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मानसिक-स्तर पर स्वतंत्र न होना ही व्यक्ति-स्वातंत्र्य की राह में सबसे बड़ा रोड़ा – डॉ. आंबेडकर

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द्वारका भारती

जब भी कहीं व्यक्ति की स्वतंत्रता की चर्चा होती है तो हमारे जेहन में बरबस ही पश्चिम के चर्चित चिंतक जॉन स्टुअर्ट मिल (20 मई, 1806 – 8 मई, 1873) का चेहरा उभर आता है। उन्हें विश्व भर में व्यक्ति-स्वातंत्र्य के सिद्धांत के प्रतिपादक के रूप में याद किया जाता है। व्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर उनके विचारों को आज भी अधिमान मिलता है। अपनी पुस्तक ‘ऑन लिबर्टी’ (1859 में प्रकाशित) में उन्होंने व्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत करते हुए यह घोषणा की थी कि किसी व्यक्ति का पूर्णरूपेण विकास तभी संभव है जब वह संपूर्ण रूप में मानसिक रूप से स्वतंत्र हो।

ऐसा भी नहीं है कि इन जॉन स्टुअर्ट मिल से पहले पश्चिम में व्यक्ति की स्वतंत्रता की कोई चर्चा नहीं होती थी, लेकिन उनकी पुस्तक ‘ऑन लिबर्टी’ में प्रस्तुत विचारों ने व्यक्ति की स्वतंत्रता की सैद्धांतिक रूप में बहुत चर्चा बटोरी थी, जिसमें यह घोषणा की गई थी कि एक व्यक्ति की वैचारिक-स्वतंत्रता के साथ-साथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी आवश्यक है। उन्होंने असीमित राज्य और सामाजिक-नियंत्रण के विरोध में व्यक्ति की स्वतंत्रता को उचित ठहराने के लिए स्वतंत्रता का सिद्धांत प्रस्तुत किया था। आज हम देखते हैं कि उनके इस विचार ने पश्चिम के साथ-साथ कई और देशों को भी प्रभावित किया है। 

जॉन स्टुअर्ट मिल के जन्म के लगभग एक सदी के बाद भारत के महान चिंतक तथा व्यक्ति-स्वतंत्रता के समर्थक डॉ. आंबेडकर का जन्म तब होता है जब इस देश का सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक ढांचा इतना चरमराया तथा भरमाया होता है कि स्वतंत्रता नाम की कोई चीज यहां ढूंढने पर भी नहीं मिलती है। हालांकि पश्चिम के देशों की तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक दशा भी अच्छी नहीं कही जा सकती, लेकिन भारत तो मानो इस धरती का सबसे बड़ा स्वतंत्रता का विरोधी तथा पौराणिकता की पिनक (अफीम के नशे में चूर होने की अवस्था) से इतना ग्रस्त था कि यहां जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे सैकड़ों दार्शनिक भी पैदा हो जाते तब भी शायद वे नाकाफी ही होते।

इस प्रकार की विषम स्थितियों में डॉ. आंबेडकर इस देश में जब अपना आंदोलन आरंभ करते हैं और सफलता हासिल करते हैं, तो हमें यह मानना पड़ता है कि डॉ. आंबेडकर जॉन स्टुअर्ट मिल से कहीं अधिक दृढ़ इरादों वाले प्रतिभावान चिंतक सिद्ध होते हैं, क्योंकि यहां मिल का समाज व्यक्ति की आमूलचूल स्वतंत्रता के लिए मानसिक रूप से पहले से ही तैयार दिखाई देता है। जबकि भारतीय समाज उस जमीन पर खड़ा था, जिसे तमाम सामाजिक, धार्मिक वर्जनाओं ने एक तरह से बंजर कर रखा था। घर से निकलते ही इन वर्जनाओं का दौर आरंभ हो जाता था। यही कारण था कि भारत जैसे वर्जनाओं वाले देश में व्यक्ति की वैचारिक आजादी की बात करना मानो समाज से सीधे अपना सिर टकराने के समान था। 

