पुष्पा गुप्ता
_उधर उक्रेन युद्ध के दौर मे चंद दोस्तों को, कुछ बैरल तेल का मुनाफा कराने के लिए विदेश नीति बेच दी गई है। इधर 20 देशो मे रोटेशन के आधार पर मिली मेजबानी को ग्लोबल उपलब्धि बताकर पोस्टर लग रहे हैं।_
पड़ोसियों को मौका मिलते ही अखण्ड भारत के नाम से हड़पने का इरादा रखने वाली जमात और देश मे सीएए एनआएसी वाली सरकार, इवेन्ट जमाने के लिए वसुधैव कुटुम्बकम का सुर साध रही है।
मोदी बड़े, गांधी छोटे,और बीच के इतिहास का तमाम नेतृत्व गायब है। चूहे को हल्दी की गांठ मिल जाए, तो पंसारी हो जाता है।
एक दौर वह भी था, जब भारत दुनिया के 120 देशो को लीडर था। जी हां, गुटनिरपेक्षता खुद एक गुट था।
शब्दों के बियॉन्ड जाइये, जो कूटनीति में असलियत बताने के लिए नही, असलियत छुपाने के लिए इस्तेमाल होते हैं। गुटनिरपेक्षता के नाम पर नेहरू ने 100 देश जोड़ रखे थे। इसके बूते भारत, अपने वेट से ज्यादा बड़ी लीग में खेलता था। मास्टरस्ट्रोक इसे कहते हैं।
200 साल तक गुलाम रहा देश, जो 1947 में दुनिया की जीडीपी का शून्य दशमलव कुछ प्रतिशत था। जो आर्थिक महाशक्ति नहीं था, जो इंडस्ट्रियल पावर नहीं था , मिलिट्री पावर, सुपर पावर, रीजनल पावर, न्यूक्लियर पावर, वीटो पावर नहीं था, अचानक से विश्व परिदृश्य पर महत्वपूर्ण क्यों हो गया था।
असल में नेहरू महत्वपूर्ण हो गए थे। सिक्युरिटी काउन्सिल में मेम्बरशिप, वियतनाम हो, कोरिया हो, स्वेज हो… हर वैश्विक कन्फ्लिक्ट में भारत यूएन मिशन लीड कर रहा था।
नेहरू-कृष्णा मेनन की युति वर्ल्ड स्टेज पर वही धमाल मचा रही थी , जो आज आप घरेलू राजनीती में छोटे मोटे स्केल पर मोदी-शाह की युति को मचाते देखते हैं. ( सॉरी, बेहद घटिया तुलना है, केवल बात समझा रही हूँ। नेहरू-मेनन मुझे माफ़ करें).
अदरवाइज फाकाकशी के दौर से गुजर रहे तीसरी दुनिया के इस देश को, या कहें नेहरू-मेनन को, यह ताकत मिल कहाँ से रही थी। क्या ऐसा च्यवनप्राश था, जिसे खाकर ये फेदरवेट, हैवीवेट लीग में कदमताल कर रहे थे। कभी खुद से ये सवाल पुछा आपने ?
