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आम-अवाम के लिए लोस चुनाव 2024 नतीजों के मायने

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       पुष्पा गुप्ता 

 कुछ दिनों की राजनीतिक अनिश्चितता के बाद केन्द्र में फ़िलहाल  भाजपा-नीत राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबन्धन (एनडीए) की सरकार बन गयी है। नीतीश कुमार की जद (यू) और चन्द्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी के समर्थन के बूते फ़िलहाल नरेन्द्र मोदी का तीसरी बार प्रधानमन्त्री बनने का सपना, मनमुआफ़िक तरीक़े से न सही, आख़िरकार पूरा हो ही गया।

      हालाँकि राज्यसत्ता की मशीनरी का अभूतपूर्व तरीक़े से दुरुपयोग करने, समस्त पूँजीवादी संसदीय विपक्ष को कुचलने के तमाम प्रयासों, पूँजीपति वर्ग के अकूत धनबल और जनपक्षधर शक्तियों के व्यापक दमन-उत्पीड़न के बावजूद फ़ासीवादी भाजपा अपने बूते बहुमत तक पहुँचने में नाकाम रही। 

     चुनावी नतीजों की घोषणा के फ़ौरन बाद भाजपा के चुनावी प्रदर्शन को लेकर पूरे देश में फ़ासीवाद-विरोधी ताक़तें और विशेषकर उसका उदारपन्थी तबका हर्षातिरेक की अवस्था को प्राप्त हो गया था। ज़ाहिरा तौर पर मोदी–शाह की फ़ासीवादी जोड़ी का अपने बूते बहुमत न पाना जनता की ताक़तों के लिए एक हद तक ख़ुशी की बात है लेकिन इन नतीजों को लेकर फ़ासीवाद की शक्तिमत्ता या ख़तरे के विषय में किसी भी प्रकार का मुग़ालता पालना आने वाले दिनों की तैयारियों के लिए काफ़ी नुकसानदेह साबित हो सकता है।

ऐसे में इस देश की आम मेहनतकश जनता के लिए इन चुनावी नतीजों के क्या मायने हैं? इन नतीजों के साथ तात्कालिक अर्थों में कौन-सी सम्भावनाएँ पैदा होती हैं? मज़दूर वर्ग के समक्ष कौन-सी भावी चुनौतियाँ है? इन सम्भावनाओं और चुनौतियों से तात्कालिक और दूरगामी तौर पर कौन-से कार्यभार निकलते हैं? इन सभी आवश्यक बिन्दुओं पर हम यहां चर्चा करेंगे।

चुनाव के नतीजों की सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि फ़ासीवादी भाजपा व मोदी-शाह जोड़ी अपने बूते पर बहुमत तक नहीं पहुँच पाये। 2019 के आम चुनावों के मुक़ाबले 63 सीटों की कमी के साथ भाजपा 240 सीटों तक ही पहुँच सकी। ‘अबकी बार 400 पार’ के भाजपाई जुमले की भी हवा निकल गयी। 

     यह आँकड़ा भी भाजपा तब छू पायी जब उसके नियन्त्रण में समस्त पूँजीवादी राज्यसत्ता की मशीनरी थी। पूँजीवादी विपक्ष को तोड़ने, पंगु बनाने और कुचलने के तमाम प्रयासों, चुनावों के पहले मोदी, शाह, योगी समेत तमाम भाजपा नेताओं द्वारा खुले तौर पर आचार संहिता की धज्जियाँ उड़ाते हुए किये गये साम्प्रदायिक व दंगाई प्रचार, ईवीएम मशीनों द्वारा किये गये हेर-फेर, मतगणना के दिन तमाम इलाक़ों में सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल कर नतीजों में की गयी गड़बड़ी (जिसकी खबरें अभी तक आ रही हैं) के बावजूद यदि भाजपा 272 का आँकड़ा पार नहीं कर पायी तो आप ख़ुद-ब-ख़ुद अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि अगर ऊपर बताये गये सभी कारकों को हटा दें तो भाजपा के लिए 200 सीटों तक पहुँचना भी कितना मुश्किल होता। बेशक़ यह एक सुखद बात है।

यदि चुनाव से पहले के घटनाक्रम पर एक सरसरी निगाह दौड़ायें तो हम पाते हैं कि किसी भी तरह से इन चुनावों को पूँजीवादी औपचारिक मानकों से भी बराबरी के मैदान पर हुआ चुनाव नहीं माना जा सकता। ईवीएम के ज़रिये चुनाव सम्पन्न करवाना ही स्वयं एक विशालकाय घपला था जो देश की जनता को अपनी सामूहिक इच्छा को अभिव्यक्त करने, यानी स्वतन्त्र और पारदर्शी तरीक़े से अपने नुमाइन्दे चुनने के जनवादी अधिकार का मखौल बनाता है। 

     इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट का रवैया एक बार फिर यही दिखलाता है कि फ़ासीवादी ताक़तों की घुसपैठ  किस हद तक न्यायपालिका समेत सभी पूँजीवादी राज्यसत्ता के संस्थानों में हो चुकी है और आज इसके समूचे ढाँचे पर भाजपा और संघ परिवार का कमोबेश नियन्त्रण है। 

     ईवीएम की विश्वसनीयता पर हर तरफ़ से उठने वाले वाजिब सवालों और सौ प्रतिशत वीवीपैट मिलान की माँग को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में ख़ारिज कर दिया। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने लोगों को हिदायत दी और कहा कि जनता का व्यवस्था में “अन्धा अविश्वास” सही नहीं है! 

     यानी व्यवस्था कितनी ही भ्रष्ट, निकम्मी और जनविरोधी क्यों न हो उसके ख़िलाफ़ प्रश्न मत खड़े करो, उसके ख़िलाफ़ आवाज़ मत उठाओ, उसके ख़िलाफ़ बग़ावत मत करो, बस आँख मूँदकर “अन्धा विश्वास” रखो! सुप्रीम कोर्ट की उक्त हिदायत बाइबिल में लिखे हुए उस कथन की याद दिलाती है कि पहले विश्वास करो उसके बाद तुम्हें ईश्वर के चमत्कार अपनेआप नज़र आयेंगे!

बहरहाल, इस बार लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू से ही केन्द्रीय चुनाव आयोग (केचुआ) द्वारा इस प्रकार बनायी गयी थी कि इसका स्पष्ट फ़ायदा भाजपा को पहुँचे। 

      सात चरणों में चुनावों को करवाने की पूरी व्यवस्था ही इसी प्रकार बनायी गयी थी। ईवीएम मशीनें पर कत्तई भरोसा नहीं किया जा सकता है और इसपर उठने वाले सवाल बिलकुल जायज़ हैं – इस बात की पुष्टि एक बार फिर इन चुनावों में हो गयी। कई इलाक़ों से आ चुकी ख़बरों से स्पष्ट है कि ईवीएम के बूते भी चुनाव के नतीजों में हेरफेर हुआ है। 

    यही नहीं, चुनाव आयोग ने पहले दो चरणों के मतदान के आँकड़ों तक को 5 से 7 प्रतिशत तक बढ़ा दिया था!

