डॉ. विकास मानव
(मनोचिकित्सक, निदेशक : चेतना विकास मिशन)
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*पूर्व कथन :*
आप हवा नहीं देखते तो क्या वह नहीं है? स्वास मत लें, आपको आपकी औकात पता चल जाएगी. अगर आप सत्य नहीं देख पाते तो यह आपका अंधापन है. अगर आप अपेक्षित को अर्जित नहीं कर पाते तो यह आपकी काहिलताजनित विकलांगता है.
मेरा स्पस्ट और चुनौतीपूर्ण उद्घोष है : *”बिल से बाहर निकलें, समय दें : सब देखें, सब अर्जित करें”.*
आप अदृश्य को और उसकी शक्तियों को अविश्वसनीय मान बैठे हैं, क्योंकि इनके नाम पर तथाकथित/पथभ्रष्ट तांत्रिकों, कथित गुरुओं की लूट और भोगवृत्ति रही है। इन दुष्टों द्वारा अज्ञानी, निर्दोष लोगों को सैकड़ों वर्षों से आज तक छला जाता रहा है। परिणामतः प्राच्य विद्या से लोगों का विश्वास समाप्तप्राय हो गया है।
तंत्र ‘सत्कर्म’- ‘योग’ और ‘ध्यान ‘ की ही तरह डायनामिक रिजल्ट देने वाली प्राच्य विद्या है. इस के प्रणेता शिव हैं और प्रथम साधिका उनकी पत्नी शिवा. जो इंसान योग, ध्यान, तंत्र के नाम पऱ किसी से किसी भी रूप में कुछ भी लेता हो : वह अयोग्य और भ्रष्ट है. यही परख की कसौटी है.
तंत्र के नियम और सिद्धान्त अपनी जगह अटल, अकाट्य और सत्य हैं। इन पर कोई विश्वास करे, न करे लेकिन इनके यथार्थ पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है। जिनको साक्ष्य या निःशुल्क समाधान चाहिए वे व्हाट्सप्प 9997741245 पर संपर्क कर सकते हैं.
सूक्ष्मलोक, प्रेतलोक, अदृश्य शक्तियां, मायावी शक्तियां आदि सभी होती हैं. प्रेतयोनि और देवयोनि को निगेटिव और पॉजिटिव एनर्ज़ी के रूप में विज्ञान स्वीकार कर चुका है. आत्माओं के फोटो तक लिए जा चुके हैं.
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_जो व्यक्ति मदिरापान कर रहा हो, उसकी ओर ध्यान से देखें–उसके चेहरे की उदासी खत्म हो जाती है थोड़ी देर में और प्रसन्नता प्रकट होने लगती है उदासी की जगह। शरीर में न जाने कहाँ से स्फूर्ति आ जाती है, पैरों में गति आ जाती है, नाचने-गाने का मन करने लगता है, अपने को व्यक्ति बुद्धिमान समझने लगता है।_
जरा सोचिए–यह वही व्यक्ति है न जिसके चेहरे पर अभी कुछ देर पहले उदासी छाई हुई थी। मरा-मरा-सा लग रहा था अभी तक। आंखें ऐसी निस्तेज थीं जैसे जीवन में कोई अर्थ ही नहीं बचा।
वह अब कुछ ही क्षणों में ऐसा कैसे हो गया ? चेहरे पर चमक और आंखों में रौनक कहाँ से आ गयी ? वास्तव में यदि सच पूछा जाए तो यह करामात मदिरा की नहीं है, बल्कि अहंकार के अभाव की है।
बिना किसी नशा के या बिना मदिरा के, स्थूल शरीर विस्मृत हो जाये, अहंकार का नाश हो जाये–इसके लिए एकमात्र उपाय है–स्थूल शरीर के बजाय सूक्ष्म शरीर में जीने की कला सीखना और सूक्ष्म शरीर के माध्यम से अचेतन मन की शक्तियों को उपलब्ध करना और यह तभी सम्भव है जब व्यक्ति योग-तन्त्र का अनुसरण करेगा, योग-तान्त्रिक मार्ग पर पांव रखेगा।
तान्त्रिक साधना के कई मार्ग हैं, कई सम्प्रदाय हैं। सभी संप्रदायों में किसी-न-किसी में नशीले पदार्थो के सेवन का विधान मिलता है, लेकिन प्रश्न यह है कि साधना-मार्ग में नशे की आवश्यकता क्या है, क्यों है ?
_इसलिए कि नशा स्थूल शरीर को विस्मृत करता है, मन को स्थिर करता है, स्थायित्व देता है और चेतन मन का सम्बन्ध सूक्ष्म शरीर से जोड़ता है और जब इस दिशा में साधक सफल हो जाता है तो नशे का त्याग कर देता है।_
सभी उच्चकोटि के योगी और साधक स्थूल शरीर में कम-से-कम रहना चाहते हैं और सूक्ष्म शरीर में अधिक-से-अधिक समय जीना चाहते हैं। वे अन्तर्मुखी होते हैं। स्थूल शरीर का महत्व नगण्य हो जाता है उनके लिए। जो मिल गया, खा लिया, जो मिल गया, पहन लिया, जहां स्थान मिल गया, वहां सो गया। सब स्वीकार, अच्छा या बुरा भी।
_उनका सूक्ष्म शरीर अचेतन मन की अगाध शक्तियों का केंद्र बन जाता है जो अपने आप स्थूल शरीर के माध्यम से सिद्धियों के रूप में और विभिन्न प्रकार के चमत्कारों के रूप में प्रकट होता रहता है। यह सब कैसे होता है–स्वयं न योगी को पता होता है और न तो पता होता है साधक को ही। बस उसे ही पता होता है जिसने अनुभव के साथ-साथ चिन्तन-मनन और विश्लेषण भी किया है, जिसने गहन से गहन शोध और अनुसंधान भी किया है।_
कलकत्ता प्रवास-काल में मेरी भेंट हुई एक विदुषी महिला से। उनका शरीर बंगदेशीय था। आयु रही होगी पचास के लगभग और नाम था–सरोजबाला।
_उनकी वेश-भूषा और उनका रहन-सहन सन्यासिनियों जैसा था। मकान तो काफी लम्बा-चौड़ा था, लेकिन उसके एक छोटे से कमरे में अकेली रहती थीं वह। एक दिन प्रसंगवश मैंने उनसे पूछा–आप इतने बड़े सुनसान मकान में कैसे रह लेती हैं अकेले और वह भी रात्रि में ?_
मेरी बात सुनकर हंस पड़ीं सरोजबाला फिर बोलीं–बाहर से तुमको लगता है यह सुनसान, मगर सुनसान है नहीं, भरा-पूरा है।
यह सुनकर घोर आश्चर्य हुआ मुझे उस समय लेकिन बाद में सब कुछ स्पष्ट हो गया–वह किलानुमा मकान वास्तव में गढ़ था विदेही, अशरीरी आत्माओं का। सरोजबाला साधारण महिला नहीं थीं। उनमें ईश्वर-प्रदत्त एक विशेष मानसिक गुण था और वह था–अपनी मानसिक शक्ति द्वारा विदेही अशरीरी आत्माओं को आकर्षित करना।
_दूर-दूर से विदेही आत्माएं आती थीं, कुछ समय मकान में रहतीं और फिर चली भी जातीं। सब कुछ रहस्यमय था मेरे लिए।_
भौतिक माध्यमों और संचार व्यवस्था के अभाव में भी एक ‘मन’ दूसरे ‘मन’ को प्रभावित कर सकता है और कर सकता है आकर्षित भी। चाहे वह मन मृतात्मा अथवा विदेही आत्मा का हो या हो चलते-फिरते किसी जीवित व्यक्ति का।
दोनों में थोड़ा अन्तर यह अवश्य होता है कि किसी भी प्रकार का भौतिक बन्धन न होने के कारण विदेही आत्मा अथवा मृतात्मा का मन कुछ अधिक शक्तिशाली होता है। इसलिए जीवित व्यक्ति के मन को आकर्षित करने की क्षमता उसमें जीवित व्यक्ति के मन से अधिक होती है।
_अशरीरी आत्माओं का मन बराबर मानव मन को अपनी ओर आकर्षित करता रहता है, जबकि जीवित मानव के मन को इसके लिए विशेष प्रयास और अभ्यास करना पड़ता है।_
इस प्रसंग में यह भी समझ लेना चाहिए कि बिना किसी संवेदी यन्त्र की सहायता के ‘मन’ पदार्थ से सक्रिय ज्ञानात्मक सम्बंध स्थापित कर सकता है।
इस प्रक्रिया में काल, दिशा और स्थान की ओर से कोई बाधा उपस्थित नहीं होती। सच तो यह है कि मन भौतिक पदार्थों को इच्छानुसार प्रभावित करने में सक्षम है। इस सत्य को भी देखने-समझने का अवसर मुझे सरोजबाला के यहां मिला।
_जैसा कि मैं पूर्व में भी स्पष्ट कर चुका हूँ कि भौतिक शरीर में मन का चेतन रूप काम करता है, जबकि अभौतिक शरीर में काम करता है मन का अचेतन रूप। जब कोई विदेही आत्मा किसी कारणवश, किसी खास प्रयोजन से किसी व्यक्ति को प्रभावित करती है अथवा आकर्षित करती है तो उस व्यक्ति में अपने आप एक विशेष अलौकिक क्षमता उत्पन्न हो जाती है।_
सरोजबाला का मन विदेही आत्माओं को प्रभावित करने या उनको आकर्षित करने की क्षमता रखता था–इसमें सन्देह नहीं। वह क्षमता ईश्चर प्रदत्त थी।
सरोजबाला का विवाह एक राजघराने के व्यक्ति से मात्र सोलह साल की अवस्था में हुआ था। पति का नाम था–श्यामाचरण धरणीधर। विवाह के समय उनकी आयु थी 40 वर्ष के लगभग। आयु की दृष्टि से विवाह बेमेल था–स्पष्ट है। सरोजबाला ने मात्र केवल दो साल वैवाहिक जीवन व्यतीत किया। उसके बाद विधवा हो गयी वह।
_बालविधवा के रूप में देखा जाने लगा उन्हें। उस हवेलीनुमे लम्बे-चौंडे मकान में एक छोटा-सा मन्दिर बनवा कर उसमें स्थापित कर दी राधा-कृष्ण की मूर्ति सरोजबाला ने। अब उनका पूरा समय व्यतीत होने लगा व्रत-उपवास, ध्यान-धारणा, पूजा-उपासना में।_
उन सबसे जब समय मिलता तो अपने पति के चित्र के सामने बैठ कर अपलक निहारती रहती घण्टों उनको। कभी-कभी तो पति की स्मृति अत्यधिक सजीव हो उठती उनके मानस-पटल पर तब उस अवस्था में भावविह्वल होकर रोने भी लगती सिसक-सिसक कर वह।
बड़ा ही कारुणिक दृश्य होता था वह। गालों पर झर-झर कर आँसूं गिरते जाते और आँचल से पोंछती जाती वह। उनको समझाने-बुझाने और सांत्वना देने वाला भी तो कोई नहीं था। समाज में बालविधवा होने के कारण लोग उन्हें कुल कलंकिनी भी कहते थे।
उनका चेहरा भी देखना समाज के लिए पाप था। एकाकी जीवन व्यतीत करने के अलावा और कुछ नहीं रह गया था उनके लिए। ससुराल वालों ने उस हवेलीनुमा मकान में अकेली छोड़कर उनसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया था हमेशा-हमेशा के लिए। कभी-कदा भी उनको देखने कोई नहीं आता था ससुराल की ओर से।
विधवा को क्या चाहिए ? साल में दो सफेद ताड़केश्वरी साड़ी और दोनों समय का भोजन (भात) और वह बराबर मिलता रहता था सरोजबाला को ससुराल की ओर से बस और कुछ नहीं। यदि कभी बीमार भी पड़ जाय तो दवा दारू भी नहीं।
कभी-कदा भूले-भटके सरोजबाला के बड़े भाई शशिगोपाल भादुड़ी अपनी पत्नी से छिपकर आ जाते थे देखने के लिए और जाते समय सरोजबाला के हाथ में थमा जाते दस-बीस रुपये बस।
दिन गुजर रहे थे, लेकिन एक दिन ऐसी अनहोनी घटना घटी की जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। दिवंगत श्यामाचरण धरणीधर को मेवे की खीर खाने का शौक था। प्रायः रात्रि में सोने से पहले पांच चम्मच मेवे की खीर अवश्य खाते थे वह।
_उस दिन न जाने क्यों पति के चित्र के सामने मेवे की खीर अर्पित करने की इच्छा सवेरे से ही बलवती हो उठी थी उनके मन में। पर कर ही क्या सकती थी, विवश जो थी वह।_
सायंकाल हुआ। पति के चित्र को रातरानी की सुगन्धित माला पहनाने के बाद उसके सामने घी का दीप जलाया और फिर जलाई अगरबती भी। वातावरण रातरानी और अगरबती की मिली-जुली सुगन्ध से भर उठा एकबारगी। हमेशा की तरह सामने बैठकर अपलक निहारने लगी पति के चित्र की ओर सरोजबाला।
भरभरा आयी थीं आंखें और झर-झर कर गालों पर बहने लगे आँसू बार-बार। खीर न अर्पित कर पाने की विवशता से दुःखी होने लगा मन।
अचानक सनसनाने लगा उनका मस्तिष्क। लगता था मानो हज़ारों चींटियां रेंग रही हों उनके मस्तिष्क में। कुछ समझ पाती वह कि इसके पहले बहुत दूर से आती हुई एक आवाज़ सुनाई पड़ी उन्हें। वह आवाज़ उन्हें पहचानी-सी लगी। ध्यान से सुनने लगी।
समझते देर नहीं लगी–उनके स्वर्गीय पति की थी वह आवाज़। शायद काफी दूर से बोल रहे थे वह, इसलिए स्वर धीमा था थोड़ा। पति महोदय कह रहे थे–सरोज ! तुम खीर बहुत अच्छी बनाती थी। कभी फिर बनाओ न–फिर थोड़े अन्तराल के बाद उनकी आवाज सुनाई दी-
_समझ में आ गया। चिन्ता मत करो। मेरा मित्र गांगुली तुमसे मिलेगा। वह सब ठीक कर देगा।_
सरोजबाला के मन में सुबह से ही खीर की भावना प्रगाढ़ हो रही थी, इसी कारण स्वर्गीय पति के मन से उनके मन का सम्बन्ध स्थापित हो गया था अदृश्य रूप से। इसे एक संयोग ही कहा जायेगा। सरोजबाला पहले इस रहस्य को समझ न सकी। उन्होंने उसे भ्रम मान लिया मन का। लेकिन जब वह दूसरे दिन नित्य की भाँति पति के चित्र के समक्ष बैठी तो फिर उनका मस्तिष्क सनसनाने लगा और चीटियाँ जैसी रेंगने लगीं और फिर उन्हें दिवंगत पति की आवाज़ सुनाई देने लगी।
इस बार वह कह रहे थे–मुझे मेरी सौतेली माँ ने दूध में विष दिया था। उसी से मेरा शरीर मुझसे छूट गया। इस समय जिस शरीर में मैं हूँ, वह बहुत हल्का है लेकिन पहले शरीर जैसा ही है। कब तक इस शरीर में रहना पड़ेगा–बतला नहीं सकता।
यह सुनकर सरोजबाला से रहा नहीं गया। वह सिसकते हुए कहने लगी–मैं अनाथ, एकाकी और आश्रयहीन पड़ी हूँ इतने बड़े मकान में। क्या आप मेरे पास नहीं आ सकते ? बोलो..नहीं आ सकते ?
अन्तिम शब्द गले में अटक कर रह गये और रोने लगी सरोजबाला। पति की विष से मृत्यु हुई थी–यह नहीं जानती थी वह। सौतेली माँ ने सारी जायदाद को हड़पने के लिए रास्ता साफ किया था विष देकर उनके पति को–यह समझते देर न लगी सरोजबाला को।
कुछ क्षण रुककर फिर उन्हें पति की आवाज़ सुनाई दी–अवरुद्ध कण्ठ से वह बोले थे–मेरे पिताजी ने छोटी माँ से छिपाकर मकान तुम्हारे नाम लिख दिया है। शायद यह बात किसी को भी नहीं मालूम है। तुमको भी नहीं। मकान के कागज़ वकील समीर बाबू के पास रखे हैं। गांगुली को साथ लेकर चली जाना और कागज़ ले लेना..।
इस प्रकार मानसिक वार्तालाप प्रायः नित्य ही होने लगा पति-पत्नी के बीच जिसके फलस्वरूप बहुत से ऐसे तथ्य सामने आने लगे जिन पर सहज ही लोगों का विश्वास होना कठिन है। लेकिन परामनोविज्ञान की दृष्टि में अति महत्वपूर्ण हैं वे तथ्य।
_विष मिला दूध पीने के थोड़ी देर बाद श्यामाचरण धरणीधर के सारे शरीर में जलन होने लगी और वह बेहोश हो गए और उसी बेहोशी की अवस्था में उनका शरीर छूट गया। जब उनको होश आया और उनकी अन्तर्चेतना जागृत हुई तो भौतिक जीवन उनके लिए विस्मृत हो चुका था। अब उनकी आत्मा सूक्ष्म शरीर से सूक्ष्म जगत में थी।_
