(ध्यान प्रशिक्षक, मनोचिकित्सक डॉ. विकास मानवश्री से हुए सहज संवाद पर आधारित प्रस्तुति)
~अनामिका, प्रयागराज
आदिम युग से अब तक हम निरंतर विकास से यहां तक आए हैं। मगर भौतिक प्रगति की अंधी दौड़ में हम आधिभौतिक प्रगति भूल गए।
जीवन सिर्फ पंच-भौतिक तत्वों पर आधारित नहीं। इनसे आपका शरीर बना है, आप नहीं। आप भावना-संवेदना-चेतना का समुच्चय यानी आत्म-रूप हैं।*
जीवन की गाड़ी एक पहिए पर दौड़ाने की कोशिश हुई, दुर्घटना सामने है। तमाम संसाधन-सुविधाएं हैं: मगर प्रेम-अपनत्व,वास्तविक खुशी-तृप्ति नदारत।
हम यंत्र बन गए, खुदगर्जी की आग में तपकर। बचपन में खुश थे। यह खुशी क्रमश: बढ़ती तो विकास होता। डेललपमेंट की थ्योरी तब हम सही सिद्ध कर पाते।
समय तो जहां का तहां। हम बदल गए: केवल नकारात्मक पहलुओं के तहत।
तमाम उम्र बर्बाद होती रही, हम दुख और अतृप्ति की ओर ही बढ़ते रहे।
अब कथित इस नए वर्ष के साथ एक वर्ष और कम हुआ। जीवन का अनमोल समय व्यर्थ जाने का अफ़सोस नहीं। उलटे हम नशे में, जड़ता में, वेहोशी में जश्न मनाते हैं। इससे बड़ा गधापन और क्या होगा:* जरा सोचकर देखिए।
यूं ही चलता रहा तो बचपन से कफन तक का सफर महा-दुख,निपट अतृप्ति के अंबार में ही समाप्त होगा।
दृष्टिकोण बदलें, राह बदलें और जरूरी हो तो हमराह भी।
खुद को शरीर मानकर, शरीर आधारित संबंघ-संसार-बाजार को ही सच मानकर वहुत घिसट लिए।
अप ‘स्व’ के स्वीकारें। अंतस की सुनें और उसके कहे अनुसार आत्म- कल्याण, लोक-कल्याण को लक्ष्य बनाकर अपनी खुशी-तृप्ति के लिए जीएं।
_सत्य परिस्थितियों के अनुसार चेहरा नहीं बदलता। सत्य समाज के हिसाब से बदलकर दोगलापन नहीं दिखाता। सत्य सिर्फ सत्य होता है। इसलिए उसकी अभिव्यक्ति समाज के ठेकेदारों और उनके सामाजिक ढांचों पर क्या असर डालेगी : इसके हिसाब से हमारा ये मिशन नहीं चलता।_
*निसर्ग के साथ अपराध है पति-पत्नी का ‘बंधन’ :*
प्रेमिका को पत्नी के रूप में परिवर्तित कर देना अपराध है। पत्नी यानी पति के नीचे रखी जाने वाली। व्यवस्था निर्मित क़ानून तो इसकी सजा नही देगा लेकिन प्रकृति खुद इसकी सजा दे देती है।
इसी प्रकार प्रेमी को पति बना देने से इस सम्बन्ध का सौंदर्य नष्ट हो जाता है। हसबैंड यानी घर का बाजा।
_हसबैंड शब्द उसी धातु से बना जिससे हस्बेंड्री कृषि कर्म शब्द बना है।हसबैंड पति वह है जो बीज बोने के लिए स्त्री का उपयोग खेत की तरह करता है।
प्रेमी- प्रेमिका शब्द परमात्मा की ओर इशारा करते हैं और प्रेम परमात्मा सावित भी होता है। विवाह बंधन :कोई भी बंधन क्यों?
मानव जीवन का लक्ष्य मुक्ति है– मोक्ष। प्रेम वास्तविक खुशी- तृप्ति देकर मोक्ष देता है। प्रेम बंधन नहीं, मुक्ति है।
इसलिए :
न किसी अभाव में जीएं।
न किसी के प्रभाव में जीएं।
जो समझे- पूजे आपको ~
उस सङ्ग स्व’भाव में जीएं।।
ऐसे न जी पाएं तो हमें बताएं.
