शहर की कम से कम तीन पीढ़ियां तो उनके नाम और काम से वाकिफ हैं।उम्र के आठ दशक पूरे कर चुके उन्हें बापू पुकारते रहे हैं।शहर के अधिकांश लोगों के लिये वो मुकुंदा और युवा पीढ़ी मुकुंद कुलकर्णी के नाम से जानती है।शनिवार को उम्र के 92वें वर्ष में प्रवेश कर रहे मुकुंदा इंदौर के विकास में कितने सहयोगी रहे हैं इसके लिए अभ्यास मंडल के कार्यों को याद करना ही पर्याप्त होगा।
इंदौर का वो और ये दौर उनके दिल में बरगद की तरह फैला हुआ है।यादों का यह बरगद अब नागपुर में ट्रासप्लॉंट होने वाला है।18 नवंबर को पत्नी सुहासिनी के साथ वो हमेशा के लिये अपनी बेटी-दामाद के पास जा रहे हैं।उनकी दो बेटियां हैं, डॉ स्मिता-डॉ विवेक हरकरे नागपुर में और दूसरी बेटी तृप्ति-दिनेश कुलकर्णी अमेरिका में रहती हैं। शहर और यहां के लोगों से कोई गिला-शिकवा नहीं है, ढलती उम्र का तकाजा और आई-बाबा के अकेले रहने को लेकर बेटी की चिंता के कारण उन्हें यह निर्णय लेना पड़ा है।
’प्रजातंत्र’ से जब बात कर रहे थे तब इंदौर को छोड़ने की कसक उनकी डबडबाई आंखों में झलक रही थी।
अभ्यास मंडल का गठन 1960 में किया और इस संस्था के 50 वर्ष होने पर मुकुंदा, बसंत शित्रे ने युवाओं को आगे बढ़ाने के लिये इसमें सक्रियता से खुद को अलग कर लिया था। मैंने उनसे पूछा ये अभ्यास मंडल नाम कैसे सूझा, वो बोले महाराष्ट्र में स्टडी सर्कल के नाम से बौद्धिक गतिविधियां चलती हैं, हमने उसी का हिंदी नामकरण कर दिया। क्या संयोग है जिस महाराष्ट्र से यह नाम लिया अब उसी राज्य के वो निवासी होने जा रहे हैं।
ये व्याख्यानमाला का आयडिया कैसे आया? प्रारंभिक शिक्षा मराठी मावि, महाराजा शिवाजीराव स्कूल के बाद होल्कर कॉलेज से एमकॉम करने के दौरान हम दोस्तों को सरकार की पंचवर्षीय योजना ने प्रभावित किया।1940 से 58 तक आरएसएस से जुड़ा रहा था इस वजह से समाज-देश के लिये कुछ करना चाहिए का भाव मजबूत हुआ। कॉलेज में हम 8 दोस्तों वसंत शिंत्रे, वसंत कालेले, मोरेश्वर अभ्यंकर, शरद पारनेकर, सिंधु कापसे, विजय पेणसे, मनोहर जैन ने मीटिंग में तय किया कि हमें भी कुछ करना चाहिए।शिंत्रे ने कहा पहले देश को समझ तो लो।तब हमने संस्था गठन का तय किया और 13 सितंबर 1960 को अभ्यास मंडल का जन्म हुआ।
तब हर पंद्रह दिन में व्याख्यान रखते थे इंदुर परस्पर बैंक के हॉल में। वक्ताओं के विचारों से हमारी समझ के साथ जिम्मेदारी भी बढ़ती गई। सारे दोस्तों की विचारधारा अलग-अलग थी लेकिन अभ्यास मंडल के काम के लिए सब एकमत रहते थे।तब हमें समझ आया कि लोगों को जागरुक करने के लिये यही काम बेहतर है।दिक्कत थी फंड की, हम सब लोअर मीडिल फेमिली से थे।दो-चार रुपये मिलाते और व्याख्यान की व्यवस्था करते थे। शिंत्रे की एलआयसी में नौकरी लग गई थी, वो वहां हर टेबल से 5-5 रुपये चंदा लेता था। मैं एसीसी सीमेंट कंपनी में काम कर रहा था, वहां से भी कुछ इंतजाम करते थे।
