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हर सांस लेने वाला जिंदा नहीं होता : ‘जामुन का पेड़’ का मंचन 

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राघवेन्द्र रावत

त्रिमूर्ति नाट्य संस्था के ‘रंग चौबारा’ मंच द्वारा प्रसिद्ध कहानीकारों की कहानियों के नाट्य मंचन का वर्ष 2021 में सिलसिला प्रेमचंद की कहानी ‘पंच परमेश्वर और ‘केंचुली’ से शुरू होकर कृष्ण चंदर तक आ पहुंचा है | भारतीय रंगमंच में देवराज अंकुर ने कहानियों के मंचन को एक खास मुकाम दिया है | 27 फरवरी,2022 की शाम को ‘रंग चौबारा ‘ में कृष्ण चंदर की कहानी ‘जामुन का पेड़’ का नाट्य रूपांतरण प्रस्तुत किया गया | कहानी का नाट्य रूपांतरण नीरज गोस्वामी द्वारा किया गया तथा निर्देशन गुरमिंदर पुरी रोमी ने किया |
मंच के एक कोने में बैठे सूत्रधार द्वारा कहानी के पाठ के साथ नाटक आगे बढ़ता है | नाटक के पहले दृश्य में सचिवालय का माली देखता है कि जामुन का एक बड़ा पेड़ नीचे गिर पड़ा है और उसके नीचे एक व्यक्ति दबा पड़ा है जो जीवित है | उसे एहसास होता है कि भारी भरकम पेड़ को हटाना उसके बस की बात नहीं है और उस दबे हुए व्यक्ति को बचाया जाना चाहिए अतः वह इसकी जानकारी अपने उच्च अधिकारियों को देता है | अधिकारी मौके का निरीक्षण करते हैं और फिर पेड़ को हटाने की पत्रावली चल निकलती है जो कृषि विभाग से लेकर संस्कृति मंत्रालय जैसे अनेक महकमों तक घूमती है, कई पेचोखम आते हैं लेकिन जब तक पेड़ हटाने का निर्णय लिया जाता है तब तक उस दबे हुए व्यक्ति की मौत हो चुकी होती है | यह कहानी प्रशासन तंत्र के कामकाज के तरीके पर तो प्रहार करती ही है उसकी संवेदन शून्यता के प्रति भी दर्शकों का ध्यान आकर्षित करती है | माली के अतिरिक्त, व्यक्ति की जान की जगह पेड़ सभी अधिकारी कर्मचारियों की सोच का केंद्र बन पड़ता है | यह नाटक बरबस पंकज कपूर द्वारा अभिनीत ‘ऑफिस ऑफिस’ धारावाहिक की याद दिल देता है | बहुत बार समस्याओं के व्यावहारिक समाधान की बजाय नियमों और प्रक्रिया का हवाला देकर किस तरह समस्याओं को और जटिल बना दिया जाता है, उसका अनुपम उदाहरण कृष्ण चंदर की यह चर्चित कहानी है | कृष्ण चंदर की कई कहानियों और उपन्यासों का मुख्य स्वर व्यंग्य का रहा है और गधा उनका प्रिय पात्र रहा है | ’जामुन का पेड़ ‘ कहानी शासन तंत्र और राजनीति दोनों पर करारा प्रहार करती है |
नीरज गोस्वामी ने नाट्य रूपांतरण में कहानी में समसामयिक मुद्दों को जोड़ कर कथानक को विस्तार देने का प्रयास किया है | वे नाटक में वर्तमान शासन तंत्र की कार्यप्रणाली ,सामाजिक और आर्थिक विद्रूपताओं, राजनीति का चरित्र और मीडिया की भूमिका के प्रसंगों का समावेश कर अतीत से वर्तमान को समझने का प्रयास करते हैं | मौजूदा दौर के जीवन के यथार्थ को यह नाटक प्रस्तुत करता है | जहां एक ओर संवेदनशून्य तंत्र है तो दूसरी ओर संवेदनशील सामाजिक ईकाई के रूप में माली की उपस्थिति है | चाटुकारिता और व्यवस्था की खामियों पर चुटीले संवादों से व्यंग्य किया गया है | दबा हुआ व्यक्ति गरीब और शोषित वर्ग का प्रतीक बन कर उभरता है | लेकिन ज्यादा विषयों को समेटने की कवायद नाटक को कमजोर करती है | नाटक में ‘गूगल करके जानकारी हासिल करना, टी. वी. पत्रकार का नेताजी तड़ित सिंह से बात करना, भारत माता की जय बोलना आदि इम्प्रोवाइज किये गए दृश्य डाले गए हैं जो मौजूदा राजनीतिक एवं सामाजिक परिदृश्य को उद्घाटित करते हैं | मीडिया के रवैये और टी. आर. पी के लिए अपनाये जाने वाले हथकंडों पर भी व्यंग्य किया गया है |
नाटक में जब-जब व्यंजना का प्रयोग संवादों में किया गया है तब वे प्रभावी बन पड़े हैं | जैसे ‘हर सांस लेने वाला आदमी जिंदा नहीं होता’ या फिर ‘आजादी की बात सुन कर मुस्करा रहा है ‘,’सभी किसी न किसी बोझ तले दबे हैं’,साहित्य अकादमी का आदमी से कोई लेना देना नहीं है’ आदि संवाद बहुत मारक बन पड़े हैं | एक जगह नेताजी कहते हैं कि – “हमने तो आदमी द्वारा पेड़ दबाने की बात सुनी थी, कमाल है यहाँ पेड़ ने आदमी दबा रखा है |” आम आदमी को वोट में तब्दील होने को भी रेखांकित किया गया है | कई जगह अभिधा में व्यंग्य की कोशिश की गई वह सपाट बयानी सा लगता है | मूल कहानी में प्रशासन तंत्र की खामियों पर ज्यादा जोर है लेकिन यहाँ राजनीति के घटिया चरित्र को ज्यादा उभारा गया है |
उक्त प्रस्तुति का फोर्मेट ‘इंटिमेट थिएटर’ का है जो रंगमंच की चुनौतीपूर्ण विधा है | नाटक में गीत,संगीत और पार्श्व संगीत का अभाव अखरता है, अगर वह होता तो प्रस्तुति और सशक्त होती | नाट्य रूपांतरण में संवादों के आधिक्य की जगह अभिनय को और संकेतात्मक बनाते तो कलात्मक रूप से प्रस्तुति और बेहतर हो सकती थी | प्रस्तुति में न सेट का ज्यादा ताम झाम और न ही मेक-अप का शगल था | यह दोनों ही प्रयास प्रस्तुति को मंच की सीमाओं के अनुरूप ढालने में सहायक रहे | नाटक में जयपुर के नामचीन निर्देशकों ( राजेंद्र शर्मा राजू, ईश्वर दत्त माथुर और नीरज गोस्वामी ) के साथ लोकेश कुमार साहिल (शायर) और निर्देशक गुरमिंदर को अभिनय करते देखना सुखद अनुभूति थी | दीपक कथूरिया , मोईनुद्दीन खान और आर्यन कात्याल ने भी अपने अभिनय से दर्शकों को आकर्षित किया | भले ही यह सवाल उठे कि अमेच्यूर थिएटर से रंगमंच का कितना भला हो सकता है लेकिन कोरोना महामारी से मानसिक रूप से थके हुए दर्शकों को यह प्रस्तुति थोड़े राहत के पल अवश्य देती है |
mo : 9829809988

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