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राष्ट्रीय संकट से कम नहीं समझना चाहिए पेपरलीक को

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प्रफुल्ल कोलख्यान

क्या हम अपने युवाओं के भविष्य को संवारने लिए कायदे से एक विश्वसनीय परीक्षा का इंतजाम तक नहीं करवा सकते हैं? इस से अधिक दुख की बात क्या हो सकती है! पेपरलीक से उत्पन्न इस भयावह स्थिति को राष्ट्रीय संकट से कम नहीं समझना चाहिए। मामला पेपरलीक की घटना का नहीं है, बल्कि भारत की, अपने देश की सरकारी व्यवस्था पर आम लोगों और युवाओं के मन में विश्वसनीयता के घातक क्षरण का है। सिर्फ भारत में रहकर अपने भविष्य को संवारने में लगे युवाओं पर ही नहीं दुनिया के विभिन्न देशों में जाकर पढ़ाई कर रहे भारतीय युवाओं के मन और प्रतिष्ठा पर पड़ रहे बुरे प्रभाव को भी समझने की कोशिश करनी चाहिए।

विभिन्न देशों के युवाओं के बीच भारतीय छात्रों को मुंह चुराना पड़ रहा होगा। विदेश की बात छोड़ भी दिया जाये तो क्या किसी को अंदाजा भी है कि किसी शहर में जहां विभिन्न राज्यों के छात्र एक साथ विभिन्न प्रतियोगिताओं की तैयारी में जुटते हैं। अपने गृह-राज्य में कुछ नकारात्मक घटने पर वे भारत के ही विभिन्न राज्यों के छात्रों के बीच कितनी शर्मिंदगी होती है समझना बहुत मुश्किल नहीं है।

कैसी विडंबना है कि अपने ‘विश्व-गुरु’ होने के भ्रम और दंभ में जीने में जीनेवाले लोग कोई भरोसेमंद व्यवस्था नहीं कर सकते हैं, न अपने युवाओं के मन में विश्वसनीयता से उत्पन्न हुलास और हौसला ही बुलंद कर सकते हैं। पेपरलीक की टूट श्रृंखला को रोकने के लिए सरकार को जो भी करना पड़े, अविलंब करना चाहिए। इस समय तो युवाओं के मन में विश्वसनीयता के घातक क्षरण को निर्णायक बनने से रोकना और व्यवस्था में विश्वास बहाल करना जरूरी है।

क्या सरकार आम लोगों के मन में विश्वास को बहाल करने की कोई प्रभावी प्रक्रिया शुरू करने में कोई दिलचस्पी लेती है या नहीं यह तो अभी देखने की बात है। सरकार के दिलचस्पी लेने में संशय का कारण है। पिछले दिनों नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी जिस तरह की ‘लोक-लुभावन’ राजनीति करती रही है वह ज्ञान के विभिन्न निकायों और तर्क-वितर्क की प्रक्रियाओं पर हमला करने के लिए ही कुख्यात रही है। हालांकि, 2024 के आम चुनाव के नतीजों से बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति के चलते नरेंद्र मोदी अपनी नीतियों में बदलाव ला सकते हैं। राजनीतिक क्षितिज पर उम्मीद और संशय के भ्रम-जाल के कुहरा के कारण आम लोगों के जीवन की जमीन पर निराशा गहराया हुआ है।

समकालीन गहरी निराशा को समझने में शांत मन से विचार करना चाहिए। यह बहुत आसान काम नहीं हो सकता है। लेकिन खुले मन से कोशिश तो की ही जा सकती है। असल में जिस तरह ज्ञान की परंपरा है, उसी तरह से बकवास की भी एक समृद्ध और समानांतर परंपरा है। बकवास क्या है! एक मात्र अपने ज्ञान को निर्णायक रूप से सही और दूसरों के ज्ञान को अंतिम रूप से गलत मनवाने की वितंडी कोशिश बकवास है। मुश्किल यह है कि अधिकतर लोग अपने भोलेपन या किसी पूर्वाग्रह के कारण बकवास तक ही रुक जाते हैं।

