द्वारका भारती
हाथरस (उत्तर प्रदेश) में बाबा भोलेनाथ उर्फ सूरजपाल जाटव के कथित सत्संग में मची भगदड़ में 123 लोगों के मरने की खबर अब पुरानी हो चुकी है। देश के तमाम न्यूज माध्यमों की धमाचौकड़ी भी मानो थम चुकी है। इसी बाच गठित एसआईटी ने अपनी 855 पृष्ठों की रिपोर्ट में भोलेनाथ को साफ-सुथरा करार दे दिया है। उसके बदले में रामराज की प्रतीक उत्तर प्रदेश की सरकार ने एसडीएम, सीओ, एक तहसीलदार समेत 6 अफसरों को निलंबित कर दिया गया है, जिन्हें देर-सवेर फिर से बहाल कर दिया जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
कहा गया है कि इस एसआईटी ने कुल 132 लोगों के बयान, प्रकाशित समाचार, वीडियो फुटेज को अपनी रिपोर्ट का आधार बनाया है। इस रिपोर्ट में यह संभावना भी प्रकट की गई है कि इस हादसे के पीछे कोई बड़ी साजिश भी हो सकती है। एसआईटी की रिपोर्ट के मुताबिक, इलेक्ट्रॉनिक्स सर्विलांस के जरिए दक्षिणी भारत के कुछ राज्यों के चार मोबाइल नम्बरों को ट्रैक किया गया है। मोबाइल टॉवर के लोकेशन में ये नंबर इस घटना के कुछ समय पूर्व और बाद में सक्रिय रहे। एसआईटी ने इन नंबरों को संदिग्ध और घटना से जोड़कर देखते हुए व्यापक जांच की सिफारिश की है।
इस एसआईटी ने आयोजक मंडल की अव्यवस्था के कारणों को दोषी ठहराया है तथा यह भी कि आयोजक मंडल ने पुलिस के साथ दुर्व्यवहार किया है। स्थानीय पुलिस को कार्यक्रम स्थल पर निरीक्षण करने से भी रोका गया। कहा गया है कि इस आयोजन में भारी भीड़ के बावजूद भी कोई बैरिकेडिंग नहीं की गई थी। हादसा होने पर आयोजक घटनास्थल से भाग गए।
यहां यह बताना आवश्यक होगा कि इस बड़े आयोजन के बाबा, जिसे भोलेनाथ बाबा कहा जाता है, को पाक-साफ बता दिया गया है। दर्ज की गई प्राथमिकी में बाबा का कहीं भी नाम नहीं लिखा गया। उत्तर प्रदेश सरकार की विवशता इससे समझी जा सकती है। लेकिन यह तथ्य हैरान करता है कि इस देश का विपक्ष भी इस बाबा के विरुद्ध कुछ नहीं कह पाता है। विपक्ष ने सरकार को तो कटघरे में खड़ा किया है, लेकिन इस बाबा ने जो प्रपंच रच कर इतने लोगों की बलि ले ली, उसकी कहीं भी चर्चा सुनने को नहीं मिलती है। यह बाबा दशकों से अपने लगे हैंडपंप के पानी से कई प्रकार की बीमारियां ठीक करने का दावा करता रहा है। अपनी चरणरज से मुक्ति के दावे करता है, उसके विरुद्ध सख्त स्वर सुनने को कहीं नहीं मिलते हैं। यह कितने आश्चर्य की बात है कि गलत दवाई बेचने, बनाने के लिए हमारे पास कई कानून हैं। लेकिन इस प्रकार के प्रपंच के विरुद्ध कोई कानून हमारे पास नहीं। यदि कोई कानून है भी तो वह कार्रवाईयों में नहीं देखा जाता है। इतनी बड़ी घटना के बाद भी यदि कोई कथित बाबा लोगों को धोखा देता रहेगा तो इस देश के कानून पर प्रश्नचिह्न क्यों न लगाए जाएं?
