सिद्धार्थ
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रचारक राम माधव का एक आलेख अंग्रेजी दैनिक ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में ‘अ लिविंग डाक्युमेंट’ शीर्षक से गत 9 सितंबर, 2023 को प्रकाशित हुआ। आलेख के दूसरे पैराग्राफ की शुरुआत में ही राम माधव ने यह कह कर कि “यह एक विडंबनापूर्ण संयोग हो सकता है कि जिस इमारत ने हमें संविधान दिया, उसे खाली करने के साथ ही संविधान के भविष्य पर भी बहस छिड़ गई है।” यह कहकर राम माधव ने इशारों-इशारों में ही सही, यह कह दिया है कि जिस इमारत में संविधान बना था, अब उस भवन का परित्याग कर दिया गया है और अब हमें वर्तमान संविधान का परित्याग करके नया संविधान अपनाने पर विचार करना चाहिए।
संविधान के संदर्भ में उन्होंने पहला सवाल यह उठाया है कि क्या हमें देश को ‘इंडिया’ कहना जारी रखना चाहिए? या इसका नाम बदल कर ‘भारत’ कर देना चाहिए? दूसरा सवाल उन्होंने यह पूछा है कि क्या संविधान की प्रस्तावना में लिखे गए ‘समाजवादी’ शब्द का कोई अर्थ रह गया है? तीसरा सवाल उन्होंने यह उठाया है कि क्या भारत एक राष्ट्र है या सिर्फ राज्यों का संघ है? चौथी बात उन्होंने यह कही है कि संविधान के संबंध में तथाकथित बुनियादी ढांचे की बात का क्या अब भी कोई मतलब रह गया है, जिसके बारे में समाज के महत्वपूर्ण हिस्से द्वारा सवाल उठाया जा रहा है?
यह महज संयोग नहीं है कि एक महीने के अंदर ही सांसद सह सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने राज्यसभा में संविधान की मूल संरचना पर सवाल खड़ा किया और उनके बाद प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ने नए संविधान की वकालत की; और अब आरएसएस के थिंक टैंक ‘इंडिया फाउंडेशन’ के अध्यक्ष राम माधव ने इन सवालों को हवा दी है।
अपने आलेख में राम माधव नया संविधान बनाने या वर्तमान संविधान में बुनियादी परिवर्तन करने के लिए डॉ. आंबेडकर की धूर्तता भरी आड़ लेते हैं। इस संबंध में वे कहते हैं कि स्वयं आंबेडकर ने कहा था कि इस संविधान को ‘जलाने’ वाले वे पहले व्यक्ति होंगे। राम माधव सन् 1953 में संविधान संशोधन पर राज्यसभा में हुई उस बहस का हवाला देते हैं, जिस बहस में आंबेडकर ने हिस्सेदारी की थी। अगली ही पक्ति में राम माधव बहुत चालाकी से आंबेडकर को संविधान निर्माता या संविधान बनाने वाले एक महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में खारिज कर देते हैं। यह काम भी आंबेडकर को उद्धृत करके करते हैं। इस बारे में राम माधव कहते हैं कि आंबेडकर ने स्वयं कहा था कि “मैं एक उपकरण था। मुझसे जो करने के लिए कहा गया था, मैंने वही किया। मैंने अपनी इच्छा के विरुद्ध बहुत कुछ किया।” यहां राम माधव संदर्भों से काटकर डॉ. आंबेडकर को उद्धृत करते हैं, उनके ही कथन के हवाले से संविधान निर्माण में उनकी भूमिका को पूरी तरह खारिज कर देते हैं और उन्हें एक व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करते हैं कि जिसका जो चाहे और जिस तरह चाहे इस्तेमाल कर सकता है। वे आंबेडकर का उद्धरण देकर यह भी साबित करने का प्रयास करते हैं कि इस संविधान के निर्माण में आंबेडकर की कोई निर्णायक भूमिका नहीं थी। वे तो सिर्फ उपकरण थे। इस तरह राम माधव संविधान निर्माण में आंबेडकर की भूमिका को न केवल तुच्छ साबित कर देते हैं, बल्कि इसके साथ ही वे यह भी कह देते हैं कि यह सविधान आंबेडकर के सपनों और इच्छाओं का संविधान नहीं है।