ज्ञान प्रक्रिया की जटिलताओं के कारण आगे बढ़ना मुश्किल और अ-साध्य होता है। दिक्कत तब होती है जब लोग अपने पड़ाव को ही मंजिल साबित करने की किसी ‎‘सांस्कृतिक जिद’ के शिकार होकर बकवास-परंपरा में शामिल हो जाते हैं। यह दिक्कत तब महामारी बन जाती है जब इस बकवास-परंपरा के लोगों का जत्था अपनी परंपरा की समृद्धि के लिए जुट जाते हैं। इस जुटाव में अंधत्व सबसे बड़ा दृष्टि सहायक होता है।

उदाहरण के लिए दूर नहीं जाना होगा, पास-पास नजर खिलाने से ढेरों मिल जायेंगे। बकवास-परंपरा की समृद्धि में लगे लोग, जिन्हें डिजिटल प्रसंग में ट्रोल कहा जाता है, समय मिलते ही परिशोधित एवं अद्यतन लेकिन ‘अ-पूर्ण ज्ञान’ की परंपरा से उलझ जाते हैं। शरारती लोग इस तरह के उलझाव को उत्तेजना और उन्माद से भर देते हैं। इस तरह से उत्तेजना और उन्माद से भरे हुए लोग ज्ञान परंपरा में सेंध लगाने के लिए हमेशा आमादा रहते हैं। उत्तेजना और उन्माद से भरे लोग संस्कृति के समग्र इतिहास और अपनी या अपने जैसे लोगों की जल्पना के मिश्रण से बनी कथाओं का विवरण ‘आंखों देखी’ कथाओं की तरह आस्था और विश्वास के साथ बांचने लग जाते हैं। इतिहास का विवरण ‘आंखों देखी’ शैली में करनेवालों की पहचान करने में समझदार लोगों को कोई भूल नहीं करनी चाहिए।

हालांकि जितनी पुरानी ज्ञान-परंपरा है उतनी ही पुरानी बकवास-परंपरा भी है। दोनों ही परंपराएं एक-दूसरे के समानांतर प्रवाहमान रहती हैं। इनकी समानांतरता में एक खासियत यह होती है कि वैज्ञानिक मान्यताओं में समानांतरता कभी मिलती नहीं है। लेकिन ज्ञान और बकवास की समानांतरता न सिर्फ मिलती रहती है, बल्कि एक दूसरे की जमीन पर अपना नाच भी दिखाती रहती है।

असल में ज्ञान प्रक्रिया का उत्पाद ‘विज्ञान’ होता है और दुर्निवार तलछट (Slag) बकवास होता है। साफ-साफ कहें तो जब तक किसी भी रूप में ज्ञान प्रक्रिया जारी रहती है तब तक बकवास की प्रक्रिया भी जारी रहती है, रहेगी। ज्ञान और बकवास में गजब का ताल-मेल भी बना रहता है। मजेदार यह कि अपना बकवास भी ज्ञान लग रहा होता है जबकि दूसरे का ज्ञान भी बकवास लगता है। तर्क की अपनी शक्ति होती है। शक्ति का अपना तर्क होता है। शक्ति के तर्क के सामने तर्क की शक्ति की एक नहीं चलती है। ज्ञान में अपनी शक्ति होती है। शक्ति का अपना ज्ञान। ज्ञान की शक्ति ज्ञान को विज्ञान की ओर ले जाती है। शक्ति का ज्ञान बकवास बनने की तरफ बढ़ता रहता है।