      यह बात सर्वविदित है कि पूँजीवादी चुनावों में धनबल की केन्द्रीय भूमिका होती है। जहाँ तक भाजपा की आर्थिक शक्तिमत्ता का प्रश्न है तो वह पहले ही अन्य सभी पूँजीवादी चुनावी दलों से कई गुना ज़्यादा थी। लेकिन चुनावों से पहले भाजपा ने पूँजीपति वर्ग से इलेक्टोरल ट्रस्टों के घोटाले के ज़रिये हज़ारों करोड़ का चन्दा बटोरकर और फिर इलेक्टोरल बॉण्ड के महाघोटाले के द्वारा अपनी आर्थिक ताक़त को और भी प्रचण्ड रूप से बढ़ा लिया था। 

      इसके अलावा चुनावों से पहले प्रमुख पूँजीवादी विपक्षी दल कांग्रेस के खातों को सील कर उसे आर्थिक रूप से पंगु बना दिया गया था; दिल्ली के मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल समेत आम आदमी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के अच्छे-ख़ासे हिस्से को जेल में डाल दिया गया था; झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन सहित अन्य कई विपक्षी पार्टियों के नेता जेल में थे या उन पर जेल जाने की तलवार लटकाकर रखी गयी थी; कई विपक्षी पार्टियों को धनबल व एन्फोर्समेण्ट डायरेक्टरेट, आयकर विभाग व सीबीआई जैसी केन्द्रीय एजेंन्सियों का इस्तेमाल करके तोड़ दिया गया था और कइयों को भाजपा की बी-टीम में तब्दील कर दिया गया था।.

     इसके साथ ही समूचा गोदी मीडिया शुरू से ही भाजपा और मोदी के पक्ष में झूठे प्रचार कर राय बनाने के प्रयासों में लगा हुआ था और सिरे से झूठे एक्जि़ट पोल देकर गणना के दिन हेराफेरी के ज़रिये जनादेश के चुराये जाने के लिए माहौल तैयार करने में लगा हुआ था। इतना तय है कि जो नतीजा आया भी है, उससे मोदी की अपराजेयता का पूँजीवादी मीडिया द्वारा अरबों रुपये बहाकर पैदा किया गया मिथक ध्वस्त हो गया है। 

     ख़ुद वाराणसी में मोदी के जीत का अन्तर पिछले दो चुनावों के मुक़ाबले काफ़ी कम हो गया। 370 या 400 तो दूर 240 सीटों तक पहुँचने में ही भाजपा का दम निकल गया, वह भी तब जबकि सारा मीडिया, सारी सरकारी मशीनरी, चुनाव आयोग, और पूँजीपति वर्ग का धनबल उसके पक्ष में था। 

लोकसभा चुनाव के इस नतीजे का मुख्य कारण यह है कि बेरोज़गारी, महँगाई, भयंकर भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता से जनता त्रस्त थी और भाजपा की जनविरोधी और अमीरपरस्त नीतियों की वजह से उसकी जनता में भारी अलोकप्रियता थी।

       यही वजह थी कि आनन-फ़ानन में अपूर्ण राम मन्दिर के उद्घाटन करवाने का भी भाजपा को कोई फ़ायदा नहीं मिला और फ़ैज़ाबाद तक की सीट भाजपा हार गयी, जिसमें अयोध्या पड़ता है।

     उत्तर प्रदेश के नतीजों से कई लोगों को काफ़ी हैरानी हुई हालाँकि उपरोक्त कारणों की वजह से भाजपा की अलोकप्रियता वहाँ स्पष्ट तौर पर मौजूद थी। साथ ही, दो ऐसे राज्यों में जहाँ क्षेत्रीय पूँजीपति वर्ग के ऐसे नुमाइन्दे थे, जो भाजपा के ख़िलाफ़ हमेशा अवसरवादी चुप्पी साधे रहते थे और केन्द्र में अक्सर भाजपा की मदद किया करते थे, वहाँ से उनका पत्ता ही साफ़ हो गया। 

     ओडिशा में नवीन पटनायक की बीजद और आन्ध्रप्रदेश में जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस। केरल में भाजपा अपना खाता खोलने में कामयाब रही, जो माकपा की सामाजिक-जनवादी व संशोधनवादी राजनीति के कुकर्मों का ही नतीजा है। बिहार और कर्नाटक के नतीजे कइयों के लिए चौंकाने वाले थे। लेकिन इनमें से ज़्यादा लोग वे हैं जो भाजपा की फ़ासीवादी राजनीति के आधार को कम करके आँकते हैं। 

     मध्यप्रदेश, गुजरात, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश जैसे प्रदेशों में भाजपा ने लगभग सभी सीटें जीतीं हैं। निश्चित ही, इसमें ईवीएम और प्रशासनिक मशीनरी द्वारा चुनावी हेरफेर की एक भूमिका है, लेकिन उसके बिना भी इन राज्यों में भाजपा अधिकांश सीटें जीतने की स्थिति में थी। यह सच है कि देश के पैमाने पर भाजपा की सीटों में भारी कमी आयी है, लेकिन अभी भी वह सबसे बड़ी पार्टी है।

       विशेष तौर पर पिछले चार दशकों में संघ परिवार व भाजपा ने जिस व्यवस्थित तरीक़े से समाज के एक विचारणीय हिस्से में साम्प्रदायिक आम सहमति का निर्माण किया और टुटपुँजिया वर्गों के प्रतिक्रियावादी फ़ासीवादी आन्दोलन को खड़ा किया है, यह उसी का नतीजा है।

      यह इतनी आसानी से समाप्त नहीं होने वाला है और दीर्घकालिक मन्दी के दौर में और क्रान्तिकारी राजनीति के प्रभुत्वशाली न बनने की सूरत में यह स्थिति बदलने वाली भी नहीं है, चाहे फ़ासीवादी शक्तियाँ सरकार में रहें या न रहें।

       इक्कीसवीं सदी के फ़ासीवाद की विशिष्टता ही यही है कि हिटलर और मुसोलिनी के दौर के समान आज फ़ासीवादी शक्तियों के लिए चुनावों को, संसद-विधानसभाओं को खुले तौर पर भंग करने की आवश्यकता नहीं है। कहने के लिए कुछ नागरिक अधिकार भी बेहद सीमित और कागज़ी तौर पर मौजूद हैं। लेकिन समाज और राज्यसत्ता में पिछले कई दशकों के दौरान एक लम्बी प्रक्रिया में फ़ासीवादी संघ परिवार और भाजपा ने अपनी गहरी पैठ के ज़रिये इस देश के पूँजीवादी लोकतन्त्र की संस्थाओं, प्रक्रियाओं आदि और समूची पूँजीवादी राज्यसत्ता की मशीनरी पर अन्दर से क़ब्ज़ा कर लिया है, यानी उन्हें टेक ओवर कर लिया है। 

