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संविधान से  समाजवाद और सेक्युलरिज्म  को हटाने का मतलब

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डॉ. सुरेश खैरनार

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय संघ प्रमुख माधव सदाशिवराव गोलवलकर ने , जो सबसे लंबे समय  (1940 – 73 ) तक संघ के अध्यक्ष रहे, आज़ादी के तीन साल के बाद, अपनी  राजनीतिक ईकाई ( 1950 ) का नाम जनसंघ रखा था, जिसे आज भाजपा कहा जाता है। उसके पीछे का मकसद सिर्फ और सिर्फ उच्च वर्ग और उच्च वर्णो के हितों की रक्षा करना ही है।
वर्तमान सरकार ने संविधान के नए संस्करण में से समाजवाद और सेक्युलरिज्म शब्दों को  हटाकर नई संसद में पहले ही दिन और पहले ही अधिवेशन में अपने इरादे को स्पष्ट कर दिया है। वैसे भी इस दल की स्थापना के मूल में सवर्णों का हित  सर्वोपरि है। लेकिन धीरे-धीरे संसदीय राजनीति के तकाजे को देखते हुए सतही तौर पर ही सही महिलाओं से लेकर पिछड़ी जातियों के लोगों को भी शामिल किया गया। और अब तो खुद प्रधानमंत्री जनसभाओं में चिल्ला-चिल्लाकर अक्सर अपने आप को पिछड़ी जाति का बताते हुए देखे-सुने जाते हैं। लेकिन अफसोस की बात है कि पिछले आठ दस सालों का रिकार्ड उठाकर कर देखा जाय तो  मोदीजी ने देश के चंद पूँजीपतियों की तिजोरियां भरने के सिवा दलितों, आदिवासियों और महिलाओं के लिए क्या किया है इसका सही विश्लेषण किया जाय तो बहुत घातक परिणाम निकलते दिखाई देंगे।

हालांकि पहले अपने संबोधन में वे 140 करोड़ की आबादी को  ‘टीम इंडिया’ बोला करते थे, लेकिन अब कुछ दिनों से ‘इंडिया’ शब्द से नफरत करने लगे हैं। ‘टीम भारत’ बोला तो भी 140 करोड़ में, आधी से अधिक आबादी वालों में दलित पंद्रह प्रतिशत, अल्पसंख्यक उसी के आसपास की जनसंख्या है।  यही नहीं, आदिवासियों तथा पिछड़ी जातियों की जनसंख्या मिला दी जाय तो आबादी का तीन चौथाई हिस्सा सिर्फ इन्हीं लोगों का होता है। लेकिन दुख की बात है कि पिछले साढ़े नौ सालों में इस सरकार के कार्यकाल में पिछड़े, दलितों और अल्पसंख्यकों के हिस्से में सिवा बेरोजगारी और मंहगाई के कुछ नहीं आया ।
26 नवंबर 1949 को भारत ने संविधान को अपनाया। संविधान के शिल्पकार डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के साथ ही अन्य सदस्यों ने मिलकर इस संविधान को तैयार किया। लगभग तीन साल की अथक कोशिश का परिणाम है हमारा भारतीय संविधान। भारतीय संविधान पर कटाक्ष करते हुए संघ के अंग्रेजी मुखपत्र ऑर्गनाइज़र के 30 नवंबर के संपादकीय में कहा गया कि, ‘इस देश- विदेश के विभिन्न संविधानों की नकल करके गुदड़ी जैसा संविधान बनाया गया जिसमें कुछ भी भारतीयत्व नही है।’ (But in our constitution there is no mention of the unique constitutional development in ancient Bharat. Manu’s laws were written long before lycurgus of Sparta or Solon of Persia. To this day his laws as enunciated in the Manusmriti excite the administration of the World and elicit spontaneous obedience and conformity. But to our Constitutional Pundits that means nothing.)
जिस सत्ताधारी दल की मातृसंस्था हमारे संविधान की घोषणा के तुरंत बाद अपनी ऐसी राय घोषित करती है। उसकी जगह मनुस्मृति जैसे स्त्री-शूद्र विरोधी, अमानवीयता और भेदभावपूर्ण नियम, हजारों वर्ष पुरानी, सड़ी-गली परम्पराओं को शह देने वाले लोगों ने डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर और उनके सहयोगियों द्वारा मिलकर बनाएं गए नये सविंधान को सिर्फ नकारा ही नहीं, उसकी जगह पर मनुस्मृति जैसे विषमतामूलक और अमानवीय धर्मशास्त्र नियमों को भारत के संविधान से भी अधिक आदर्शवादी कहा। ऐसा कहने वाले लोगों की मानसिकता कैसी है, इस बात का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। अब उन्होंने सिर्फ समाजवाद या सेक्युलरिज्म शब्द ही नहीं हटाया, बल्कि आने वाले दिनों में संपूर्ण संविधान को ही खत्म कर के मनुस्मृति लाने का मार्ग रास्ता प्रशस्त कर दिया है।