यहां तक कि वे यह भी कहने से नहीं चूकते कि इस संविधान में बहुत कुछ ऐसा है, आंबेडकर जिसके विरूद्ध थे। जबकि इसके पहले वे अपने इसी आलेख में आंबेडकर को प्रमुख संविधान निर्माताओं में शामिल करते हैं।
राम माधव की बातों से ऐसा लगता है कि वे वर्तमान संविधान की जगह नया सविधान बनाने की वकालत कर या वर्तमान संविधान की बुनियादी बातों में संशोधन कर ऐसा संविधान बनाना चाहते हैं, जो पूरी तरह आंबेडकर के सपनों का संविधान हो या पूरी तरह उनकी इच्छा के अनुकूल संविधान हो। यह जगजाहिर है कि राम माधव ऐसा कुछ नहीं चाहते हैं, बल्कि वे आंबेडकर को संदर्भहीन तरीके से उद्धृत कर संविधान को बदलने या बुनियादी बातों में संशोधन करने की आएसएस की योजना को मूर्त रूप देने के लिए आंबेडकर का धूर्ततापूर्ण तरीके से इस्तेमाल करने की जमीन तैयार कर रहे हैं।
संविधान के बुनियादी ढांचे में संशोधन की आरएसएस-भाजपा की योजना को वैचारिक-तार्किक आधार देने के लिए राम माधव बार-बार इस लेख में डॉ. आंबेडकर को उद्धृत करते हैं। वे वर्तमान संविधान को संशोधित करने के लिए और उसके बुनियादी ढांचे में बदलाव करने के लिए डॉ. आंबेडकर की संविधान सभा में संविधान संशोधन के संदर्भ में कही गई उस बात को उद्धृत करते हैं, जिसमें उन्होंने भविष्य की पीढ़ियों के लिए संविधान में संशोधन करने के लिए रास्ता खुले रखने की बात कही थी।
राम माधव एक ओर वर्तमान संविधान को निशाना बनाने के लिए आंबेडकर का सहारा लेते हैं, वहीं दूसरी ओर राष्ट्र संबंधी उनकी अवधारणा पर सीधा हमला बोलते हैं। राम माधव कहते हैं कि आंबेडकर ने भारत के एक राष्ट्र होने की अवधारणा पर सवाल उठाया था, क्योंकि भारत में लोग राष्ट्र से अधिक अपनी-अपनी जाति के प्रति प्रतिद्धता रखते हैं। साथ ही, वे कहते हैं कि आंबेडकर की यह बात पिछले 70 सालों में गलत साबित हुई है। हां, यह सच है कि डॉ. आंबेडकर ने यह कहा था कि भारतीयों की जातिवादी भावना राष्ट्र की भावना से ऊपर है, यह तथ्य भारत को भीतर से कमजोर बना देता है। जाति तोड़े बिना भारतीयों की बीच सामूहिकता की मजबूत भावना विकसित नहीं होगी। उन्होंने यह भी कहा था कि भारत एक देश के तौर समय-समय पराजित और कमजोर जाति-व्यवस्था के चलते हुआ। आंबेडकर की इस बात को राम माधव खारिज करते हैं और यह घोषित करते हैं कि जाति के रहते भी भारत एक मजबूत राष्ट्र बन गया है। यह आरएसएस-भाजपा के बड़बोलेपन और स्वयं को विश्व गुरु मान लेने की आत्ममुग्धता के अलावा कुछ नहीं है। जाति के चलते आज भी भारतीय राष्ट्र बंटा हुआ है और भीतर से कमजोर है। आज भी आंबेडकर यह बात पूरी तरह सही है कि भारतीयों की पहली प्रतिबद्धता अपनी-अपनी जातियों के प्रति है, देश के प्रति नहीं। हां, आंबेडकर यह जरूर चाहते थे कि भारत एक मजबूत राष्ट्र