      दूसरे शब्दों में कहें तो पूँजीवादी लोकतन्त्र का बस खोल ही बचा है, अन्तर्वस्तु कब की क्षरित हो चुकी है। इसलिए फ़ासीवादी ताक़तें यदि सरकार से बाहर भी हो जायें तब भी समाज और राज्यसत्ता में उनकी दखल बनी रहेगी। वजह यह है कि दीर्घकालिक मन्दी के दौर में और आम तौर पर आज के नवउदारवादी पूँजीवाद के दौर में फ़ासीवादी शक्तियाँ पूँजीपति वर्ग और पूँजीवाद की स्थायी आवश्यकता हैं, चाहे वे सरकार में रहें या न रहें। 

      साथ ही, फ़ासीवादी शक्तियाँ भी आम तौर पर दो कारणों से आपवादिक स्थितियों को छोड़कर पूँजीवादी लोकतन्त्र के खोल को बरक़रार रख फ़ासीवादी प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने का रास्ता चुनेंगी। पहला कारण : आज के नवउदारवादी पूँजीवाद के दौर में पूँजीवादी राज्यसत्ता में उतनी भी जनवादी सम्भावनाएँ नहीं बचीं हैं, जितनी बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में बची थीं; दूसरा कारण : फ़ासीवादियों ने भी बीसवीं सदी के अपने पुरखों की ग़लतियों से सीखा है और यह नतीजा निकाला है कि पूँजीवादी लोकतन्त्र के खोल को फेंकने के साथ यह निर्धारित हो जाता है कि उनकी नियति भी देर-सबेर पूर्ण विध्वंस के रूप में सामने आती है, क्योंकि उसके बाद और कोई विकल्प बचता भी नहीं है। 

      नतीजतन, राज्य का फ़ासीवादीकरण आज आम तौर पर एक ऐसी परियोजना में तब्दील हो चुका है, जो कभी पूर्णता पर नहीं पहुँचेगी बल्कि सतत् जारी रहेगी, यानी हमेशा एक ‘ऑनगोइंग प्रोजेक्ट’ बनी रहेगी। इसलिए फ़ासीवाद राज्यसत्ता और समाज में एक प्रतिक्रियावादी धुर जन-विरोधी शक्ति के तौर पर बना रहेगा, चाहे वह सरकार में रहे या न रहे; दूसरा, वह दीर्घकालिक मन्दी के दौर में बार-बार पहले से अधिक आक्रामकता के साथ सरकार में पहुँचेगा क्योंकि हर दिखावटी कल्याणवाद के दौर के बाद नवउदारवादी नीतियों को और अधिक तानाशाहाना तरीक़े से आगे बढ़ाना पूँजीपति वर्ग की ज़रूरत होगी।

*पैदा हो सकने वाली भावी सम्भावनाएँ :*

      चुनावों में भाजपा द्वारा अपने बूते स्पष्ट बहुमत न पाने और एक गठबन्धन सरकार चलाने की मजबूरी के चलते कई तात्कालिक  सम्भावनाएँ पैदा होती हैं। पहली सम्भावना यह है कि मोदी सरकार नीतीश कुमार व चन्द्रबाबू नायडू के समर्थन के बूते, तमाम विवादास्पद सवालों पर समझौते करके अपने अस्तित्व को बचाये रखे।

      इस सूरत में फ़ासीवादी हमलों की तीव्रता और व्यापकता में मात्रात्मक कमी आ सकती है। कुछ मुद्दों पर मसलन, सीएए-एनआरसी, अग्निवीर, आदि पर जद(यू) और तेलुगु देशम पार्टी ने दबे स्वर में आपत्तियाँ खड़ी करना शुरू कर दिया है जो आगे चलकर यदि मुखर हुईं तो मोदी-शाह जोड़ी और भाजपा के लिए कुछ असुविधाएँ पैदा कर सकती हैं। अगर मोदी-शाह फ़ासीवादी एजेण्डा के इन केन्द्रीय मुद्दों पर समझौता करने को तैयार होते हैं और भविष्य में सरकार को बचाये रखने के लिए अन्य समझौते भी करते हैं, तो मोदी की अब तक बनायी गयी फ़ासीवादी छवि को अपूरणीय क्षति होगी और उसे दोबारा किसी नये तरीक़े से खड़ा कर पाना भी काफ़ी मशक्क़त का काम होगा।    

      तात्कालिक तौर पर, फ़ासीवादी सरकार के धुर फ़ासीवादी तेवर और मोदी का ‘फ्यूरर–कल्ट’ कमज़ोर पड़ेंगे। इसका अनिवार्यत: यह अर्थ नहीं होगा कि फ़ासीवादी सरकार की आर्थिक नवउदारवादी नीतियों में कोई गुणात्मक कमी आयेगी क्योंकि इस पर सभी पूँजीवादी दलों की आम तौर पर वैसे भी सहमति ही है। न ही यह ज़रूरी है कि ज़मीनी स्तर पर फ़ासीवादी गुण्डा-वाहिनियों के रवैये में कोई गुणात्मक अन्तर आ जायेगा।

       विशेष तौर पर, सरकार की  मज़दूरों-मेहनतकशों के शोषण की दर को बढ़ाने व उनके दमन-उत्पीड़न को बढ़ाने के लिए बनाये जाने वाली नीतियों में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं आयेगा। अभी से ही मज़दूर-विरोधी लेबर कोड्स को लागू करने की बातें ज़ोर पकड़ने लगी हैं। लेकिन सम्भवतः तात्कालिक तौर पर जनवादी-नागरिक अधिकारों व विशेष तौर पर अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर फ़ासीवादी हमलों की रफ़्तार और दर में कमी आ सकती है।

     हालाँकि इसकी सम्भावना भी बेहद कम है। बताते चलें कि नयी आपराधिक दण्ड संहिताएँ जुलाई से अमल में आ जायेंगी।

      दूसरी सम्भावना यह है कि गठबन्धन राजनीति करने की क्षमता, अनुभव और आदत से वंचित मोदी-शाह गठबन्धन सरकार के बनने के कुछ समय बाद ही राज्यसत्ता की मशीनरी में आन्तरिक फ़ासीवादी पकड़ के बूते साज़िशाना तरीक़े से ‘राइख़स्टाग में आग’ जैसी किसी घटना को अंजाम दे सकते हैं, जिसे बहाना बनाकर गठबन्धन सरकार रहते ही सुरक्षा का हौव्वा पैदा कर उस पर अपने पूर्ण नियन्त्रण को स्थापित करने का प्रयास कर सकते हैं। 

     ऐसे प्रयास सहजता से सफल हो जायें, यह ज़रूरी नहीं है। उस सूरत में वे कम-से-कम तात्कालिक तौर पर कोई आपातकाल जैसी स्थिति थोप सकते हैं। उस सूरत में भी वे कोई आपवादिक कानून लाकर हिटलर व मुसोलिनी के समान स्थायी रूप में बुर्जुआ जनवाद के खोल का परित्याग करेंगे और स्थायी व औपचारिक तौर पर बुर्जुआ चुनावों, विधानसभाओं व संसद को भंग करेंगे, इसकी गुंजाइश नगण्य होगी।

