अग्नि आलोक
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*गायब खुशबू कागज़ के फूल में*

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शशिकांत गुप्ते

आज सीतारामजी ने एक किस्सा सुनाया। लगभग पचास और साठ के दशक में मानसिंह नामक दस्यु कुख्यात था। मानसिंह दस्यु के क्रिया कलापों के बहुत सी किवदंतियां प्रचलित हैं। मानसिंह अमीरों को लुटता था और गरीबों की हर संभव मदद करता था।
सीतारामजी ने कहा यह किस्सा मैंने अपने एक दार्शनिक मित्र को सुनाया तो,दार्शनिक मित्र ने बहुत सोच समझकर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा,मानसिंह जो भी कुछ करता था,लेकिन वह अंतः डाकू मानसिंह ही लिखा जाता था। जब वह मारा गया तब समाचारों में की सुखियां में डाकू मानसिंह ही लिखा गया था।
मैने पूछा इस किस्से को सुनाने के पीछे तात्पर्य क्या है।
सीतारामजी ने कहा यूं ही सहज ही किस्सा याद आ गया।
विषयांतर करते हुए सीतारारामजी अपनी वास्तविक व्यंग्यकार की मानसिकता में आ गए,और शायर सलीम अहमद
का एक सुनाया।
देवता बनने की हसरत में मुअल्लक़ हो गए
अब ज़रा नीचे उतरिए आदमी बन जाइए

( मुअल्लक = अधर में लटका)
देश की आज जो मौजूदा स्थिति है,उसपर तंज करते हुए, सीतारामजी ने किसी अज्ञात शायर का निम्न शेर सुनाया,
ऐ आसमान तेरे ख़ुदा का नहीं है ख़ौफ़
डरते हैं ऐ ज़मीन तेरे आदमी से हम

मैने पूछा आदमी से डरने का क्या कारण है?
सीतारामजी ने पुनः शायर मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी का यह शेर सुना दिया।
इस दौर में इंसान का चेहरा नहीं मिलता
कब से मैं नक़ाबों की तहें खोल रहा हूँ

मैने पूछा नकाबों की तहें खोलने का क्या मतलब है।
जवाब में सीतारामजी ने शायर
शहज़ाद अहमद का ये शेर सुना दिया
हज़ार चेहरे हैं मौजूद आदमी ग़ाएब
ये किस ख़राबे में दुनिया ने ला के छोड़ दिया

इतना सुनते के बाद मुझे शायर बेकल उत्साही एक शेर याद आ गया जो एकदम सटीक है।
ये दबदबा ये हुकूमत ये नश्शा-ए-दौलत
किराया-दार हैं सब घर बदलते रहते हैं

इतनी चर्चा के बाद मैने सीतारामजी से आज्ञा ली और चलते चलते कहा घर जा कर भगवान की पूजा करनी है। भगवान के समक्ष दीप प्रज्ज्वलित कर अगरबत्ती लगाना है।
सीतारामजी ने कहा सुबह भगवान की पूजा भगवान की स्तुति का पाठ करने के बाद,दिन में व्यापार या व्यवसाय में वही एक नंबर और दो नंबर शुरू हो जाता है।
मैं निरुत्तर था, राम राम कह कर चर्चा को विराम दिया।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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