोलबाला रहा। इस वजह से जो ओबीसी नेता भाजपा में घुल-मिल गए थे, उनमें फिर एक दरार पैदा हो गई। और जो घटनाक्रम यूपी में पिछले चार-पांच दिनों से चल रहा है, वह इसका प्रमाण है कि ओबीसी फिर से भाजपा के खिलाफ गोलबंद हो रहे हैं। वे बार-बार कह रहे हैं कि भाजपा ऐसी पार्टी है, जिसमें ऊंची जाति के लोगों का वर्चस्व है। और उनके शासन में ओबीसी के नेताओं की अनदेखी हुई है। तो मैंने जैसा कि पहले भी कहा था और जिस बात का जिक्र करता रहा हूं कि किसी भी पार्टी को अगर शासन करना है, सत्ता में रहना है तो इतने बड़े समुदाय ओबीसी के हितों को नजरंदाज नहीं कर सकते। यह प्रमाणित बात है। जब भाजपा ने इतनी बड़ी जीत हासिल की तो उसकी वजह सिर्फ यही थी कि उन्होंने ओबीसी को अपनी ओर मिलाया। लेकिन जब आज भाजपा संकट में दिखाई पड़ती है, तो उसकी वजह साफ है कि ओबीसी नेता उसे छोड़कर जाते हुए दिखाई पड़ रहे हैं। कांग्रेस का तो संकट गहराया हुआ है क्योंकि ओबीसी, दलित और मुस्लिम सबके सब उन्हें छोड़कर जा चुके हैं। यूपी और बिहार में उनके पास जो कुछ भी थोड़ा-मोड़ा जनाधार बचा रह गया है वह बस अपर कास्ट का उसका पारम्परिक वोट है। कांग्रेस में यह संकट तब गहराया जब ओबीसी उसे छोड़कर चले गए, दलित चले गए, और मुस्लिम चले गए। उनमें पैठ बनाई भाजपा ने। और आज भाजपा के लिए यूपी में संकट गहरा रहा है तो इसकी वजह यह है कि ओबीसी समुदाय का जो वोटर है, उनको छोड़कर जाता हुआ दिखाई पड़ रहा है। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है क्योंकि ओबीसीनेता उन्हें छोड़कर जा रहे हैं। बिहार में मैं कहूंगा कि वे सावधान रहे हैं। आप देखिए कि उन्होंने जो दो उप मुख्यमंत्री बनाए हैं, दोनों दलित और ओबीसी समुदाय से बनाए हैं। अगर बिहार में उन्होंने यूपी का प्रयोग किया होता, या आगे करेंगे, तो बिहार में भी भाजपा को इसी संकट का सामना करना पड़ सकता है। जो संकट, आज भाजपा के लिए यूपी में उभरता हुआ दिखाई पड़ रहा है। 

पहले यह देखा गया था कि भाजपा ओबीसी को गैर-यादव ओबीसी और दलितों को गैर-जाटव/चमार दलित बनाने पर जोर दे रही थी। इसी क्रम में उसने रोहिणी कमीशन का गठन भी किया। लेकिन ऐसा क्या हुआ है कि अति पिछड़ी जातियां भी भाजपा से दूर जा रही हैं?