      इस प्रकार का कोई अस्थायी क़दम केवल इस उम्मीद में उठाया जा सकता है कि स्थिति को पूर्ण रूप से नियन्त्रण में लाया जा सके। कोई ज़रूरी नहीं है कि इसमें भी वे कामयाब हों।

      तीसरी सम्भावना यह है कि मोदी-शाह गठबन्धन सरकार चलाने के बावजूद फ़ासीवादी मंसूबों को पूरा करने के लिए उसी आक्रामकता के साथ काम करें और गठबन्धन के सहयोगियों द्वारा टाँग खींचे जाने पर यह कहकर इस्तीफ़ा दे सकते हैं कि “घुसपैठियों और ज़्यादा बच्चे पैदा करने वालों की हिमायत करने वाले हमें “राष्ट्रसेवा” व “राष्ट्रसुरक्षा” के लिए निर्णायक कदम नहीं उठाने दे रहे और इसलिए मैं इस्तीफ़ा दे रहा हूँ और राष्ट्रपति से मध्यावधि चुनावों की माँग कर रहा हूँ।”

       इसके बाद, फ़ासीवादी ताक़तें नये सिरे से देश में साम्प्रदायिक और अन्धराष्ट्रवादी उन्माद की लहर पैदा करने की कोशिशें कर सकती हैं और नयी आक्रामकता और ताक़त के साथ सरकार में पहुँचने के मंसूबे बाँध सकती हैं। यहाँ भी, यह कोई ज़रूरी नहीं कि वे कामयाब ही होंगी। उनकी सफलता या असफलता अन्य कई कारकों पर निर्भर करेगी।

       चौथी सम्भावना यह है कि कुछ समय बाद अपने विशिष्ट हितों के मद्देनज़र मोदी-शाह सरकार को पर्याप्त तंग करने के बाद नीतीश व चन्द्रबाबू समर्थन वापस ले लें और अपना समर्थन इण्डिया ब्लॉक को दे दें, जो कुछ अन्य छोटे दलों व निर्दलीयों के समर्थन से सरकार बना लें। उस सूरत में कई उपसम्भावनाएँ पैदा होंगी। पहला, यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा करे और दूसरा, वह बीच में ही गिर जाये और या तो फिर से भाजपा-नीत कोई सरकार बने या फिर मध्यावधि चुनाव हों। दोनों ही सूरत में फिर से नये ज़ोर के साथ और सम्भवत: किसी नये ‘फ्यूरर’ के साथ फ़ासीवादी उभार होने या गडकरी जैसे किसी फ़ासीवादी नेता के नेतृत्व में फ़ासीवादी सरकार बनने या फिर किसी सेण्ट्रिस्ट गठबन्धन की सरकार बनने की गुंजाइश बनी रहेगी।

        इनमें से कौन-सी उपसम्भावना असलियत में तब्दील होगी, उसके बारे में अभी कोई अटकल लगाना न तो सम्भव है और न ही उपयोगी। उस समय तक ठोस वर्ग राजनीतिक स्थितियों में क्या परिवर्तन होंगे, प्रगति और प्रतिक्रिया की शक्तियों में सापेक्षिक सन्तुलन किस प्रकार का होगा, पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के विशिष्ट ठोस हालात कैसे होंगे, बुर्जुआ राजनीति के आन्तरिक समीकरण क्या रूप ग्रहण कर रहे होंगे, विश्व पूँजीवाद के समीकरण क्या रूप ले रहे होंगे, यह इन सारे कारकों पर निर्भर करेगा।

      लेकिन अगर कोई सेण्ट्रिस्ट बुर्जुआ गठबन्धन भी सरकार बनाये और दिखावटी कल्याणवाद के पाँच साल और आ जायें तो भी यह दीर्घकालिक संकट के दौर में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के आन्तरिक अन्तरविरोधों का सन्धिबिन्दु उसे एक राजनीतिक संकट की ओर ले जायेगा और किसी न किसी रूप में फिर से एक नये फ़ासीवादी उभार की ज़मीन तैयार करेगा। यह किस रूप में होगा उसका अनुमान भी अभी नहीं लगाया जा सकता है।

 इतना स्पष्ट है कि चुनावों में फ़ासीवाद का कमज़ोर होना या उसकी चुनावी हार होना व उसका सरकार से बाहर जाना फ़ासीवाद की निर्णायक हार नहीं है। इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवाद की विशिष्टताओं को जो लोग समझते हैं, वे जानते हैं कि सरकार से बाहर होने के बावजूद राज्यसत्ता और समाज में फ़ासीवाद ने पिछले सात और विशेष तौर पर चार दशकों में इस कदर आन्तरिक पकड़ बनायी है, इस कदर आन्तरिक कब्ज़ा किया है, कि उनकी राज्यसत्ता व समाज दोनों में ही पकड़ बनी रहेगी और दीर्घकालिक संकट के समूचे दौर में वे बार-बार सरकार में भी पहले से ज़्यादा आक्रामकता के साथ वापसी करते रहेंगे। 

       आज फ़ासीवादी शक्तियाँ बुर्जुआ जनवाद के खोल का परित्याग नहीं करेंगी क्योंकि उन्हें इसकी कोई ज़रूरत नहीं है और साथ ही, बीसवीं सदी के फ़ासीवाद के प्रयोगों से आज के फ़ासीवादी सबक लेते हुए इस बात को समझते हैं कि यह उनके लिए बेहतर विकल्प नहीं है।

*हमारे समक्ष उपस्थित कार्यभार :*

       उपरोक्त तात्कालिक सम्भावनाओं के मद्देनज़र और दीर्घकालिक तौर पर फ़ासीवाद को फ़ैसलाकुन शिक़स्त देने के लिए आज के दौर में फ़ासीवाद के विरुद्ध मज़दूर वर्ग की रणनीति और आम रणकौशल क्या हो, यह तय करना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है।

सबसे पहला कार्यभार जो आज आम मेहनतकशों के समक्ष उपस्थित है वह है देश के पैमाने पर एक नयी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण और गठन करना। 

     अगर हम वास्तविक अर्थों में फ़ासीवाद को निर्णायक तौर परास्त करना चाहते हैं तो इस काम की गम्भीरता को हमें तत्काल समझना होगा। कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा वर्ग के संघर्ष को संगठित करने का मुख्यालय होती है, यह उसके रणनीति-निर्माण, रणकौशल-निर्माण का केन्द्र होती है। इसके विचारधारात्मक व राजनीतिक नेतृत्व के बिना सर्वहारा वर्ग अपने आपको एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित नहीं कर सकता है। 

      दूसरे शब्दों में, वह केवल अपने विशिष्ट लघुकालिक आर्थिक हितों के बारे में ही सोच सकता है और नतीजतन उसका संघर्ष अर्थवादी व ट्रेडयूनियनवादी संघर्षों से आगे नहीं जा सकता है। 

