डॉ. विकास मानव
(निदेशक : चेतना विकास मिशन)
_हरिश्चन्द्र घाट (वाराणसी) का महाश्मशान। कोहरे की पर्तों में लिपटा रात्रि का घोर अंधकार। श्मशान के वातावरण में लिपटी हुई नीरवता और उस नीरवता को भंग करता हुआ मांसखोर पक्षियों और श्मशान के मरियल कुत्तों का समवेत स्वर।_
कुछ देर पहले धूं-धूं करती हुई चिताएं अब मुट्ठीभर राख में बदल चुकी थीं। उस समय पूरे महाश्मशान में केवल एक चिता हा-हाकार करती हुई जल रही थी जिसकी लाल-पीली लपटें लहरा रही थीं हवा में और वह चिता थी एक जीर्ण-शीर्ण नब्बे वर्षीया वृद्धा की जिसका विवाह बारह वर्ष की आयु में हो गया था और जो अपने पति का मुंह देखे बिना ही बिधवा हो गयी थी।
_उस वैधव्य ने उसके सपनों को, उसके अरमानों को उसकी भावी कल्पनाओं को काँच की तरह 'छन्न' से तोड़कर बिखेर दिया था और वह नब्बे वर्षीया वृद्धा और कोई नहीं मेरे दादा की छोटी बहन थी जिनका नाम था--तुलसी।_
सचमुच तुलसी देववृक्ष तुलसी के समान थी--स्वच्छ, निर्मल, प्रेममय, स्नेहमय, करुणामय और वत्सल्यमय भाव लिए और फिर भी निर्लिप्त।
साक्षात जगज्जननी, जगतपालिका अन्नपूर्णिमा का प्रतिरूप थी तुलसी। गौरवर्ण, गम्भीर व्यक्तित्व, ब्रह्मचर्य के कठोर संयम से दप-दप करता हुआ चेहरा, गले में तुलसी की माला और होठों पर सदैव स्थिर रहने वाली हल्की मुस्कराहट। हम उनको बड़ी बुआ कहते थे। सचमुच बड़ी बुआ ने अपने हृदय का सारा ममत्व, सारा मातृत्व, सारा स्नेह, सारा वात्सल्य और सारी करुणा से भर दिया मुझे जिसे जीवनपर्यंत विस्मृत नहीं कर सकती मेरी आत्मा।
बड़ी बुआ ने संसार को काफी गहराई से देखा था और उसका गहन अनुभव भी किया था अपने दीर्घ जीवनकाल में। इसके अतिरिक्त उनके अपने अनुभवपरक, आध्यात्मिक और दार्शनिक विचार भी थे। कहने की आवश्यकता नहीं--आज मैं जो कुछ भी हूँ, वह सब उनके वे सांसारिक अनुभवों और उनके वे अनुभवजन्य आध्यात्मिक विचारों का परिणाम है--इसमें सन्देह नहीं।
_रात की कालिमा और गहरी हो गयी थी और उसी के साथ गहरा गयी थी श्मशान की नीरवता भी। हरिश्चन्द घाट की टूटी-फूटी और धूल से अटी सुनसान सीढ़ियों पर गालों पर हाथ धरे चुपचाप बैठा टुकुर-टुकुर देख रहा था बड़ी बुआ की जलती हुई चिता को जो आधी से अधिक जल चुकी थी। लेकिन उस चिता ने मेरे अन्तराल में उस संस्कार को जगा दिया था जिसके वशीभूत होकर मृत्यु के सम्बन्ध में गहराई से सोचने-समझने और चिन्तन-मनन करने को बाध्य होना पड़ा था मुझको।_
इतना ही जन्म-मृत्यु और पुनर्जन्म पर शोध और अन्वेषण करने की भी इच्छा जागृत हो उठी मुझमें।
तीनों अपने-आप में अत्यन्त रहस्यमय हैं जन्म भी, मृत्यु भी और पुनर्जन्म भी। अपने 20 वर्ष के दीर्घ शोध और अन्वेषण काल में अपने धर्मग्रन्थों के अतिरिक्त जन्म-मृत्यु और पुनर्जन्म से सम्बंधित पुस्तकें न जाने कितनी हिन्दी, अंग्रेजी की पढ़ीं, न जाने कितनी हस्तलिखित पुस्तकों और प्राचीन पांडुलिपियों का अध्ययन किया, न जाने कितने परलोक तत्वविदों से मिला।
_इतना ही नहीं विभिन्न माध्यमों व विभिन्न मार्गों से अनेक उच्चकोटि की विदेही आत्माओं से तादात्म्य स्थापित किया मैंने। लेकिन फिर भी संतोष नहीं हुआ मुझे, तृप्ति नहीं मिली मुझे। अपनी अबतक की उपलब्धियों में कहीं-न-कहीं कोई अभाव खटकता रहता था बराबर मेरे अंतराल में।_
वह कौन-सा अभाव था और कैसा अभाव था ? कभी-कदा एकांत के पलों में उसे समझने का प्रयास भी करता तो असफलता ही उपलब्ध होती मुझे।
नित्य की भांति उस दिन भी अपनी खोज और अपने अन्वेषण के विषय में चिन्तन-मनन कर रहा था मैं। रात्रि का समय था। एकाएक एक अनिर्वचनीय सुगन्ध से भर उठा मेरा पूरा कमरा। समझते देर न लगी मुझे--कोई विशेष विदेही आत्मा सम्पर्क करना चाहती थी मुझसे। सतर्क हो गया मैं।
_कुछ ही क्षणों में तादात्म्य स्थापित हो गया मुझसे। सिद्धलोक में निवास करने वाली उच्चकोटि की योगात्मा थी वह। चार सौ वर्ष पूर्व पार्थिव शरीर का त्याग किया था उसने और उसका नाम था--दिव्यकल्प। दिव्यकल्प अपनी शिष्य-मण्डली को लेकर गंगा स्नान और काशी विश्वनाथ के दर्शन के निमित्त आये हुए थे उस समय।_
_मेरा विदेही आत्माओं से सम्बन्ध है और मैं परलोक के अतिरिक्त जन्म, मृत्यु पुनर्जन्म आदि रहस्यमय विषयों पर शोध एवं अन्वेषण कार्य कर रहा हूँ--इन सबका पता काशी क्षेत्र में प्रवेश करते ही लग गया था दिव्यकल्प को।_
कहने की आवश्यकता नहीं--मेरे शोध और अन्वेषण से काफी प्रभावित थे वह और इसीलिए मुझसे संपर्क स्थापित किया था उन्होंने। उनका कहना था कि अपना अनुभव भी होना चाहिए। शोध एवं खोजकर्ता के स्वयं के अनुभवों के अभाव में ऐसे जटिल, दुरूह और गम्भीर विषयों में स्वारस्य नहीं आ पाता। स्वारस्य का होना अति आवश्यक है। तभी कृति मौलिक और उपादेय सिद्ध होती है।
_योगात्मा दिव्यकल्प का कहना सर्वथा उचित था। मेरे अब तक के शोध एवं अन्वेषण में अन्य लोगों के विचार, भाव, अनुभव और सिद्धान्त भरे हुए थे। अपना तो सचमुच कुछ भी नहीं था।_
आप किस अनुभव की बात कर रहे हैं ?--मेरे इस प्रश्न के उत्तर में दिव्यकल्प बोले--
_'मृत्यु का अनुभव', जीवन-काल में ही मृत्यु का अनुभव प्राप्त कर लेना. जितने अनुभव हैं, उनमें यौगिक अनुभव सर्वोपरि, सर्वोत्तम और अपने-आप में अति महत्वपूर्ण है. उसके अनुभव के बाद फिर कोई अनुभव शेष नहीं रह पाता, क्योंकि योग-साधना-मार्ग का अन्तिम है वह अनुभव।_
वह अनुभव उस परम सत्य का अनुभव है जिससे साधारण लोग अपरिचित हैं, केवल उससे परिचित होता है एक योगी। जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म का तो वह अनुभव है ही, इसके अतिरिक्त उस जीवन का भी अनुभव है जो भौतिक जीवन से परे है--जो शाश्वत है जो परम् आनन्दमय है और जिसमें सुख-ही-सुख है।
_भौतिक जीवन स्थूल शरीर का जीवन है और वह जीवन है सूक्ष्म शरीर का जीवन। उस जीवन को उपलब्ध होने पर सूक्ष्म शरीर के द्वारा आत्मा लोक-लोकान्तरों का भ्रमण भी कर सकती है। वहां के निवासियों से तादात्म्य भी स्थापित कर सकती है। इतना ही नहीं, वह उस ज्ञान-विज्ञान को भी उपलब्ध हो सकती है जिससे मनुष्य अभी तक अपरिचित ही रहा है।_
वह अनुभव कैसे सम्भव है ?--मेरे इस प्रश्न के उत्तर में योगात्मा दिव्यकल्प ने कहा-
आयोजित मृत्यु द्वारा। वास्तविक मृत्यु के समय जो घटनाएं घटती हैं और जो अनुभव होते हैं, ठीक वैसी ही घटनाएं घटती हैं और वैसा ही अनुभव भी होता है आयोजित मृत्यु में, जिसे योग में ‘समाधि’ कहते हैं। समाधि को वही उपलब्ध होता है जो ध्यान की चरम सीमा पर पहुँच चुका है। एक बार जो ध्यान की चरम सीमा पर पहुंच कर समाधि में प्रवेश कर जाता है, उसके लिए फिर समाधि सहज हो जाती है। वह कभी भी किसी निश्चित समय पर समाधि को उपलब्ध हो सकता है। जैसे सहज मृत्यु के बाद संसार, शरीर, भाव, विचार, शत्रुता, मित्रता आदि सब कुछ छूट जाता है नाता-रिश्ता। संसार और शरीर में हम रहते हुए नहीं रहते। अन्तर केवल इतना ही है कि सहज मृत्यु के बाद हम संसार और शरीर में कभी वापस नहीं लौटते, लेकिन आयोजित मृत्यु के बाद फिर से संसार और शरीर में वापस लौट आते हैं निश्चित समय पर।
उस योगात्मा से यह सब सुनकर समाधि के प्रति आकर्षित हो उठा मैं। कैसे उपलब्ध होगी मुझे समाधि की परम अवस्था ? कैसे प्रवेश कर सकता हूँ समाधि में ?--यह जानने-समझने के लिए व्याकुल हो उठी मेरी आत्मा एकबारगी।
_संभवतः मेरी भावना और मेरे विचार समझ गयी वह योगात्मा। कुछ पल निस्तब्धता छायी रही वातावरण में। एकाएक उस निस्तब्धता को भंग करते हुए योगात्मा दिव्यकल्प का स्वर सुनायी दिया उस अंधेरे कमरे में।_
वे मन्द स्वर में कह रहे थे--तुम संस्कार-सम्पन्न व्यक्ति हो। तुमको ध्यानयोग की चरम पराकाष्ठा पर पहुंचने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि कभी किसी काल में तुम उस अवस्था को उपलब्ध हो चुके हो। इसलिए सहज ही समाधि में प्रवेश कर सकते हो तुम
वह कैसे ?--मैंने धीमे स्वर में प्रश्न किया।
_तुम्हारे लिए काफी सरल है--दिव्यकल्प बोले--शरीर का केंद्र नाभि है। पहले पद्मासन की मुद्रा में बैठकर कुम्भक द्वारा सारे शरीर की प्राण- ऊर्जा को नाभि केंद्र पर एकत्र करो और फिर उस एकत्र प्राण-ऊर्जा को धीरे-धीरे ऊपर उठाओ और अन्त में उसे भ्रूमध्य में स्थित करो।_
कहने की आवश्यकता नहीं--समाधि, कुम्भक, रेचक और पूरक आदि का नाम अवश्य सुना था और पुस्तकों में उनके विषय में बहुत कुछ पढा भी था, किन्तु उसके प्रयोगात्मक रूप से परिचित नहीं था मैं।
_फिर भी योगात्मा दिव्यकल्प के आदेशानुसार वैसा ही किया मैंने सब कुछ। काफी आश्चर्य हुआ मुझे। बड़ी ही सहजता से सब कुछ हो गया।_
_भ्रूमध्य में प्राण-ऊर्जाओं के स्थित होते ही मेरा स्थूल शरीर मुझसे अलग हो गया। मैं उसे पद्मासन की मुद्रा में ध्यानस्थ बैठा हुआ देख रहा था। मेरी चेतना लुप्त नहीं हुई थी बल्कि और बढ़ गयी थी। 'मैं' का बोध भी लुप्त नहीं हुआ था। मैं अपने अस्तित्व का बोध एक ऐसे शरीर में कर रहा था जो काफी हल्का था और कोहरे जैसा था। लगता था कि घने कोहरे की पर्तों से बना हुआ हो।_
कुछ विचित्र-सा विस्मयकारी अनुभव हो रहा था अपने उस पारदर्शी शरीर में मुझे। निश्चय ही वह मेरा सूक्ष्मशरीर था। एक विशेष प्रकार का प्रकाश फैल रहा था मेरे कमरे में। बड़ा ही शुभ्र और उज्ज्वल प्रकाश था वह। उस प्रकाश में मैंने सिद्धलोक निवासी योगात्मा दिव्यकल्प को अपने स्थूल शरीर के निकट बैठे हुए देखा।
_घोर आश्चर्य हुआ मुझे उनको देखकर। चर्मचक्षु से उन्हें देख न सका था मैं। सूक्ष्मशरीर को उपलब्ध होते ही उनका अस्तित्व प्रकट हो गया था मेरे सामने। वैन्दव शरीर में थे योगात्मा दिव्यकल्प।_
सिद्धलोक में निवास करने वाली दिव्यकल्प जैसी उच्चकोटि की योगात्माएं अपने लिए जिस शरीर का निर्माण कर लेती हैं, उसे वैन्द्वव शरीर कहते हैं। वैन्द्वव शरीर स्वयं योगी की सृष्टि होती है। वह जब चाहे वैन्द्वव शरीर से मुक्त होकर अन्य शरीर में प्रवेश कर सकता है।
_मैंने देखा--योगात्मा दिव्यकल्प का वैन्दव शरीर पारदर्शी और स्वयं प्रकाशित था जिसमें से सुनहले और रुपहले रंग की रश्मियां बाहर निकलकर वृत्ताकार रूप में चारों ओर घूम रही थीं। बड़ा ही अद्भुत दृश्य था वह।_
हे भगवान ! उस महान पुरुष की आंखें। निश्चय ही किसी मनुष्य की आंखें नहीं थीं वे। विचित्र और अद्भुत थी वे आंखें। प्रखर तेजोमयी और झील जैसी गहरी। उन बड़ी-बड़ी जलती हुई आंखों की पुतलियां स्थिर थीं मुझ पर। लगा--मानो वे अपनी मूक भाषा मे कह रही हों--
_ऐ युवक ! तुम संस्कार-सम्पन्न विशुद्ध आत्मा हो, इसलिए मेरा तुम्हारी ओर आकृष्ट होना स्वाभाविक था। तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह अत्यन्त कंटकाकीर्ण है। उसकी धूल पर शताब्दियों बाद किसी के पदचिन्ह अंकित होते हैं। तुम समाधि की उस अवस्था को अपनी इच्छानुसार प्राप्त कर सकते हो जो उच्चावस्था प्राप्त किसी योगी के लिए ही सम्भव है। तुमको जब कभी अपने मार्ग में किसी बाधा का अनुभव हो, उस समय तुम मुझे स्मरण कर सकते हो। मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है।_
_सहसा लुप्त हो गया मेरे सामने से योगात्मा दिव्यकल्प का अस्तित्व और उसी के साथ मेरा आंतर अस्तित्व भी हो गया लुप्त। अब मैं अपने अस्तित्व का बोध अपने स्थूल शरीर में करने लगा था। मैंने धीरे-धीरे अपनी बन्द आंखें खोलीं तो देखा--पूर्ववत अन्धकार बिखरा हुआ था कमरे में।_
उस समय रात्रि के तीन बज रहे थे। लगता था--कोई मधुर सपना देखकर जागा हूँ मैं नींद से। विचित्र स्थिति थी मेरी उस समय। उसी दिन सायंकाल के समय डॉ गोपीनाथ जी कविराज से मिला और उनको सारी घटना बतलाई। अन्त में अपना अनुभव भी बतलाया मैंने।
_कविराज जी बोले--तुमको समाधि का अभ्यास बराबर करना चाहिए। अभौतिक सत्ता में मानवेतर ज्ञान-विज्ञान के ज्ञाताओं की कई मण्डलियां हैं। यदि समाधि की अवस्था में किसी मण्डली से तुम्हारा संपर्क सध गया तो अत्यधिक लाभ होगा तुम्हें।_
कहने की आवश्यकता नहीं--समाधि में कैसे प्रवेश किया जाता है ?--उसकी यौगिक क्रिया से भली-भांति परिचित हो चुका था मैं। इसलिए उसी समय से समाधि लगाने लगा था मैं। समाधि के लिए चित्त की स्थिरता, मन की एकाग्रता और संकल्प-शक्ति परम् आवश्यक है जो सहज ही उपलब्ध हो गयी थी मुझे योगात्मा दिव्यकल्प की कृपा से।
_जीवनकाल में ही अभौतिक सत्ता में प्रवेश करने का एकमात्र द्वार है--समाधि। भौतिक जीवन और अभौतिक जीवन में जमीन और आसमान का अन्तर है। जिसे सुख-शान्ति और आनंद कहते हैं, वे भौतिक जीवन में केवल शब्दोँ में हैं, अनुभव में नहीं, जबकि अभौतिक जीवन में उनका प्रत्यक्ष अनुभव होता है बिना किसी माध्यम के।_
भौतिक सत्ता खण्डकाल के अंतर्गत है जबकि अभौतिक सत्ता है अखण्डकाल के अंतर्गत। उसके बाद है-- महाकाल जिसकी सीमा में है सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड।
_यहां यह कहना अनुचित न होगा कि समाधि द्वारा अभौतिक सत्ता में प्रवेश करने पर जहां एक ओर मुझे परम् सुख, परम शांति और परम आनन्द का अनुभव हुआ, वहीं दूसरी ओर कई मंडलियों से भी मेरा परिचय हुआ और उन मंडलियों के आचार्यों से ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जो अति मूल्यवान और महत्वपूर्ण उपलब्धियां हुईं, वे भौतिक स्तर पर सम्भव नहीं थीं।_
आज भी इच्छानुसार समाधि को उपलब्ध होता हूँ मैं और आज भी किसी-न-किसी मण्डली से संपर्क हो ही जाता है मेरी आत्मा का।
_मेरी अब तक समस्त जनसेवी चमत्कारिक गतिविधियां अपनी खोज, अपने अन्वेषण और अभौतिक सत्ता में स्थित मंडलियों के संपर्क का ही परिणाम हैं._
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