व्याख्यानमाला के लिये हमें सौ रुपये का पहला चंदा दिया चंदन सिंह भरकतिया ने। बालाराव इंगले नगर निगम में पार्षद थे वहां से 250 रु दिलवाए।अब हमने राजवाड़ा वाली जनरल लायब्रेरी में मनोहर सिंह मेहता के पहले व्याख्यान से उदघाटन कराया। उनकी सीख हमने गांठ बांध ली कि भीड़ के चक्कर में मत पड़ो, सुनने वही आएगा जिसका इंट्रेस्ट होगा।
अभ्यास मंडल के गठन से लेकर मार्गदर्शन में बाबा (पत्रकार राहुल बारपुते) का खूब सहयोग मिला।उनकी सलाह हमारे काम आई कि पैसा ज्यादा इकट्ठा मत करो, प्रापर्टी मत बनाओ, सरकार से ग्रांट कभी मत लेना, चुनाव हमेशा निर्विरोध ही कराना। 1960 में पहली पांच दिनी व्याख्यानमाला रखी जिसमें पं बालशास्त्री हरदास, सांसद उत्तमराव पाटिल, साहित्यकार पूभा भावे, डॉ ज्ञानचंद आदि को बुलाया। बस आने-जाने-ठहराने की व्यवस्था करते हैं, आज तक किसी वक्ता को मानदेय नहीं दिया।व्याख्यानमाला से सरदार महीप सिंह ने प्रभावित होकर लेख लिखा उत्तर भारत में बौद्धिक गतिविधियों का जैसा अकाल है वैसा इंदौर में नहीं है।अभ्यास मंडल के कारण मेरा देश की बड़ी हस्तियों से परिचय तो हुआ ही बड़ी बात यह कि मैं कुसंगति से भी बच गया।आज आश्चर्य होता है कि मैं मामूली सा आदमी इतना सब कैसे कर सका।
मुकुंदा ने इंदौर में कम होती आत्मीयता का किस्सा सुनाया कि 1976 से हमने देश भर के बच्चों का आंतर भारती मेला शुरु किया । पहले साल देश के विभिन्न राज्यों से 1800 बच्चे आए। गुजराती बच्चे को मराठी और मराठी बच्चे को किसी अन्य भाषा-धर्म वाले परिवार में ठहराया।1996 तक यह मेला हर साल अन्य शहरों में भी करते रहे। 1996 में देश भर से 300 बच्चे आए लेकिन हमें 300 परिवार नहीं मिले जहां एक-एक बच्चे को ठहरा सकें।
उनका कहना था उस दौर में व्याख्यानमाला का ऐसा क्रेज था कि एक चिट्ठी पर वक्ता आ जाते थे।अब चिट्ठी से ज्यादा वक्ता को लाने के लिये यहां-वहां से सिफारिश लगानी पड़ती है।सुनने वालों की रुचि भी कम हो गई है। अब आत्म मुग्धता बढ़ने के साथ ही देश के प्रति संवेदनशीलता भी खत्म होती जा रही है।
मुकुंदा कहते हैं इंदौर बेतरतीब विकास का शिकार हो रहा है।नर्मदा का जल 40 लाख लोगों के लिये पर्याप्त है लेकिन पानी के साथ पाईप लाईन का वेस्टेज इतना है कि पूरे शहर को आज भी पानी नहीं मिल पा रहा है।दुर्भाग्य ऐसा है कि 1948 के बाद नये तालाब निर्माण के लिये सोचा ही नहीं।