     जब आमजन अर्थवाद, अराजकतावाद व अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद के दायरों में सीमित होकर वेतन-भत्तों की लड़ाइयों तक ही सीमित रह जाता है, तो वह बाकी मेहनतक़श जनता, जिसमें कि टुटपुँजिया वर्गों का भी एक विचारणीय हिस्सा शामिल होता है, में अपनी राजनीतिक लाइन के वर्चस्व को स्थापित करने में नाक़ामयाब हो जाता है और उसका राजनीतिक नेतृत्व अपने हाथों में नहीं ले पाता।

      ऐसे में, मेहनतकश जनता के व्यापक जनसमुदायों में बुर्जुआ वर्ग की विचारधारा व राजनीतिक लाइन वर्चस्वकारी बने रहते हैं और वह बुर्जुआ वर्ग के ही नेतृत्व में चलते हैं। ऐसे में, राजनीतिक वर्ग संघर्ष में सर्वहारा वर्ग कभी विजयी नहीं हो सकता है।

      हमें याद रखना चाहिए कि सर्वहारा वर्ग सबसे क्रान्तिकारी वर्ग होता है, लेकिन वह एकमात्र क्रान्तिकारी वर्ग नहीं होता और वह अकेले इतिहास नहीं बनाता है। दूसरी ओर, यह व्यापक मेहनतकश जनता है जो इतिहास बनाती है, लेकिन वह बिना सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व के इतिहास नहीं बना सकती। सर्वहारा वर्ग अपनी हिरावल पार्टी के बिना व्यापक जनसमुदायों को नेतृत्व नहीं दे सकता है।

       फ़ासीवादी विचारधारा भी एक बुर्जुआ विचारधारा है; फ़ासीवादी राजनीति एक बुर्जुआ राजनीति है। वह भी व्यापक जनसमुदायों में अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए सतत् सक्रिय रहती है। अगर देश के पैमाने पर कोई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी मौजूद नहीं होगी, तो वह व्यापक जनसमुदायों के बीच फ़ासीवाद के विरुद्ध सुसंगत और सुनियोजित तरीक़े से विचारधारात्मक व राजनीतिक संघर्ष को संगठित नहीं कर सकती इसलिए  दूरगामी लेकिन सबसे आवश्यक कार्यभार है देश के पैमाने पर एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण।

     यह सच है कि यह कार्यभार तत्काल नहीं पूरा हो सकता है और इस रूप में यह एक दूरगामी कार्यभार कहला सकता है। लेकिन इसे कत्तई कालिक अर्थों में व्याख्यायित नहीं किया जाना चाहिए। कालिक अर्थों में इस कार्यभार को पूरा करने के लिए तत्काल युद्धस्तर पर जुटना होगा। निश्चित तौर पर, यह फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष का ही नहीं बल्कि आम तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था को नष्ट करने और एक नयी समाजवादी व्यवस्था को स्थापित करने के लिए ज़रूरी आम कार्यभार है। लेकिन फ़ासीवाद-विरोधी संघर्ष में यह कार्यभार एक विशेष प्रासंगिकता ग्रहण कर लेता है।

       दूसरा सबसे अहम कार्यभार है जनता के रोज़मर्रा के ठोस मुद्दों पर ठोस कार्यक्रम और ठोस नारों के साथ जुझारू जनान्दोलनों को संगठित करना। अपने आप में यह फ़ासीवाद को केवल तात्कालिक चुनौती ही दे सकता है क्योंकि अलग-अलग बिखरे जनान्दोलनों से फ़ासीवाद अन्तत: निपटने का रास्ता तलाश सकता है। लेकिन एक क्रान्तिकारी पार्टी की मौजूदगी की स्थिति में इन जनान्दोलनों को एक साझा राजनीतिक कार्यक्रम देकर एक लड़ी में पिरोया जा सकता है और उन्हें सामान्य क्रान्तिकारी राजनीतिक आन्दोलन का स्वरूप दिया जा सकता है, जिसके नेतृत्व में क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग हो। 

       ये दोनों कार्यभार एक-दूसरे से नज़दीकी से जुड़े हुए हैं और इन्हें साथ-साथ ही निभाया जा सकता है। ये जुझारू जनान्दोलन फ़ासीवादी शक्तियों के लिए एक चुनौती बनते हैं, चाहे वे सरकार में हों या न हों। वजह यह कि जनता के ठोस मुद्दों पर ठोस पूँजीवाद-विरोधी कार्यक्रम व नारों के साथ खड़े किये गये जनान्दोलन फ़ासीवादी राजनीति की जड़ों में मट्ठा डालने का काम करते हैं। 

       फ़ासीवादी राजनीति की विशिष्टता ही यह होती है कि वह वास्तविक वर्ग अन्तरविरोधों को सही तरीक़े से और सही रूप में अभिव्यक्त नहीं होने देती है और उन्हें किसी न किसी सामाजिक कट्टरपन्थी विचारधारा की चाशनी में डुबो देती हैं, मसलन, नस्लवाद, साम्प्रदायिकता, प्रवासी-विरोध इत्यादि। जब व्यापक जनसमुदाय अपने जीवन की ठोस समस्याओं,  जैसे कि महँगाई, बेरोज़गारी, बेघरी, भुखमरी, कुपोषण, आर्थिक व सामाजिक असुरक्षा, के लिए ज़िम्मेदार असली कारण, यानी पूँजीवाद को समझते हैं और पूँजीपति वर्ग और समूची पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करते हैं, तो वे समाज में मौजूद वर्ग अन्तरविरोधों की अपेक्षाकृत सही समझदारी बनाते जाते हैं।

        केवल इन जनसंघर्षों के ज़रिये वे समझते हैं कि असली दुश्मन कौन है और लड़ना किसके ख़िलाफ़ है। यह फ़ासीवादी राजनीति के लिए ज़मीनी स्तर पर सबसे बड़ी चुनौती पैदा करता है।

       इसके अलावा, आज देश के पैमाने पर क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ताक़तों को आपस में फ़ासीवाद विरोधी मज़दूर वर्ग का संयुक्त मोर्चा संगठित करना चाहिए। फ़ासीवादी हमलों के बरक्स मुद्दा-आधारित मोर्चे सामाजिक-जनवादियों, सुधारवादी संगठनों, और यहाँ तक कि कुछ मसलों पर अन्य ग़ैर-फ़ासीवादी बुर्जुआ दलों के साथ भी बनाये जा सकते हैं। लेकिन जब हम मुद्दा-आधारित विशिष्ट संयुक्त मोर्चे के बजाय सामान्य फ़ासीवाद–विरोधी मोर्चे की बात करते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि आज के दौर में सभी ग़ैर-फ़ासीवादी ताक़तों के बीच कोई पॉप्युलर फ्रण्ट जैसा संयुक्त मोर्चा बनाना कारगर रणनीति नहीं होगा। बीसवीं शताब्दी की तुलना में आज की स्थितियाँ बिल्कुल भिन्न हैं और उस दौर में भी वह हर स्थिति के लिए कोई कारगर रणनीति नहीं थी। पहली बात तो यह है कि बुर्जुआ वर्ग का कोई हिस्सा आज वैसी जनवादी सम्भावनासम्पन्नता नहीं रखता है, कि वह फ़ासीवाद-विरोधी जुझारू संघर्ष में सक्रिय हिस्सेदारी करे। 