निश्चित रूप से जिस तरीके से भगदड़ मची हुई है, वह एक तरीके से संकेत दे रही है। उन्होंने ऐसा क्यों किया उनकी रणनीति बहुत ही साफ थी। उन्हें पता था कि यादवों का बहुत जोरदार झुकाव है समाजवादी पार्टी के प्रति। और यादव वोटरों को तोड़कर अपनी ओर लाने के लिए जितनी मेहनत करनी पड़ेगी, उससे कहीं कम प्रयास में जो गैर यादव ओबीसी के वोटर हैं, उनको अपनी ओर लाया जा सकता है। क्योंकि उनके बीच में एक फीलिंग अवश्य थी कि ओबीसी के नाम पर जब सपा चुनाव जीतकर आती है, तो सारी मलाई यादव ले जाते हैं, बाकियों को ज्यादा कुछ मिलता नहीं है। यह जो दबी भावना थी उन समुदाय के नेताओं और वोटरों के बीच में। उसको भाजपा ने अच्छी तरह से भुनाया। उन समुदाय के नेताओं की खोज की, कुछ लोगों को नेता बनाया। और उन सब को अपनी ओर मिलाया। वह एक प्रोसेस था। उससे लोगों को उम्मीद थी कि कुछ मिलेगा और कुछ हासिल होगा। क्योंकि पार्टी [भाजपा] ने एक पहल की है, और वह समझती है कि ओबीसी के नाम पर सारा फायदा यादव समुदाय के लोग ले जाते हैं, क्योंकि सपाउसी जाति की पार्टी है। एक तरीके से यादवों का ही प्रतिनिधित्व करती है। लेकिन पांच साल के दौरान जब इन समुदाय के लोगों को भी लगने लगा कि हमें मिला तो कुछ नहीं, साथ ही साथ उपेक्षा भी हुई। क्योंकि, कम से कम सपा के साथ होतें तो शायद ऐसे नजरंदाज नहीं किया जाता। जिस तरह के वक्तव्य आ रहे हैं दोनों तरफ से, अभी तो यह आरोप प्रत्यारोप का दौर है, भाजपा कहती है कि इन लोगों को टिकट चाहिए था और इनके रिश्तेदारों को टिकट चाहिए था, जब इन्हें इस बात का अंदेशा हुआ कि टिकट नहीं मिलेगा तो छोड़कर जा रहे हैं। जबकि भाजपा छोड़कर जा रहे ओबीसी नेता यह कहते हैं कि पिछले कई सालों से लगातार हमने अपने समुदाय के लोगों मांगों को रखने की कोशिश की, लेकिन हमारी मीटिंग नहीं होती थी। मुख्यमंत्री हमारी बात नहीं सुनते थे। तमाम तरह के आरोप लगाए जा रहे हैं। अगर दोनों तरफ की बातों को पूरी-पूरी सच्चाई न मान ली जाय, आधी आधी सच्चाई भी मान ली जाय तो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि ओबीसी समुदाय के जो नेता भाजपा के अंदर रहे, जो नेता मिनिस्टर भी रहे, तमाम जरूरी पद पर भी रहे, उनको इस बात का मलाल है कि मंत्री तो वे थे, लेकिन वे उस तरह के मंत्री नहीं थे, जो ऊंची जाति के लोग मंत्री थे। तो यह फीलिंग उनके अंदर में रही कि पांच साल रहे, लेकिन कशमकश के साथ रहे। उन्हें लगता था कि हर समय उनकी अनदेखी हो रही है और उनको नजरंदाज किया जा रहा है। उनकी बातों को नहीं सुना जा रहा है। इस वजह से जो सब साथ आए थे, वे वापस जाते हुए दिखाई पड़ रहे हैं। मूल प्रश्न था कि कुछ हुआ नहीं। निश्चित रूप से भगदड़ इस बात का सूचक है कि कुछ होता हुआ दिखाई नहीं पड़ा। उन्हें लगा कि सपा के साथ कुछ नहीं मिला और भाजपा के साथ जाने पर भी कुछ नहीं मिला, परंतु सपा के साथ आत्म सम्मान तो बचा था। इस वजह से वहां जाते हुए लोग मुझे दिखाई पड़ रहे हैं।

अभी स्वामी प्रसाद मौर्य ने एक नया नरेटिव दिया है कि ‘पचासी तो हमारा है, पंद्रह में भी बंटवारा है’। दूसरी तरफ भाजपा का राममंदिर का नॅरेटिव है। जब स्वामी प्रसाद मौर्य 15 में बंटवारा की बात करते हैं तो हमारा ध्यान ब्राह्मण समाज के लोगों पर जाता है। उनकी भी मोहभंग की खबरें आने लगी हैं। इसको आज किस रूप में देख रहे हैं?

अब ब्राह्मणों के मोहभंग की खबरें आने लगी हैं। मैं ये कह रहा हूं कि भाजपा ने जब सरकार बनायी तो उन्होंने यह गलती कर दी कि ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाया जो पिछड़ों का प्रतिनिधित्व नहीं करता था। साथ ही साथ मुझे लगता है दूसरी बड़ी गलती ये हुई कि अपर कास्ट के ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाया गया, जिसके बारे में धारणा हो सकती है कि दबंग हैं, लेकिन जिस तरह का कार्यकाल रहा है, जिस तरह का प्रशासन रहा है, उसमें ब्राह्मण समाज के लोगों को भी लगने लगा कि अपर कास्ट के नाम पर भी एक ही कास्ट के लोगों का ध्यान रखा जा रहा है और बाकी अपर कास्ट के लोगों की उपेक्षा हो रही है। जब कभी ब्राह्मण और राजपूत समाज के बीच कोई बात आई तो ब्राह्मणों को नजरंदाज किया गया और राजपूतों को उसका फायदा दिया गया। ब्राह्मण भी नाराज दिखते हैं। एक तरीके से ऐसे संकेत आ रहे हैं यूपी से और इस बात का काफी जिक्र भी हो रहा है। परंतु मुझे अभी भी लगता है कि ब्राह्मण इतने नाराज नहीं होंगे कि वे एकजुट होकर सपा या कांग्रेस या बसपा को वोट देंगे। नाराजगी तो है उनकी। और इस वजह से भाजपा को उनके समर्थन में कमी आएगी, लेकिन भाजपा को बहुत बड़ा नुकसान होता हुआ मुझे नहीं दिखाई पड़ता। खासकर अब जिस तरीके से ओबीसी की गोलबंदी हो रही है। इस गोलबंदी की वजह से भाजपा के साथ उनका जो गठजोड़ है, और मजबूत होता हुआ दिखेगा। अब पहले जैसी बात नहीै है जैसा कि दो महीने पहले दिखाई पड़ता था। वे नाराज तो अवश्य थे, पर मुझे कभी भी ऐसी नाराजगी नहीं लगी कि वो एकजुट होकर प्रचार करने लगें कि भाजपा को हराने के लिए हम किसी को भी वोट देंगे, या भाजपा के खिलाफ जाएंगे। हो सकता है कुछ वोट इधर-उधर से कट जाय, क्योंकि कहीं पर सपा ऐसे ब्राह्मण चेहरों को उतार सकती हैं जो लोकप्रिय चेहरे हों। लेकिन कुल मिलाकर मुझे ब्राह्मणों का सपोर्ट भाजपा के लिए हमेशा दिखाई देता है। कुछ ऐसे लोग हो सकते हैं जो घर बैठ जाएंगे, परंतु कभी मुझे ऐसा अंदेशा नहीं लगा कि ब्राह्मण नाराज होकर किसी और को वोट कर देंगे। 

