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जेएनयू पर गर्व करने वाले कवि केदार!

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चन्‍द्रप्रकाश झा


दिवंगत कवि प्रोफेसर केदारनाथ सिंह (7 July 1934- 19 March 2018)  को नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) में पढाई जाने वाली देशी–विदेशी भाषाओ के ही नहीं सामाजिकी, पर्यावरण, अंतरराष्ट्रीय सम्बंध और कम्प्यूटर विग्यान पाठ्यक्रम के भी सब छात्र, शिक्षक, लायब्रेरी, कैंटीन और होस्टल कर्मचारी भी केदार जी ही बोलते थे. हम खुद कभी उनके शिष्य नही रहे.पर उनसे जेएनयू में छात्र जीवन और बाद में पत्रकारिता में भी सम्पर्क बना रहा. इसका कारण ये भी था कि वो मेरे छात्र जीवन बाद पत्नी बनी सहपाठी ,संध्या चोधरी के शिक्षक ही नहीं ‘हिंदी लघु पत्रिका आंदोलन’ पर 1982-84 में किये शोध के गाइड भी थे. वे इस पर कुछ नाराज थे कि उन्होने इस पर ‘एम.फिल’करने बाद सरकारी नौकरी हाथ लग जाने पर पीएचडी पूरी नही की.

1980 के दशक में लंदन बसे भारतीय मूल के प्रसिद्ध उपन्यासकार की लिखी पुस्तक “सैटेनिक वर्सेस” पर भारत में प्रधानमंत्री राजीव गांधी की कंग्रेस सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाने से यह मामला सियासत, मीडिया और साहित्य में जोर पकड़ने लगा. यूनाईटेड न्यूज इंडिया (यूएनआई) समाचार एजेंसी कम्पनी की हिंदी सेवा ‘वार्ता’ के सम्पादक काशीनाथ जोगलेकर ने एक सुबह कार्यालय आते ही मुझ पर नज़र पड़ने बाद मुझे बातचीत के लिये अपने केबिन में बुलाया. उन्होने इस मामले पर हिंदी अखबारो के पाठको के लिये विस्तृत रिपोर्ट लिखने कहा.

वह अपनी मातृभाषा मराठी ही नहीं अंग्रेजी ,हिंदी और बनारस में सीखी संस्कृत के भी विद्वान थे. वह आल इंडिया रेडियो की सेवा से रिटायर होने बाद वार्ता के सम्पादक बने थे. हमारी पत्रकारीय नौकरी के लिये इंटरव्यू उन्होने ही लिया था. इसलिये जानते थे कि मैं जेएनयू में चीनी भाषा एवम सहित्य के एमए कोर्स का छात्र रहा था. मैने उनके निर्देश पर तुरंत हामी भर कहा कि रिपोर्ट लिखने के लिये कुछेक भारतीय सियासी नेताओ और साहित्यकारो के अलावा सलमान रुश्दी से भी लंदन में खर्चीले ट्रंक काल से फोन पर बात करना बेहतर होगा. जोगलेकर जी ने हरी झंडी दे दी. फिर कहा जाओ ग्राउंड रिपोर्ट तैयार करो. चाहो तो उसी दिन फोन आदि खर्च के लिये अकाउंट विभाग से कुछ एड्वांस रकम ले ले. उन्होने चलते चलते पूछा: ‘जेएनयू जाकर किन साहित्यकार का इंटरव्यू करोगे ?’

मैंने छ्टते ही कहा : ‘कवि केदारनाथ सिह.’

उन्होने कहा: ‘बहुत बढिया रहेगा.’

केदार जी ने उस प्रतिबंध का प्रबल विरोध कर कहा था दुनिया में कही भी किसी साहित्यिक कृति पर सरकारी या और किसी तरह का प्रतिबंध नहीं लगना चाहिये.

केदार जी स्वयं एक लम्बी कविता थे.

केदार जी के बारे में बहुत लिख सकते हैं. वो स्वयं एक लम्बी कविता थे. एक खूबसूरत तस्वीर थे. एक सुंदर कहानी थे. एक बेहतरीन शिक्षक थे. उम्दा इंसानथे .सजग नागरिक थे. मुकम्मल व्यक्ति थे. उनकी एक कविता है मुक्ति, जो उन्होंने अपनी शारीरिक मुक्ति से 31 बरस पहले 1978 में लिखी थी. उन्होंने इस कविता में वो सारी बातें कह दीं जो उनके बाद भी जिंदा रहेंगी सबकी  ‘ परम मुक्ति ‘ तक.

