विद्या भूषण रावत
“यदि वास्तव में हम दलित व आदिवासियों की खोई हुई गरिमा व अस्मिता को प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें दलित युवाशक्ति की ऊर्जा का इस्तेमाल करना जरूरी है, क्योंकि अब नये तकनीकी व सूचना तंत्र के द्वारा युवाओं को प्रशिक्षित कर विकास के नये मार्ग प्रशस्त करने की आवश्यकता है। मैं आने वाली पीढ़ी को यही कहना चाहूंगा कि ज्ञान ही शक्ति है, इसलिए चाहे आप किसी भी क्षेत्र में पैर रखें, उस क्षेत्र की जानकारी होना आवश्यक है। तभी आप सफल हो सकते हैं। दूसरों के ऊपर आश्रित होकर सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर सकते हैं। इसलिए मेरा युवा पीढ़ी से यह आह्वान है कि चाहे दलित, युवा राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता, किसान, अधिकारी, उद्यमी, व्यापारी कुछ भी बनें, आपकी उस विषय पर इतनी पकड़ हो कि लोग आपसे सलाह लेने आएं। तभी आप सफल हो सकते हैं।”
सेंटर फॉर दलित राइट्स, राजस्थान के संस्थापक प्रभाती लाल मीमरोठ के निधन से देश भर के दलित अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों और कार्यकर्ताओं में शोक की लहर है। मीमरोठ ने कल 24 फरवरी, 2023 को सुबह 7.30 बजे अंतिम सांस ली। उनकी अंतिम इच्छानुसार उनके परिवार के सदस्यों ने उनके शरीर को मेडिकल कालेज को दान कर दिया और इस प्रकार मीमरोठ साहब ने मृत्यु के उपरांत भी मानवाधिकारों और मानव जीवन के लिए अपनी प्रतिबद्धता स्थापित कर दी। सुखद यह कि उनके परिजनों ने यह कर दिखाया। सामान्य तौर क्रांतिकारी पहल करनेवाले अपने ही घरों में अवांछित हो जाते हैं और उनके ही परिजन उनकी भावनाओं का ख्याल नहीं रखते।
मीमरोठ ने राजस्थान में उस समय रुख किया था, जब वहां पर दलित अधिकारों पर कार्य करने वाला कोई भी संगठन नहीं था। आंबेडकरवादी आंदोलन वहां न के बराबर ही था। तथाकथित मानवाधिकारों के संगठन भी जाति और छुआछूत के प्रश्नों पर चुप्पी ही बनाए रखते थे। 1990 के दशक मे दलित मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों में सेंटर फॉर दलित राइट्स ने हस्तक्षेपकारी भूमिका निभाई। 1990 के शुरुआती दिनों में मुझे उनके साथ काम करने का सुअवसर मिला था, जब वह दिल्ली में रह रहे थे और दिल्ली उच्च न्यायालय में वकालत की प्रैक्टिस कर रहे थे।
उन दिनों दलितों पर बढ़ती हिंसा को देखते हुए मीमरोठ साहब ने मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों की जांच के लिए एक पैनल शुरू किया और इसका नतीजा यह हुआ कि हमारे बीच लंबे समय तक साथ बना रहा। 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों में, भारत ने एक राजनीतिक उथल-पुथल देखी, क्योंकि वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की अनुशंसाओं को लागू किया और दलित-पिछड़े समुदाय के बीच एक सामाजिक और राजनीतिक एकता विभिन्न स्तरों पर बनने लगी। उत्तर भारत के शहरों में मंडल आयोग की रिपोर्ट का विरोध वास्तव में ओबीसी के खिलाफ नहीं, बल्कि दलितों के खिलाफ था। आम समझ यह थी कि सरकार दलितों को बहुत कुछ दे रही है। ये वे लोग हैं जो सामाजिक रूप से सबसे अधिक प्रभावित हुए, क्योंकि दलित समूहों के सड़कों पर उतरने के कारण यह लड़ाई दिखाई देने लगी। जमीन पर ओबीसी नेतृत्व की भूमिका ज्यादा नजर नहीं आ रही थी। बाद के वर्षों में मीमरोठ जी जैसे आंबेडकरवादियों ने लोगों को न्याय दिलाने के लिए तथ्य खोज में संलग्न होने और अदालतों में मामलों को लड़ने के लिए मानवाधिकार रक्षकों, वकीलों और कार्यकर्ताओं को संगठित किया।