जिस समय डॉ. आंबेडकर संघर्षरत थे, उस समय समाज में व्यक्ति-स्वातंत्र्य की बात करना एक तरह से लोहे के चने चबाने से भी ज्यादा दुष्कर था, क्योंकि समाज सदियों पुरानी गली-सड़ी सामाजिक बेड़ियों में कैद था। हम समझ सकते हैं कि इस प्रकार के समाज, जिसमें व्यक्ति की आजादी की कोई अवधारणा ही मौजूद नहीं थी, व्यक्ति-स्वातंत्र्य की बात करना चील के घोंसले से मांस का टुकड़ा खोजने से कम नहीं था। देश के निम्न जाति के समाज को बोलने की स्वतंत्रता तो क्या, खांसने तक की मनाही थी। ऐसा था भारत का मानसिक गुलाम समाज।

वैसे भी जिस समाज का व्यक्ति श्रुति आधारित वेदों, स्मृतियों और काल्पनिक पुराणों को ही अपनी सभ्यता की महानता मानता आया हो, उसमें इस प्रकार के सिद्धांत प्रस्तुत करना मानो पत्थर के सामने गुहार लगाना ही था। एक तरह से यह अपना ही माथा फोड़ने जैसी प्रक्रिया ही थी। दूसरी तरफ जॉन स्टुअर्ट मिल के देश में भारत जैसे कटखना ब्राह्मणवाद मौजूद नहीं था। वहां वर्णव्यवस्था, जातिभेद तथा अस्पृश्यता आदि का नामोनिशान भी नहीं था। जबकि भारत के संदर्भ में कहें तो माना जा सकता है कि तब भारतीय समाज में स्वतंत्रता जैसी वैचारिक-बयार का अस्तित्व स्थापित करना शेखचिल्ली के सपनों जैसा ही कार्य था, जिसे डॉ. आंबेडकर ने अपने हाथ में लिया। 

इसी संदर्भ में हम यदि भारत के मध्य युग और पश्चिम के मध्ययुग की बात करें तो ढेरों अंतर देखने को मिलते हैं। यहां पश्चिम का समाज अठारहवीं सदी में विज्ञानवादी दार्शनिक इमानुएल कांट (22 अप्रैल, 1724 – 22 फरवरी, 1804) आदि को जन्म देता है तो इस सदी को विज्ञान की प्रगति की सदी कहा जाता है। इसके पहले एक और पश्चिमी दार्शनिक थॉमस हॉब्स (5 अप्रैल, 1588 – 4 दिसंबर, 1679) को देखते हैं, जिन्होंने भौतिकवाद तथा विचार-स्वातंत्र्य को प्रमुखता दी। उन्होंने उस काल में ईसाइयत की रूढ़ता को भी चुनौती दी थी। 

इसके बरक्स जब हम भारत के मध्यकालीन युग की बात करते हैं, तो स्थितियां पश्चिम से कहीं भिन्न दिखाई पड़ती हैं। जहां पश्चिम में विज्ञानवादी स्थितियां पनपती हैं तो भारत में विज्ञान की जगह भक्तिकाल के संतों की फौज खड़ी होती हैं। पश्चिम में रूसो (28 जून, 1712 – 2 जुलाई, 1778) और वॉल्टेयर (21 नवंबर, 1694 – 30 मई, 1778) जैसे क्रांतिकारी चिंतक पैदा होते हैं, जो धर्म को अज्ञान और धोखे की पैदावार घोषित करते हैं और मजहब को चालाक पुरोहितों का जाल कहते हैं, जो कि मनुष्य की मूढ़ता और पक्षपात को इस्तेमाल कर शासन करने का अवसर देते हैं। और हमारे देश के संत उसी समय ईश्वरवाद को और भी दृढ़ता प्रदान करते हुए करतालें बजा रहे होते हैं। 

सन् 1951 में बंबई में आयोजित गणतंत्र दिवस समारोह के मौके पर  डॉ. भीमराव आंबेडकर और कुर्सी नहीं मिलने पर उनकी गाद में बैठे एस.के. बोले