ऐसा नहीं है कि सिर्फ हिंदू समाज के भीतर ही इस प्रकार के छल-प्रपंच पनपे हुए हैं, दूसरे धर्मों में भी इस प्रकार की घटनाएं हमें देखने-पढ़ने को मिलती रही हैं। मुस्लिमों के धर्मस्थल मक्का में अक्सर भगदड़ होती रहती है और लोग मरते रहते हैं। लेकिन भारत में जिस प्रकार हर गली-कूचे में अवैज्ञानिकता, छल-प्रपंच का प्रचार होता है, वह अकल्पनीय है। यह भी एक अजूबा है कि हमारे सामने ही इन बाबाओं के कारनामे नंगे होते हैं, और उनके श्रद्धालु छिटकते तो जरूर हैं, लेकिन पूरी तरह से नहीं। बाबा रामरहीम का उदाहरण हमारे सामने ही है। उनके श्रद्धालु कम तो हुए हैं, लेकिन पूरी तरह साफ नहीं हुए। उनके डेरों का काम अक्सर चलता ही रहता है, गति भले ही धीमी रहती हो। इन कथित संतों, बाबाओं की प्रसिद्धि में बड़ा हाथ औरतों का होता है। वे इन बाबाओं की लोलुपता का शिकार होती हुई देखी जाती हैं। आसाराम के ‘हरम’ की कहानी कौन नहीं जानता।
औरतें ही सबसे ज्यादा सम्मोहन का शिकार क्यों होती हैं? इसका उत्तर ढूंढने में हमें ज्यादा सिर खपाना नहीं पड़ता। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार अधिकांश औरतें स्वभाव से कथित तौर पर धार्मिक होती हैं और दूसरी धर्मांधता का शिकार भी। देश के प्रत्येक धर्म, डेरों आदि में औरतों की संख्या का ज्यादा होना, इस बात का प्रमाण है। यही धर्मांधता उनके शोषण का कारण भी बनती है। वे ही मुख्य साधन हैं इन डेरों की दिन दोगुनी और रात चौगुनी प्रगति का।
इन धार्मिक डेरों की बात करें तो उत्तर भारत में इन डेरों का बहुत बोलबाला बना हुआ है, जिनमें दलित-समाज की हिस्सेदारी ज्यादा देखी गई है। कहा जाता है कि डेरा शब्द फारसी के शब्द ‘डेरा’ या ‘ढिरा’ से निकला है, जिसका शाब्दिक अर्थ है– शिविर, निवास, मठ या कॉन्वेंट आदि। इस संदर्भ में यदि हम पंजाब की बात करें तो इसमें सिक्ख संप्रदाय से पहले ही सूफी, पीरों, योगियों और नाथों की परंपरा का बोलबाला रहा है। सूफियों के डेरों को खानकाह के रूप में जाना जाता है। ये खानकाहें हिंदुओं के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित हुईं, जिनमें सभी जातियों के लोग देखे जाते हैं। ये खानकाहें वास्तव में सभी जातीय और धार्मिक पृष्ठभूमि और लिंग के लोगों की सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों के केंद्र बन गईं। सखी सरवर सुल्तान, शेख फरीद, बुल्ले शाह, शेख फत्तह, ख्वाजा खिज्र और पांच पीर (पंज पीर) की सूफी दरगाहें पंजाबियों की धार्मिकता की अभिव्यक्ति बन गईं।
इसी संदर्भ में हम सिक्ख धर्म की बात करें तो सिक्ख गुरुओं के समय से ही कई डेरे स्थापित हुए थे। इन डेरों में उदासी, मीना, धीरमलिया, रामराय, हंडाली और मसंदी के डेरे शामिल थे। सिक्ख धर्म के एकीकरण के दौरान कई और डेरे भी उभरे। इनमें बंदेई खालसा (बंदापंथी), नानकपंथी, सेवापंथी, भक्त पंथी, सुथरा शाही, गुलाबदासी, निर्मल और निहंग के डेरे शामिल थे।