सन् 1992 में, दलितों को राजस्थान के कुम्हेर गांव में सबसे बड़ी हिंसा में से एक का सामना करना पड़ा, जहां 19 दलितों को गांव के सामंती जाटों के द्वारा बेरहमी से जलाकर मार डाला गया था। देशभर में इस घटना के प्रति राष्ट्रीय आक्रोश था, लेकिन फिर भी काम बहुत कठिन था क्योंकि राजस्थान में जातिगत ताकतें बहुत मजबूत थीं और सामंतवाद अभी भी राजनीति को नियंत्रित करता था। एक व्यक्ति ने अपनी कानूनी सक्रियता के माध्यम से कुम्हेर के लोगों को न्याय दिलाने के लिए समर्पित रूप से कई प्रसिद्ध पूर्व न्यायाधीशों, वकीलों और नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं को लाकर इस मुद्दे पर उनके हस्तक्षेप की मांग की। जिसने यह पहल की, वह मीमरोठ साहब थे। इस मामले को लेकर वह लगातार लड़ते रहे, लेकिन राजस्थान की सामंती राजनीति ने यह सुनिश्चित कर दिया कि इस मामले मे कभी न्याय ही न हो।
कुल मिलाकर कुमहेर मे मौत के सौदागरों का कुछ नहीं बिगड़ा और दलितों पर राजस्थान में हमले बदस्तूर जारी हैं। कुमहेर के बाद से ही मीमरोठ राजस्थान में अधिक सक्रिय हो गए और अंततः उन्होंने सेंटर फॉर दलित राइट्स की स्थापना कर जयपुर में रहकर दलित मानवाधिकारों के प्रश्नों को तथ्यपरक अन्वेषण कर देश-दुनिया के सामने रखा। राजस्थान में दलित प्रश्नों पर एक नई पीढ़ी अब सत्ता से सवाल पूछने वाली बनी और आज आंबेडकरवादी मिशन भी गांव-गांव में सक्रिय हो चुका है। करीब 3-4 साल पहले एक बार की बातचीत में उन्होंने मुझे बताया–
“पहले मैं दलित अधिकारों को लेकर दिल्ली और दिल्ली के आसपास के क्षेत्र में कार्य करता था। मैं मूल रूप से राजस्थान का होने के कारण वहां की सामाजिक, जातीय, राजनीतिक, आर्थिक, भौगोलिक, सामंतवादी व्यवस्था से अच्छी तरह से परिचित था। राजस्थान में वर्ष 2001 से पहले की स्थिति और आज की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। जब मैंने राजस्थान में वर्ष 2001 में दलित उत्पीड़न व दलित मानवाधिकारों पर काम करना शुरू किया, उस समय स्थिति बहुत ही खराब थी। दलितों पर अत्याचार हो जाता था, लेकिन पीड़ित की मुकदमा दर्ज करवाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था। मन मसोस कर बैठ जाता था। थाना में मुकदमा दर्ज करवाने जाता था तो मुकदमा दर्ज नहीं किया जाता था। उस समय राजस्थान में दलितों पर काम करना तो दूर की बात है, कोई भी संस्था या संगठन दलितों की पैरवी करने के लिए दलित कार्यकर्ताओं को एकजुट करने और उनको प्रशिक्षण देने के लिए काम तक नहीं करता था। कार्य करते समय कई प्रकार की समस्याएं सामने आईं। कोई भी दलित महिला कार्यकर्ता काम करने के लिए तैयार नहीं होती थी। इसका मुख्य कारण यह है कि दलित महिलाओं व पढ़ी-लिखी महिलाओं को अवसर नहीं मिलता था। उन्हें अपनी बात कहने का मंच उपलबध नही था।”
