दिव्या गुप्ता, दिल्ली
शिव ने ब्रह्मा जी के कहने पर शक्ति को उत्पन किया ताकि सृष्टि निर्बाध रूप से सेक्स के आधार पर स्वंय उत्पन होती रहे और चलती रहे। इसलिए स्त्री को शक्तियों से संपूर्ण किया।
कोई भी स्त्री माहवारी के पांच दिन निकाल कर बचे 25 दिन में पुरे दस शक्तियों के रूप धारण करती है। हर चंद्र कला के बाद किसी भी स्त्री के विचार और मूड बदल जाते है। 25/2.5=10 रूप।
यही रहस्य है की स्त्री के इस बदलते रूप के कारण कोई भी पुरष चैन से नही बैठ सकता और कोई न कोई कर्म करने को मजबूर होता है। किसी भी कर्म या घटना या कहानी का चलना आगे बढ़ना सिर्फ किसी स्त्री के कारण ही होता है।
इसीलिए कोई भी व्यक्ति मतलब पुरष तभी तक आध्यात्मिक शांति का अनुभव कर सकता है जब तक कोई स्त्री उसको तंग न करे और वह स्त्री से दूर रहे मन से भी और तन से भी। हां आध्यात्मिक ढोंगी बनना अलग बात है।
भगवान या प्रकृति भी यही चाहती है की सृष्टि न रुके चलती रहे यही बात हमारे वेद पुराणों और उपनिषदों में लिखी है की आप सृष्टि के निर्बाध रूप से चलने दे बहने दें इसमें कोई रुकावट पैदा न करें।
आजकल जैसे वैज्ञानिक प्रकृति के विरुद्ध उस पर विजय प्राप्त करने के कई काम करते हैं उसी प्रकार से इस दुनिया में कई पैगम्बर, गुरु या कई और धार्मिक संस्थाएं भी प्रकृति के विरुद्ध कार्य करके इसके आगे बढ़ने और चलने में रुकावट पैदा करते आए हैं और आगे भी करते रहेंगे। लेकिन अगर ऐसे पैगम्बर बने लोगों की निजी जिंदगी की गहराई में जाकर देखा जाए तो वह खुद भी इस प्रकृति के नियमों से हारे बैठे हैं। सिर्फ लोगों को अपना चेला बनाने के लिए ढोंग धारण किए हुए हैं।
लेकिन हमारा वैदिक ज्ञान यह सब नही कहता वैदिक ज्ञान में यही कहा गया है कि सृष्टि जिन नियमों के आधार पर चलती है आप को भी अपनी विभिन्न आयु समय के दौरान उन नियमों का पालन करना है।
वैदिक ज्ञान के अलावा जितने और पंथ मजहब हैं ये सारे हमे प्रकृति के किसी न किसी नियम के विरुद्ध जाने की सलाह अवश्य देते हैं।
न तू कहीं से आया है ना कहीं तुझे जाना है तू इसी प्रकृति का अभिन्न अंग है तुझे बार बार चोला बदल कर यही इसी प्रकृति में रहना है इसलिए जल्दी किस बात की प्रकृति के नियमों के अनुसार अपना जीवन जी उसकी रक्षा भी कर। समय के विरुद्ध जा कर अपूर्ण इच्छाओं के साथ संपूर्णता प्राप्त करने की जल्दी मत कर।
अपूर्ण इच्छाओं के साथ अपनाया गया अध्यात्म मन की शांति प्रदान तो नही कर सकता लेकिन कुंठा जरूर उत्पन कर देता है। मैने तो अधिकतर ऐसे आध्यात्मिक बने लोगों के गले में फंसी कुंठा या विष या उससे उत्पन टेंशन देखी है।
इच्छाएं दबाई जा सकती है समाप्त तभी होती हैं जब वे पूर्ण हो जाए। दबी हुई इच्छाओं के साथ अध्यात्म आपके चेहरे पर एक नकली मुस्कान तो ले आता है लेकिन आपके गले में कानों तक के हिस्से में एक अजीब सी टेंशन या कुंठा या विष भर देता है।
अगर आपने कभी वेद पढ़ें हो तो आप देखेंगे उसमे सिर्फ और सिर्फ प्रकृति के नियमों की पूजा के बारे में लिखा है और पूजा का अर्थ गलत न निकालें। पूजा का अर्थ किसी भी बात को अपने जीवन पर लागू करना होता है। अन्यथा भजन कीर्तन करके कुछ नही होता। भजन कीर्तन सिर्फ अपने मन का मनोरंजन मात्र है।
आप ढोलक चिमटा लेकर उसकी गाते बजाते है , खाते पीते है और रिश्तेदारों में एक दूसरे से मुंह फूला कर बैठे रहते है। तो यह कथित सुंदर काण्ड एक मनोरंजन का साधन मात्र बन जाता है इससे घर में कोई सुख शांति नही हो सकती।