गुलाब कोठारी, पत्रिका समूह के प्रधान संपादक
जीवन के दो पहलू होते हैं, वैसे ही जैसे हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। जीवन का एक उजला पहलू दिखाने के, प्रवचन देने के व जीवन को सजाने के काम आता है। दूसरा पहलू काला है जो जीने के काम आता है। उजला पहलू घर का मैन गेट है तो काला पहलू पिछला दरवाजा है। दोनों की भूमिकाएं तय हैं और इनकी पहचान भी जगजाहिर है। हम आज जिस लोकतंत्र में जी रहे हैं, वहां अधिकांश गतिविधियां पिछले दरवाजे पर ही दिखाई देती हैं। यहां तक कि अधिकतर जनप्रतिनिधि भी वोटर से पिछले दरवाजे पर ही मिलते हैं। उनके चेहरे मुख्य द्वार पर सजाने लायक नहीं, बल्कि यों कहें कि कलंकित करने लायक होते हैं। वे तो इसी को जीवन का ‘पद्म सम्मान’ मानते हैं।
पिछले दरवाजे की गतिविधियां मूलत: माटी की सुगंध लूटने वाली,अपनी भूमिका को नकारने वाली व देश हित और मूल्यों को नकारने वाली होती हैं। शेर की खाल में जैसे…! इन लोगों की आत्मा मर चुकी होती है। इनका जड़ शरीर, जड़ लक्ष्मी के पीछे अंधेरे मार्गों पर हठधर्मिता से चलता रहता है। ये लोग आसुरी शक्तियों को ही स्वतंत्रता का पर्याय मानते हैं। इनको इस बात का दर्द नहीं है कि कोई आहत होगा-श्राप देगा। कलियुग में देवता और असुर एक ही शरीर में रहते हैं। मुख्य द्वार पर देवता और पिछले द्वार पर वही असुर!
आज पूरा देश जिस आसुरी प्रवृत्ति से त्रस्त है, वह है ‘दृश्य मीडिया’। उसके हाथ में भी प्रिंट मीडिया की वही तख्ती है जिस पर ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ लिखा है। सरकार के हाथों में यह स्वतंत्रता मानों चूडिय़ां बनी हुई हैं। सरकार का पति कौन है जिसकी ये चूडिय़ां हैं। समूचे विश्व में सक्रिय यह माफिया है जो इस देश की संस्कृति से नई पीढ़ी को पूरी तरह काट देना चाहता है? सरकारों में बैठे लोग मौन क्यों हैं? यह विक्षिप्त अवस्था तो नहीं?
सरकारें तो अपनी कुर्सी के खेल में पिछले दरवाजों पर माफिया से जुड़ीं हैं। इसलिए देश में नशाखोरी, हत्याएं व बलात्कार जैसे अपराध होते रहते हैं। पुलिस थानों में शिकायतों की थप्पियां लगती रहती हैं, घरों में लक्ष्मी का प्रवाह जो बना रहता है। सारा मीडिया युवावर्ग को उकसाता रहता है।
नशे में झूमो, शरीर को भोगो, ओटीटी (ओवर द टॉप) प्लेटफाम्र्स पर चाहे सिनेमा देखो, वेेब सीरीज देखो, या फिर यू ट्यूब व दूसरे प्लेटफार्म पर अश्लीलता परोसते वीडियो देखो। कोई नहीं पकड़ेगा। सैंसर बोर्ड तो जैसे इनकी जेब में है। अभी सबने देखा है- ‘आदिपुरुष’ किस प्रकार मुंह की खाकर लौटा है। सैंसर बोर्ड ने क्यों पास कर दिया? कुछ तो मिला ही होगा अथवा बिना देखे ही हरी झण्डी दे दी थी?
सरकार के सूचना मंत्रालय की भारतीय प्रेस परिषद् बात-बात पर टिप्पणी करती है। लेकिन उसको आज किसी भी सोशल मीडिया,ओटीटी प्लेटफार्म पर कुछ अनैतिक-असंवैधानिक नजर नहीं आता? क्या वे देश की संस्कृति का नंगा नाच देखकर गौरवान्वित हो रहे हैं अथवा उनके भी हाथ बंधे हुए हैं? पूरे देश की जनता, विशेषकर महिला वर्ग, शर्मिन्दा है, सैंसर बोर्ड और सरकार के नियम-कायदों को कोस रहा है। सरकार में कौन है जो ऐसे दृश्य देखना चाहता है? किसके कान इस भाषा को सुनकर फटते नहीं हैं?