      उल्टे, यदि वह किसी मोर्चे का अंग बनता भी है तो वह फ़ासीवाद-विरोधी संघर्ष को हमेशा बुर्जुआ क़ानूनी दायरे के भीतर क़ैद रखने का प्रयास करेगा। कोई भी संघर्ष जो इन सीमाओं का सम्मान नहीं करता है, वह उसे बहुत डराता है। और विशेष तौर पर नवउदारवादी दौर का बुर्जुआ वर्ग तो इससे बुरी तरह से भयाक्रान्त रहता है। दूसरी बात यह कि सामाजिक-जनवादी पार्टियाँ अपने आप में फ़ासीवाद के उभार में योगदान करती हैं और आज फ़ासीवाद-विरोधी रणनीति के नाम पर वे बुर्जुआ वर्ग की पार्टियों की ही गोद में बैठी हुई हैं। उनके पास कोई स्वतन्त्र सर्वहारा रणनीति नहीं है और हो भी नहीं सकती है। 

       इसलिए जहाँ तक सामान्य फ़ासीवाद-विरोधी संयुक्त मोर्चे का सवाल है, तो आज ऐसा प्रभावी मोर्चा केवल क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट संगठनों व प्रगतिशील रैडिकल व्यक्तियों के बीच ही बन सकता है। उसमें बुर्जुआ या सामाजिक-जनवादी शक्तियों की कोई जगह नहीं हो सकती। अगर ऐसा नहीं होगा, तो फ़ासीवाद-विरोधी सुसंगत व जुझारू साझा संघर्ष संगठित किया ही नहीं जा सकता है।

         इन तीन आम राजनीतिक कार्यभारों के अलावा विशिष्ट तौर पर क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्तियों के भी कुछ   विशिष्ट दूरगामी व तात्कालिक कार्यभार बनते हैं। कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का पहला कार्यभार मज़दूर मोर्चे पर है। यह कार्यभार है मज़दूर आन्दोलन के भीतर संशोधनवाद और सामाजिक-जनवादी राजनीति, अराजकतावादी व अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी राजनीति के विरुद्ध समझौताविहीन संघर्ष चलाना। इन राजनीतिक प्रवृत्तियों की विशिष्टता होती है मज़दूर वर्ग के भीतर अर्थवाद और ट्रेडयूनियनवाद को स्थापित करना और साथ ही उनमें एक हिरावल पार्टी की आवश्यकता को खुले या छिपे रूप में नकारना। 

      सामाजिक-जनवाद व संशोधनवाद मज़दूर आन्दोलन को और समूचे मज़दूर वर्ग को अपने नफ़े-नुक़सान को महज़ आर्थिक तौर पर नापना सिखाते हैं। वे वेतन-भत्ते की लड़ाई को सर्वोपरि बना देते हैं और राजनीतिक प्रश्न उठाने, यानी, सत्ता का प्रश्न उठाने की मज़दूर वर्ग की क्षमता को कुन्द करते हैं। दूसरे शब्दों में, वे व्यवस्थित तरीक़े से मज़दूर वर्ग को राजनीतिक प्रश्न उठाने में अक्षम बनाते हैं। जब मज़दूर केवल आर्थिक नफ़े-नुक़सान को ही सर्वोपरि मानता है, वेतन-भत्ते की लड़ाई को ही अपने संघर्ष का क्षितिज मानता है तो वह व्यापक जनसमुदायों का नेतृत्व हासिल करने की क्षमता खोता जाता है और नतीजतन, व्यापक जनसमुदायों के बीच किसी न किसी बुर्जुआ विचारधारा व राजनीतिक लाइन का बोलबाला होता है।    

      नतीजतन, फ़ासीवादी उभार के दौर में व्यापक जनसमुदायों में से विशेष तौर मध्यवर्ग के विभिन्न संस्तर, यानी टुटपुँजिया वर्ग, फ़ासीवादी प्रतिक्रिया की ओर जाते हैं। इसलिए यदि मज़दूर वर्ग को एक राजनीतिक वर्ग के तौर पर संगठित और संघटित होना है तो उसे अर्थवाद, ट्रेडयूनियनवाद और अराजकतावाद व अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद जैसी आत्मघाती प्रवृत्तियों को मज़दूर आन्दोलन के बीच से उखाड़ फेंकना होगा और इसके लिए क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों को सतत् संघर्ष करना होगा।

       कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का दूसरा कार्यभार है टुटपुँजिया आबादी के व्यापक जनसमुदायों के बीच सघन और व्यापक क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार और संगठन के काम को करना। विशेषकर इसके वे हिस्से जो उजरती श्रम करते हैं और वेतनभोगी हैं और इसके निचले हिस्से जो अपने व अपने पारिवारिक श्रम के आधार पर छोटा-मोटा धन्धा करते हैं, उनमें कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शक्तियों को अपने प्रचार व संगठन को कुशलता के साथ संगठित करना चाहिए। 

      ये ही वे वर्ग हैं जो पूँजीवादी समाज में न तो पूरी तरह आबाद होते हैं और न ही पूरी तरह बरबाद। ये ही वे वर्ग हैं जो आर्थिक संकट के दौर में सर्वहाराकरण का शिकार होते हैं या सर्वहाराकरण का ख़तरा इनके सिर पर मण्डराता है। ये ही वे वर्ग हैं जो इस सतत् आर्थिक व सामाजिक असुरक्षा में जीते हुए लगातार एक प्रकार के गुस्से और चिड़चिड़ाहट में जीते हैं। यदि इनके जीवन की समस्याओं के असली गुनहगार, यानी पूँजीवादी व्यवस्था को इनके समक्ष व्यवस्थित तरीक़े से बेनक़ाब किया जाये, एक पूँजीवादी समाज में इन मध्यवर्गों की नियति के बारे में इन्हें बताया जाये और इन्हें यह समझाया जाये कि यदि वे आर्थिक व सामाजिक असुरक्षा से मुक्त जीवन चाहते हैं जिसमें उन्हें शिक्षा, रोज़गार, सुरक्षा और निश्चितता प्राप्त हो, तो उन्हें समाजवादी व्यवस्था के लिए और पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ना होगा; तात्कालिक रूप से, उन्हें रोज़गार के अधिकार को बुनियादी अधिकार बनाने, अप्रत्यक्ष करों की व्यवस्था को समाप्त करने, प्रगतिशील कराधान प्रणाली को लागू करवाने, भोजन, चिकित्सा व आवास को बुनियादी अधिकार बनाने और समान व निशुल्क शिक्षा को बुनियादी अधिकार बनाने के लिए संघर्ष करना होगा। 

