भूखंड तपने से जमीन पकने तक के हालात*
*हक- हकूक के लिए लड़ने की परंपरा जारी रहेगी*
हरनाम सिंह
कोविड त्रासदी से उत्पन्न सन्नाटे को तोड़ते हुए प्रगतिशील लेखक संघ का 13 वां राज्य सम्मेलन अनूपपुर में संपन्न हुआ इस सम्मेलन में प्रकाशित स्मारिका *जमीन पक रही है* पर चर्चा होना चाहिये। चंद्रकांत देवताले से लेकर केदारनाथ सिंह तक “भूखंड तपने से लेकर जमीन पक रही है”। देश और दुनिया में बहुत कुछ बदल चुका है। लेखक इस बदलाव से अछूता तो नहीं रह सकता। अपने समय के मुद्दों पर लिखना, बोलना और सक्रिय रहना ही ईमानदार लेखक की पहचान है। इसी कसौटी पर प्रगतिशील लेखक संघ के राज्य सम्मेलन की स्मारिका खरी उतरी है। हरिशंकर परसाई को समर्पित तथा विदुषी कवियत्री आरती के संपादन में प्रकाशित स्मारिका का यह अंक अन्य अंकों की तरह ही संग्रहणीय है। पत्रिका में जहां अपने पुरखों को उनकी रचनाओं के माध्यम से याद किया गया है वहीं वैचारिकता, रचना प्रक्रिया से लेकर सामाजिक दायित्व पर भी पत्रिका में महत्वपूर्ण चर्चा हुई है।
अपने संपादकीय में आरती कहती है कि साहित्य मनुष्यता पर हो रहे शोषणो ( शोषण ) के खिलाफ रचनात्मक हस्तक्षेप है। हर काल में समय की विसंगतियों से उपजे अनाचारों के खिलाफ उसने आवाज उठाई है। साहित्य कभी भी सत्ता के साथ नहीं हो सकता। वर्तमान समय में भी सत्ता का लोक विरोधी चेहरा हमारे सामने है। संपादक आरती घोषित करती है की प्रलेसं की परंपरा हक- हकूक के लिए लड़ने की रही है यह हमेशा बनी रहेगी।
प्रगतिशील लेखक संघ निर्माण प्रक्रिया के दौरान संगठन के प्रमुख स्तंभ सज्जाद जहीर को प्रेमचंद द्वारा उर्दू में लिखा पत्र उन लोगों को जवाब है जो प्रेमचंद को सनातनी हिंदू प्रमाणित करने का प्रयास करते रहे हैं। कालजयी लेखक प्रेमचंदकाल की चिंताएं तब से लेकर अब तक वैसी ही है। *दो चार भले आदमियों…* की तलाश प्रेमचंद को थी, आज भी यह तलाश प्रलेसं की हर इकाई में बनी हुई है। वैसी ही चिंता *लेकिन सवाल पैसे का है…* फिक्रे- मआश ( रोज़ी की फिक्र ) भी करना पड़ती है…. यह फ़िक्र आज भी कायम है। जलसे की सदारत पर उठे एतराज पर प्रेमचंद का कथन स्वर्ण अक्षरों में लिखे जाने लायक है कि *वहीं जवान है, जिसमें प्रोग्रेसिव रूह हो, जिसमें ऐसी रूह नहीं वह जवान होकर भी मुर्दा है।*
अनेक बार शुभकामनाएं संदेश औपचारिक होते हैं। स्मारिका में असगर वजाहत का संदेश सवाल उठाता है, सुझाव देता है। वे पूछते हैं कि हिंदी प्रदेशों में फासीवाद और सांप्रदायिकता का यह उफान कैसे आया। वे हमारी कमजोरियों पर ध्यान दिलाते हैं कि कवि सम्मेलनों के प्रति हमने कोई नीति नहीं बनाई है… हम सदा किसी निर्देश की प्रतीक्षा करते रहते हैं। स्वयं अपना एजेंडा नहीं बनाते। असगर वजाहत सक्रियता के लिए कतिपय सुझाव भी देते हैं। जिन पर प्रलेसं की इकाइयों में चर्चा होना चाहिए।
महासचिव शैलेंद्र शैली अपने वक्तव्य में चिंता जाहिर करते हैं कि फासीवादी सत्ता ही देशभक्ति और देशद्रोह के मापदंड तय कर रही है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का घातक विचार अब आतंकी तरीके से मूल्यों को ध्वस्त कर रहा है। माइथोलॉजी और इतिहास का घालमेल किया जा रहा है। सम्मेलन के स्वागत वक्तव्य में रमेश सिंह कहते हैं कि देश में हुए किसान और नागरिकता आंदोलन, आदिवासियों के संघर्ष से देश की जमीन पक चुकी है। कभी भी विस्फोट हो सकता है। वे आज के संदर्भ में सवाल उठाते हैं कि क्या आपको लगता है कि आज के वक्त के प्रेमचंद की अमीना अपने पोते हमीद को अकेले ईदगाह के मेले में जाने देती ?
