अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

श्रीलंका में प्रगतिशील राजनीति की नई बयार

Share

एंड्रयू फिदेल फर्नांडो

श्रीलंका की राजनीति में जो प्रगतिशील मोड़ आया है, उसकी असल परीक्षा नई सरकार के द्वारा आर्थिक संकट से निपटने के आधार पर तय होनी है। श्रीलंका की संसद के कर्मचारी जो इस सप्ताह छुट्टी की उम्मीद कर रहे थे, उनकी छुट्टियां रद्द कर दी गई हैं। उन्हें दर्जनों सुरक्षा मंजूरी की व्यवस्था करनी है, डेस्क आवंटित करने हैं, संसदीय प्रक्रिया पर वर्कशॉप को आयोजित करना है, सूचना डेस्क पर स्टाफ की नियुक्ति करनी है, और इस प्रकार उनके पास वक्त बर्बाद करने के लिए फुर्सत नहीं है। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें हर कोई दिन-रात पूरी मेहनत से अपने-अपने कामों में जुटा हुआ है।

जब आपका देश 225 सदस्यीय सदन के भीतर 160 से अधिक सदस्यों को पहली दफा निर्वाचित कर भेजता है तो ऐसे ब्रेक आना स्वाभाविक है। पहली बार, एक दृष्टिबाधित व्यक्ति सांसद के तौर पर शपथ लेने जा रहा है। संसद का स्टाफ, जो अभी तक सिंहला, तमिल और अंग्रेजी में सामग्री तैयार करने का अभ्यस्त रहा है, उन्हें अब इन्हें ऑडियो के माध्यम से उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी वहन करनी होगी।

श्रीलंका के लिए ये असाधारण समय है। जबकि आनुपातिक चुनाव प्रणाली 1977 से लागू है, लेकिन 225 सदस्यीय सदन में इससे पहले किसी भी एक दल को दो-तिहाई सीटें नहीं हासिल नहीं हो पाई थीं। नेशनल पीपुल्स पावर (एनपीपी), जो कि एक मध्यमार्गी-वामपंथी संगठन है, जो सिर्फ 2019 से अस्तित्व में आया है और पिछली संसद में जिसके पास मात्र तीन सांसद थे, के पास अब 159 सांसद हैं, जो कि विधायिका के करीब 70% हिस्से का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। यहां तक ​​​​कि राजपक्षे, अपने सबसे सुहाने वर्षों में, महिंदा राजपक्षे की सरकार के द्वारा 26 वर्ष चले गृहयुद्ध को समाप्त करने के फ़ौरन बाद भी इतने बड़े जनादेश को हासिल कर पाने से चूक गए थे।

उस वक्त, राजपक्षे के पक्ष में शक्तिशाली सिंहल बौद्ध राष्ट्रवादी भी थे, जो दशकों से यह तर्क देते आ रहे थे कि तमिलों के पास तो तमिलनाडु है और मुसलमानों के पास अरब दुनिया है, लेकिन सिंहली बौद्धों के पास तो यही एकमात्र उनकी मातृभूमि है और इसलिए अल्पसंख्यकों को कष्ट में जीने पर हाय-तौबा नहीं मचानी चाहिए।

लेकिन इस बीच, संसद के भीतर एनपीपी के नए सदस्यों की बाढ़ आई हुई है, जो पुराने, नस्लीय तौर पर आरोपित मापदंडों के द्वारा सामूहिक व्याख्या को धता बता रहे हैं। इसमें धुरंधर सिंहली वामपंथी शामिल हैं, एक तमिल ट्रेड यूनियन नेता सहित उत्तरी शहर जाफना के एक स्कूल प्रिंसिपल, मलैयाहा तमिल समुदाय की दो महिलाएं, सिंहली दक्षिण के सुदूर हिस्से से आने वाले एक युवा मुस्लिम सांसद शामिल हैं – और इन सभी का नेतृत्व कोलंबो से आने वाली सामाजिक विज्ञान में पीएचडी हासिल एक महिला प्रधानमंत्री, हरिनी अमरसूर्या के द्वारा किया जाएगा। यह सब एक ऐसे देश में घटित हो रहा है जो आजादी के बाद से ही अभिजात्य वर्ग और पारिवारिक शासन से घिरा हुआ था।

