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अब सरकारी कर्मचारी आरएसएस के सदस्य बनने प्रतिबंध का हटा

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खबर देर से आई है, लेकिन पुख्ता है। भारत सरकार के एक हालिया आदेश के बाद अब सरकारी कर्मचारियों पर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) की सदस्यता लेने पर लगी पाबंदी हटा ली गई है। यह सरकारी आदेश 9 जुलाई 2024 को अमल में आ गया था, लेकिन इसकी खबर 21 जुलाई 2024 अर्थात कल तक ही सार्वजनिक हो सकी थी। इसके साथ ही 58 वर्षों से सरकारी कर्मचारियों पर आरएसएस की सदस्यता लेने पर लगा प्रतिबंध समाप्त हो गया है। यह प्रतिबंध 30 नवंबर 1966 से लागू किया गया था, जिसमें दो संगठनों आरएसएस और जमात-ए-इस्लामी को सरकारी प्रतिष्ठानों से प्रतिबंधित किया गया था। 

1966 के आदेश में सरकारी अधिकारियों को इन दोनों संगठनों की गतिविधियों में भाग लेने से प्रतिबंधित किये जाने के बारे में यह कहा गया था, “चूंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जमात-ए-इस्लामी की सदस्यता और सरकारी कर्मचारियों द्वारा इनकी गतिविधियों में भागीदारी के संबंध में सरकार की नीति के बारे में कुछ संदेह उठाए गए हैं, इसलिए यह स्पष्ट किया जाता है कि सरकार ने हमेशा इन दोनों संगठनों की गतिविधियों को इस तरह की प्रकृति का माना है जिसमें सरकारी कर्मचारियों द्वारा इनमें भाग लेना केंद्रीय सिविल सेवा आचरण नियमों के तहत आएगा। कोई भी सरकारी कर्मचारी, जो उपर्युक्त संगठनों या उनकी गतिविधियों का सदस्य पाया जाता है या अन्यथा उनसे सम्बद्ध है, तो वह अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए उत्तरदायी होगा।”

लेकिन अब आरएसएस और जमात-ए-इस्लामी में से एक संगठन से यह प्रतिबंध हटा लिया गया है, क्योंकि एक संगठन विशेष से जुड़े राजनीतिक दल को लगातार तीसरी बार केंद्र की सत्ता को संभालने का अवसर प्राप्त हुआ है। बता दें कि 1966 में यह प्रतिबंध कांग्रेस शासन में इंदिरा गांधी सरकार के समय लगाया गया था। हिंदुत्ववादी शक्तियां इस प्रतिबंध को हटाए जाने से खुश हैं, उनका तो यहां तक कहना है कि नरेंद्र मोदी सरकार को तो इसे हटाने में 10 वर्ष लगे, यही अचंभे की बात है। इससे पहले भी वाजपेई सरकार रही, उस दौरान भी इस प्रतिबंध को हटाने की कोशिश नहीं की गई। 

इस मुद्दे पर, एआईएमआईएम के नेता और लोकसभा सांसद असदुद्दीन ओवैसी की टिप्पणी बेहद तीखी और धारदार है। उनका कहना है, “इस कार्यालय ज्ञापन में कथित तौर पर दिखाया गया है कि सरकार ने सरकारी कर्मचारियों के आरएसएस गतिविधियों में भाग लेने पर प्रतिबंध हटा दिया है। अगर यह सच है, तो यह भारत की अखंडता और एकता के खिलाफ है। आरएसएस पर प्रतिबंध इसलिए है क्योंकि इसने मूल रूप से संविधान, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। प्रत्येक आरएसएस सदस्य हिंदुत्व को राष्ट्र से ऊपर रखने की शपथ लेता है। कोई भी सरकारी कर्मचारी (सिविल सर्वेंट) राष्ट्र के प्रति वफादार नहीं हो सकता यदि वह आरएसएस का सदस्य है।”

महाराष्ट्र से पत्रकार राजू पारुलेकर की टिप्पणी इससे भी एक कदम आगे जाती है। पारुलेकर अपने सोशल मीडिया हैंडल पर लिखते हैं, “मोदी सरकार ने 2025 में आरएसएस के शताब्दी समारोह की तैयारियां शुरू कर दी हैं। मोदी सरकार ने सरकारी कर्मचारियों पर आरएसएस का सदस्य होने और/या किसी भी तरह से इससे जुड़े होने पर लगे प्रतिबंध को हटा दिया है। अब उनमें से कई लोग आरएसएस के आदर्शों को पूरा करने के लिए खुलेआम चौबीसों घंटे काम कर सकते हैं। ध्यान रहे, ‘सरकारी कर्मचारी’ की परिभाषा में मंत्री भी शामिल हैं! तो अब, सरकारी कार्यालयों में आरएसएस के बैनर, पोस्टर, प्रतीक, साहित्य आदि के साथ-साथ सरकारी कर्मचारियों के सोशल मीडिया अकाउंट पर आरएसएस के प्रति अपनी निष्ठा की शपथ लेते हुए; सरकारी कर्मचारियों को आरएसएस के कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए रियायतों का प्रावधान, इत्यादि चीजें देखने के लिए तैयार रहें।यद्यपि यहां विरोधाभास को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। सरकारी कर्मचारी भारत के संविधान को बनाए रखने की शपथ कैसे ले सकते हैं और साथ ही आरएसएस के सदस्य भी बने रह सकते हैं, जिसके आदर्श और आकांक्षाएं भारत के संविधान के विपरीत हैं। —–जयहिंद राजू पारुलेकर”

बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष, मायावती ने भी इस पर सवाल करते हुए कहा है, “सरकारी कर्मचारियों को आरएसएस की शाखाओं में जाने पर 58 वर्ष से जारी प्रतिबंध को हटाने का केन्द्र का निर्णय देशहित से परे, राजनीति से प्रेरित संघ तुष्टीकरण का निर्णय, ताकि सरकारी नीतियों व इनके अहंकारी रवैयों आदि को लेकर लोकसभा चुनाव के बाद दोनों के बीच तीव्र हुई तल्खी दूर हो। सरकारी कर्मचारियों को संविधान व कानून के दायरे में रहकर निष्पक्षता के साथ जनहित व जनकल्याण में कार्य करना जरूरी होता है जबकि कई बार प्रतिबन्धित रहे आरएसएस की गतिविधियां काफी राजनीतिक ही नहीं बल्कि पार्टी विशेष के लिए चुनावी भी रही हैं। ऐसे में यह निर्णय अनुचित, तुरन्त वापस हो।”

इस मुद्दे पर पीटीआई के साथ अपनी बातचीत में लोकसभा में प्रतिपक्ष के उप-नेता गौरव गोगोई ने स्पष्ट शब्दों में सारी कहानी बयां कर दी है। गौरव गोगोई के अनुसार, “ये तो आरएसएस चीफ मोहन भागवत और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी की जुगलबंदी है। कुछ दिनों पहले मोहन भागवत जी ने मणिपुर को लेकर सवाल खड़े किये थे। उसके बाद सुपर ह्यूमन भगवान को लेकर बात उठाई, किसकी तरफ उनका इशारा था सबको पता है। और अब उनके गुस्से को ठंडा करने किए लिए पीएम मोदी जी ये निर्देश निकाला है। 

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर एनटीए और नीट को लेकर आज सवाल उठ रहा है,  स्कूल में जिस प्रकार से पाठ्यक्रम और पुस्तकों में विषयों में जिस प्रकार से परिवर्तन आया है।

यूपीएससी में जिस प्रकार से फर्जी दस्तावेजों का इस्तेमाल किया जा रहा है, इन सभी के पीछे एक ही कारण है कि आरएसएस और संघ से चुने हुए लोग इन संगठनों में घुस  चुके हैं, और यदि ऐसा ही चलता रहा तो ठीक प्रकार से नहीं चलेगा।”

बता दें कि दिल्ली विश्वविद्यालय सहित देश के कई केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में पहले से ही आरएसएस की शाखाएं और प्रशासन के बीच संघ के कार्यक्रम आधिकारिक तौर पर चलने शुरू हो चुके हैं। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) परिसर के भीतर “आरएसएस जिंदाबाद, ब्राह्मण बनिया जिंदाबाद, दलित-चमार भारत छोड़ो” जैसे नारे यूं ही नहीं लिखे जा रहे हैं। जेएनयू में आइसा नेता और विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष, धनंजय के अनुसार, “जेएनयू में दीवारों पर कायरों की तरह दलित विरोधी नारे लिखने वालो , ब्राह्मणवाद की मानसिकता से भरे जातिवादी आरएसएस के माफीवीर के सुपुत्रों , जेएनयू में हमारे हक़ की लड़ाई तुम्हें कुचल कर होगी !” परिसर में ये नारे चस्पा हैं, जिसके चलते छात्रों में भारी रोष की स्थिति बनी हुई है।

उधर दूसरी तरफ कर्नाटक के एक केंद्रीय विश्वविद्यालय से खबर आ रही है कि विश्वविद्यालय परिसर के भीतर बाकायदा आरएसएस की शाखा लग रही है। कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार है, लेकिन केन्द्रीय विश्वविद्यालय की कमान केंद्र सरकार के हाथ में होती है। मिसाल के तौर पर कर्नाटक में कांग्रेस के मंत्री प्रियांक खड़गे के इस बयान पर गौर करें जिसे उन्होंने 20 जुलाई को जारी किया था। वे कहते हैं, “कर्नाटक केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना श्री @खड़गे ने कल्याण कर्नाटक क्षेत्र के छात्रों की शैक्षिक आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए की थी। हालांकि, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के बजाय, सीयूके आरएसएस शाखा में तब्दील हो चुकी है। इसे रोकने की सख्त जरूरत है। पिछले एक दशक में सरकारी संस्थानों में प्रचारकों की घुसपैठ व्यापक स्तर पर रही है, जिससे व्यवस्था पूरी तरह से खराब और सड़ चुकी है। बताया जा रहा है कि यह घटना 18 जुलाई की है, जिसमें साफ़ देखा जा सकता है कि शिक्षक समुदाय आरएसएस की प्रार्थना सभा में एक खास अनुशासन में गीत को दोहरा रहे हैं। 

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