*कीड़े-मकोड़ों, देव-दानवों जैसी संतानोत्पत्ति के लिए आप बनते हैं जिम्मेदार :*
नये शरीर को धारण करने के लिए जब मां के पेट में एक आत्मा प्रविष्ट करती है तब बहुत छोटे शरीर में प्रवेश हो रही होती है। ऐटमिक बॉडी में।
वह जो पहले दिन अणु बनता है मां के पेट में वह अणु आपके पूरे शरीर की रूपाकृति अपने में छिपाए हुए होता है। पचास साल बाद आपके बाल सफेद हो जायेंगे, यह संभावना भी उस छोटे से बीज छिपी थी। आपकी आंखों का रंग कैसा होगा। आपके हाथ कितने लंबे होंगे, आप स्वास्थ होंगे या बीमार। आप गोरे होंगे या काले, आपके बाल कैसे होंगे, सीधे या घुंघराले, ये तमाम बातें उस अणु में छुपी थी। जो उस समय वह अणु एक छोटी सी देह लिए परिपूर्ण था।
वह ऐटमिक बाड़ी है, अणु शरीर, उस अणु शरीर में आत्मा प्रविष्ट होती है। उस अणु शरीर की जो संरचना है, उस अणु शरीर की जो स्थिति है, जो सिचुएशन है उसके अनुकूल आत्मा उसमे प्रविष्ट होती है।
दुनिया में जो मनुष्य जाति का जीवन और चेतना रोज नीचे गिरती जा रही है; उसका एक मात्र कारण है कि दुनियां के दंपति श्रेष्ठ आत्माओं का जन्म देने की संभावना और सुविधा पैदा नहीं कर पा रहे।
जो सुविधा पैदा की जा रही है, वह अत्यंत निकृष्ट आत्माओं के पैदा होने की सुविधा है।
आदमी के मर जाने के बाद जरूरी नहीं है कि उस आत्मा को जल्दी ही जन्म लेने का अवसर मिल जाए:
साधारण आत्माएं, जो न बहुत श्रेष्ठ होती है, और न निकृष्ठ होती है। तेरह दिन के भीतर नए शरीर की खोज कर लेती है। यानी कीड़े-मकोड़ों की तरह, भेड़- बकरियों की तरह जी कर मरने वालों की आत्माएं।
बहुत निकृष्ट आत्माओं को रूकना पड़ता है। क्योंकि उतना निकृष्ट अवसर मिलना मुश्किल है। उन निकृष्ट आत्माओं को ही हम प्रेत कहते हैं।
बहुत श्रेष्ठ आत्माएं भी रूक जाती है। क्योंकि उन्हें श्रेष्ठ अवसर उपलब्ध नहीं मिलता। उन श्रेष्ठ आत्माओं को हम देवता कहते हैं।
पुरानी दुनिया में भूत-प्रेतों की संख्या बहुत ज्यादा थी और देवताओं की संख्या बहुत कम। आज की दुनियां में भी भूत-प्रेतों की संख्या औसतन अधिक है लेकिन देवताओं की संख्या कम। क्योंकि दैवी़य इंसान पैदा होने का अवसर बहुत कम हो रहा है।
भूत-प्रेतों को पैदा होने का अवसर बहुत तीव्रता से उपलब्ध हुआ है।
आज भूत-प्रेत के दर्शन की कोई जरूरत नहीं है। आप अपने चारों ओरर आदमी को देख लें, उसका दर्शन हो जाता है। देवता पर हमारा विश्वास कम हो गया है। क्योंकि दिव्य लोग दिखाई नहीं पड़ते।
एक जमाना था कि देवता उतनी ही वास्तविकता थी, उतनी ही एक्जुअलटि थी जितना कि हमारे जीवन के और दूसरे सत्य हैं।
अगर हम वेद के ऋषियों को पढ़ें तो ऐसा नहीं मालूम पड़ता कि देवताओं के संबंध में जो बात कर रहे हैं, वह किसी कल्पना के देवता के संबंध में बात कर रहे हैं।
लेकिन नहीं, वे ऐसे देवता की बात कर रहे हैं, जो उनके साथ गीत गाता है, हंसता है, बात करता है। वे ऐसे देवता की बात कर रहे है, जो पृथ्वी पर उनके साथ चल रहा हो। उनके अत्यंत निकट हैं।
हमारा देव लोक से सारा संबंध विनिष्ट हो गया है। क्योंकि हमारे बीच ऐसे लोग नहीं जो सेतु बन सकें। जो ब्रिज बन सकें। जो देवताओं और मनुष्यों के बीच में खड़े हो सकें। जो एक- दूसरे के बीच ब्रिज बनाकर बता सकें की देखो देवी-देवता कैसे होते हैं।
इसका सारा जिम्मा मनुष्य जाति के दांपत्य की जो व्यवस्था है, उस पर निर्भर करता है। आज मनुष्य जाति के दांपत्य की सारी की सारी व्यवस्था कुरूप और परवर्टेड है।
पहली तो बात यह है कि हमने हजारों साल से प्रेमपूर्ण विवाह बंद कर दिए हैं। विवाह हम बिना प्रेम के करते है। जो विवाह बिना प्रेम के होगा, उस दंपति के बीच कभी भी वह आध्यात्मिक संबंध उत्पन्न नहीं होता जो प्रेम से संभव था।
उन दोनो के बीच कभी भी वह हार्मनी, कभी भी वह एकरूपता और संगीत पैदा नहीं होती, जो एक श्रेष्ठ आत्मा के जन्म के लिए जरूरी है।
उनका प्रेम केवल साथ रहने की वजह से पैदा हो गया सहचर्या होता है। उनके प्रेम में वह आत्मा का आंदोलन नहीं होता, जो दो प्राणों को एक कर देता है।
स्त्रियां पुरूषों से ज्यादा सुंदर क्यों दिखाई पड़ती है?