मीमरोठ साहब के साथ मेरी पहली मुलाकात 1993 के आसपास हुई, जब आंबेडकर फाउंडेशन में अनेक आंबेडकरवादी लोग समय-समय पर मिलते थे। उस समय उन्होंने एक प्रोब पैनल की स्थापना की बात की, जो दलितों पर हमलो की समय-समय पर जांच कर सके और न्यायालय में उनकी मदद कर सके। वह एक वकील थे, इसलिए हर घटना को संविधान के परिपेक्ष्य में ही रखते थे। उसके बाद हम कई स्थानों पर साथ-साथ भी गए। वे समय-समय पर वकीलों, जजों की टीम लेकर भी फैक्ट फाइंडिंग के लिए जाते थे। उत्तराखंड के काशीपुर में दलितों को सीलिंग भूमि से बेदखली के मामले की जांच करने के लिए एक दल मे मीमरोठ साहब, श्रीमती मीमरोठ, मै, प्रमिला जी और नमिता रावत काशीपुर गए। जांच के दौरान ही हमलोगों के दल पर जाट सिखों के एक ग्रुप ने हमला कर दिया था, क्योंकि मीमरोठ साहब को इस प्रकार के जांच के पहले के अनुभव थे, हमलोगों ने पहले ही पुलिस की सुरक्षा ले ली थी और नतीजा यह हुआ कि वहा से हम अपनी जांच के बाद सुरक्षित वापस आ सके। बाद में मैंने उस मामले को करीब 25 वर्षों तक विभिन्न न्यायालयों में पहुंचाया और सीलिंग के कानूनों को लागू करवाया। यह अलग बात है कि सरकार ने दलितों को भूमि देने के मामले मे पचासों किस्म के अड़ंगे लगाए और न्यायालय भी सरकार की बात को खारिज नहीं कर पाई।
बताते चलें कि प्रभाती लाल मीमरोठ का जन्म 10 अप्रैल, 1939 को राजस्थान के दौसा जिला के गांव बिवाई में हुआ था। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक किया और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के विधि संकाय से एलएलबी किया। सन् 1959 से 1985 तक श्री मिमरोठ ने उत्तर रेलवे के साथ काम किया और न्यायमूर्ति वी. आर. कृष्ण अय्यर की प्रेरणा पर दलित अधिकारों की रक्षा के लिए कानूनी अभ्यास करने के लिए स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली।
उन्होंने 1987 से दिल्ली में केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण की प्रधान पीठ के साथ-साथ दिल्ली उच्च न्यायालय के साथ-साथ जयपुर में राजस्थान उच्च न्यायालय में वकालत करना शुरू किया। श्री मीमरोठ तब नागरिक स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के लिए समर्पित विभिन्न संगठनों के सक्रिय सदस्य बन गए। उन्होंने विभिन्न संगठनों जैसे भारतीय सामाजिक संस्थान, नई दिल्ली, सेंटर फॉर कम्युनिटी इकोनॉमिक्स एंड डेवलपमेंट कंसलटेंट्स स्टडीज, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के साथ-साथ पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज, राजस्थान के सदस्य के रूप में कार्य किया।
वह दलित मानवाधिकारों के राष्ट्रीय अभियान (एनसीडीएचआर) के संस्थापक सदस्यों में से एक रहे और अगस्त 2005 तक इसके सह-संयोजक बने रहे। वह लीगल एड सोसाइटी दिल्ली, के उपाध्यक्ष भी थे और अपनी स्थापना के समय से ही इसके मानद महासचिव की हैसियत से दिल्ली स्थित सोसाइटी ऑफ़ डिप्रेस्ड पीपल फ़ॉर सोशल जस्टिस (रजि.) से सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे। वह राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान के सह-संयोजक होने के साथ-साथ राजस्थान में इसके संयोजक भी थे।