कुल मिलाकर यह कि शक्ति के तर्क के सामने तर्क की शक्ति की एक नहीं चलती है; शक्ति के बकवास के सामने ज्ञान की शक्ति की कुछ नहीं चलती है। बड़ा संत और छोटा सिपाही अपने-अपने तरीके से इस रहस्य को जानता है। बड़ा संत और छोटा सिपाही दोनों अपने-अपने तरीके और रास्ते से निष्क्रिय निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं। होगा वही जो ‘राम’ ने रच रखा है, तर्क-वितर्क से दूर रहो सखा! ‘राम’ यानी सर्व-शक्तिमान। संत और सिपाही आंखों ही आंखों में एक-दूजे को संबोधित कर लेते हैं कि आस-पास विचरण और चैनहरण करते लघु-शक्तिमानों को ‘सिया-राममय’ जान दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम कीजिये और तर्क-वितर्क को तिरस्कारी नमस्कार कहिये! संत और सिपाही का लोकतंत्र इत्यादि से क्या लेना-देना! लोकतंत्र की बारहखड़ी बांचना है तो घर-परिवारवाले बांचें।

दो सार्थक शब्द मिलकर एक निरर्थक शब्द-युग्म या निरर्थक पद बना सकते हैं, बनाते हैं। इस में स्पष्ट आत्म-विरोध हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है। बंध्या-पुत्र अर्थात बंध्या अथवा बांझ का बेटा। बंध्या सार्थक शब्द है। पुत्र भी सार्थक शब्द है। बंध्या-पुत्र निरर्थक पदबंध है। बंध्या को पुत्र (संतान) नहीं हो सकता है, हो जाये तो वह बंध्या नहीं हो सकती है। जाहिर है कि बंध्या-पुत्र एक निरर्थक शब्द-युग्म या पद-बंध है। एक अन्य पद-बंध है आकाश-कुसुम। आकाश भी सार्थक शब्द है और कुसुम भी। आकाश-कुसुम का अर्थ हुआ आकाश का कुसुम यानी फूल।

स्पष्ट है कि आकाश में कुसुम हो नहीं सकता है। इस तरह, आकाश-कुसुम एक निरर्थक पदबंध है। पहले विचार और फिर विचारधारा में ऐसे कई निरर्थक पदबंध, जिन्हें पकड़ पाना आसान नहीं होता है, ज्ञान के पोशाक में बकवास से भरे होते हैं। हां, जांच-परख से ऐसे निरर्थक पदबंध की उपस्थिति को चिह्नित किया जा सकता है, उनके असर की पहचान का जा सकती है। मुश्किल यह है कि विचार और विचारधारा के अनुयायियों के मन में इन ‘तत्वों’ के प्रति इतना प्रेम और आकर्षण होता है कि ऐसी जांच-परख में कोई दिलचस्पी ही नहीं होती है। विरोधियों के मन में इतना दुराव और हिकारत होता है कि वे कभी खुले दिल-दिमाग से इसके विवेचन की सोचते तक नहीं हैं।

यहां, सभी प्रसंगों पर चर्चा न तो एक साथ संभव है, और फिलहाल जरूरी बड़ी नहीं है। पिछले दिनों महत्त्वपूर्ण स्रोतों से यह खबर आई कि असली सशक्तिकरण वास्तव में ‘आध्यात्मिक सशक्तिकरण’ होता है। आजादी के आंदोलन के दौरान कई बार विभिन्न रूपों में ‘आध्यात्मिक राष्ट्रवाद’ की बात कई मनीषियों की तरफ से उठती रहती थी। उस समय आजादी के आंदोलन में सक्रिय आम लोगों के सहज विवेक के साथ-साथ बाबासाहेब, नेहरु आदि की तीक्ष्ण राजनीतिक और बौद्धिक सक्रियता के चलते उन मनीषियों की बातें तूल नहीं पकड़ पाई थी।