जवाब है – ये तहरीक ए गुटनिरपेक्ष था, जो असल में खुद एक गुट था।
बांडुंग सम्मेलन तक नेहरू के “गुटनिरपेक्ष गुट में 120 देश जुड़ गए थे। यह अमेरिका और रूस के साथ जुड़े एलीट के अगेंस्ट गरीबों का गुट था। ये 180 यूएन मेंबर के बीच १२० वोट थे, जो खेल पलट सकते थे, खेल बिगाड़ सकते थे, खेल बना सकते थे।
मार्शल टीटो पूर्वी यूरोप साधते थे, नासिर अरब दुनिया को, और नेहरू एशिया सहित दोनों महाशक्तियों को भी। और नेहरू याद रखिए, बेवकूफ नहीं थे, जो ट्रम्प जैसा बैल, खिलापिलाकर नमस्ते करें, पालते रहें … लेकिन समय आने पर जोत न सकें।
गोवा याद है? कुवैत भी याद कीजिए। सद्दाम ने कुवैत जीत लिया, मान्यता नहीं मिली, छोड़ना पड़ा। कुवैत आज भी आजाद देश है।
भारत में पुर्तगाल पर सैनिक हमला करके कब्ज़ा किया ( जी हाँ, गोवा के नागरिको को फुल फ्लेजिड पुर्तगाली नागरिकता थी ) और फिर यूएन में पुर्तगाल के विरोध, भारत द्वारा गोआ खाली करने के प्रस्ताव को गिरवा दिया। क्या अमेरिका, रूस, फ़्रांस, ब्रिटेन, या चीन ने वीटो किया ? यूरोप की ताकतों ने पुर्तगाल का साथ दिया ? जी नहीं।
नेहरू ने सारे बैल अपने जुए में जोत लिए। गोवा भारत का हिस्सा मान लिया गया। न सरदार पटेल, न मानेकशॉ ….. गोवा नेहरू का अनडिस्पुटेड गिफ्ट है, और गुटों से निरपेक्षता? अजी छोड़िये भी। हम अमेरिका से गेहूं लेते थे, रूस से कारखाने लगवाते थे।
62 में हमने US से नेवी फ्लीट तक हासिल कर किया जो चीन को मजा चखाने बंगाल की खाड़ी की ओर बढ़ चुका था।
ये खबर ही थी, की चीन पतली गली से खिसक लिया, एकतरफा युद्ध विराम कर जीते हुए इलाके खाली कर दिए।
नेहरू के बाद यह गुटनिरपेक्ष गुट जिन्दा रखा गया। लेकिन आपको याद है क्या, कि 71 में रूस के खुले समर्थन और हथियार से हमने पाकिस्तान को तोड़ा, नए देश को मान्यता दिलवाई।
इस गुटनिरपेक्ष गुट को राजीव युग तक खींचते रहे। पर नरसिंहराव के दौर में बने न्यूक्लियर बम को फोड़ने के उत्सुक अटल में , इस उतावलेपन की कीमत झेलने का गूदा नहीं था। टेस्ट के बाद प्रतिबंधों से पसीना छोड़ते, अटल ने अमेरिका के दरबार में हाजिरी लगानी शुरू की।
देश को तर्क दिया कि शीतयुद्ध के बाद के दौर में गुटनिरपेक्षता तो बेकार बात है। अर्थात आपके बैनर तले जो सौ पचास देश है, और उन्हें छोड़ अमेरिका का तहसीलदार बनना बड़ी स्मार्टनेस की बात है।
अटल ने तिब्बत को और पाकिस्तान के मामले में जो ब्लंडर किये, शुक्र था की वे 2004 हार गए। मनमोहन ने फिर एक बार अमेरिका और रूस दोनों को साधा, लेकिन गुटनिरपेक्ष गुट को भी खाद पानी देने की कोशिश की। 2012 में गुटनिरपेक्ष देशो का समिट तेहरान में हुआ।
वही तेहरान, जो आपको सस्ता तेल डॉलर में नहीं …. रूपये में दे रहा था, जिसने चाबहार से अफगनिस्तान में घुसने का कॉरिडोर गिफ्ट किया था। वही तेहरान है, जो अब आपको चाबहार से बाहर फेंक चुका है।
अफगानिस्तान से आप फेंके जा चुके है। नेपाल आँख दिखा रहा है।अरब, दक्षिण एशियाई, पूर्वी एशियाई मित्र चीन की गोद में जा बैठे हैं।
मन की बात में खुद को इंडस्ट्रियल पावर, मिलिट्री पावर, सुपर पावर , रीजनल पावर, न्यूक्लियर पावर, स्पोर्ट्स पावर, स्पाइडरमैन, आयरनमैन, बैटमैन, विश्वगुरू बताने के बाद आपकी धेले भर की पूछ नहीं है।
पता है क्यों ? क्योकि आप गुटनिरपेक्ष नहीं हैं। शब्दों के बियोंड , गुटनिरपेक्षता खुद एक गुट था। वो दुनिया में आपका गुट था।