एक आकलन के अनुसार 19वीं शताब्दी के बाद से कई डेरे अस्तित्व में आए। इन डेरों की विशेषता यह थी कि वे दलित लामबंदी केंद्र के रूप में कार्य करते थे। इन डेरों के ज्यादातर अनुयायी दलित पृष्ठभूमि के लोग थे, जिन्होंने जातिवादी हिंदू वर्ण-व्यवस्था से बचने के लिए सिक्ख धर्म अपना लिया था। लेकिन हमें यहां यह स्मरण रखना होगा कि सिक्ख धर्म में भी इसी जाति के कारण सामाजिक बहिष्कार का दंश भी झेलते रहे। हिंदू धर्म की सामाजिक वर्जनाएं यहां भी पूरी तरह समाप्त नहीं होतीं। दलितों के बहिष्कार की घटनाएं आज भी सिक्ख धर्म को शर्मसार करने के लिए होती रहती हैं। देश में यदि ब्राह्मणवाद के नाम से असमानता को परिभाषित किया जाता है तो पंजाब जैसे सिक्ख धर्म के कारण प्रगतिशील कहा जाने वाले धर्म को जाटवाद (जट्टवाद) के नाम से याद किया जाता है।
पंजाब में डेरों की समृद्धि का एक बड़ा कारण पंजाब से विदेशों में गए दलितों प्रवासियों को भी माना जा सकता है। इस संदर्भ में हम पंजाब के एक बहुचर्चित डेरा राधास्वामी डेरा, तथा डेरा निरंकारी को देख सकते हैं।
डेरावाद पर 2006-2007 के लिए एक अध्ययन के अनुसार पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में 9,000 से ज्यादा डेरे बताए जाते हैं। कई डेरे पड़ोसी राज्यों—हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश में भी स्थित हैं। राधास्वामी डेरा की बात करें तो यह डेरा पूर्ण रूप से पंजाब के जाट संप्रदाय द्वारा संचालित होता है। इस पर जाट ही गद्दीनशीन होता रहा है। जबकि इसके सबसे ज्यादा श्रद्धालु, दलित समुदाय से माने जाते हैं। इसका संचालन करने में दलित श्रद्धालुओं का हाथ रहा है। मुफ्त काम करने वाले दलित ही होते हैं, जिसे सेवा का नाम दिया जाता है। इस ट्रस्ट के ट्रस्टी जाट समुदाय से होते हैं या किसी ऊंची जाति से संबंधित ही होते हैं। मेरी जानकारी में कोई दलित इसके ट्रस्ट में शामिल हो, ऐसा नहीं लगता।
इसी प्रकार सिक्खों के डेरों में भी दलितों का वही स्थान है, जो अन्य डेरों में होता है। इस समय पंजाब में सात डेरे प्रमुख हैं, जिनमें दो डेरे दलितों के भी हैं। डेरा भनियारा वाला तथा डेरा सचखंड, बल्लां शुद्ध दलितों द्वारा चलाए जाते हैं। बाकी के नाम इस तरह हैं– डेरा राधास्वामी सत्संग ब्यास, डेरा सच्चा सौदा, डेरा संत निरंकारी मिशन, डेरा नामधारी, डेरा बाबा भूमण शाह आदि। छोटी-बड़ी खानकाहें जगह-जगह कुकरमुत्तों की भांति देखी जा सकती हैं। डेरा सच्चा सौदा सिद्धू उपजाति के एक जाट सिक्ख द्वारा संचालित किया जाता था और राधास्वामी डेरा ढिल्लों उपजाति, जो कि जाट-सिक्खों की एक उपजाति है, के द्वारा चलाया जा रहा है।
दलित जाति के डेरे हों या किसी अन्य जाति के, इन सबकी कार्यप्रणाली में ज्यादा अंतर नहीं होता। आध्यात्मिकता के नाम पर यहां निर्धन या मध्य श्रेणी के लोगों का दोहन किया जाता है। इन डेरों का बाकायदा बजट प्रस्तुत किया जाता है जो कि एक छोटी-मोटी रियासत के बजट के बराबर या कहीं अधिक ही होता है।