       व्यापक निम्नमध्यवर्ग और मध्यम मध्यवर्ग की आबादी को इन सवालों पर संगठित करना फ़ासीवादी शक्तियों पर एक भारी चोट करेगा। लेकिन सिर्फ इन ठोस भौतिक मसलों पर उन्हें गोलबन्द और संगठित करना ही काफ़ी नहीं होगा। ये वर्ग ही होते हैं जो तमाम पूँजीवादी विचारधाराओं की गिरफ़्त में होते हैं इसलिए इनके बीच विचारधारात्मक आधार पर भी क्रान्तिकारी प्रचार को संगठित करने की आवश्यकता है।

        निम्न व मध्यम मध्यवर्ग के विचारणीय हिस्से को क्रान्तिकारी शक्तियाँ अपने पक्ष में कर सकती हैं और उन्हें करना ही होगा। फ़ासीवादी इस वर्ग की विशिष्ट स्थिति का इस्तेमाल कर इन्हें जीतने के लिए इनके सामने एक गौरवशाली अतीत का मिथक खड़ा करते हैं (अतीत का कोई कल्पित रामराज्य) जिसमें सारी समस्याओं का समाधान हो जाता है। वास्तव में, ऐसा कोई अतीत कभी था ही नहीं। लेकिन आम तौर पर जब हमारे देश में कम्युनिस्ट इस प्रचार का जवाब देते हैं तो वे समूचे प्राचीन भारत के इतिहास और समाज पर अपना दावा छोड़ देते हैं और इस प्रकार फ़ासीवादियों को उस पर अपना दावा स्थापित करने का मौक़ा देते हैं।

      इसकी जगह कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को प्राचीन भारत से लेकर मध्यकालीन और आधुनिक भारत तक की प्रगतिशील, भौतिकवादी और तार्किक व वैज्ञानिक परम्पराओं पर अपना दावा ठोंकना चाहिए।

        इसके अलावा, क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों को अपने प्रचार में फ़ासीवादियों की नकली देशभक्ति और उनके राष्ट्रवाद को पूरी तरह से बेनक़ाब करना चाहिए। फ़ासीवादी राजनीति राजनीति के सौन्दर्यीकरण पर आधारित होती है। वे ‘चाल-चेहरा-चरित्र’ का गुणगान करते हैं, अपनी अचूक छवि निर्मित करते हैं जो एक नैतिक, आचारपूर्ण, धर्मध्वजाधारी की छवि होती है। लेकिन इतिहास फ़ासीवादियों का सबसे बड़ा दुश्मन होता है। 

     आज़ादी की लड़ाई में फ़ासीवादियों की भूमिका से लेकर आपातकाल तक के दौर में इनकी कायरता को जनता के सामने तथ्यों व तर्कों समेत बेनक़ाब किया जाना चाहिए। इनके समस्त घपलों, घोटालों, बलात्कार, दुराचार की हरक़तों को जनता के सामने खोलकर रखा जाना चाहिए। फ़ासीवादी राजनीति का इस प्रकार भण्डाफोड़ उन्हें वहाँ चोट पहुँचाता है, जहाँ सबसे ज़्यादा दर्द होता है। टुटपुँजिया वर्गों के बीच यह प्रचार फ़ासीवाद के विरुद्ध एक प्रभावी वैक्सीन का काम करता है और इस काम को कहीं ज़्यादा बेहतर तरीक़े से संगठित करने की आवश्यकता है।

    जन क्रान्तिकारियों का तीसरा कार्यभार है जनता के वर्गों के बीच, जिसमें टुटपुँजिया वर्गों का बड़ा हिस्सा शामिल है, संस्थाबद्ध क्रान्तिकारी सुधार कार्यों व रचनात्मक कार्यों के ज़रिये एक जैविक सामाजिक आधार का विकास करना। यह भी याद रखना चाहिए कि जनता के वर्गों के रिहायशी इलाकों के भीतर संस्थाबद्ध कार्य द्वारा अपने मज़बूत सामाजिक आधार को विकसित करना फ़ासीवादियों ने अपने शुरुआती दौर में स्वयं कम्युनिस्टों से ही सीखा था। उस दौर में, कम्युनिस्ट पार्टियाँ स्वयं इलाकों में बेहद योजनाबद्ध तरीक़े से जनता के बीच सुधार कार्यों को आयोजित करती थीं। इस काम को दुनिया के अन्य किसी भी फ़ासीवादी संगठन की तुलना में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सबसे ज़्यादा कुशलता से किया है। शाखाओं के व्यापक नेटवर्क से लेकर स्कूलों, अस्पतालों, आदि जैसे सुधार कार्यों के विराट ताने-बाने का संघ परिवार ने फ़ासीवादी साम्प्रदायिक आम सहमति बनाने में ज़बर्दस्त कुशलता के साथ इस्तेमाल किया है।

          इसका जवाब देने के लिए कम्युनिस्टों को भी अपनी उस परम्परा को नये सन्दर्भ में पुनर्जीवित करना होगा, जिसे अर्थवाद के वर्चस्वकारी बन जाने के कारण वे ख़ुद ही भूल गये।

     कम्युनिस्टों को नये सिरे से मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी के वर्गों के इलाक़ों में अपनी क्रान्तिकारी सुधार की संस्थाओं को खड़ा करना होगा। यह समाज में जनता के वर्गों के बीच क्रान्तिकारी शक्तियों द्वारा अवस्थितियाँ बाँधने और रणनीतिक खन्दकें खोदने का काम करेगा, जो क्रान्तिकारी आक्रमण और रक्षा दोनों के लिए अनिवार्य है। जनता क्लिनिकों, शहीद अस्पतालों, जिमों, पुस्तकालयों, मज़दूर भोजनालयों, शव वाहन सेवा, मित्र मण्डलों, युवा क्लबों जैसी सैंकड़ों संस्थाएँ व्यापक मेहनतकश जनता के बीच रिहायशी इलाकों में खड़ी करनी होंगी। निश्चित ही, इसके लिए व्यापक पैमाने पर संसाधनों को जुटाना होगा। लेकिन कम्युनिस्ट जनता की ताक़त में भरोसा करते हैं।

       इस काम को प्राथमिकता में लेकर युद्धस्तर पर करना आज फ़ासीवाद-विरोधी रणनीति के लिए अपरिहार्य है। केवल इसी के ज़रिये व्यापक मेहनतकश जनता (जिसमें कि तमाम मध्यम वर्ग भी शामिल हैं) में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी वे जैविक सामाजिक आधार विकसित कर सकते हैं, जिसमें उनके क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार की अनुगूँज भी उन्हें मिलेगी। यह फ़ासीवाद-विरोधी क्रान्तिकारी प्रचार की प्रभाविता को कई गुना बढ़ा देगा। कम्युनिस्ट शक्तियों को जनता के बीच ऐसे गुँथ-बुन जाना होगा जैसे चटाई में रस्सी आपस में गुँथी-बुनी होती है। यह बेहद आवश्यक कार्यभार है और एकदम तात्कालिक कार्यभार है।

