मुनेश त्यागी
प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना दिवस 1936 के अवसर पर बोलते हुए उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने कहा था कि “साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना या मनोरंजन के समान जुटाना नहीं है। उसका दर्जा इतना मत गिराइए। वह राजनीति और देशभक्ति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं है बल्कि सच्चाई को दिखाते हुए उनके आगे चलने वाली मशाल है।”
भारतवर्ष में बहुत सारे लेखक, साहित्यकार और कवि पैदा हुए हैं, मगर उनमें सबसे अग्रणी नाम उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद का है जिन्होंने अपने समय की सामाजिक समस्याओं को को और राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं को उठाया और लेखन के माध्यम से, साहित्य के माध्यम से, जनता के कल्याण की बात की और शोषण, जुल्म और अन्याय खत्म करके सामाजिक न्याय की बात की। आज( 31 जुलाई 1880) उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद का जन्म दिन है।
उन्होंने अपने जीवन में 300 से ज्यादा कहानियां और 15 से ज्यादा उपन्यास लिखे। उनका पहला उपन्यास “सोजे वतन” था जो अंग्रेजों ने जब्त कर लिया था। इसमें देशभक्ति की कहानियां थी। उर्दू, फारसी, अंग्रेजी और हिंदी पर उनका समान अधिकार था। बंगला साहित्यकार शरद चंद्रा ने मुंशी प्रेमचंद को “उपन्यास सम्राट” की उपाधि दी थी।
उन्होंने अनुवाद किये और नाटकों की भी पटकथाएं लिखीं। उनका आखिरी उपन्यास गोदान था। उन्होंने राजा महाराजाओं की जगह किसानों, मजदूरों और महिलाओं को वाणी दी, बोलना सिखाया और अपने कहानी और उपन्यासों में नायक नायिका बनाई। यही उनका सबसे बड़ा योगदान है। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की गई थी। प्रेमचंद इसके संस्थापक अध्यक्ष थे।
उन्होंने बेजबानों को जबान दी, उन्हें बोलना सिखाया, उन्हें अन्याय, शोषण, दमन, उत्पीड़न और अत्याचार का सामना करना सिखाया, उसके खिलाफ लड़ना सिखाया। उनकी रचनाएं ऐसी है जैसे कि वे आज ही लिखी गई हों, कल ही लिखी गई हों। प्रेमचंद द्वारा उठाए गए मुद्दे आज भी समाज के ज्वलंतशील मुद्दे बने हुए हैं, उनका निदान होना अभी तक भी बाकी है। जनता को न्याय, समानता, समता और आजादी मिलनी अभी बाकी है।
प्रेमचंद साहित्य के जरिए प्रचार करते थे। उनका कहना था कि सभी लेखक कोई ना कोई प्रॉपेगंडा करते हैं। क्या पूंजीवाद, सांप्रदायिकता, महाजनी सभ्यता की वकालत करते लोग, प्रोपेगंडा नहीं करते हैं? उन्होंने लिखा कि हम तो सांप्रदायिकता को समाज का कोढ समझते हैं। उनकी रचनाओं में हिंदू मुसलमान एकता की बात मिलती है। वे सामाजिक सौहार्द और भाईचारे को बढ़ाने वाले लेखक थे। वे हिंदू मुस्लिम एकता में विश्वास करते थे, यही कारण है कि उनकी अनेक रचनाओं में मुसलमान पात्रों को नायक के रूप में पेश किया है। आज के जमाने की यह भी एक बड़ी सच्चाई है कि आज की सांप्रदायिक ताकतें प्रेमचंद के साहित्य को नजर अंदाज करती हैं और उन्हें पाठ्य पुस्तकों से हटाने के अभियान में लगी हुई हैं।