केदारनाथ सिंह पर दो आलेख हैं। आशीष त्रिपाठी उनकी कविताओं में उपमा के प्रभावशाली प्रयोग को रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि उनकी उपमा में प्राय: एक बिंब का रूप ले लेती है। कविताएं भरे थनो वाली गाय की तरह हो जाती है। अर्थ अभिप्राय और इंगित से भरी। केदार जी प्रतीक बिंब और रूपक के माध्यम से जादू रचने में समर्थ हैं। *बीमारी के बाद* कविता का प्रारंभ
*चीजो में स्वाद फिर लौट रहा है,*
*जैसे खेतों में*
*लौट रहे हैं तिनके*
*सन 47 को याद करते हुए* कविता में केदारनाथ सिंह विभाजन की स्मृति और राजनीति पर गंभीर सवाल उठाते हैं। वे देश विभाजन की तुलना जर्मनी के विभाजन से करते हैं। एकीकरण की इच्छा के उत्कट आवेग में वे कहते हैं
*इतने बरस हुए*
*गज़लों से भरे इस उपमहाद्वीप में*
*मुझे एक भूले हुए मिसरे का अब भी इंतजार है*
मंगलेश डबराल जो अब स्वयं स्मृति शेष हैं अपने संस्मरण में केदारनाथ सिंह की नवगीत परंपरा में लिखी कविता को याद करते हैं
*गिरने लगे नीम के पत्ते*
*बढ़ने लगी उदासी मन की…*
उनकी कविता नूर मियां, विभाजन, बढ़ती सांप्रदायिकता और मुसलमानों की मुश्किलों पर महत्वपूर्ण टिप्पणी है। वे अपनी यादों को उनकी कविता *जाऊंगा कहां* की पंक्तियां में समेटते हैं।
*जाऊंगा कहां रहूंगा यही… किसी रजिस्टर में… स्थाई पते की तरह*
स्मारिका में नामवर सिंह को उनके ही आलेख *फासीवाद का नया सौंदर्यशास्त्र* को पुनः प्रकाशित कर याद किया गया है। महत्वपूर्ण इस लेख में वे कहते हैं कि बीसवीं सदी का यह अंतिम दशक एक युगांतर है। इसमें अनेक विध्वंस लीलाएं हैं। बाबरी मस्जिद के साथ सेकुलर संस्कृति का विध्वंस, सोवियत संघ के समाजवाद का विध्वंस। उसके बाद अब तक हाशिये पर रही हिंदूवादी फासीवादी ताकतें सत्ता के केंद्र पर काबिज हो गई। नामवर सिंह के अनुसार वर्तमान संकट के केंद्र में तथाकथित धर्म है जिसका सही नाम संघ परिवार का हिंदुत्व है। वे अतीत में कांग्रेस संगठन के अंदर हिंदुत्ववादियों को याद करते हुए सोमनाथ मंदिर पुनर्निर्माण, बाबरी मस्जिद में रामलला मूर्ति रखने, आडवाणी की रथ यात्रा, बाबरी विध्वंस तक का सफर तय करते हैं और कहते हैं कि यह हिंदू राज्य नहीं तो और क्या है? नामवर सिंह कुमार अंबुज की कविता “क्रूरता” को उद्धृत करते कहते हैं कि अदृश्य क्रूरता की संस्कृति से सबसे ज्यादा बेखबर वे ही हैं जो अपने आप को सबसे ज्यादा सुसंस्कृत और सभ्य समझते हैं। आज का हिंदू फासीवाद एक तरह का सांस्कृतिक छल ही है, जो बाजार के कारोबार में भूमंडलीकरण लेकिन संस्कृति के मामले में स्वदेशी का आग्रह करता है।
अली जावेद को विनीत तिवारी ने उनके साथियों की यादों के साथ जोड़कर उनके व्यक्तित्व को समझने का प्रयास किया है। सामूहिकता भरे खुली बांहों वाले दोस्त अली जावेद विद्यार्थी जीवन में *लड़ाई- पढ़ाई साथ- साथ* नारे के साथ मुल्क और उसकी सियासत से स्वयं को जोड़ते हैं। आगे चलकर शिक्षक अली जावेद संस्कृति के क्षेत्र में संयुक्त मोर्चा बनाने में जुट जाते हैं। साहित्य अकादमी भवन के सामने लेखकों के एकजुट प्रदर्शन का नेतृत्व करते हैं, अवसर था एमएम कलबुर्गी की हत्या पर साहित्य अकादमी की चुप्पी के विरोध का। सांस्कृतिक कर्मियों की एकता अली जावेद को एफ्रो एशियाई लेखक संगठन तक ले आई जिसकी उन्होंने अध्यक्षता की थी।
