अग्नि आलोक

व्यक्तित्व: सुभद्रा कुमारी चौहान

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जिन्होंने कविता में पिरोई
झांसी की रानी की वीरता

भारत के इतिहास में क्षत्रिय अपनी अपनी तलवार के लिए प्रसिद्ध रहे हैं, लेकिन एक क्षत्राणी ऐसी भी थीं,
जिन्होंने अपनी कलम को तलवार बनाया। वो भी एक ऐसे समय में जब सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की
भागीदारी को लेकर बहस और मुहिम दोनों को तार्किक मुकाम तक पहुंचाने के लिए कई स्तरों पर संघर्ष चल
रहा था, बावजूद इसके आजादी के चार दशक पूर्व जन्म लेने वाली भारत की एक बेटी सुभद्रा कुमारी चौहान ने
अपने देश के लिए कलम उठाई और घर से बाहर निकलकर आंदोलनों में शामिल होने का साहसिक फैसला
किया। वे महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाली पहली महिला सेनानी बनीं तो देशभर में उन्हें
पहचान दिलाई उस कालजयी रचना ने, जिसमें उन्होंने मणिकर्णिका की वीरता को कविता में पिरोकर उन्हें
‘झांसी की रानी’ के माध्यम से हर शख्स की जुबां तक पहुंचा दिया…

चमक उठी सन् सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मरदानी वह तो, झांसी वाली रानी थी।

इसे अगर हिंदी की सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली कविता कहा जाए तो गलत नहीं होगा। स्कूल की किताबों से
लेकर जिंदगी के रंगमंच तक बार-बार यह कविता दिलोदिमाग से टकराती है। लेकिन बहुत कम लोगों को इस
बात का पता होगा कि सुभद्रा कुमारी चौहान ने इस कविता को जेल में रहते हुए लिखा था।
सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म नागपंचमी के दिन 16 अगस्त 1904 को प्रयागराज के पास निहालपुर गांव में
हुआ था। उन्होंने ‘क्रास्थवेट गर्ल्स स्कूल’ में शिक्षा प्राप्त की। 1913 में नौ वर्ष की आयु में सुभद्रा की पहली
कविता प्रयाग से निकलने वाली पत्रिका ‘मर्यादा’ में प्रकाशित हुई थी। यह कविता ‘सुभद्राकुंवरि’ के नाम से छपी।
यह कविता ‘नीम’ के पेड़ पर लिखी गई थी। सुभद्रा चंचल और कुशाग्र बुद्धि की थीं। सुभद्रा और महादेवी वर्मा
दोनों बचपन की सहेलियां थीं। उनकी पढ़ाई नौवीं कक्षा के बाद छूट गई। शिक्षा समाप्त करने के बाद ‘ठाकुर
लक्ष्मण सिंह’ के साथ सुभद्रा कुमारी चौहान का विवाह हो गया। विवाह के बाद वे जबलपुर में रहने लगीं।
लक्ष्मण सिंह एक नाटककार थे और उन्होंने पत्नी की प्रतिभा को आगे बढ़ाने में सदैव उनका सहयोग किया।

दोनों ने मिलकर कांग्रेस के लिए काम किया। सुभद्रा कुमारी चौहान, महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में
भाग लेने वाली प्रथम महिला थीं और कई बार जेल भी गईं। उन्हें 18 मार्च 1923 को जबलपुर में ‘झंडा
सत्याग्रह’ में भाग लेने के लिए भी जाना जाता है। जिस जज्बे को उन्होंने कागज पर उतारा उसे जिया भी। कहा
जाता है कि तब इस सत्याग्रह की खबर ने लंदन तक तहलका मचा दिया था। 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह
और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लेने की वजह से वे पांच अवसरों पर करीब एक साल तक जेल
में रहीं। लेकिन जेल के अपने समय को भी सुभद्रा कुमारी चौहान ने कभी बेकार नहीं जाने दिया। वे जेल के
अंदर भी नियमित सृजन करती रहीं। जेल में ही उन्हें अपनी कहानियों के विभिन्न पात्र मिले। जबलपुर जेल-
प्रवास के दौरान उन्होंने कई कहानियां लिखीं। वे मध्य प्रदेश विधानसभा की विधायक भी रहीं। अपने पूरी
जीवन में उन्होंने लगभग 88 कविताओं और 46 कहानियों की रचना की। 15 फरवरी 1948 को दोपहर के
समय नागपुर से जबलपुर लौटते समय एक सड़क दुर्घटना में 44 वर्ष की अल्पायु में उनका निधन हो गया।
उनकी मृत्यु पर माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखा, “सुभद्रा जी का आज चल बसना प्रकृति के पृष्ठ पर ऐसा लगता
है मानो नर्मदा की धारा के बिना तट के पुण्य तीर्थों के सारे घाट अपना अर्थ और उपयोग खो बैठे हों। सुभद्रा
जी का जाना ऐसा मालूम होता है मानो ‘झांसी वाली रानी’ की गायिका, झांसी की रानी से कहने गई हो कि लो,
फिरंगी खदेड़ दिया गया और मातृभूमि आजाद हो गई।” n

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