ओटीटी प्लेटफॉर्म पर नियंत्रण की बातें लंबे समय से की जा रही हैं, लेकिन यह सवाल यथावत है कि आखिर ओटीटी प्लेटफॉर्म पर वेब सीरीज और उसके कंटेंट नियंत्रित क्यों नहीं किए जा रहे हैं? एक माह पहले ही संचार व तकनीकी पर स्थायी संसदीय समिति ने विभिन्न ओटीटी प्लेटफॉर्म पर परोसी जा रही अश्लीलता पर चिंता जरूर जताई थी। लेकिन बात आगे बढ़ी नहीं। संसदीय समिति के सदस्यों ने ओटीटी प्लेटफाम्र्स के अधिकारियों से भारत की सांस्कृतिक संवेदनशीलता का सम्मान करने को कहा। जिम्मेदार अफसर इस चिंता पर भी यह कहते हैं कि यह क्षेत्र तेजी से बढ़े और नियमों के बंधन में न बंधे इसके लिए स्वनियमन जरूरी है।
हमारे यहां सख्त कानून है भी नहीं। सिर्फ सूचना प्रौद्योगिकी एक्ट 2000 में ओटीटी के बारे में कुछ प्रावधान हैं। जबकि ओटीटी या सोशल मीडिया के कंटेंट को नियंत्रित करने के लिए चार कानून जरूरी हैं- इनमें डाटा प्रोटेक्शन कानून, निजता संबंधी कोई कानून, साइबर सुरक्षा कानून व इंटरनेट मीडिया को नियंत्रित करने का कानून शामिल है। देखा जाए तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सिर्फ भारतीय बाजार और यहां से होने वाली कमाई ही दिखती है। वे यहां के नियमों की पालन करने को तैयार नहीं हैं।
क्या प्रेस की तरह टीवी, ओटीटी या अन्य सोशल मीडिया के लिए नियमावली लागू नहीं हो सकती? फिल्म और टीवी के कार्यक्रमों के लिए सेंसर बोर्ड की अनुमति जरूरी है। इस तरह का प्रावधान ओटीटी के लिए क्यों नहीं हो सकता? क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इन्हीं के लिए है?
प्रेस परिषद में चर्चाएं होकर रह जाना, मनमानी करने पर तुले इन आपरेटर्स की दलीलों को स्वीकार करने का नाटक देश की संस्कृति से खिलवाड़ है। ये सब के सब स्वच्छन्द क्यों हैं? क्यों ये खुलेआम अश्लीलता परोस रहे हैं? प्रेस तो मानो मन्दिर है जो देवस्थान विभाग के अधीन रहेगा। शेष धर्मों को छूट रहेगी।
आज तो प्रिंट से लेकर तमाम दूसरे मीडिया में अद्र्धनग्न चित्र दिखने लगे हैं। सही-गलत के सारे भेद समाप्त होते जा रहे हैं। ‘व्हाट्सएप’ ने एक बार कहा था कि वह नई नियमावली बना रहा है। आज तक तो बनी नहीं। बनाए न बनाए, हमारा देश उस कारोबारी की नियमावली से नहीं चल सकता। उसे हमारे नियम मानने होंगे। चीन को देखो। भ्रष्टाचार वहां भी होगा, किन्तु नियमों में नहीं। हमारे यहां तो देश, जाति, धर्म, जनहित सब कुछ बेचने को तैयार बैठै हैं। भले ही अगली पीढ़ी दु:ख भोगे, जेल में जाए अथवा माफिया से जुड़ जाए।
विकासशील देश में धन की कीमत साधारण व्यक्ति के लिए बहुत है, यह बात लुटेरे नहीं जानते। ऑनलाइन गेम व सट्टे के जरिए लाखों को लूटा जा रहा है। कहने को लाटरी पर बैन है। धिक्कार है कभी ‘ब्लू टिक’ तो कभी ग्रुप संचालक के नाम पर नियम बनाकर लूट में भागीदार बनने वालों को। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का तो यही परिणाम सामने आया।
ठीक वैसे ही जैसे वोट की राजनीति में घुसपैठियों को नागरिकता दे दी गई। दोनों का एक ही अर्थ है। सरकारें बिकाऊ होती जा रही हैं। धन के आगे व्यक्ति बौना हो रहा है। किन्तु यह भी सच मानना कि जिस वोटर की इज्जत दांव पर लगाकर कमा रहे हो, देश की इज्जत का सौदा कर रहे हो, वे अगली बार भी आपके ही मतदाता रहेंगे!