स्पष्ट है कि संतों की इस पुकार में परिवर्तन के अंश नदारद होते हैं। लेकिन इसकी तुलना में यदि हम रूसो के विचारों की बात करें तो वे सामाजिक परिवर्तन की बात करते हुए देखे जाते हैं। उनके विचार घोषणा करते हैं– “स्वभाव से सभी मनुष्य समान हैं। यह हमारा समाज है, जिसने वैयक्तिक संपत्ति की प्रथा चला कर उन्हें असमान कर दिया, और आज हम अपने समाज में स्वामी-दास, शिक्षित-अशिक्षित, धनी-निर्धन पा रहे हैं।”

हम देखते हैं कि हमारे देश की संत परंपरा (नामदेव, कबीर और रैदास को छोड़ दें ते) किसी ओर से भी यूरोप के इन चिंतकों के आसपास भाग्यवाद, ईश्वरवाद तथा नियतिवाद से कभी मोक्ष पाता दिखाई नहीं देता, बल्कि कहना चाहिए कि वह वैदिक दर्शन की ओर देखता हुआ ही अपने काव्यात्मक विचारों को आगे बढ़ाता रहा है। यहां की तमाम सामाजिक व्याधियों का समाधान वह ईश्वर से ही चाहता है। 

डॉ. आंबेडकर के शब्दों में आदमी की दृष्टि में आदमी का समान होना महत्वपूर्ण था। संभवत: यही कारण है कि संत परंपरा के प्रचार हवा में ही घूमते रह गए। धरती के वातावरण पर कोई प्रभाव नहीं डाल सके। परिणाम स्वरूप जिन संतों ने उस समय कलम चलाई, वे सम्मानीय तो बने, लेकिन उनके अनुकरणीय नहीं। समाज में परिवर्तन की कोई लहर पनपती नहीं देखी गई। डॉ. आंबेडकर की दृष्टि में इन संतों की घोषणाओं ने धूल उड़ाने के अलावा और कुछ नहीं किया। देश में अस्पृश्यता, जातिभेद तथा असमानता पहले की तरह दनदनाती रही। 

ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि इन संतों की वाणी में मानव-स्वातंत्र्य के स्वर न के बराबर सुनाई देते हैं। पश्चिम के चिंतक जितनी मानव-स्वातंत्र्य की बात करते रहे हैं, वह संत-परंपरा में कहीं दिखाई नहीं देती। बल्कि इसके विपरीत भूमिका दिखाई पड़ती है। मध्यकालीन इतिहास पर अपनी नकार रखने वाले इतिहासकार इरफान हबीब का मानना है कि “धर्म ने केवल लोकप्रिय विद्रोहों को ही नहीं दबाया, बल्कि इसके विपरीत विद्रोहियों को एकजुट करने में अपनी भूमिका निभाई है।” उनका यह आकलन तर्क की कसौटी पर लाया जा सकता है, लेकिन यह सत्य है कि पश्चिम में भी धर्म की भूमिका इसी प्रकार की ही देखी गई है। जार्ज बर्कली (12 मार्च, 1685 – 14 जनवरी, 1753) जैसे दार्शनिक भौतिकवाद और अनीश्वरवाद से ईसाई-धर्म की रक्षा करते रहे। हालांकि उन्हें अठारहवीं सदी का विज्ञानवादी दार्शनिक कहा जाता है। भारत की संत-परंपरा भी कुछ इसी प्रकार का करतब जाने-अनजाने करती हुई देखी जाती है। हम देखते हैं कि वे सामाजिक व्याधियों से लोगों को बचाने से ज्यादा ईश्वर की भक्ति पर जोर देते देखे जाते हैं। पश्चिम के प्रगतिवादी चिंतक कहीं भी ईश्वर की भक्ति या श्रद्धा पर जोर नहीं देते। ईश्वर के बारे में कई पश्चिमी चिंतकों का मानना था कि जब ईश्वर को प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता, तो उसके होने के प्रमाण क्या है? कहने को उसके गुण आदि के बारे में तर्क दिया जा सकता है। लेकिन ईश्वर के स्वभाव, गुण, आज्ञा और भविष्य योजना के संबंध में कुछ भी कहने के लिए हमारे पास कोई भी साधन नहीं है।