इतिहास में उठी ‘आध्यात्मिक राष्ट्रवाद’ की अनुगूंज वर्तमान में ‘आध्यात्मिक सशक्तिकरण’ के रूप में प्रकट हुई है। इतिहास की ध्वनि की प्रतिध्वनि का यह प्रकटीकरण वैसे तो बहुत सामान्य लक्षण है, लेकिन बड़े स्तर से उठने के कारण अति-महत्त्वपूर्ण है। असल में सोचना यह बड़ी चाहिए कि बहुत सारे आम लोगों के मन में भी ‘आध्यात्मिक सशक्तिकरण’ के प्रति आकर्षण से इनकार नहीं किया जा सकता है। मानना पड़ेगा कि ‘आध्यात्मिक सशक्तिकरण’ बहुत ही आकर्षक पद है! इसलिए समझने की कोशिश की जा सकती है।

‘आध्यात्मिक सशक्तिकरण’ और ‘आध्यात्मिक राष्ट्रवाद’ को समझने के लिए पहले ‘आध्यात्मिक’ को समझना जरूरी है। ‘अध्यात्म’ से बना विशेषण है, ‘आध्यात्मिक’। प्रकृति के रौद्र और मनोहारी रूप के गहन निरीक्षण से मनुष्य को अपनी अ-पूर्णताओं और सीमाओं का बोध सताने लगा था। वह प्रकृति के विभिन्न उपादानों को तो देखता था, लेकिन उसे संचालित करनेवाली शक्ति का दर्शन नहीं कर पाता था। धीरे-धीरे शक्ति के दर्शन की तीव्र उत्कंठा से ‘दर्शन’ (Philosophy) का जन्म हुआ। अपनी अ-पूर्णताओं और सीमाओं से मुक्ति के तरीके पर चिंतन शुरू हो गया।

मनुष्य ने जब खुद को गौर से देखा तो पाया कि खुद उस के अंदर की शक्ति भी अ-दृश्य ही है। इस अ-दृश्य शक्ति की पहचान आत्मा के अरूप-नाम से बद्ध हुआ। शीघ्र ही उसे आभास हुआ कि जो शक्ति प्रकृति को संचालित करती है वही शक्ति उसे भी संचालित करती है। ‘मोको कहां ढूंढ़े बंदे’, ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ जैसी युक्ति और उक्ति उसी समय से सामने आने लगी। अब आत्मा का विस्तार परमात्मा और परमात्मा का संकोच आत्मा में होने का बोध होने लगा। अब देह और आत्मा पर ध्यान सिमटने लगा। पूर्ण और अमर होना अ-पूर्ण और मरणशील मनुष्य का अपराजेय सपना बन गया। मनुष्य को बोध हुआ, उसकी सारी अ-अपूर्णताएं और सीमाएं देह से जुड़ी हैं।

अब पूर्णता और अमरता सिद्धि के लिए मनुष्य देहातीत होने की उत्कट इच्छा से भरने लगा। देह या शरीर के बिना तो कुछ भी संभव नहीं, न धर्म और न अ-धर्म! इसलिए मानना ही पड़ा देहातीत होना नहीं देह की रक्षा करना कर्तव्य है; ‘शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम’ अर्थात, शरीर की रक्षा करना प्रधान धर्म है। आत्मा तो स्वयं-रक्षित है! अन्न, मन, प्राण, विज्ञान और आत्मा जैसे विभिन्न कोश की भिन्नता और एकता का आत्मा में होना और इसके परमात्मा से जुड़ाव की आत्मानुभूति का होना अध्यात्म का ऐसा प्रधान लक्षण है जो अध्यात्म की दुनिया का प्रवेश-द्वार खोल देता है। अन्न तो दृश्य होता है। अन्न के अलावा मन, प्राण, विज्ञान और आत्मा अ-दृश्य! शरीर की रक्षा के लिए सब से जरूरी अन्न अर्थात दृश्य खाद्य जरूरी है। शरीर के लिए जरूरी वस्तुओं के जुगाड़ और देह-प्रसंग की प्राथमिकता की सिद्धि में आबादी का एक बड़ा ‘देहाती’ अंश लग गया।