शहर की पहचान मेडिकल हब के रूप में बनना अच्छी बात है लेकिन ईलाज सस्ता नहीं, दवाइयां भी महंगी।सब कुछ प्रायवेट हाथों में तो सरकार क्या करेगी।गरीब आदमी तो महंगे अस्पतालों में जा नहीं सकता, हेल्थ की ही तरह एजुकेशन में भी लूटखसोट मची हुई है जबकि बेसिक नीड है हेल्थ और एजुकेशन, यह तो हर आदमी की पहुंच में होना चाहिए।
अभ्यास मंडल के 50 साल होने पर मैंने और शिंत्रे ने सक्रियता से अलग कर लिया। हम जब तक पद नहीं छोड़ेंगे, सेकंड लाईन को कैसे मौका मिलेगा।हम साथ में हैं लेकिन शिवाजी मोहिते, सुनील माकोड़े, पीसी शर्मा, पल्लवी अवाड़ से लेकर संतोष व्यास (काका) नूर मोहम्मद कुरैशी, परवेज खान आदि जो भी निर्णय लेते रहे, हम ने समर्थन किसा, हस्तक्षेप नहीं।सुभाष कर्णिक का भी खूब साथ मिला मुझे, स्कूटर सुबह-सुबह आ जाता, आवाज लगाता बापू पोहे खाने चलना है।
मुकुंदा का कहना था नर्मदा इंदौर लाने के अभियान में यूथ मूवमेंट के साथ ही अन्य आंदोलन में तब महिलाओं की भागीदारी रहती थी। आज ये जागरुकता समाप्त होना चिंताजनक है।खेल मैदान समाप्त होने के साथ ही खेलकूद भी बंद हो गए हैं।नशे की बढ़ती प्रवृति पर किसी को चिंता नहीं है।
उनका कहना था हमने गुलामी का दौर देखा, आजादी आंदोलन भी देखा। नेहरु, इंदिरा, राजीव, अटल जी, मनमोहन सिंह का शासन भी देखा, सरदार पटेल के फैसले भी देखे। कौन मानेगा की मुस्लिम लीग को साथ रखने का सुझाव तिलक का था।भाजपा के लोग उतने रिस्पॉंसिबल नहीं जितने कांग्रेस के नेता रहते थे।
यह कहने में संकोच नहीं कि 2014 के बाद से देश में एकात्मता का भाव खत्म हो गया है। इससे पहले भी तो हिंदू-मुस्लिम साथ रहते थे, क्या मतलब है बटोगे तो कटोगे जैसे नारों का, सोच बेहद खतरनाक है। हिंदु तो कभी एक हो नहीं सकता ऐसे भड़काऊ नारों से मुस्लिम यदि एकजुट हो रहे हैं तो उसका कारण भाजपा के नेता है। उन्हें पता है इनका वोट तो मिलेगा नहीं इसलिये हिंदुओं को भड़काते रहो।
नागपुर में इंदौर की याद आएगी? यह पूछा तो मुकुंदा की आंखे डबडबा गईं। कहने लगे मेरी तो सांस सांस में इंदौर बसा है। इंदौर ने मुझे पाला पोसा, प्रेम दिया, यह तो रोज याद आएगा। मैं तो साधारण आदमी था, मुझे इतनी पहचान इसी शहर ने दी है।बस काम करते रहा, मैंने कोई अपेक्षा नहीं रखी शायद इसलिये दुखी भी नहीं हूं। इतनी लंबी उम्र के बाद भी जीवन में मुश्किल से पंद्रह दिन बीमार रहा।मैं आरएसएस में रहा, कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी, होमीदाजी, समाजवादी कल्याण जैन से भी उतने ही अच्छे संबंध थे।महेश जोशी कहते थे किसी को नहीं मालूम ये आदमी किस जाति का, किस विचार का है।सब के साथ रहता है, सब की बात को सम्मान देता है। मैंने साने गुरुजी की कविता-सच्चा तो एक ही धर्म, जगत को प्यार देवें हम-अपने जीवन में अपना रखा है।