यहां इस पर ध्यान देना होगा कि ईश्वर के प्रति इतनी श्रद्धा उड़ेलने के बाद भी यहां परिवर्तन नहीं होता, बल्कि सनातनता पर ज्यादा बल देने की परंपरा पुष्ट होती जाती है और साथ ही मानसिक स्तर पर स्वतंत्र होने की दूरी भी बढ़ती जाती है। सच्चाई यही है कि मानव की मानसिक-स्तर पर स्वतंत्र न होना ही व्यक्ति-स्वातंत्र्य की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है, जिसे डॉ. आंबेडकर अपने अनूठे विचारों से हटाने का प्रयास करते रहे। वे जानते थे कि मानसिक-स्तर ऊंचा उठाने के लिए ज्ञान अर्थात् शिक्षा बहुत जरूरी है। शिक्षा के अभाव से ही इस देश का एक बड़ा वर्ग दरिद्रता से लेकर तमाम कठिनाइयों से जूझता आया है। यदि डॉ. आंबेडकर अशिक्षित व्यक्ति होते तो शायद वे भी एक मध्ययुगीन संत की भूमिका में ही हमें नजर आते। हम जानते हैं कि शिक्षा के कारण ही वे हमारे सामने एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में उभरते हैं। संसार भर के चिंतकों के विचारों का खजाना लेकर वे अपना संघर्ष शुरू करते हैं। लेकिन इसके अर्थ यह कदापि नहीं थे कि भारत को कहीं वैचारिक व व्यक्ति की स्वतंत्रता भी मिल गई थी। इससे भारत की सामाजिक व्यवस्था में कोई अंतर नहीं होता। वह उसी स्थिति में ही बनी रहती, जिस स्थिति में अंग्रेजों से पहले थी।

अब सवाल है कि क्या भारत में कभी विचारों की स्वतंत्रता रही है? इस प्रश्न का उत्तर खोजते समय हमें यह सूचना मिलती है कि वैदिक-साहित्य स्वतंत्र-चिंतन को एक अपराध मानता आया है। वैदिक धर्मशास्त्र के प्रणेताओं द्वारा यह निर्णय दिया गया है कि यदि तर्कशास्त्र अर्थात् मानव को तर्क करने की आजादी दी जाती है तो शास्त्रों की गरिमा को आंच आती है। व्यक्ति की स्वतंत्रता के अर्थ धर्मशास्त्रों की आस्था से खिलवाड़ करने के तुल्य होगा। व्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत करने वालों को अर्थात् स्वतंत्र-चिंतन को धर्मशास्त्र के प्रणेताओं ने अपराधों की मान्यसूची में दर्ज कर दिया है। इस काम में मनु सबसे आगे खड़े दिखाई देते हैं। कहा गया है कि यदि ब्राह्मण भी वेदों तथा धर्मशास्त्रों की उपेक्षा करता है, उसे भी नास्तिक की संज्ञा देकर समाज से बहिष्कृत कर दिया जाना चाहिए। 

यदि हम यह कहें कि वैदिकता के अर्थ व्यक्ति की स्वतंत्रता का हरण करना है तो, कुछ भी गलत नहीं होगा। आदिम काल का मानव भले ही मानसिक रूप से स्वतंत्र रहा हो, लेकिन इस धरती पर जब भी प्रकृति के विनाश का भय पनपा, व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता को खो बैठा था। पाप-पुण्य की अवधारणा ने मानव की तमाम प्रकार की मानसिक-दासता का मार्ग तैयार कर दिया। ‘वशिष्ठ धर्मसूत्र’ में स्पष्ट तौर पर कहा गया कि शास्त्रों का उल्लंघन करने वाले तबाह हो कर रहेंगे। वेदों को प्रामाणिक न मानना, ऋषियों की वाणी में दोष निकालना और हर बात में आगा-पीछा करते रहना, विनाश की ओर ले जाता है। इस प्रकार के धार्मिक आदेश व्यक्ति की आजादी और उसके स्वतंत्र चिंतन पर गहरा आघात करते रहे हैं। व्यक्ति को शास्त्रों के आदेश का पालन करने का एकमात्र औजार बना कर रख दिया। यह धार्मिक आदेश व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व को बौना बनाने में सफल हुए थे।

यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक होगा कि एक तरफ तो इन धार्मिक आदेशों ने श्रमजीवियों के व्यक्तित्व को नीचे गिराया तो दूसरी तरफ एक ब्राह्मण को इतना ऊंचा उठा दिया कि वह आज भी वर्णव्यवस्था में सबसे ऊपर बैठा हुआ देखा जा सकता है। 

तो क्या भारत में कभी भी व्यक्ति की आजादी की बात नहीं की गई? दार्शनिक स्तर पर बहुत कुछ ऐसा कहा गया है, जिसमें हमें लगता है कि भारत के दार्शनिक इतिहास में व्यक्ति को प्रमुखता दी गई है। मानव को दिव्य-प्राणी तक कहा गया है। लेकिन ‘ब्रह्म’ की अवधारणा आते ही, मानव कोसों पीछे खिसका दिया गया। यह शायद मानव का सबसे बड़ा दुखांत ही कहा जाएगा कि उसने ‘ब्रह्म’ की अवधारणा का सृजन करते हुए अपने लिए कब्र तैयार कर ली। इसे विचार की दुनिया में मानव की सबसे बड़ी भूल कहा जा सकता है। ‘ब्रह्म’ की इस अवधारणा को तब चुनौती मिलती है जब बुद्ध (ईसापूर्व 500) इस अवधारणा को खारिज करते हुए घोषणा करते हैं कि किसी बात को इसलिए मत मानो कि वह शास्त्रों में दर्ज है, या किसी महान व्यक्ति ने कही है। इसे अपने तर्क की कसौटी पर कसते हुए विश्वास करो। इससे भी बढ़ कर बुद्ध जब यह घोषणा करते हैं कि ‘अपना दीपक आप बनो’, तो तमाम वह सभी अवधारणाएं ध्वस्त हो जाती हैं जो इस देश की वैदिकता ने लादी थीं। यह स्वतंत्र-चिंतन तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता के नए आयाम खोलती हैं। इतनी स्पष्टता सुकरात (निधन 15 फरवरी, 399 ईसापूर्व) के विचारों में भी नहीं देखी जाती। सुकरात इस काल के एक विद्रोही व्यक्ति थे, लेकिन बुद्ध की तरह मानव-चिंतन में नए आयाम देने वाले तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रमुखता देने वाले व्यक्ति संभवत: नहीं माने जाते। 

हम पाते हैं कि व्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करने वाले जॉन स्टुअर्ट मिल जो बात 19वीं सदी में कहते हैं, वह बुद्ध ने करीब 2500 वर्ष पहले कहा था। हम जानते हैं कि बुद्ध की इसी महान अवधारणा ने ही उनकी महानता को संसार भर में एक महामानव का दर्जा दे दिया है। संसार भर के बुद्धिजीवियों को इसी एक वाक्य ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है।

राहुल सांकृत्यायन स्वयं यह घोषणा करते हैं कि बुद्ध की इसी बुद्धिवादी-अवधारणा ने उन्हें सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। बुद्ध का यही बुद्धिवादी-चिंतन डॉ. आंबेडकर के विचारों का परिचायक बन जाता है और इस देश की वैदिकता के विरुद्ध सांस्कृतिक आंदोलन का रूप भी धारण कर जाता है। आंबेडकर द्वारा रचित बाईस प्रतिज्ञाएं सांस्कृतिक-आंदोलन का एक सशक्त स्वरूप ही तो हैं। 

