नागा साधुओं की दुनिया बेहद रहस्यमयी होती है। सबसे खास बात है कि नागा साधू कपड़े नहीं धारण करते हैं। वह कड़कड़ाती ठंड में भी नग्न अवस्था में ही रहते हैं। वह शरीर पर धुनी या भस्म लगाकर घूमते हैं।
प्रयागराज में 13 जनवरी से महाकुंभ की शुरुआत होगी। इसके कारण संगम की नगरी प्रयागराज दुनियाभर में छाया हुआ है। महाकुंभ की तैयारियां जोरो-शोरो से चल रही हैं। महाकुंभ मेले में साधू संत पहुंचने लगे हैं। सनातन धर्म में साधू-संतों का काफी महत्व है। हालांकि, कुंभ में आने वाले नागा साधु लोगों के सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद होते हैं। कुंभ की कल्पना तक नागा साधुओं के बिना नहीं की जा सकती है। नागा साधुओं की वेशभूषा और खान-पान आम लोगों से बिल्कुल अलग होती है। हम आपको बताएंगे कि नागा साधू कैसे बनते हैं और कहां रहते हैं।
कपड़े नहीं धारण करते हैं नागा साधू
नागा साधुओं की दुनिया बेहद रहस्यमयी होती है। सबसे खास बात है कि नागा साधू कपड़े नहीं धारण करते हैं। वह कड़कड़ाती ठंड में भी नग्न अवस्था में ही रहते हैं। वह शरीर पर धुनी या भस्म लगाकर घूमते हैं। नागा का मतलब होता है नग्न। नागा संन्यासी पूरा जीवन नग्न अवस्था में ही रहते हैं। वह अपने आपको भगवान का दूत मानते हैं।
नागा संन्यासी बनने की प्रक्रिया
नागा संन्यासी बनने की प्रक्रिया बहुत लंबी और कठिन होती है। अखाड़ों द्वारा नागा संन्यासी बनाए जाते हैं। हर अखाडे़ की अपनी मान्यता और पंरपरा होती है और उसी के मुताबिक, उनको दीक्षा दी जाती है। कई अखाड़ों में नागा साधुओं को भुट्टो के नाम से भी बुलाया जाता है। अखाड़े में शामिल होने के बाद इनको गुरु सेवा के साथ सभी छोटे काम करने के लिए दिए जाते हैं।
बेहद जटिल होता है जीवन
नागा साधुओं का जीवन बेहद ही जटिल होता है। बताया जाता है कि किसी भी इंसान को नागा साधू बनने में 12 साल का लंबा समय लगता है। नागा साधू बनने के बाद वह गांव या शहर की भीड़भाड़ भरी जिंदगी को त्याग देते हैं और रहने के लिए पहाड़ों पर जंगलों में चले जाते हैं।
उनका ठिकाना उस जगह पर होता है, जहां कोई भी न आता जाता हो। नागा साधू बनने की प्रक्रिया में 6 साल बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। इस दौरान वह नागा साधू बनने के लिए जरूरी जानकारी हासिल करते हैं। इस अवधि में वह सिर्फ लंगोट पहनते हैं। वह कुंभ मेले में प्रण लेते हैं जिसके बाद लंगोट को भी त्याग देते हैं और पूरा जीवन कपड़ा धारण नहीं करते हैं।
ब्रह्मचर्य की शिक्षा
नागा साधू बनने की प्रक्रिया की शुरुआत में सबसे पहले ब्रह्मचर्य की शिक्षा लेनी होती है। इसमें सफलता प्राप्त करने के बाद महापुरुष दीक्षा दी जाती है। इसके बाद यज्ञोपवीत होता है। इस प्रकिया को पूरी करने के बाद वह अपना और अपने परिवार का पिंडदान करते हैं जिसे बिजवान कहा जाता है। वह 17 पिंडदान करते हैं जिसमें 16 अपने परिजनों का और 17 वां खुद का पिंडदान होता है। अपना पिंडदान करने के बाद वह अपने आप को मृत सामान घोषित करते हैं जिसके बाद उनके पूर्व जन्म को समाप्त माना जाता है। पिंडदान के बाद वह जनेऊ, गोत्र समेत उनके पूर्व जन्म की सारी निशानियां मिटा दी जाती हैं।
बिस्तर पर नहीं सोते हैं नागा संन्यासी
इसके कारण नागा साधुओं के लिए सांसारिक जीवन का कोई महत्व नहीं होता है। नागा संन्यासी अपने समुदाय को ही अपना परिवार मानते हैं। वह कुटिया बनाकर रहते हैं और इनकी कोई विशेष जगह और घर नहीं होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि नागा साधू सोने के लिए बिस्तर का भी इस्तेमाल नहीं करते हैं।
युद्ध कला में पारंगत होते हैं
नागा साधुओं को एक दिन में सिर्फ सात घरों से भिक्षा मांगने की इजाजत होती है। अगर उनको इन घरों में भिक्षा नहीं मिलती है, तो उनको भूखा ही रहना पड़ता है। नागा संन्यासी दिन में सिर्फ एक बार ही भोजन करते हैं। नागा साधू हमेशा नग्न अवस्था में रहते हैं और युद्ध कला में पारंगत होते हैं। यह अलग-अलग अखाड़ों में रहते हैं। जूना अखाड़े में सबसे ज्यादा नागा संन्यासी रहते हैं। आदिगुरु शंकराचार्य ने अखाड़े में नागा साधुओं के रहने की परंपरा की शुरुआत की थी।
नागा साधुओं के पास रहस्यमयी शक्तियां होती हैं
बताया जाता है कि नागा साधुओं के पास रहस्यमयी शक्तियां होती हैं। वह कठोर तपस्या करने के बाद इन शक्तियों को हासिल करते हैं। लेकिन कहा जाता है कि वह कभी भी अपनी इन शक्तियों का गलत इस्तेमाल नहीं करते हैं। वह अपनी शक्तियों से लोगों की समस्याओं का समाधान करते हैं।
हिंदू धर्म में किसी भी इंसान की मौत के बाद उसके मृत शरीर को जलाने की मान्यता है जो सदियों से चली आ रही है। लेकिन नागा साधुओं के शव को नहीं जलाया जाता है। नागा संन्यासियों का मृत्यू के बाद भू-समाधि देकर अंतिम संस्कार किया जाता है। नागा साधुओं को सिद्ध योग की मुद्रा में बैठाकर भू-समाधि दी जाती है।
कब और कैसे शुरू हुई नागा संन्यासी की परंपरा
धार्मिक ग्रंथों में इस बात का जिक्र है कि आठवीं शताब्दी में सनातन धर्म की मान्यताओं और मंदिरों को खंडित किया जा रहा था। यह देखकर आदि गुरु शंकराचार्य ने चार मठों की स्थापना की और वहीं से सनातन धर्म की रक्षा का दायित्व संभाला। इसके बाद आदि गुरु शंकराचार्य को लगा कि सनातन परंपराओं की रक्षा के लिए सिर्फ शास्त्र ही काफी नहीं हैं, शस्त्र की भी जरूरत है। तब उन्होंने अखाड़ा परंपरा की शुरुआत की। इसमें धर्म की रक्षा के लिए मर-मिटने वाले संन्यासियों को प्रशिक्षण देनी शुरू की गई। नागा साधुओं को उन्हीं अखाड़ों का धर्म रक्षक माना जाता है।
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