हिंदी में समाजशास्त्रीय आलोचना पद्धति के शिक्षक मैनेजर पांडेय का निधन स्मारिका प्रकाशन की तैयारियों के दौरान ही हुआ। उनके लेख *क्या आपने “वज्र- सूची” का नाम सुना है ?* अन्य का तो पता नहीं मेरा जवाब तो ना ही है। अश्वघोष की रचना वज्र- सूची के समय काल की पहचान मैनेजर पांडेय परवर्ती और पूर्ववर्ती शब्दों से करवाते हैं।
महान कवि और नाटककार अश्वघोष क्रांतिकारी सामाजिक चिंतक थे। भारत से बौद्ध दर्शन,साहित्य और उसके अनुयायियों को किस स्तर पर नष्ट किया गया इस आलेख से स्पष्ट होता है। बुद्धकालीन अधिकांश ग्रंथ नष्ट कर दिए गए, केवल वेही बचे जिनका चीनी, जापानी, फ्रांसीसी और तिब्बती में अनुवाद किया जा चुका था। वज्र सूची ही अश्वघोष की एकमात्र रचना है जो संस्कृत में उपलब्ध है।
अश्वघोष की कई कृतियां लोकप्रिय थी, वही नहीं दूसरे बौद्ध दर्शन की अधिकांश रचनाएं गायब हो चुकी है। बौद्धों के अतिरिक्त चार्वाक सहित अनेक भौतिकवादी दार्शनिकों, विचारकों की रचनाएं भी देश में अब उपलब्ध नहीं है। वज्र सूची वर्ण व्यवस्था विरोधी पुस्तक है। दो हजार वर्ष पूर्व लिखी पुस्तक की जातिवादी चिंताएं आज भी बनी हुई है।
देश के जाने-माने रंगकर्मी इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणवीर सिंह से सत्यभामा का साक्षात्कार थिएटर के बारे में हमारी समझ को बढ़ाता है। इप्टा की *ढाई आखर प्रेम…* यात्रा के समापन अवसर पर इंदौर में रणवीर सिंह के सानिध्य की स्मृतियों के साथ सत्यभामा के सवालों से एक रंगकर्मी लेखक की बेबसी सामने आई। जब वे कहते हैं कि ” मैंने एक किताब का संपादन किया मगर अभी तक कोई प्रकाशक नहीं मिला… मेरे पास पैसा नहीं कि मैं छपवा सकूं ” थिएटर की दुर्दशा पर चिंतित रणवीर सिंह कहते हैं कि सबसे ज्यादा खराब हाल हिंदी पट्टी का है। शौकिया थिएटर कभी मूमेंट नहीं बन सकता। ख्याति प्राप्त इतिहासकार अर्जुन देव के संघर्षों को आदित्य मुखर्जी, मृदुला मुखर्जी सामने लाई हैं। ऐसा ही प्रयास हरिओम राजोरिया ने “चुपचाप साधनारत एक कलाकार” गेंदालाल सिंघई को याद करते हुए किया। गेंदालाल जी का यह कथन भी बेहद महत्वपूर्ण है कि *प्रतिबद्धता में प्रतिशत नहीं चलता* हरिओम राजोरिया के अनुसार उनके भीतर सघन वर्गीय चेतना थी। अपने हिस्से की रोशनी बिखेरती रजिया सज्जाद जहीर को जाहिद खान ने विरासत के रूप में याद किया है।
स्मारिका के लिए चयनित कविताएं महत्वपूर्ण और सामयिक है। महमूद दरवेश पूछते हैं कि *तुम खुद को आजाद कर पाते राइफल के विवेक से…* नाजिम हिकमत हिरोशिमा के संदर्भ में कहते हैं *मरने के बाद बड़े नहीं होते बच्चे… अमन के लिए तुम लड़ो… ताकि हंस खेल सके बच्चे दुनिया में।* अनुवादित कविताओं के साथ अगर उनके बारे में टिप्पणी भी जुड़ी होती तो पाठक कविताओं के साथ सहज ही अपना तादत्म्य बिठा लेता। अंत में पाश की ये पंक्तियां हमारे समय की सच्चाई को इंगित करती है
*हमारे वक्त का एहसास*
*बस इतना ही न रह गया*
*कि हम धीरे-धीरे मरने को ही* *जीना समझ बैठे थे*