यहां यह बताना आवश्यक होगा कि इस देश की सामाजिक व धार्मिक संरचना को समझने तथा सांस्कृतिक-आंदोलन को पुष्ट करने में बुद्ध दर्शन डॉ. आंबेडकर के बहुत काम आता है। उनकी पुस्तक ‘बुद्ध और उनका धम्म’ में प्रमाण देखे जा सकते हैं और यह कहना भी गैर-वाजिब नहीं कि उन्हें विश्व स्तर पर दार्शनिक के रूप में माना गया।

आज जो लोग डॉ. आंबेडकर के स्वतंत्र-चिंतन का विरोध करते हुए देखे जाते हैं, उनमें अधिकतर वही लोग शामिल हैं, जो भारतीय संविधान में दर्ज अभिव्यक्ति के अधिकारों, वाक्-स्वातंत्र्य आदि के अधिकारों से कुढ़न महसूस करते हैं। स्पष्ट है कि ऐसे लोगों को प्राचीनकाल की मनुव्यवस्था से अत्यधिक श्रद्धा रही होगी और वे इसे भारतीय संस्कृति का एक आवश्यक अंग मानते रहे हैं।

यहां हम इस आशंका को प्रकट कर सकते हैं कि यदि डॉ. आंबेडकर भारतीय संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष न रहे होते, तो इस संविधान की उद्देशिका में ‘हम भारत के लोग…’ पढ़ने को नहीं मिलता।

इस तथ्य पर हमें ज्यादा ध्यान देना होगा कि डॉ. आंबेडकर के लिए व्यक्ति-स्वातंत्र्य के अर्थ सदैव व्यापक रहे। यदि हम यह कहें कि वे व्यक्ति-स्वातंत्र्य को अपने विचारों के केंद्र में रखते हुए सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक आंदोलन शुरू करते हैं, तो शायद हम गलत नहीं सोच रहे। उनके द्वारा किया गया यह प्रश्न कि हिंदू समाज व्यवस्था की क्या विशिष्टता है? क्या यह एक स्वतंत्र समाज है? तो उसके उत्तर में वे स्पष्ट करते हैं कि यदि सामाजिक धरातल पर स्वतंत्रता, समानता तथा भाईचारा नहीं है, तो वह समाज स्वतंत्र नहीं है।

फिर स्वतंत्रता क्या है और स्वतंत्र समाज व्यवस्था में यह क्यों जरूरी है? इसके उत्तर में डॉ. आंबेडकर जो बताते हैं, वह ध्यान देने योग्य है। वे बताते हैं कि स्वतंत्रता को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। एक नागरिक स्वतंत्रता होती है और दूसरी राजनीतिक स्वतंत्रता। नागरिक स्वतंत्रता के अंग हैं– (1) विचरण की स्वतंत्रता, अर्थात् कानूनी प्रक्रिया के बिना रोक-टोक आगमन (2) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, इसमें विचारों की स्वतंत्रता, पढ़नेलिखने तथा बातचीत करने की स्वतंत्रता शामिल होती है; (3) कार्य करने की स्वतंत्रता।

पहले प्रकार की स्वतंत्रता निस्संदेह मौलिक स्वतंत्रता है। यह न केवल मौलिक, बल्कि अत्यंत आवश्यक भी है। इसके महत्व के संबंध में कोई संदेह नहीं है।

दूसरी स्वतंत्रता, जिसे विचारों की स्वतंत्रता कहा जा सकता है, कई कारणों से महत्वपूर्ण है। यह बौद्धिक, नैतिक, राजनीतिक तथा सामाजिक; सभी तरह की प्रगति के लिए आवश्यक है। जहां यह स्वतंत्रता नहीं होती, वहां पर स्थितियां रूढ़ हो जाती हैं और सभी मौलिकताएं, यहां तक कि अत्यंत आवश्यक मौलिकता भी हतोत्साहित हो जाती हैं। कार्य की स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि एक व्यक्ति जो उसे काम भाता हो, वही करे। इतना ही काफी नहीं, कार्य की स्वतंत्रता औपचारिक हो। यह वास्तविक अर्थ में होनी चाहिए। जैसा कि स्पष्ट है, स्वतंत्रता के अर्थ विशिष्ट कार्य करने की प्रभावी शक्ति से है। जहां इस स्वतंत्रता का लाभ उठाने के साधन मौजूद नहीं है, वहां यह स्वतंत्रता नदारद है। कार्य करने की वास्तविक स्वतंत्रता केवल वहीं पर होती है, जहां शोषण का समूल खात्मा कर दिया गया हो, जहां एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग पर अत्याचार नहीं किये जाते, जहां बेरोजगारी नहीं है, जहां निर्धनता नहीं है, जहां किसी व्यक्ति को अपने काम-धंधे का हाथ से निकल जाने का भय नहीं है, अपने कार्यों के परिणामस्वरूप जहां व्यक्ति अपने धंधे की हानि, घर की हानि तथा रोजी-रोटी की हानि के भय से मुक्त है।