बने। उनका कहना था कि यह तभी संभव है, जब भारतीय जाति की भावना से मुक्त हों। राम माधव कह रहे हैं कि जाति तोड़े बिना ही भारत मजबूत राष्ट्र बन सकता है, और यह बन चुका है। यहां राम माधव आंबेडकर के राष्ट्र की अवधारणा को समझने में पूरी तरह नाकाम रहे हैं। आंबेडकर का मानना था कि समता, स्वतंत्रता और बंधुता पर आधारित भारत ही मजबूत राष्ट्र में तब्दील हो सकता है। उनकी नजर में इसके लिए जाति का विनाश जरूरी है। जबकि राम माधव इस बात को सीधे तौर पर खारिज करते हैं।
राम माधव अपने आलेख में संविधान के बुनियादी ढांचे के सिद्धांत पर हमला बोल रहे हैं। यह सिद्धांत भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 1973 में प्रस्तुत किया था। केशवानंद भारती मामले में अपने न्यायादेश में न्यायालय ने कहा था कि भारतीय संविधान के कुछ ऐसी बुनियादी तत्व हैं, जिन्हें संसद के द्वारा भी संशोधित नहीं किया जा सकता है।
दरअसल, राम माधव को इस बात का मलाल है कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने संविधान में बुनियादी परिवर्तन करने की एक कोशिश सन् 2000 में की थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के बुनियादी ढांचे के सिद्धांत के चलते यह कोशिश सफल नहीं हो पाई। इस कोशिश के तहत अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने संसद और विधानसभाओं का कार्यकाल तय करने की कोशिश की थी, जिसमें कहा गया था कि निश्चित समय से पहले किसी हालात में संसद और विधानसभा भंग नहीं किए जा सकेंगे। इसके तहत अविश्वास प्रस्ताव पर भी रोक लगाने का प्रावधान किया गया था। अटल बिहारी सरकार के संविधान में बदलाव के ये प्रस्ताव राजनीतिक लोकतंत्र का गला घोंटने वाले और जनसंप्रभुता को कमजोर करने वाले और सरकारों के स्थायित्व के नाम पर तानाशाही को बढ़ावा देने वाले थे। राम माधव अटल विहारी वाजपेयी सरकार के संविधान में बदलाव के इन प्रस्तावों के लागू न होने का दोष संविधान के बुनियादी ढांचे की अवधारणा पर मढ़ते हैं।
अपने आलेख में राम माधव दुनिया-भर के संविधानों की चर्चा करते हैं। वे सबसे अधिक अमेरिका के संविधान की आलोचना करते हैं, क्योंकि उसमें सीनेट में प्रतिनिधित्व और राष्ट्रपति चुनाव में राज्यों को विशेष अधिकार प्रदान किए गए हैं। राम माधव पूरे लेख में संघीय ढांचे से नफरत करते हुए दिखते हैं। उन्हें भारत के सीमित दायरे के संघीय ढांचे को भी नापसंद करते हैं, वे संविधान में स्थापित भारत को ‘राज्यों का संघ’ के रूप में भी नहीं देखना चाहते हैं।
राम माधव अपने आलेख में भारतीय संविधान के बुनियादी ढांचे और डॉ. आंबेडकर पर एक साथ हमला बोलते हैं। वे धूर्ततापूर्ण तरीके से आंबेडकर को अपने विचारों की पुष्टि के लिए उद्धृत करते हैं, और जरूरत के अनुसार उनके ऊपर हमला भी बोलते हैं।
राम माधव आरएसएस के थिंक टैंक के प्रमुख विचारक हैं। उनका यह आलेख यह बताता है कि आरएसएस संविधान के प्रति कैसी विनाशक मंशा रखता है और संविधान में क्या-क्या बदलाव करना चाहता है तथा संविधान को पूरी तरह से बदलने व नया संविधान बनाने का अधिकार भी हासिल करना चाहता है।