वो कविता है :मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला मैं लिखने बैठ गया हूँ / मैं लिखना चाहता हूँ ‘पेड़’ / यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है / मैं लिखना चाहता हूँ ‘पानी’ / ‘आदमी’ ‘आदमी’ –मैं लिखना चाहता हूँ एक बच्चे का हाथ , एक स्त्री का चेहरा / मैं पूरी ताकत के साथ शब्दों को फेंकना चाहता हूँ / आदमी की तरफ यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा / मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका / जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है/ यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा मैं लिखना चाहता हूँ….

केदार जी के शिष्यों के अनुसार कविता पढ़ने में उनका कोई जवाब नहीं था. उन्होने खास कर छायावाद प्रवर्तक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और जयशंकर प्रसाद को मनोयोग से अपने शिष्यों को समझाया. उनका कहना था: ‘कविता को सही बल और ठहराव देकर पढ़ा जाए तो वो अपना अर्थ खोल देती है.’

उनके शिष्य रहे कोलकाता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी का कहना है: गुरूवर केदारनाथ सिंह से मैने बहुत कुछ सीखा मुझे अपने छात्रों के प्रति समानतावादी रूख और कक्षा को गंभीर अकादमिक व्यवहार के रुप में देखने की दृष्टि उनसे मिली. निर्विवाद सत्य है कविता पढ़ाने वाला उनसे बेहतरीन शिक्षक हिंदी में नहीं हुआ.  एक मर्तबा नामवर सिंह ने एम.ए द्वितीय सेमेस्टर की कक्षा में कविता पर बातों के दौरान हमलोगों से पूछा: आपको कौन शिक्षक कविता पढ़ाने के लिहाज से बेहतरीन लगता है.अनेक ने नामवर जी को श्रेष्ठ शिक्षक माना. मैंने प्रतिवाद कर कहा, ‘केदार जी अद्वितीय काव्य शिक्षक हैं.’

मैंने जो तर्क दिये गुरूवर नामवर जी उनसे सहमत थे. केदार जी को ये बात पता चली तो उन्होंने मुझे बुलाकर कॉफी पिलाई और पूछा: ‘नामवर जी के सामने मेरी इतनी प्रशंसा क्यों की?’

मैंने कहा कि ‘छात्र चाटुकारिता कर रहे थे. वे गुरु प्रशंसा और काव्यालोचना का अंतर नहीं जानत .वे काव्य व्याख्या को समीक्षा समझते
हैं.’

मानवाधिकारवादी कवि केदारजी का सबसे मूल्यवान गुण था उनके अंदर का मानवाधिकार विवेक. कविता और मानवाधिकार के जटिल संबंध की जो बारीक समझ केदार जी ने दी वह हिंदी में विरल है. लोकतंत्र के प्रति तदर्थवादी नजरिए से हिन्दी में अनेक कविता लिखी गयी पर गंभीरता से मानवाधिकारवादी कविता कम लिखी गयी है. यही बात उनको लोकतंत्र का बड़ा कवि बनाती है. वे हिंदी के कवियों में से एक कवि नहीं हैं बल्कि वे मानवाधिकारवादी कविता के सिरमौर हैं.

जेएनयू में फ्रेंच पढ़ी रेणु गुप्ता और अर्थशास्त्र पढ़ने बाद आर्थिक अखबार ‘द इकोनोमिक टाइम्स’ के सहयोगी सम्पादक रहे उनके पति जी.वी रमन्ना  उनके निधन पर दुख व्यक्त कर कहा कि वे एक महान कवि और शिक्षक थे.

केदार जी के अमेरिका में बस गए शिष्य अरुण प्रकाश मिश्र ने बताया: ‘मैं 1976 में जेएनयू आया. वे एक 1977 में जेएनयू हिन्दी विभाग में आये. उन्होंने हमें निराला की ‘राम की शक्ति-पूजा’ और जयशंकर प्रसाद रचित कामायनी का ‘चिन्ता’ सर्ग पढ़ाया. हमने उस कोर्स में शोध पत्र ‘स्वच्छन्दतावाद और छायावाद’ पर लिखा. उन्होने 1978 में एम.फिल.में तुलनात्मक साहित्य पढ़ाया जिसकी बदौलत उनके शिष्यों में साहित्य की सही समझ विकसित हुई और समाज को बेहतर समझने की दृष्टि मिली.