उनके लिए सूक्ष्म शरीर और सूक्ष्म जगत ही सब कुछ था। लेकिन सरोजबाला की ओर से जब उनका मानसिक सम्बन्ध जुड़ा तो तत्काल भौतिक जीवन और जगत की सारी स्मृतियां जागृत हो उठीं एकबारगी उनकी। सांसारिक मायामोह से मुक्त हुई उनकी आत्मा एक बार फिर उसी मायामोह से पुनः ग्रस्त हो गयी। धीरे-धीरे जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक की सारी घटनाएं एक-के-बाद-एक उभरने लगीं उनके सामने।
इससे परामनोविज्ञान का एक सिद्धान्त स्वयं प्रमाणित हो जाता है कि मृतात्मा को अपने भौतिक जीवन की स्मृति नहीं रहती। अपनी वर्तमान स्थिति को ही वह सत्य समझती है लेकिन कोई उस आत्मा का सगा सम्बन्धी अथवा उसके परिवार का कोई सदस्य उसके सम्बन्ध में बराबर कुछ-न-कुछ सोचता है, उसकी इच्छा, उसकी आवश्यकता, उसकी दिनचर्या, उसके रहन-सहन की आवश्यकता के विषय में सोचता-विचरता है या किसी को बतलाता है, उसकी खास वस्तुओं का उपयोग करता है, उसकी किसी खास गुप्त बात को प्रकट करता है, उसके चित्र को अपने पास रखता है अथवा अपने शयनकक्ष में रखता है, पूजाघर में रख उसकी पूजा करता है तो इस अवस्था में उस व्यक्ति से स्वयं अपने आप मृतात्मा का अगोचर सम्बन्ध स्थापित हो जाता है जिसका परिणाम यह होता है कि वह मृतात्मा इस संसार के लिए जागृत हो जाती है और उसको अपना सांसारिक जीवन स्मरण हो आता है। इतना ही नहीं, जीवन की एक-एक घटना उसके समक्ष उभरने लग जाती है।
*जागृत मृतात्माएँ :*
परामनोविज्ञान के इस सिद्धान्त का भी पुष्टीकरण होता है कि ऐसी जागृत मृतात्माएँ अपने परिवार के सदस्यों या अपने सगे संबंधियों से अपना मानसिक सम्पर्क स्थापित कर लेती हैं और अपनी इच्छानुसार उनको और उनके जीवन को संचालित भी करती हैं, इतना ही नहीं, उनके कर्मक्षेत्र में समय-समय पर उचित सहयोग भी देती हैं, लेकिन जब तक सब कुछ उनके अनुकूल होता रहता है, तब तक तो ठीक है।
_जहाँ उनके प्रतिकूल और उनकी इच्छा के विरुद्ध हुआ कुछ तो समझिए सारी स्थिति बिगड़ते देर नहीं लगती। सब कुछ उलट-पलट हो जाता है।_
इस संदर्भ में परामनोविज्ञान यह भी कहता है कि इस प्रकार की जागृत मृतात्माएँ सूक्ष्म शरीर में रहते हुए भी अपने आपको स्थूल शरीर में जीवित समझने लग जाती हैं और रहने लग जाती हैं अपने घर-परिवार के बीच। ऐसी मृतात्माओं को, उसकी वस्तुस्थिति को समझना अति कठिन होता है और उनसे पिण्ड छुड़ाना भी होता है कठिन।
एक बात और वह यह कि वे रहती तो हैं अपने परिवार में, बाद में धीरे-धीरे उनसे प्रभावित होकर अन्य कई अतृप्त मृतात्माएँ भी रहने लग जाती हैं उनके बीच। फिर तो एक मठ बन जाता है वह स्थान मृतात्माओं का जिसका परिणाम यह होता है कि प्रचलित भाषा में उस मकान या उस स्थान को ‘भुतहा’ कहा जाने लगता है।
_ऐसे भुतहे मकानों में अपने कुत्सित विचारों, अपनी इच्छाओं, वासनाओं को प्रकट करने के लिए मृतात्माएँ कभी-कभी ईंट-पत्थर के टुकड़ों, मल-मूत्र की वर्षा करने लगती हैं, मकान के किसी हिस्से में, अलमारी और बक्से में रखे कपड़ों में आग लगा देती है, बर्तनों और अन्य सामानों को इधर-से-उधर फेंकने लगती हैं।_
धीरे-धीरे बाद में वह हवेलीनुमा मकान मृतात्माओं का अड्डा बन जाता है। सरोजबाला का वह विशाल मकान सम्भवतः आज भी मृतात्माओं का अखाड़ा बना हुआ है।
{चेतना विकास मिशन)