चौथा कार्यभार ग्रामीण क्षेत्रों में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट कार्य को विकसित करना है। इतिहास हमें बताता है कि जिन भी देशों में फ़ासीवाद मुख्यत: एक शहरी परिघटना बनकर रह गया, वहाँ यह सत्ता तक नहीं पहुँच पाया। जर्मन नात्सी पार्टी व इतालवी फ़ासीवादी पार्टी की सफलता के तमाम कारणों में से एक कारण यह भी था कि उसने गाँवों में मौजूद धनी पूँजीवादी भूस्वामियों व फार्मरों की प्रतिक्रिया को अपनी प्रतिक्रिया में समाहित करने में सफलता हासिल की। कम्युनिस्ट शक्तियाँ इसका जवाब केवल तभी दे सकती हैं जब गाँवों में समाजवादी क्रान्ति के मित्र वर्गों को, यानी ग्रामीण सर्वहारा वर्ग, ग़रीब व मेहतनकश मँझोले किसान वर्ग को वे गोलबन्द और संगठित करें और उनके सामने इस सच्चाई को साफ़ करें कि उनके वर्ग हित धनी पूँजीवादी फार्मरों व कुलकों से बिल्कुल भिन्न हैं। उनके वर्ग हितों में कुछ भी साझा नहीं है। चाहे वह लाभकारी मूल्य का सवाल हो या धनी किसानों को मिलने वाली अन्य राजकीय रियायतों का। जो किसान साल भर में जितना अनाज बेचता है, उससे ज़्यादा अनाज ख़रीदता है, यानी जो मुख्य तौर पर अनाज का विक्रेता नहीं है, बल्कि उसका ख़रीदार है, उसे लाभकारी मूल्य बढ़ने का केवल नुक़सान ही हो सकता है। साथ ही, आम तौर पर, लाभकारी मूल्य के बढ़ने का अर्थ होता है खाद्यान्न की क़ीमतों में आम बढ़ोत्तरी। यह पूँजीवादी कुलकों व फार्मरों को मिलने वाला इजारेदार लगान है जो उन्हें अतिरिक्त लाभ मुहैया कराता है और अनाज की क़ीमतों को बढ़ाता है। ग़रीब किसानों व ग्रामीण सर्वहारा वर्ग को उनकी वर्गीय माँगों पर संगठित और गोलबन्द करना होगा। इनकी साझा माँग बनती है रोज़गार की गारण्टी व समान व निशुल्क शिक्षा की माँग, खेतिहर श्रम को श्रम क़ानूनों के दायरे में लाने की माँग जैसा कि दुनिया के कई देशों में है। ग़रीब व मेहनतकश मँझोले किसानों की विशिष्ट माँग यह बनती है कि अमीर वर्गों पर विशेष कर लगाकर खेती के सभी इनपुट्स को रियायती दरों पर उन्हें मुहैया कराया जाये, यानी लागत मूल्य को घटाया जाये; उन्हें बेहद आसान शर्तों और निचली ब्याज़ दरों पर संस्थागत ऋण मुहैया कराया जाये, उनके लिए गाँवों में सिंचाई के लिए नहरों के सरकारी नेटवर्क की समुचित व्यवस्था का विकास किया जाये, मुनाफ़े की औसत दर को सुनिश्चित करने वाली क़ीमतों पर सरकारी ख़रीद की व्यवस्था की जाये, सहकारीकरण में सरकारी सहायता उपलब्ध करायी जाये, इत्यादि। कम्युनिस्टों के प्रभावी हस्तक्षेप के अभाव में गाँव के ये आम मेहनतकश वर्ग, यानी समाजवादी क्रान्ति के मित्र वर्ग भी, राजनीतिक रूप से ग्रामीण खेतिहर पूँजीपति वर्ग के पिछलग्गू बनते हैं। 

       आज उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान आदि विभिन्न प्रदेशों में यह कुलक व पूँजीवादी फार्मर वर्ग ही गाँव की मेहनतकश आबादी को भी फ़ासीवादी प्रतिक्रिया की ओर ले गया है, हालाँकि इसमें फ़ासीवादी साम्प्रदायिक प्रचार की भी एक भूमिका होती है। लेकिन साम्प्रदायिक प्रचार ही अकेले गाँवों की व्यापक मेहनतकश आबादी के बीच फ़ासीवाद का आधार नहीं तैयार कर सकता था। इसमें स्वयं गाँवों के वर्ग अन्तरविरोधों की गतिकी भी काम करती है। जब तक गाँवों में आम मेहनतकश आबादी के वर्ग अपने स्वतन्त्र राजनीतिक संगठन नहीं खड़े करेंगे, तब तक इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता और फ़ासीवादी शक्तियों के लिए गाँवों को प्रतिक्रिया के आधार के रूप में विकसित करना अपेक्षाकृत आसान होगा। 

       भारतीय फ़ासीवादी इस दिशा में बेहद तेज़ी से सीख रहे हैं। 1990 के दशक के अन्त तक भारतीय फ़ासीवाद भी मूलत: और मुख्यत: एक शहरी परिघटना बना रहा था लेकिन अपनी इस कमी को उन्होंने तेज़ी से दूर किया है। आज विशिष्ट माँगों के कारण पंजाब और हरियाणा की कुलक आबादी का भाजपा से मनमुटाव और शत्रुता देखकर किसी को भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। यह विशिष्ट आर्थिक माँगों पर हुए संघर्ष के कारण हुआ है। ऐसे रिश्ते वक़्त के साथ फिर से बदल जाएँ तो इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं होगी। समाज का विज्ञान बताता है कि अपने वर्ग हितों व वर्ग चरित्र की प्रकृति से ही आम तौर पर कुलकों व धनी किसानों का पूरा वर्ग फ़ासीवादी प्रतिक्रिया का ज़्यादा नैसर्गिक मित्र है।   

       प्रतिक्रियावादी वर्गीय गोलबन्दी का जवाब देने के लिए कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को गाँव के मेहनतकश वर्गों की क्रान्तिकारी वर्गीय गोलबन्दी खड़ा करने का काम आज से ही शुरू करना होगा।

       उपरोक्त कार्यभार वे हैं जिनका पूरा होना फ़ासीवाद की निर्णायक हार सुनिश्चित करने के लिए बेहद ज़रूरी है। एक देशव्यापी क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का निर्माण व गठन जो समूची मेहनतकश आबादी की नुमाइन्दगी करती हो;  मेहनतकश जनता के रोज़गार-महँगाई जैसे बुनियादी मसलों पर जनता के जुझारू जनान्दोलनों को खड़ा करना जो फ़ासीवाद को पूर्णत: ख़ारिज करते हुए आम तौर पर पूँजीवादी सत्ता व मौजूदा सरकार को कठघरे में खड़ा करें, व्यापक मेहनतकश जनता के बीच व्यापक पैमाने पर क्रान्तिकारी सुधारात्मक व रचनात्मक संस्थाओं का निर्माण और एक आवयविक सामाजिक आधार का विकास करना: इन कार्यभारों को यदि समुचित ढंग से निभाया जाये तो निश्चित ही मज़दूर वर्ग द्वारा फ़ासीवाद पर निर्णायक विजय प्राप्त करने के लक्ष्य को वास्तविकता में तब्दील करने की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है।

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