आबादी का जो अंश शरीर रक्षा के उपायों की चिंता से मुक्त होने की सांसारिक स्थिति में था वह आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कोशिश में देह से आगे बढ़कर ‘अध्यात्म’ की अनुभूति में लग गया। रास्ता क्या हो! रास्ता है, उपवास-प्रार्थना-मंत्र-आह्वान-ध्यान! उपवास यानी कुछ देर के लिए ही सही, अन्न की जरूरत से मुक्ति और आराध्य की निकटता का प्रयास तथा अभ्यास! प्रार्थना परमात्मा तक मांग पहुंचानेवाली ध्वनि-व्यवस्था। मंत्र यानी आराध्य के आह्वान के लिए संबोधित कूट और गूढ़-ध्वनि। आह्वान अर्थात आत्मा के अंदर परमात्मा का संस्थापन। ध्यान अर्थात आत्मा में संस्थापित परमात्मा का निर्बाध और प्रत्यक्ष दृश्यानुभूति (विभ्रम)। कुल मिलाकर यह कि अध्यात्म देह की भौतिक जरूरतों से मुक्ति और आत्मा का परमात्मा से संवाद और संबद्धता का मामला है।

‘आध्यात्मिक सशक्तिकरण’ का अर्थ फिर क्या हो सकता है! देह या जीवन की भौतिक जरूरतों को तुच्छ मानते हुए आत्मा का परमात्मा से संवाद और संबद्धता को महत्त्वपूर्ण मानना। आध्यात्मिकता की भौतिक व्याख्या क्या संभव है! है। मानसिक जरूरत की जगह भौतिक जरूरत के महत्व को प्राथमिक समझा जाये। व्यावहारिक और वास्तविक तौर पर देखा जाये तो मनुष्य की मानसिक जरूरत की पूर्ति का मौलिक संबंध व्यक्ति के स्वयं से होता है जबकि भौतिक जरूरत की पूर्ति का मौलिक संबंध सामूहिकता से होता है। अपनी मानसिक जरूरत के लिए भले ही अध्यात्म जरूरी हो, भौतिक जरूरत के लिए सामूहिकता की जरूरत स्व-प्रमाणित है।

संगठित सामूहिकता को राष्ट्र कहा जा सकता है और कहा भी जाता है। संगठित सामूहिकता की सभी प्रकार की संगठित-शक्ति को राष्ट्र-शक्ति कहा जाता है। ‘आध्यात्मिक सशक्तिकरण’ में राष्ट्र की कोई भूमिका नहीं हो सकती है, अध्यात्म सीमाहीन होने का रास्ता है और राष्ट्र सीमांकन की अनिवार्य प्रक्रिया का परिणाम होता है। राष्ट्र और राजनीति की कार्य-व्यवस्था में लगे प्रमुखों और राजनीतिक कार्यकर्ता का भौतिक सशक्तिकरण के बदले ‘आध्यात्मिक सशक्तिकरण’ की बात करने लग जाना घर परिवारवाले नागरिकों को शंका में डाल देता है।

राष्ट्र अध्यात्म से नहीं अधिनियम से चलता है। वैसे तो व्यक्ति की मानसिक जरूरत की संतुष्टि का भी आधार समूह, समाज और राष्ट्र ही रचता है लेकिन जीवन की भौतिक जरूरत की पूर्ति तो समूह, समाज और राष्ट्र के बिना असंभव ही होता है। कहना न होगा कि क्यों राष्ट्र अध्यात्म से नहीं अधिनियम से चलता है। वैसे भी अध्यात्म और आत्मा चेतना और संवेदनशीलता से संबद्ध होता है, सक्रियता से नहीं। वस्तुतः ‘आध्यात्मिक सशक्तिकरण’ दो सार्थक शब्दों से मिलकर बना एक निरर्थक पदबंध है। यह निरर्थक पदबंध भाववाद और वस्तुवाद के पुराने प्रसंग को नये रूप में सामने लाता है।