आगे डॉ. आंबेडकर राजनीतिक-स्वतंत्रता की चर्चा करते हुए स्पष्ट करते हैं कि इस स्वतंत्रता के अर्थ उस स्वतंत्रता से है जिसके मुताबिक वह कानून बनाने तथा सरकारों को बनाने अथवा बदलने में भागीदार होता है।

सरकारों का गठन इसलिए किया जाता है ताकि वे व्यक्ति के लिए कुछ अन्यान्य अधिकार – जैसे जीवन-स्वतंत्रता तथा प्रसन्नता के साधन – सुरक्षित ढंग से उपलब्ध करवाए। अत: एक सरकार वहां से ही अपने अधिकार प्राप्त करे, जिनके अधिकारों को सुरक्षित रखने का दायित्व उसे सौंपा गया है। इसका अर्थ यह है कि सरकार को अपना अस्तित्व, अपनी शक्ति, अपना अधिकार उन लोगों से ही प्राप्त करना चाहिए, जिन पर वह शासन करती है।

वास्तव में राजनीतिक-स्वतंत्रता मानव-व्यक्तित्व तथा समानता के सिद्धांत से उत्पन्न होती है, क्योंकि इसका अर्थ यह होता है कि सभी प्रकार का राजनीतिक-अधिकार जनता से प्राप्त होता है तथा जनता दूसरों के द्वारा नहीं, बल्कि अपने द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए लोगों के सार्वजनिक तथा निजी जीवन को नियंत्रित करने तथा दिशा-निर्देश देने में समर्थ है।

क्या ये सिद्धांत एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं? इसके उत्तर में डॉ. आंबेडकर का दो-टूक यही कहना है कि स्वतंत्र समाज-व्यवस्था के दोनों सिद्धांत एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। इन्हें अलग नहीं किया जा सकता। एक बार यदि पहले को स्वीकार कर लिया जाए, तो दूसरा सिद्धांत स्वत: ही जुड़ जाता है। एक बार यदि मानव व्यक्तित्व की पवित्रता को स्वीकार कर लिया जाए तो व्यक्ति के विकास के लिए उचित वातावरण के रूप में स्वतंत्रता, समानता तथा भाईचारे की आवश्यकता को भी स्वीकार किया जाना चाहिए।

यद्यपि आज का भारतीय समाज स्वतंत्रता के इन अर्थों को ज्यादा नहीं समझता, लेकिन इस तथ्य को हम नकार नहीं सकते कि भारत की इस धरती पर बसे इस भारतीय समाज में स्वतंत्रता की मौलिक परिभाषाएं गढ़ने वाले डॉ. आंबेडकर स्वतंत्रता के बड़े चिंतक के रूप में उभरते हैं। यदि क्रांति की कोई सटीक परिभाषा है तो हमें यह मानने में उज्र नहीं होना चाहिए कि भारत के समाज में स्वतंत्रता की बात करना – यहां भारतीय समाज ब्राह्मणवाद के जबड़ों में कसमसाता रहा है – किसी क्रांति से कहीं कम नहीं है, जिसके विचारों ने भारत के उस समाज को भी नई करवट लेने पर विवश कर दिया, जिसे सदियों तक मुर्दों से बेहतर कभी नहीं देखा गया है।

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