केदार जी हमेशा अभिभावक जैसे रहे, संवेदनशील और सहायक/ हिंदी दैनिक भाष्कर में कार्यरत वरिसठ पत्रकार ज्ञानेंद्र पांडेय के अनुसार केदार जी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गाँव में जन्मे थे. 19 मार्च को दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में उनका निधन हो गया. केदार जी हिंदी के ऐसे ख़ास कवि हैं जिनकी कविताओं का दुनिया की कई भाषाओं में अनुवाद हुआ.केदार जी दशकों तक दिल्ली में रहे.पर वो गाँव को कभी भुला नहीं पाए. उनक पैतृक गाँव चकिया यादों में समाया रहा. उन्होंने गाँव और शहर के बीच अद्भुत तालमेल बना रखा था.यह तालमेल उनके संस्मरणों की पुस्तक ‘चकिया से दिल्ली तक’ में आसानी से दिखती है. केदार जी लिखते हिंदी में थे पर उन्हें पूरी दुनिया में पढ़ा गया, उन्होंने अपनी मूल भाषा भोजपुरी को भी अपना बनाए रखा. उनके व्यापक रचना संसार से उन्हें कई राष्ट्रीय,अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिले. 2013 में उन्हें हिंदी का सर्वश्रेष्ठ ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया.

जेएनयू के दिवंगत पूर्व छात्र एवम ओयल इंडिया के आला हिंदी अधिकारी उमाशंकर उपाध्याय ने केदार जी के निधन के बाद हमारे आग्रह पर एक संकलन के लिये भेजे संदेश में लिखा: ‘ जब कभी नीम की पत्तियां झरने लगेंगी, जब कभी जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र के प्रोफेसरों मे सबसे सुन्दर मानव की याद की जाएगी तब केवल तुम और केवल तुम ही याद आओगे. जब कभी गोदावरी हास्टल के नजदीक शाम मे अचानक कोई पूछ बैठेगा- का हो उपधिया जी गांवे ना गइलह- तब अपने सबसे सहज संसार की याद आएगी. ऐसे लोग भुलाए नहीं भूलते.’

जेएनयू और केदार जी

केदार जी का कहना था उन्हें जेएनयू पर गर्व है.वह इसके कारण जो कुछ कहा जाए सुनने के लिये तैयार हैं.उन्हें कोई देशद्रोही कहे या आतंकवादी. उन्होंने प्रसिद्ध साहित्यकार प्रो. परमानन्द श्रीवास्तव की स्मृति में 26 फरवरी 2016 को गोरखपुर में एक कार्यक्रम में जेएनयू का जिक्र किया. जेएनयू पर लगाए आरापों से आहत केदार जी ने कहा जिस राष्ट्र के बारे में आज बात हो रही है उसके निर्माण में जेएनयू का बहुत योगदान है. उनका कहना था : ‘सौभाग्य से जेएनयू वाला हूं. जेएनयू का अध्यापक रहा हूं. याद है 1984 में प्रो परमानन्द जेएनयू में मेरे आवास पर ठहरे हुए थे. उस समय दिल्ली में सिखों की हत्या हो रही थी. पर जेएनयू के आस-पास ऐसी एक भी घटना नहीं हुई. जेएनयू छात्रों ने सुनिश्चित किया आस-पास कोई घटना न हो. इसके लिए वे पूरी रात इस इलाके में घूमते रहे. छात्र मुझे और परमानन्द जी को भी एक रात साथ ले गए. जेएनयू छात्रों ने यह काम किया पर उनको अब देशद्रोही कहा जा रहा है. जेएनयू के त्याग को समझना होगा. वे सभी समर्पित लोग हैं.किसी घटना को पूरे परिदृश्य में देखा जाना चाहिए.आज जिस राष्ट्र के बारे में बात हो रही है उसके निर्माण में जेएनयू का योगदान है. वह राष्ट्र जिस रूप में आज दुनिया में जाना जाता है, उसका बिम्ब गढ़ने में जेएनयू का योगदान है. भारत और उसके बौद्धिक गौरव का जानकार पढ़ा लिखा संसार मान ता है इस राष्ट्र को बनाने में जेएनयू का भी अंशदान है. नोम चोमस्की आज पूरे परिदृश्य में जेएनयू को याद कर आगाह कर रहे हैं कि इसके विरूद्ध कोई कार्य नहीं होना चाहिए. यह बहुत बड़ा सर्टिफिकेट है.उनकी बात ध्यान से सुना जाना चाहिए. नोम चोमस्की वह हैं जो सच को सच और झूठ को झूठ कहने का माद्दा रखते हैं. ऐसे लोग विरल होते जा रहे हैं.कभी यह काम ज्यां पाल सार्त्र करते थे. ये बौद्धिक हमारी मूलभूत चेतना के संरक्षक हैं. जेएनयू की बात आएगी तो चुप नहीं रह सकता.मुझे उससे जुड़े रहने पर गर्व है.’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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