स्त्री के व्यक्तित्व में एक राउंडनेस, एक सुडौलता क्यों दिखाई पड़ती है?
स्त्री के व्यक्तित्व में एक संगीत, एक नृत्य, एक इनर डांस, एक भीतरी नृत्य क्यों दिखाई पड़ता है, जो पुरूष में दिखाई नहीं पड़ता?
एक छोटा सा कारण है :
इतना छोटा कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते। इस छोटे से कारण पर व्यक्तित्व का इतना भेद पैदा हो जाता है।
मां के पेट में जो बच्चा निर्मित होता है, पहला अणु, उस पहले अणु में चौबीस जीवाणु पुरूष के होते हैं, चौबीस जीवाणु स्त्री के होते हैं। अगर चौबीस-चौबीस के दोनों जीवाणु मिलते हैं तो अड़तालीस जीवाणुओं का पहला सेल निर्मित होता है। अड़तालीस सेल से जो प्राण पैदा होता है, वह स्त्री का शरीर बनता है। उनके दोनों बाजू चौबीस-चौबीस के होते है—एक बैलेंस्ड, एक संतुलित।
पुरूष का जो जीवाणु होता है, वह सैंतालीस जीवाणुओं का होता है। एक तरफ चौबीस होते हैं, एक तरफ तेईस। बस यह बैलेंस टूटा : वहीं से व्यक्तित्व का संतुलन टूट गया। हार्मनी टूट गई।
स्त्री के दोनों पलड़े व्यक्तित्व के बराबर संतुलन के हैं। उससे सारे स्त्री के सौंदर्य, उसकी सुडौलता, उसकी कला, उसके व्यक्तित्व का काव्य पैदा होता है; और पुरूष के व्यक्तित्व में जरा सी कमी है। उसका एक तराजू चौबीस जीवाणुओं से बना है और दूसरा तेईस कोष्ठ धारी जीवाणुओं से। अगर मां के चौबीस कोष्ठ धारी जीवाणु से मिलता है तो पुरूष का जन्म होता है। इस लिए पुरूष में एक बेचैनी है। उसका सारा जीवन उस असन्तुलन से डोलता रहता है। मैं यह कर लूं, वह कर लूं, एक चिंता गई नहीं की दूसरी तैयार, पूरा जीवन उस असंतुलन के कारण बन गया है।
इस एक छोटी से घटना से शुरू होती है पुरूष की इस बेचैनी की शुरू आत। जो बाद में हजारों तूफ़ानों में बदल जाती है, चंगेज खा, हिटलर, मुसोलनी, नादिरशाही के अनेक रूपों में।
उसके एक पलड़े में एक अणु कम है। उसका बैलेंस व्यक्तित्व कम है। स्त्री का पूरा है। स्त्री की हार्मनी पूरी है, उसकी लयबद्धता पूरी है। इतनी सी घटना इतना फर्क लाती है।
हालांकि इससे सत्री सुंदर तो हो सकी। लेकिन स्त्री विकासमान नहीं हो सकी। क्योंकि जिस व्यक्तित्व में समता है, वह विकास नहीं करता। वह ठहर जाता है। पुरूष का व्यक्तित्व विषम है। विषम होने के कारण वह दौड़ता है, विकास करता है। चाँद पर जाएंगा, तारों पर जाएगा। खोज-बीन करेगा। सोचगा-विचारेगा। ग्रंथ लिखेगा।
धर्म-निर्माण करेगा। स्त्री अमूमन न एवरेस्ट पर जाएगी, न चाँद तारों पर जाएगी। न वह धर्मों की खोज करेगी। न ग्रंथ लिखेगी, न विज्ञान की शोध करेगी। वह कुछ भी नहीं करेगी। उसके व्यक्तित्व में एक संतुलन है, वह संतुलन उसे पार होने के लिए तीव्रता नहीं भरता।