यह बात लगभग पूरी तरह से अपरिहार्य है कि जिस राजनीतिक चेतना ने इस व्यापक परिवर्तन को जन्म दिया, वह दरअसल 2022 के विशाल विरोध प्रदर्शनों में भी देखने को मिला था। हालाँकि, ये विरोध प्रदर्शन मुख्य रूप से एक भयावह आर्थिक संकट के बीच राजपक्षे विरोधी गुस्से की लहर से उत्पन्न हुए थे, लेकिन इस आंदोलन के भीतर कई अन्य प्रगतिशील आलोचनाएँ भी शामिल थीं।

एक आरोप यह था कि राजनीतिक अभिजात वर्ग ने आम लोगों की कीमत पर दोनों समूहों को समृद्ध करने के लिए धनी लोगों के साथ मिलकर काम किया था। एक अन्य आरोप यह लगाया जा रहा था कि नस्लीय कलह को बढ़ावा देना और जातीय समूहों को विभाजित कर उनके ऊपर शासन करने की एक लंबी रणनीति काम कर रही थी, जो अन्यथा देखें तो एक जैसी आर्थिक दुर्दशा को साझा कर रहे थे। कुछ और सवाल भी उठे, जैसे कि: श्रीलंका की संसद में इतनी कम महिलाएँ क्यों थीं, जबकि वह विश्व की पहली निर्वाचित महिला राष्ट्राध्यक्ष होने का दावा करता आया है? पुरोहित वर्ग इतने प्रभावशाली क्यों हो गये थे?

इन बातों को श्रीलंका की राजनीतिक संस्कृति के विपरीत मात्र प्रगतिशील कल्पनाएँ मानकर खारिज करना कहीं आसान था। लेकिन अब तो चुनावी नतीजे में यही कड़वी हकीकत सामने आ रही है। कई बेहद उग्र सिंहली-बौद्ध राष्ट्रवादियों को संसदीय चुनाव लड़ने से भी कतराते देखा गया, जो आंतरिक मतदान और आम रायशुमारी के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि आम लोग उन्हें ख़ारिज करने के लिए इस बार मतदान करेंगे। इनमें से कईयों ने चुनाव लड़ा, लेकिन अधिकांश को हार का सामना करना पड़ा है।

इस नई संसद में महिलाओं का अनुपात अब तक के सबसे उच्चतम स्तर पर है (अभी भी यह अनुपात 15 प्रतिशत से भी कम है, लेकिन पिछली संसद की तुलना में यह दोगुना है)। और एनपीपी ने अल्पसंख्यक-प्रधान क्षेत्रों में भी तमिल राष्ट्रवादी पार्टियों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है, और जाफना, वन्नी और त्रिंकोमाली जिलों में किसी भी अन्य पार्टी के मुकाबले ज्यादा सीटें जीती हैं।

आंशिक रूप से, इसका कारण पारंपरिक तमिल पार्टियों के घटते प्रभाव में देखा जा सकता है, जबकि श्रीलंका के आर्थिक संकट ने इन क्षेत्रों में घरेलू क्रय शक्ति को भी काफी हद तक कम कर दिया है जो पहले से ही सबसे गरीब क्षेत्र माने जाते थे। यह नतीजा तमिलों के द्वारा एनपीपी को एक मौका देने की इच्छा से भी उपजा है, हालांकि पार्टी की ओर से अभी तक उनके जीवन में बेहतरी लाने के लिए कुछ खास काम नहीं किया है। इस मामले में, तमिल और दक्षिणी हिस्से की आबादी जो सामूहिक रूप से एनपीपी की ओर मुड़ी है, एक जैसे हैं।

इस बार का वोट राष्ट्र के पुनर्निर्माण को लेकर एक परीक्षण माना जा सकता है, और साथ ही इसे स्थापित सत्ता प्रतिष्ठान की राजनीति को ध्वस्त करने के जनादेश के तौर पर देखा जा रहा है। संभवतः अल्पसंख्यक प्रांतों को सत्ता सौंपने से दक्षिण के अधिकांश सिंहली इलाकों में बेहतर जीवन स्तर का निर्माण संभव हो सकता है। शायद एक पार्टी जो मुख्य रूप से दक्षिण के साथ जुड़ी हुई है, लेकिन जो भ्रष्ट अभिजात वर्ग को स्थानापन्न करना चाहती है, वह अल्पसंख्यकों के जीवन की गुणवत्ता में भी सुधार ला सके। पिछले कुछ महीनों से यह भी देखने को मिला है कि अल्पसंख्यकों को बदनाम करने वाली आम चुनावी बयानबाजी भी काफी घट गई है। इन चुनावों ने शैली को नया आकार दिया है, भले ही यह अल्पकाल के लिए हो।