एक दांव कांग्रेस की ओर से लगाया गया है कि महिलाओं को 40 फीसदी उम्मीदवारी दी जाएगी। आप पहले भी मानते रहे हैं कि महिलाओं का वोटिंग पैटर्न महत्वपूर्ण रहता है। क्या आपको लगता है कि महिलाओं को कांग्रेस का यह दांव प्रभावित कर सकेगा?

देखिए, अगर मुद्दे के तौर पर देखें तो बहुत अच्छा दांव है यह मुद्दा बहुत अच्छा है। इसका काट कोई पार्टी नहीं ढूंढ़ सकती। कोई भी पार्टी यह नहीं कह सकती कि कांग्रेस का दांव गलत है। या दांव तो छोड़िए यह नहीं कह सकते कि कांग्रेस जिस मुद्दे को उठा रही है, उसे नहीं उठाना चाहिए और इसके पीछे राजनीति है। सचमुच यह एक अहम मुद्दा है, लेकिन क्या कांग्रेस इस मुद्दे से अपने प्रदर्शन में इजाफा कर पाएगी? इस बात पर तो हम चर्चा कर ही नहीं सकते कि कांग्रेस सत्ता के करीब भी आ सकती है। मुझे लगता है कि लोग एप्रीशिएट कर रहे हैं इस बात को। सभी पार्टियां एप्रीशिएट करेंगी। लोगों को लगता है कि हां, ऐसा जरूर होना चाहिए। महिला वोटरों को भी लगता है कि एक पार्टी है, जो हमारा ध्यान रख रही है। लेकिन यह जरूरी है कि पार्टी का अपना जनाधार होना चाहिए। अगर कांग्रेस के पास 18-20 प्रतिशत का जनाधार होता तो यह मुद्दा 4-5 प्रतिशत वोट उसकी ओर स्विंग करा सकता था, लेकिन मैं कह रहा हूं कि यह केक नहीं, ऊपर की मलाई है। मक्खन है। जैसे केक पर आइसिंग लगाते हैं, परंतु केक है नहीं, तो मक्खन का क्या होगा, कहां लगेगा? इसका कोई फायदा नहीं होगा कोई स्वाद नहीं आएगा। वोटर अपना वोट बर्बाद नहीं करना चाहता। वह सहानुभूति रख सकता है कि भाई ये अच्छे आदमी हैं, अच्छी पार्टी है, अच्छा मुद्दा है, लेकिन क्या करें। कई बार होता है कि बड़े अच्छे सुशील व्यक्ति चुनाव में खड़े होते हैं, वे स्वतंत्र होते हैं, और कई बार किसी पार्टी से भी होते हैं, लोग उनकी बहुत तारीफ करते हैं, लेकिन क्या करें, जीतेगें तो नहीं, वोट देकर क्या करना और वे दूसरी पार्टी को वोट दे देते हैं जिसकी सरकार वे चाहते हैं। तो ऐसी स्थिति कांग्रेस के साथ हो गई है। मुद्दा अच्छा है। महिला वोटरों के बीच में तारीफ होगी मुद्दे की। लेकिन कुल मिलाकर वोट देते समय लोगों का मन बदल जाएगा। वो तारीफ करेंगे कि मुद्दा तो बहुत अच्छा है, लेकिन शायद देखते हैं कांग्रेस अगली बार मुकाबले में रहेगी तो वोट कर देंगे। लेकिन मुझे नहीं लगता कि कांग्रेस बड़ी जबरदस्त प्रदर्शन करने वाली है। 

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