प्रेमचंद की मशहूर कहानियों में,,, दो बैलों की कथा, पंच परमेश्वर, ठाकुर का कुआं, पूस की रात, कफन, ईदगाह, बड़े घर की बेटी और न जाने कितनी महान कहानियां उन्होंने लिखी हैं। उनके उपन्यासों में, सोजे वतन, कर्मभूमि, रंगभूमि, गोदान जैसे मशहूर उपन्यास शामिल हैं। प्रेमचंद ने सदियों के बहरों को सुनाया और सुनाने के लिए लिखा। उन्होंने गरीबों, वंचितों, शोषितों और अभावग्रस्तों को वाणी दी, बोलना और विरोध करना सिखाया और राजा रानी की जगह अपने उपन्यासों और कहानियों में, उन्हें नायक और नायिका बनाया और और समाज में सम्मान से जीने की वकालत की।
प्रेमचंद ने अपने लेखन में औरतों की समस्याओं को प्रमुखता से उठाया और सती प्रथा, बाल विवाह, दहेज प्रथा, बेमेल विवाह का विरोध किया और विधवा विवाह एवं योग्य वर वधु की वकालत की और सामंतवाद और पूंजीवाद का घोर विरोध किया। प्रेमचंद अपने को कलम का सिपाही और कलम का मजदूर कहा करते थे और वह कहते थे कि “जब तक मैं समाज हित में कुछ लिखना न लूं, तब तक मुझे खाने का अधिकार नहीं है।”
उन्होंने समाजवाद और साम्यवाद को सब सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक रोगों और अवरोधों की रामबाण दवा बताया। उन्होंने जलसे, जलूस, प्रदर्शन और प्रतिरोध का समर्थन करने को, जनता के अति आवश्यक हथियार बताया और कहा कि यह सब जिंदा होने की निशानियां हैं और ये बताते हैं कि अभी हम मरे नहीं हैं, जिंदा हैं।
उन्होंने कहा कि “साम्यवाद का विरोध कोई क्यों करेगा? जो विचार समता, समानता, आजादी, बराबरी और सबके साम्य और बराबरी की बात करता हो, उससे उच्च विचार कोई नहीं हो सकता” और यह कह कर साम्यवाद का पक्ष लिया और इसकी स्थापना की वकालत की और अपने मशहूर उपन्यास कर्मभूमि में “इंकलाब ही नहीं, पूरे इंकलाब की बात करो” की बात कही।
प्रेमचंद आधे अधूरे नहीं पूरे इंकलाब की बात करते हैं। अपने मशहूर उपन्यास “कर्म भूमि”
में प्रेमचंद कहते हैं कि “अब क्रांति से ही देश का उद्धार हो सकता है, ऐसी क्रांति जो सर्व व्यापक हो, जो जीवन के मिथ्या आदर्शों का, झूठ सिद्धांतों और परिपाठियों का अंत कर दे, जो एक नए युग की प्रवर्तक हो, जो एक नई सृष्टि खड़ी कर दे, जो मनुष्य को धन और धर्म के आधार पर टिकने वाले राज्य के पंजे से मुक्त कर दें।”
महान साहित्यकार प्रेमचंद ने साहित्य को मशाल बताया और कहा कि साहित्य राजनीति के आगे आगे चलने वाली मशाल है। यह दुनिया को रोशन करता है और उन्होंने जनता के साहित्य को आगे बढ़ाने की बात की। उन्होंने अपने तमाम लेखन में सबको शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, और कानूनी हक देने की मांग की। प्रेमचंद ने समस्त लेखन में अन्याय, शोषण, गैर बराबरी, भेदभाव ,छोटा बड़ा, ऊंच-नीच की मानसिकता का विरोध किया और विरोध करना सिखाया।
उन्होंने कहा था कि “साहित्य मनोरंजन की वस्तु या समान नही है, लेखक का काम महफिले सजाना नहीं है।” उन्होंने आह्वान किया कि लेखकों को ऐसा साहित्य रचना चाहिए जो समता, समानता, आजादी, जनतंत्र, सांप्रदायिक सौहार्द, आपसी मेल मिलाप, भाईचारे, इंकलाब और समाजवादी समाज की स्थापना की बात करता हो।
प्रेमचंद कहा करते थे की एक पूंजीपति और जमीदार और सामंत को हटाकर उसकी जगह दूसरा पूंजीपति और जमींदार बिठाने से, देश की समस्याओं का हल नहीं हो सकता। देश के करोड़ों किसानों और मजदूरों की समस्याओं का हल करने के लिए किसानों मजदूरों की सरकार जरूरी है, समाज में समाजवाद की स्थापना करना जरूरी है, इसके बिना जनता की समस्याओं का हल नहीं हो सकता और हजारों साल की समस्याओं से निजात नहीं मिल सकती।
उपन्यास सम्राट प्रेमचंद का भारतीय साहित्य में वह स्थान है जो गोर्की का सोवियत यूनियन में और लूसुन का चीन में था। उन्हें हम भारत का गोर्की और लूसुन भी कह सकते हैं। प्रेमचंद ने अपने समय की जिन समस्याओं पर अपनी लेखनी चलाई थी, वे सारी की सारी समस्याएं आज मौजूद हैं, अभी भी बनी हुई है। आज के साहित्यकारों का यह सबसे जरूरी काम है कि किसानों मजदूरों और आम जनता द्वारा सामना की जा रही समस्त समस्याओं पर प्रमुखता के साथ लिखें।
आज के साहित्यकारों का यह सबसे बड़ा काम है कि वे जनविरोधी पूंजीपतियों, सामंतों और सांप्रदायिक ताकतों द्वारा साहित्यकारों को अपना एजेंट बनाने के अभियान से बाहर निकलें और वे सेठाश्रयी साहित्यकार न बनें, वे सिर्फ महफिलें सजाने वाले और मनोरंजन के साधन मात्र बनकर न रह जाएं, बल्कि वे किसानों, मजदूरों, बेरोजगारों और तमाम गरीबों और परेशान स्त्रियों, पुरुषों और पीड़ित जनता की समस्याओं को उठाने वाले और उनका सटीक हल पेश करने वाले साहित्यकार बनें।
मुंशी प्रेमचंद के कुछ महत्वपूर्ण विचार इस प्रकार हैं,,,,
,,हिंदू मुस्लिम एकता ही असली स्वराज है।
,,,कौमी मेल जोल ही देश की नैय्या पार लगा सकती है।
,,, हिंदू मुस्लिम एकता हुक्काम की नजरों में कांटे की तरह खटकती है।
,,, हिंदू मुस्लिम एकता के बिना स्वराज नहीं मिल सकता।
,,, उर्दू न मुसलमान की बपौती है ना हिंदू की, वह हिंदी की शाखा है, हिंदी पानी और मिट्टी से उसकी रचना हुई है।
,,, हिंदू मुस्लिम मैत्री को अपना कर्म बना लेने की जरूरत है।
,,, हमारा प्रमुख कार्य है किसी सांप्रदायिक कार्य में प्रमुख भाग नहीं लेना चाहिए।
,,, नम्रता योद्धाओं का श्रृंगार है, डींगें मारना और दूसरों पर फिक्रे कसना, उनकी शान के खिलाफ है।
,,, सांप्रदायिक लोग हद दर्जे के स्वार्थांध होते हैं।
,,, भारत का जातिगत द्वेष हमारी राजनीतिक पराधीनता का कारण है, स्वराज ही इसका खात्मा कर सकता है।
,,, भारत में हिंदू और मुसलमान दोनों ही एक नाव पर सवार हैं, डूबेंगे तो दोनों से साथ डूबेंगे, पार लगेंगे तो दोनों साथ पार लगेंगे।
,,, पक्षपाती लोग स्वराज नहीं ला सकते।
,,,भारतवासी भारतीय बनाकर संयुक्त उन्नति की ओर अग्रसर हों,
,,, खटमली जीवन से लड़ो।
,,, कुछ का भला नहीं, सबका भला करने वाला राष्ट्र चाहिए।
,,, सांप्रदायिक संघर्ष का फल, तबाही के अलावा और कुछ नहीं होता।
,,, हमारी जीत इसी में है कि हम “बांटो और राज करो” की नीति को सफल न होने दें।
,,,सांप्रदायिक मनोवृति राष्ट्रीयता का गला घोटती है।
,,,हमें सांप्रदायिकता से संग्राम करना है और हमारे शस्त्र होंगे,,, सहिष्णुता,विश्वास और धैर्य।
,,, इंकलाब की जरूरत है पूरे इंकलाब की।