असल में ‘आध्यात्मिक राष्ट्रवाद’ की बात करनेवाले ‘अध्यात्म’ को निर्यात का बेहतर उत्पाद मानते रहे हैं। ऐसे लोग इस गफलत में रहते हैं कि दुनिया के समृद्ध लोगों को ‘मन की शांति’ की जबरदस्त तलाश रहती है। ऐसे लोगों को उम्मीद है कि भारत अध्यात्म और अध्यात्म-संवर्धित औषधि, चमत्कारिक जड़ी-बूटी, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, जंतर, मंतर आदि के गुर के व्यापार के बल पर ‘विश्व-गुरु’ बन जायेगा।

‘विश्व-गुरु’ बनने की इस ‘आस्था और विश्वास’ के साथ राजनीतिक कार्यकर्ताओं और व्यापारी-बाबाओं में पिछले दिनों ऐसा ताल-मेल बना कि राजनीतिक कार्यकर्ता का बाबा में और बाबा के राजनीतिक कार्यकर्ता में आसानी से अदल-बदल संभव होने लगा। इसके साथ राष्ट्रवाद को मिलाकर भ्रम-उत्पादन और आच्छादन के खुराफात का ऐसा बकझक शुरू कर दिया कि भारत का लोकतंत्र ही खतरे में पड़ गया। दरके हुए विश्वास के दौर को छू रहे राष्ट्र का राष्ट्रवाद आंतरिक रूप से कितना भयावह हो सकता है, भारत ने बहुत निकट से देख लिया है।

‘आध्यात्मिक सशक्तिकरण’ के साथ-साथ ‘आध्यात्मिक राष्ट्रवाद’ के मंतव्य पर बार-बार विचार किया जाना चाहिए। मनुष्य की भौतिक जरूरत को व्यवस्थित ढंग से पूरा करने के क्रम में राष्ट्र का संगठन होता है। मनुष्य की अधिभौतिक जरूरत के लिए दूसरे उपाय हो सकते हैं और होते भी हैं। भौतिक और अधिभौतिक के परस्पर अदल-बदल की प्रक्रिया अंततः दिमागी गुलामी की वैधता बनाने और ‘स्थाई बहुमत’ का जुगाड़ करने में बहुत काम आता है।

विभिन्न सार्थक शब्दों के ‘आलंकारिक संयोजन’ से निरर्थक पदबंध बनाने में भारतीय जनता पार्टी की भाषण कला का रहस्य और राजनीति का रणनीतिक कौशल ध्यान देने लायक है। यह भाषण कला और रणनीतिक कौशल तभी तक काम आता है जब तक शक्ति के बल पर सत्ता का तर्क प्रभावी बना रहता है। शक्ति कम हो जाने पर तर्क की शक्ति अपना प्रभाव दिखलाना शुरू कर देती है। बकवास की परंपरा पर ज्ञान-परंपरा भारी पड़ने लगती है। नई राजनीतिक परिस्थिति में इसका असर जल्दी ही दिखने लगेगा।

18वीं लोक सभा इस मामला में महत्त्वपूर्ण है कि पक्ष हो या प्रतिपक्ष, किसी भी समय नये जनादेश के लिए जनता के सामने हाजिर होने की मजबूरी की आशंका का राजनीतिक दबाव बना रहेगा। इस दौर में राजनीतिक जमात के समानांतर नागरिक समाज की गतिविधि भी काफी महत्त्वपूर्ण हो सकती है। माना गहन अंधेरा है लेकिन रोशनी और ताप की भी संभावना है। राजनीतिक सवाल अपनी जगह, इस समय जब भारत का लोकतंत्र अपनी नई यात्रा की दिशाएं टटोल रहा है, नागरिक सवाल के जवाब की खोज अधिक प्रासंगिक है। हां पहले लोक सभा अध्यक्ष का चुनाव और संसद का सत्र शुभ-शुभ शुरू हो!

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