आज चुनावी राजनीति कैसे-कैसे मोड़ ले रही है। वर्तमान समय में भारत की लोकसभा में महिला आरक्षण  बिल लाना राजनीति के जरिये हर मुद्दे और चुनाव को हड़प लेने का एक माध्यम बना है। यह चुनाव के पहले की रणनीति है और यह जानते हुये भी की जनगणना और मतदान संघों की पुर्नरचना के बिना इसे लागू नहीं किया जा सकता फिर भी मोदी ने एक उपलब्धि के रूप में इसे अपने खाते में दर्ज़ करवा लिया। मतलब इस आशा में आप इसी पार्टी को लगातार तब तक चुनते रहिए जब तक महिला आरक्षण लागू नहीं हो जाता। हम जानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी एक कदम भी संघ की इजाजत के बगैर चल नहीं सकती। इसलिए ही उसने संविधान से धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद शब्द हटाया। भले ही संघ कहता होगा कि ‘हमारा संगठन सांस्कृतिक संगठन है और राजनीति से हमारा कोई भी संबंध नहीं है’ लेकिन असल में वह भाजपा के बहाने मनुस्मृति की राजनीति कर रहा है।
संघ स्वयंसेवक अटल विहारी वाजपेयी जब  पहली बार भारत के प्रधानमंत्री बनने के बाद नागपुर आए थे, और तत्कालीन संघ प्रमुख कुप्प सी सुदर्शन के साथ मुलाकात की थी। उस समय पत्रकारों ने उनसे पूछा कि ‘आप भारत के प्रधानमंत्री हो या संघ के स्वयंसेवक? ‘तो अटलजी ने जवाब दिया था कि ‘सबसे पहले मैं संघ स्वयंसेवक हूँ और बाद में भारत का प्रधानमंत्री’।

राजनीति से हमारा कोई संबंध नहीं है, कहने वाले संघ  प्रमुख मोहन भागवत ने इंडिया गठबंधन के नाम को लेकर भारत नाम रखते हुए कहा कि इंडिया विदेशी नाम है। इस नाम की क्या जरूरत थी? अभी सप्ताह भर पहले पुणे में तथाकथित चिंतन बैठक में शामिल लोगों में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा भी शामिल थे। वह क्या पुणे की मशहूर मिठाई श्रीखंड खाने के लिए आए थे ?

1950 में जनसंघ की स्थापना करने वाले द्वितीय संघ प्रमुख और हमारे संविधान से लेकर समय-समय पर हमारे देश की राजनीतिक घटनाओं पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले अक्सर यह राग अलापते है कि हमारे संगठन का राजनीति से कोई संबंध नहीं है। यह कहना कितना पाखंड है? क्या दुनिया की कोई चीज राजनीति से परे हो सकती है?
वर्तमान सरकार के सत्ता में आने के बाद हम देखते हैं कि भारत के सभी संस्थानों में, कुलपतियों से लेकर प्रधानमंत्री के विभिन्न सलाहकारों तक और राज्यपाल, सीबीआई, आई बी, ईडी के विभिन्न प्रशासनिक पदों के साथ ही सभी क्षेत्रों में सिर्फ संघ के स्वयंसेवक ही नजर आएंगे। इस प्राथमिक शर्त पर ही इन लोगों की बहाली की गई है। इसलिए तथाकथित नई शिक्षानीति से लेकर, विभिन्न विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्तियों और पाठ्यक्रमों में बदलावर, देश के संविधान को बदलने की मांग भी तथाकथित सलाहकार ही कर रहे हैं।  सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी 1980 के बाद नई बोतल में पुरानी शराब की तरह है। यह 1985 के शाहबानो केस के बाद, बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद को हवा देकर और लगातार रथयात्राएँ निकालते तथा पूजा और विभिन्न धार्मिक पाखंड करते हुए संपूर्ण देश में धार्मिक ध्रुवीकरण करने में कामयाब हुई है।
भागलपुर दंगा (1989), उसके बाद बाबरी मस्जिद का विध्वंस, 6 दिसंबर 1992 के दिन। 6 दिसंबर डॉ. बाबासाहब आंबेडकर का महानिर्वाण दिवस है। मेरी मान्यता है कि ‘यह तारीख संघ ने सोच-समझकर तय की थी। यह अंबेडकर के प्रति सांघी नफ़रत का अन्यतम उदाहरण है। भाजपा लोकसभा में पूर्ण बहुमत से 2014 और 2019 के चुनाव से दो बार चुनकर आई। उसने संविधान के साथ छेड़छाड़ शुरू कर दी है। नई संसद भवन के उद्घाटन समारोह में ब्राह्मणों के द्वारा पूजा-पाठ कराना और संसद सत्र तथा नई संसद भवन में प्रवेश करने के लिए गणेश चतुर्थी की तिथि का चयन करना वास्तव में हमारे देश के संविधान के खिलाफ है। चूँकि हमारे देश में विश्व के सभी धर्मों के लोग रहते हैं, इसलिए हमारे संविधान के निर्माताओं ने सेक्युलर शब्द का प्रयोग किया है। फिर जब नए संसद भवन में लोकसभा के प्रथम अधिवेशन में संसद सदस्यों को संविधान की नई प्रति दी गई तो उसमें से सेक्युलर और समाजवाद शब्दों को निकालने के पीछे और कौन सा उद्देश्य है? मैंने अपनी टिप्पणी की शुरुआत में ही लिखा है कि गोलवलकर ने संविधान को बेकार लिखा है। उन्हीं के विचारों को अमली जामा पहनाने की शुरुआत संविधान के एक-एक प्रावधान को हटाने की चालाकी संघ की राजनीतिक ईकाई भाजपा कर रही है।  इससे हमारे देश की हजारों वर्ष पुरानी गंगा-जमुनी संस्कृति को नष्ट करने की बू आ रही है, और इससे हमारे देश की एकता और अखंडता को खतरा है। समाजवाद शब्द को हटाने का मतलब है कि अब किसानों-मजदूरों की कोई सुनवाई नहीं होगी बल्कि हमें सिर्फ और सिर्फ पूँजीपतियों की तिजोरियों को भरना है। यह इरादा डंके की चोट पर घोषित कर दिया है, लाख हिंडेनबर्ग रिपोर्ट आए।

डॉ. सुरेश खैरनार जाने-माने लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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