अधिकतर डेरों में औरतों का शारीरिक दोहन करना आम बात ही समझी जाती है। आसाराम और रामरहीम जैसे डेरों के स्वामियों को इसी शोषण के कारण सजा दी जा चुकी है।
यह तथ्य कितना हैरान करता है कि जिन महिलाओं के कारण ही इन डेरों की प्रगति को रफ्तार मिलती है, उन्हीं का शोषण किया जाता है। इन डेरों के प्रबंधन में जिन महिलाओं का हाथ सबसे ज्यादा होता है, उन्हीं के शरीर को उपभोग की वस्तु समझ लिया जाता है।
पंजाब के डेरों की बात करें तो उसमें संतों, गुरुओं की वाणी के आधार पर ही आध्यात्मिक शिक्षाओं का प्रचलन होता है। तमाम प्रकार की नैतिक बातें इन डेरों के सत्संगों में सुनाई पड़ती हैं। यह तमाम बातें इन डेरों के बाहर निकलते ही इस प्रकार भुला दी जाती हैं मानो यह सिर्फ डेरों के भीतर के ही पवित्र संदेश हैं, बाहर इनका कोई काम नहीं है। हमारे समाज की तमाम वर्जनाओं पर यह डेरे पहरा देते तो दिखाई देते हैं, लेकिन इस समाज की तमाम विसंगतियों से उनका कोई ज्यादा लेना-देना नहीं होता। मानो यह किसी और संसार की बातें हों। समाज के भीतर फैली असमानता, जातिभेद, लिंगभेद आदि से उनका कोई भी नाता नहीं होता। समाज की प्रत्येक विसंगति अपनी जगह और सत्संग के भीतर के संदेश अपनी जगह।
इस संदर्भ में यदि हम दलितों द्वारा चलाए जा रहे डेरों की बात करें तो हम देखेंगे कि वहां भी समाज की उपरोक्त विसंगतियों की कोई चर्चा नहीं होती, जबकि इन डेरों में जाति के सवाल और भी शिद्दत से उठने चाहिए। हम देखते हैं कि वहां भी वहीं शिक्षा पद्धति दोहराई जाती है, जो अन्य डेरों में हम देखते हैं। संत रैदास, कबीर आदि के नाम पर जमे यह डेरे धनधान्य के सवाल पर दूसरे डेरों से कम नहीं होते, बल्कि उनसे कहीं आगे भी देखे जाते हों तो आश्चर्य नहीं होगा। एक और तथ्य इन दलित डेरों में यह देखा जाता है कि वहां डॉ. आंबेडकर के विचारों के साथ अछूत-सा व्यवहार किया जाता है। आंबेडकर के विचारों को मानो दूसरी दुनिया का नास्तिक विचार समझा जाता है जिससे इन डेरों का कोई दूर-दूर तक नाता नहीं होता। शायद यही एक महत्वपूर्ण कारण है कि डॉ. आंबेडकर की परिवर्तनवादी विचारधारा को इन डेरों की भूमिका में कहीं स्थान नहीं दिया गया है।
आंबेडकर की दृष्टि के अनुरूप ये दलित डेरे जातिभेद जैसी अव्यवस्था की खाई को कम कर रहे हों, ऐसा कोई चिह्न हमें प्रतीत नहीं होता, बल्कि इस महामारी की नींव को पुख्ता करने के बहुत से मार्ग खुलते हुए देखे जा सकते हैं।
बहुत से दलित विचारक भक्ति आंदोलन को एक परिवर्तनवादी आंदोलन समझते हैं, अब तक भी। लेकिन यदि हम इन डेरों की गतिविधियों को देखें तो हमारा आश्चर्य से मुंह खुला रह जाएगा, जब हम देखेंगे कि इन डेरों की वैचारिक पृष्ठभूमि में वही भाग्य है, ईश्वरवाद है, चमत्कार है, अलौकिकता के प्रसंग हैं, लेकिन परिवर्तनवादी स्वर सिरे से गायब हैं। जाति-पांति, निर्धनता आज भी पूर्वजन्मों के फल निर्धारित बताए जाते हैं। इन डेरों में सबसे बड़ा आकर्षण उसमें चलती लंगर व्यवस्था को कहा जा सकता है। यह माना जाता है कि यदि इन डेरों में यह लंगर व्यवस्था शून्य हो जाए तो लोगों की आमद भी कम हो जाएगी। अपने घरों के तंगहाल वातावरण से निकले लोग शायद इन डेरों के स्वच्छ व सुविधावादी-माहौल को ही अध्यात्मवादी-माहौल की संज्ञा देते हुए यहां पड़े रहते हैं। इन डेरों के संचालक इतने सुविधाभोगी होते हुए भी श्रद्धालुओं को वे त्याग की मूर्ति से कम नजर नहीं आते हैं। यह गुरु इनको अपने जीवन की तमाम समस्याओं का समाधान दृष्टिगोचर होते हैं। उनके द्वारा उच्चारित प्रत्येक अनगढ़ वचन भी श्रद्धालुओं को ब्रह्म-वाक्य से कम प्रतीत नहीं होता। खानपान को लेकर प्रत्येक डेरे का अपना अलग आदेश होता है।
उदाहरण के लिए यदि हम डेरा राधास्वामी की चर्चा करें तो हम देखेंगे कि मदिरा को लेकर उनके यहां इतनी कठोरता नहीं देखी जाती, जितनी मांस-मछली और अंडा को लेकर होती हैं। शुद्ध शाकाहारी होना राधास्वामी संप्रदाय का पर्याय बन गया है। कुछ लोगों को तो मैंने चाय तक से परहेज करते भी देखा है। धूम्रपान को लेकर कहीं मनाही नहीं सुनी जाती। निरंकारी डेरों में खानपान पर कोई सख्त आदेश हमें सुनने को नहीं मिलते।
इन डेरों के खानपान को लेकर यद्यपि आदेश अलग-अलग हैं, लेकिन इनकी कार्यशैली और उपदेश भारत की जिस दार्शनिक, धार्मिक पृष्ठभूमि से उपजते हैं, उसका उद्गम-स्थल वैदिक परंपरा ही मानी जाती है। उनके संपूर्ण तामझाम, सत्संग आदि के स्रोत वैदिक-परंपरा पर आधारित ही होते हैं। अर्थात् स्वर्ग-नर्क, ब्रह्मवाद, चमत्कार तथा पाप-पुण्य की अवधारणाएं, इसी वैदिक प्रणाली से उपजते हुए देखे जाते हैं। यह अध्यात्मवाद की एक ऐसी डोज (खुराक) होती है जिसकी पिनक में प्रत्येक श्रद्धालु स्वयं को धन्य समझना शुरू कर देता है।
मठवाद या डेरावाद आज की ही परिकल्पना नहीं है। इसकी पृष्ठभूमि को खंगालते हुए हम ऋग्वैदिक काल में जा पहुंचते हैं तो हमारे सामने संपूर्ण वैचारिक प्रपंच उभर आता है।
स्थूल रूप में हम देखें तो इस डेरावाद का आरंभ तब से माना जा सकता है जब आदमी ने अपनी यायावरी छोड़ कर कृषि को अपनाते हुए एक जगह ‘डेरा’ जमा लिया। लेकिन यह इतिहास यहीं खत्म नहीं हो जाता। ऋग्वैदिक काल के सूक्तों को कंठस्थ करने की परंपरा ने भी इस मठवाद को जन्म देने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हम जानते हैं कि ऋग्वेद के सूक्तों को किसी मानव द्वारा नहीं, बल्कि ईश्वरकृत रचना घोषित किया गया है। ऋषियों ने उन्हें अपनी साधना द्वारा समझ कर कंठस्थ किया है। यही अवधारणा ऋग्वेद और तमाम ग्रंथों के बारे में भी प्रचारित की गई है। इन्हें पवित्र समझते हुए कहीं अंकित नहीं किया गया, बल्कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक कंठ द्वारा ही पहुंचाया गया है। इस कार्य को करने के लिए बचपन से ही शिष्यों का चयन कर लिया जाता था। जिन बच्चों का चयन किया जाता था, उन्हें अपने गुरु के पास कम से कम 10-12 