अग्नि आलोक
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*बटन दबाओ भले ही महंगाई के बोझ से दबते जाओ*

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शशिकांत गुप्ते

चुनाव की घोषणा विधिवत हो गई है। चुनाव के पूर्व लाड़ली शब्द की बहुत गूंज सुनाई दी है।
स्वयं बहनाएं तो विज्ञापनों में लाड़ली हो गई लेकिन,बहनों और बहनोइयों के लाडले बच्चों के सामने महंगी शिक्षा, महंगाई, बेरोजगारी,का प्रश्न स्थाई हो गया है?
बहरहाल चुनाव के दौरान लाड़ली बहनों को थोड़े दिनों के लिए हाशिए पर रहना होगा, कारण जीत की उम्मीद में लड़ने वालें सभी उम्मीदवार चुनाव के दौरान लाड़ले उम्मीदवार होंगे।
प्रत्येक उम्मीदवार के लिए भोंपू ( लाउडस्पीकर) की कर्कश आवाज में सुनाई देगा आपका लाड़ला उम्मीदवार फलां फलां। भले ही यह लाडला चुनाव जीतने या पराजित होने के बाद पांच वर्षो में कभी कभार क्षेत्र की जनता को दिखाई दे?
सूरज भगवान के उदय का समय मौसम के अनुसार निश्चित होता है, लेकिन चुनाव में प्रचार करने वालें उत्साही कार्यकर्ता अपनी परंपरा का निर्वाह करते हुए,प्रचार करेंगे सूरज की पहली किरण के साथ ही फलां चुनाव चिन्ह का बटन दबाओ।
हर बार की तरह इस बार भी बटन दबाओ भले ही महंगाई के बोझ से दबते जाओ।
रोजगार के लिए तरसते रहों,कृषक अपनी उपज का वाजिब मूल्य पाने में असमर्थ होने पर स्वयं ही अपने हाथों गरल को अपने स्वयं के हलक में उतारने के लिए मजबूर हो,या कृषक अपने हाथों से रस्सी को गले में बांध अपने ही खेत के किसी दरख़्त की डाल से लटक कर स्वयं ही अपनी आत्मा की स्वयं ही हत्या करने के लिए बाध्य होना पड़े।
विज्ञापनों में लाडली कहलाने वाली बहनों और बहनों की कोख से जन्मी लाड़ली लक्ष्मीयों को कलयुगी दुशासन के दुष्टता का शिकार होना पड़े?
उपर्युक्त व्यवहारिक प्रश्नों का हल कब,कैसे मिलेगा?
मेरे द्वारा इतना लिखा,लेख पढ़ कर मेरे साहित्यिक मित्र सीतारामजी ने मुझ से कहा,आप कौन सी दुनिया में हो,क्या समाचार माध्यमों में प्रकाशित,प्रसारित विज्ञापन आप देखते,पढ़ते नहीं हो?
सार्वजनिक स्थानों पर बड़े बड़े होर्डिंग,और ऑटोरिक्शा पर चस्पा किए विज्ञापन नही देखें हैं?
मैने पूछा क्या हैं इन विज्ञापनों में?
सीतारामजी ने कहा अपना देश धार्मिकता में लीन हो रहा है।
भव्य धार्मिक आयोजनों में प्रतिस्पर्धा हो रही है।
मैने कहा हां यह तो सब हो रहा है।
सीतारामजी ने कहा ऐसे पुण्य के कार्यों को दरकिनार कर आप कहां महंगाई और रोजगार जैसे सतही प्रश्नों पर जोर दे रहे हो?
जानते नहीं हो जिस देश में विशाल पैमाने पर इतने महंगे धार्मिक आयोजन होते हैं, उस देश में महंगाई पर प्रश्न उठाना बेमानी है?
जिस देश के युवाओं के हाथों राजनैतिक दलों के झंडे हों, चार और दुपहियां वाहनों की ईंधन की टंकियां महंगे इंधन से लबरेज़ हो,सियासी दलों की रैलियों में तादाद में उपस्थिति दर्ज करवाने के लिए,यात्री वाहनों में मुफ्त सवारी मुहैय्या हो।
जब देश की जनता इतने दिव्य भव्य धार्मिक आयोजनों में उपस्थित होकर पुण्य कमाएगी और ऐसे विशाल स्वरूप में धार्मिक आयोजनों को सम्पन्न करवाने के लिए तादाद में सहयोग करने के लिए युवा तत्पर होंगे, उस देश में बेरोजगारी पर प्रश्न उपस्थित करना कदापि उचित नहीं है?
धार्मिक आयोजन,सफलता से सम्पन्न होने पर भंडारा नामक सामूहिक भोज का विशाल स्वरूप में आयोजन होता हो,
उस देश में भूखमरी,कुपोषण जैसे प्रश्नों की कोई अहमियत नहीं होती है?
सीतारामजी की तकरीर सुनने के बाद मैने कहा, मुझे,शायर शम्सी मीनाई
रचित नज़्म की कुछ पंक्तियों का स्मरण हुआ।
इस नज़्म में शायर ने व्यवस्था की नब्ज को पकड़ा है।
सब कुछ है अपने देश में रोटी नहीं तो क्या?
वा’दा लपेट लो जो लंगोटी नहीं तो क्या?
हाकिम हैं ऐसे देश का क़ानून तोड़ दें
रिश्वत मिले तो क़त्ल के मुजरिम भी छोड़ दें
सर्जन हैं ऐसे पेट में औज़ार छोड़ दें
हर क़िस्म की जदीद इमारत हमारे पास
(जदीद=नवीन)
हर एक पर्दा-दार-ए-तिजारत हमारे पास
(तिजारत =व्यापार)
अपनों को लूटने की जसारत हमारे पास
(जसारत = वीरता, शूरता) सीतारामजी ने उक्त पंक्तियां सुनने के बाद कहा,सच में आप व्यंग्य के ही लेखक हो।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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