.. सृजनशीलता हमेशा सामाजिक होती है। एजाज अहमद अपने आलेख में प्रमाणित करते है कि पूंजीवादी व्यवस्था सृजनशीलता की विरोधी होती है। यह कोई व्यक्तिगत नहीं अपितु मानवीय गुण हैं। एजाज अहमद के अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था में काम के वक्त और फुर्सत के वक्त में फर्क किया जाता है। यही वर्गीय समाज व्यवस्था की जड़ है। इसका यह भी अर्थ होता है कि श्रम करने वाले को फुर्सत नहीं होती इसलिए व सृजनशील नहीं होता, इसलिए श्रमिक वर्ग नहीं शोषक वर्ग ही सृजनशील हो सकता है।
आलेख में एजाज अहमद कहते हैं कि अतीत की स्मृतियों से ही इतिहास बनता है। स्मृति को धर्म, लिंग या राष्ट्र जैसी चीजों से नहीं जोड़ा जा सकता। इस आधार की सामूहिक स्मृति फासिस्ट अवधारणा है। स्मृति बहुत भरोसेमंद चीज नहीं होती। व्यक्ति चुनकर चीजों को याद रखता है, बाकी सब भूल जाता है। सामूहिक स्मृति अपने आप नहीं बनती उसे बनाया जाता है। उसमें कुछ तथ्य छुपाए जाते हैं कुछ उभारे जाते हैं। सारी स्मृतियां चयनात्मक होती है। उसके चयन के पीछे वर्गीय दृष्टि होती है। आर्थिक और राजनीतिक उद्देश्य होते हैं इसलिए सृजनशीलता के संदर्भ में सजग रहने की जरूरत है।
शरण कुमार लिंबाले मानते हैं कि प्रगतिशील आंदोलन में दलितों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों की आवाज को उठाया है। वर्ण व्यवस्था के खिलाफ बोलने की वजह से ही हिंदुत्ववादी उनकी जान के दुश्मन बन गए हैं… पूरी सामाजिक व्यवस्था के अभेद्य दुर्ग पर पहली चोट प्रगतिशील आंदोलन ने की है।
रचना प्रक्रिया पर महत्वपूर्ण आलेख कुमार अंबुज का है। उनके अनुसार दुनिया की सबसे रहस्यमई कोई चीज है तो वह रचना प्रक्रिया है। साहित्य बहुत सारी छलनियों से होकर धीमी गति से समाज में जाता है। अच्छी कविता के पाठक अधिक नहीं है। कविता के पाठक या प्रेमी उपदेश और कविता में फर्क नहीं कर पाने वाले विशाल भोले समुदाय के आदरणीय हिस्से भर हैं। कुमार अंबुज कहते हैं कि इस देश में हिंदी बोलने, समझने, पढ़ने वालों की संख्या 50 करोड़ है। कोई ऐसा समकालीन कवि है जो एक प्रतिशत पाठकों तक अपनी कविता पहुंचा पाता हो? एक दार्शनिक कवि के रूप में वे कहते हैं कि *मनुष्य की यातना का अंत कहीं नहीं है… कमजोर और विपिन्न की मुश्किलें तो अकूत है। साहित्य यह बताता है कि कमजोर की चीख हस्तक्षेप करती है।*
16 वीं शताब्दी के पंजाबी भाषा के सूफी कवि शाह हुसैन के माध्यम से सुखदेव सिंह सिरसा ने वर्तमान व्यवस्था का विश्लेषण किया है। वे पूछते हैं कि हम *साची- साखी* कहने वाले हुसैन कैसे बन सकते हैं? वे इतिहासकार इरफान हबीब की इस चिंता से सहमति व्यक्त करते हैं कि हम (भारतीय आवाम) इतिहास के बुरे दौर से गुजर रहे हैं। हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद ने भारतीय राज्य और लोकतंत्र का चेहरा- मोहरा विद्रूप कर दिया है।
स्मारिका के अंत में अनूपपुर की नदी चंदास को संरक्षित करने में प्रलेसं इकाई के प्रयासों की जानकारी गिरीश पटेल और ललित दुबे ने दी है।
. प्रलेसं के राज्य सम्मेलन के आयोजक और स्मारिका *जमीन पक रही है*, पत्रिका प्रकाशन, संपादन, चित्रांकन करनेवाली पूरी टीम बधाई की पात्र है।