वर्ष रहना पड़ता था। अपने गुरु के पास रहते हुए उन्हें इन ऋग्वैदिक सूक्तों को रटाया जाता था। यह एक बहुत लंबी व यातना भरी प्रक्रिया होती थी। इन आश्रमों या गुरुकुलों में रहते हुए उन्हें गुरु के तमाम गृह कार्य करने पड़े थे। गुरु के खानपान का प्रबंध भी इन्हीं शिष्यों के दायित्व में होता था। यहां यह ध्यान देना होगा कि वही बच्चे वेदपाठी या पुजारी कहलाते थे जो कि ब्राह्मण कुल से संबंधित होते थे। यह शिष्य इन सूत्रों का पाठ रटते हुए अपने गुरु के मवेशियों की देखभाल करते, उनके लिए खाद्य सामग्री जुटाने का कार्य करते। बदले में गुरु उन्हें धर्मग्रंथों की शिक्षा देते।
प्रसिद्ध इतिहासकार डी.डी. कोसंबी बताते हैं कि इस शिक्षा का पहला कदम होता था– इन पवित्र कहे जाने वाले ग्रंथों के एक-एक वर्ण को, बिना किसी गलती के शुद्ध उच्चारण करते हुए आवृत्ति करने का अभ्यास करना। इसके बाद उसका अर्थ लंबी-लंबी व्याख्याओं के द्वारा समझाया जाता था। लेकिन इससे पहले इन विद्यार्थियों को पूरा का पूरा ग्रंथ कंठस्थ करना होता था। इस प्रकार इन पुरोहितों ने इन ग्रंथों पर अपना एकाधिकार जताने के लिए उन्हें अलिखित ही रखा। इन संस्थाओं को गुरुकुल की संज्ञा दी गई और बाद में यही गुरुकुल डेरों में परिवर्तित होते गए, जिन्हें मठ कहा जाता था।
इसके कारण जनसाधारण के बीच इन पुरोहितों के प्रति लोगों में असाधारण सम्मान की भावना पैदा हुई। कोसंबी स्पष्ट करते हैं कि यह डेरे अर्थात् मठ इतने शक्तिशाली बन गए कि इन्होंने परवर्ती भारतीय इतिहास को गहरे ढंग से प्रभावित किया। औपनिवेशिक काल में ये डेरे अर्थात मठ, बाद में आदि शंकराचार्य की कार्यस्थली बने। स्पष्ट है कि इस देश की वैदिक परंपरा ने एक ‘ब्रह्म’ की अवधारणा स्थापित की और आगे चलकर इन तमाम डेरों और मठों में ‘ब्रह्म’ की अवधारणा की चर्चा अवश्य सुनी जाती है। डेरों में आज भी कहा जाता है कि जो ‘ब्रह्म’ को जानता है, वह स्वयं ‘ब्रह्म’ हो जाता है। दलितों के तमाम डेरों में भी इस अवधारणा को माना जाता है। यहां यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि बौद्ध वाङ्मय में इसी ब्रह्म की खूब खिल्ली उड़ाई गई है।
खोखली आध्यात्मिकता के हथियार से लैस यह तमाम मठ अर्थात् डेरे भारत की उस बानगी को प्रस्तुत करते हैं जब यहां का मानव सिर्फ पेट भर खाने के प्रयत्न में ही जुटा हुआ देखा जाता रहा है। यह डेरे आज भी उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए पेट भर लंगर (खाना) के स्थान पर ही अपनी दिनचर्या पूरी करते हैं और एक ऐसा समाज निर्मित कर रहे हैं जहां शोषण के विरुद्ध कोई भी आवाज सुनी नहीं जाती।
यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि यह डेरे कई नैतिक शिक्षाएं देते हैं और लोगों को मदिरा पान, या प्रत्येक नशे के विरुद्ध उपदेश देते हैं? हो सकता है कि कुछ लोग अपने डेरे के प्रमुख, जिसे वह अपना गुरु मानते हैं, का कहा मान कर मदिरापान या दूसरे नशे छोड़ते भी हों, लेकिन इसके बदले वे समाज को जो नशा वितरित करते हैं, वह तमाम प्रकार के मादक पदार्थों के सेवन से होने वाली नशा से घातक होता है। अपने श्रद्धालुओं के भीतर वे जो काल्पनिक दुनिया उतारते हैं, वह इन सब प्रकार के मद्यसेवन से कहीं घातक सिद्ध होता है।