ग्रामीण गरीब समुदायों की समस्याओं और कठिनाइयों का आकलन करने और उनकी पहचान करने के लिए राजस्थान, उत्तर प्रदेश और हरियाणा के गांवों में विभिन्न अध्ययन दौरों का संचालन करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने दिल्ली और राजस्थान में दलितों और ग्रामीण आबादी की दुर्दशा और उनके बहिष्करण और न्याय तक पहुंच की समस्याओं पर सार्वजनिक सुनवाई, सेमिनार और व्याख्यान भी आयोजित किए, जिसमें प्रतिष्ठित सुधारवादियों, न्यायविदों, राजनेताओं, सरकार ने भाग लिया और संबोधित किया। इनमें न्यायमूर्ति राजिंदर सच्चर, न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर, न्यायमूर्ति ए. वरदजन, एन.एच. कुम्भारे, सांसद और प्रख्यात मानवाधिकार अधिवक्ता गोविदा मुखोटी,न्यायमूर्ति के. रामास्वामी, न्यायमूर्ति एन.एल. तिबरीवाल और न्यायमूर्ति वी.एस. मलिमथ आदि शामिल थे।
अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 की निगरानी और कार्यान्वयन से उनकी गहरी रुचि का एक क्षेत्र था और इसके लिए मीमरोठ साहब दलित मानवाधिकार रक्षकों, अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं और नागरिक के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए सक्रिय रूप से प्रशिक्षण कार्यशालाओं, व्याख्यानों आदि का आयोजन करते रहे।
मीमरोठ साहब ने राजस्थान में दलित अधिकारों के मुद्दे को तब सक्रिय किया जब कोई भी ऐसा नहीं कर रहा था। सेंटर फॉर दलित राइट्स का गठन किया गया और इसने बड़ी संख्या में लोगों की मदद की और सामुदायिक अधिकारों के लिए लड़ने के लिए युवा वकीलों को तैयार किया। इनमें एक चकवारा का मुद्दा भी एक उदाहरण है, जहां दलितों को पीने के पानी पर अधिकार से वंचित किया गया था। मीमरोठ जी के मार्गदर्शन में सीडीआर द्वारा सफलतापूर्वक लड़ा गया था।
आज की नई पीढ़ी के लोगों को उनसे बहुत सीखने की जरूरत है। दलित या पिछड़े वर्ग के आंदोलन व्यक्तिगत प्रयासों के जरिए नहीं, अपितु संस्थागत प्रयासों के जरिए मजबूत हो सकते हैं। मीमरोठ ने नए युवाओं को वकालत पेशे की और मोड़ा और उन्हे कानूनों के जरिए अत्याचारों का मुकाबला करने की प्रेरणा दी। मेरे साथ बातचीत मे उन्होंने युवाओ के लिए जो बात कही वह आज भी महत्वपूर्ण है । उन्होंने कहा था– “यदि वास्तव में हम दलित व आदिवासियों की खोई हुई गरिमा व अस्मिता को प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें दलित युवाशक्ति की ऊर्जा का इस्तेमाल करना जरूरी है, क्योंकि अब नये तकनीकी व सूचना तंत्र के द्वारा युवाओं को प्रशिक्षित कर विकास के नये मार्ग प्रशस्त करने की आवश्यकता है। मैं आने वाली पीढ़ी को यही कहना चाहूंगा कि ज्ञान ही शक्ति है, इसलिए चाहे आप किसी भी क्षेत्र में पैर रखें, उस क्षेत्र की जानकारी होना आवश्यक है। तभी आप सफल हो सकते हैं। दूसरों के ऊपर आश्रित होकर सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर सकते हैं। इसलिए मेरा युवा पीढ़ी से यह आह्वान है कि चाहे दलित, युवा राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता, किसान, अधिकारी, उद्यमी, व्यापारी कुछ भी बनें, आपकी उस विषय पर इतनी पकड़ हो कि लोग आपसे सलाह लेने आएं। तभी आप सफल हो सकते हैं।”