पुरूष ने सारी सभ्यता विकसित की, एक छोटी सी बात के कारण से कि उसमे एक अणु कम है। और स्त्री ने सारी सभ्यता विकसित नहीं की, उसमे एक अणु पूरा है। इतनी छोटी सी घटना इतने व्यक्तित्व का भेद ला सकती है। यह तो बायोलॉजिकली है। जीव-शास्त्र कहता है कि इतना सा फर्क इतने भिन्न व्यक्तित्व को जन्म दे सकता है।
वस्तुत: गहरे फर्क हैं। इनर डिफरेंस है। पुरूष और स्त्री के मिलने से जिस बच्चे का जन्म होता है, वह भी प्रभावित होता है। वह उन दोनों व्यक्तियों में कितना गहरा प्रेम है, कितनी आध्यात्मिकता है, कितनी पवित्रता है, कितने प्रेयर फुल है, कितने प्रार्थना पूर्ण ह्रदय से एक वे एक दूसरे के पास आये है। इस पर निर्भर करता है।
इस प्रेम और समर्पण की भाव दिशा में कितनी ऊंची आत्मा उनकी तरफ आकर्षित होती है, कितनी विराट आत्मा उनकी और खिंची चली आती है। कितनी महान दिव्य चेतना उस घर को अपना अवसर बनाती है, इस पर निर्भर करता है।
मनुष्य जाति क्षीण और दीन और दरिद्र और दुःखी होती चली जा रही हेै। उसके बहुत गहरे में कारण मनुष्य के दांपत्य का विकृत होना है। जब तक हम मनुष्य के दांपत्य जीवन को सुकृत नहीं कर लेते, सुसंस्कृत नहीं कर लेते, जब तक उसे हम स्प्रिचुएलाइज नहीं कर लेते, जब तब तक हम मनुष्य के भविष्य को सुधार नहीं सकते।
अगर अध्यात्मिक यानी वैज्ञानिक धर्म की ठीक-ठीक शिक्षा हो सके और एक-एक व्यक्ति को अगर धर्म की दिशा में ठीक विचार, कल्पना और भावना दी जा सके, तो बीस वर्षो में आने वाली मनुष्य की पीढ़ी को बिलकुल नया बनाया जा सकता है।
वह आदमी पापी है जो आदमी आने वाली आत्मा के लिए प्रेमपूर्ण निमंत्रण भेजे वाली आत्मा के लिए प्रेमपूर्ण निमंत्रण भेजे बिना भोग में उतरता है।
वह आदमी अपराधी है, उसके बच्चे नाजायज हैं—चाहे उसे बच्चे विवाह के द्वारा पैदा किए हों—जिन बच्चों के लिए उसने अत्यंत प्रार्थना और पूजा से और परमात्मा को स्मरण करके नहीं बुलाया है। वह आदमी अपराधी है और सारी संततियों के सामने वह अपराधी रहेगा।
हम शिक्षा की फिक्र करते हैं, हम वस्त्रों की फ्रिक करते हैं, हम बच्चे के स्वास्थ की फिक्र करते हैं, लेकिन बच्चों की आत्मा की फिक्र हम बिलकुल ही छोड़ दिए हैं। इससे कभी भी कोई अच्छी मनुष्य जाति पैदा नहीं हो सकती है।
इसलिए:
इस बात की फ्रिक करें कि आप इस शरीर में ही कैसे प्रवेश कर गए हैं और अब आपको कैसा बनकर, कैसी आत्मा बतौर संतति आकर्शित करनी है.
*समय के साथ चलने के लिए, समय से तेज चलें :*
इस सच को गांठ बांध लें कि, समय नहीं बदलता सृष्टि बदलती है। आप भी सृष्टि हैं: यानी बदल आप जाते हैं, समय नहीं।
समय शाश्वत सत्य है, सतत् प्रवाह है पर उसकी गति तेज है। उसकी गति को अनदेखा कर अगर आप चूके तो आपके हाथ कुछ नहीं आने वाला। समय से आगे चलने का जज्बा रखें यानी अपनी गति तीब्र करें: तब कहीं समय के साथ चल पाएंगे।
याद रखें जो चलता है, ‘वह’ ही पहुंचता है। मग़र गोल-गोल घूमने वाला कोल्हू का बैल दिनभर चलकर भी कहीं नहीं पहुंचता। गति प्रगति-पूर्ण हो: यही जीवन यात्रा है।