पंजाब आज नशे की गिरफ्त में बुरी तरह फंसा हुआ है। यदि यह डेरे वाले सचमुच ही प्रत्येक प्रकार के नशे के विरुद्ध प्रचार करते हैं तो पंजाब नशे के विरुद्ध एकजुट खड़ा हो जाता, पर ऐसा नहीं है। जैसा कि हमने पहले भी कहा है कि डेरे के भीतर की शिक्षाएं, डेरे तक ही सीमित रहती हैं। मैंने देखा है कि राधास्वामी डेरे में सत्संग समाप्त हो जाने के बाद लोग सिगरेट की तलब बुझाने के लिए डेरे से सटे खेतों की ओर भाग रहे होते हैं और वहां सिगरेट के धुएं के उठते बादल आज भी मेरी जेहन में ताजा हैं।
वास्तव में इन डेरों द्वारा प्रचारित संदेश इस दुनिया के लिए कम, दूसरी दुनिया के लिए ज्यादा होते हैं। पुनर्जन्म के सिद्धांत प्रत्येक डेरे के सिद्धांत हैं, जिसके प्रति इन डेरे वालों की कोई जवाबदेही नहीं होती। डेरों से उपजने वाले तमाम सिद्धांत, तमाम उपदेश भारतीय समाज की बुराइयों पर प्रहार करना कदापि नहीं सिखाते। गांवों की सामाजिक स्थिति वही है, जो वैदिककाल में रही है। जाति-पांति के विरुद्ध इनके पास उपदेश उपलब्ध नहीं होता। देश में यदि कोई जाति से निम्न व्यक्ति समाज द्वारा उपेक्षित है, तो उसके प्रति इन डेरे वालों के पास कोई फरमान या उपदेश नहीं होता। हमारे पास ऐसी कोई उदाहरण नहीं है जो यह बता सके कि इन डेरों के प्रभाव से समाज में कोई बदलाव आया हो।
समाज विज्ञानी भलीभांति जानते हैं कि इस समाज को स्वस्थ रखने के लिए नैतिक सिद्धांतों की सख्त आवश्यकता होती है। लेकिन हम देखते हैं कि इन डेरों में अक्सर नैतिक सिद्धांतों की नहीं, बल्कि मुक्ति की अवधारणा पर ज्यादा बात की जाती है। सबसे भद्दा तथ्य यह है कि एक डेरे वाला दूसरे डेरे का प्रतिद्वंद्वी होता है, आलोचक होता है। डेरे का प्रमुख भी और उसका अनुयायी भी। इस संदर्भ में हमारे पास पंजाब में डेरा निरंकारी और सिक्खों के बीच चल रहे संघर्ष की एक सशक्त उदाहरण है। 1978 में पंजाब में दमदमी टकसाल और अकाल कीर्तनी जत्था के बीच अमृतसर में हुए खूनी संघर्ष की यादें आज भी ताजी हैं। संत भिंडरावाला और निरंकारी गुरु, जिसने खुद को गोबिंद सिंह घोषित कर लिया था, के बीच हुए इस संघर्ष आज भी पंजाब के रोंगटे खड़े कर देता है।
इन डेरों को अक्सर धार्मिक डेरों की संज्ञा दी जाती है, जो कि हास्यास्पद प्रतीत होती है। इन डेरों में धर्म की कहीं परिभाषा नहीं मिलती, बड़े-बड़े लाउडस्पीकरों से शोर पैदा करने वाले प्रवचन, कीर्तन हमारी मानो दिनचर्या बने हुए हैं। धर्म इस धरती के मानव को सभ्य बनाने में अपनी भूमिका निभाता रहा है। लेकिन यह डेरे मानो एक असामाजिक संस्था का रूप धारण किए, मानव के मित्र नहीं, बल्कि मानवीय-भूल ज्यादा लगते हैं।