एनपीपी की ओर से शुरुआती संकेत यह दिख रहे हैं कि पार्टी इस बात से बाखबर है कि फिलवक्त वह इस राजनीतिक चेतना की लाभार्थी मात्र है, जिसके इर्दगिर्द जवाबदेही सबसे प्रधान पहलू है। पार्टी प्रवक्ता टिलविन सिल्वा ने पत्रकारों से कहा, “लोगों ने हमें यह बड़ी जीत इसलिए दी है क्योंकि उन्होंने हम पर विश्वास जताया है। लेकिन अगर हम उस जिम्मेदारी का भार नहीं उठा पाते हैं और हम इसमें विफल रहते हैं, तो बचाने के लिए कोई और नहीं आने वाला है।”

मौजूदा स्थिति में श्रीलंका गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रहा है। पिछले कुछ वर्षों से बाल कुपोषण की स्थिति और खराब हुई है, जबकि नई सरकार और आईएमएफ देश के कर्ज चुकाने से चूक जाने से वापस आने के मार्ग और 2022 में घोषित दिवालियेपन से निपटने पर काम कर रही हैं। श्रीलंका की जनता ने एक वैकल्पिक दृष्टिकोण के लिए मतदान किया है, लेकिन यदि आईएमएफ द्वारा लादी गई मितव्ययिता की शर्तों से आम लोगों के घरों में आर्थिक स्वतंत्रता को कुचलने का सिलसिला जारी रहता है, तो उस दशा में देश आगे किस ओर जाएगा?

एक सदी से सत्ता पर काबिज जातीय राष्ट्रवादियों को पूरी तरह से पराजित नहीं किया जा सका है – उन्हें सिर्फ पीछे धकेला जा सका है। उत्तर और पूर्व के नागरिक भी ठीक ही इस बात की उम्मीद करेंगे कि सेना के पास लंबे समय से कब्जा की गई भूमि उन्हें वापस कर दी जाएगी, और विस्तारित भाषा अधिकार एनपीपी के शासनकाल के प्रारंभिक बिंदु होंगे।

जातीय विभाजन से कम से कम विभाजित राष्ट्र की ओर उठाये गये ये कदम अभी अस्थायी हैं, इसके बावजूद, फिलवक्त, राज्य के खिलाफ जातीय-धार्मिक आलोचना और सामाजिक-आर्थिक आलोचना एक-दूसरे से गुंथ गई है। यह एक ऐसा द्वीप है, जहां 1980 के दशक के उत्तरार्ध में, तमिल राष्ट्रवादियों ने उत्तर और पूर्व में एक अलग राज्य के लिए जंग लड़ा था, जबकि समाजवादियों ने दक्षिणी प्रांतों में हिंसक क्रांति का प्रयास किया था।

लंबे समय से यह तर्क दिया जाता रहा है कि आर्थिक अवसर की समानता श्रीलंका में सामाजिक परिवर्तन लाने की कुंजी साबित हो सकती है। लेकिन पिछली उदार सरकारों ने आर्थिक अधिकारों को न्याय पाने के लिए अपने आह्वान का एक घटक बनाने से बड़े पैमाने पर इंकार ही किया है।

मध्यम एवं निम्न मध्यम वर्गों से बड़े पैमाने पर उत्पन्न और संचालित हुए एक प्रतिरोध संघर्ष ने एक ज्यादा प्रगतिशील और बहुलतावादी सरकार के लिए आवश्यक परिस्थितियों का निर्माण कर दिया है। यदि ये इसके लाभ हैं, तो समूचे द्वीप में घरों में आर्थिक कल्याण उन्हें और मजबूती प्रदान करने के लिए बेहद अहम साबित हो सकता है।

(इंडियन एक्सप्रेस से साभार लिए गये इस लेख को एंड्रयू फिदेल फर्नांडो ने कलमबद्ध किया है, जो कोलंबो स्थित पत्रकार और लेखक हैं।)

Add comment

Recent posts

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें