अग्नि आलोक
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कहानी : साथ निभाने का वचन

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 आरती शर्मा

चटाक ……. की आवाज से दोनों तरफ ही सन्नाटा पसर गया , बिना कुछ बोले रवि अपने कमरे में और सुलेखा वहीं सोफे पर ढेर हो गई।ये क्या हो गया इन दोनों के बीच इसकी तो कभी कल्पना भी नहीं थी।

       आखिर क्यों? क्यों कहा उसने ऐसे , ऐसा कहते वक्त उसकी जवान नहीं लड़खड़ाई, कैसी घटिया सोच हो गई है लोगों की समझ नहीं आता क्या होगा आज के पढ़े लिखे समाज में जहां इंसान आकाश की ऊंचाई और पाताल की गहराई नापने में लगा हुआ है।

    वही मां पत्नी बहन बेटी के प्रति मानसिकता वहीं है बिल्कुल नहीं बदली।

तभी तो ………..।

    वरना इतनी बड़ी बात कहने की हिम्मत कैसे करता।

पर नहीं मैं हार नहीं मानूंगी, टेसुएं बहाकर खुद को कमजोर नहीं बनाउंगी।

बल्कि दृढ़ता से इसका सामना करूंगी।फिर वो आंसुओं को पोंछ उठी और नहाने चली गई।

वहां से लौटी तो आइने के सामने खुद को खड़ी होके निहारा , निहारा तो पाया,बालों में चांदी चमकने लगी है, आंखों के पास काले धब्बे का घेरा है और तो और अवसाद में मन उसका भरा है जो साफ साफ चेहरे पे देखा जा सकता है।

      ये देख फिर वो खिसियानी हंसी ,हंसी पर इस हंसी में उसने उन सभी अपनों के प्रति उसने नफरत और एक अजीब सा उचाट पन पाया।जैसे सारे मोह भंग हो गए हो

और खुद के प्रति एक आकर्षक एक ऐसा आकर्षक जिसमें खुद को चुस्त दुरुस्त रखने की चाह जागी।

       फिर रसोई में जाकर एक कप चाय बना सीधे बेड रूम में चली आई।

आज एक अजीब सुकून था उसकी दिनचर्या में कोई भागम भाग नहीं कोई जल्दबाजी नहीं।

    जिसे थोड़ी देर पहले उठी बेटी रीमा देख रही थी।पर कुछ बोलने की हिम्मत नहीं कर पाई।कैसे करती अभी घंटे भर पहले जो कुछ हुआ उसे देख ही वो सख्ते में है कि आखिर हो क्या गया।

    उसने देखो वो तैयार हुई और निकल गई। कोई बात नहीं जाना ही था वर्किंग जो हैं।

   उसे याद है जब वो छोटी थी तो सारी जरूरतें अपनी मां से कहती और मां इसे पूरा करने के लिए पापा से पैसे मांगती,पर पापा पैसों के बदले उन्हें गाली, अपमान और न जाने कौन कौन सी उपाधियों से नवाज देते पर पैसे न देते।

   फिर जैसे तैसे वो बड़ी हुई समझने लगी तो मां से अपनी जरूरत का जिक्र भी न करती स्वयं ही निकाल लेती।

इंटर पास करके उसने अपने जेब खर्च के लिए पैसे कमाने की सोच लिया। और कमाने भी लगी।

पर भैया , वो तो निठल्ले की तरह घर पर ही रहना पसंद किया।

    रहते न तो क्या करते उससे ज्यादा पैसे मां ने उसकी पढ़ाई पर खर्च किया,पर वो कुछ न कर सका।और आज ये हाल है कि दोस्तों के साथ मस्ती या घर पर ही रहता है ऊपर से ……..।

     नहीं नहीं आज जो कुछ हुआ वो अशोभनीय ही नहीं अप्रत्याशित था।

पर वो कर ही क्या सकती है कुछ नहीं….।

    करते करते दिन बीत गया शाम ढली और शाम काली रात में तब्दील हो गई पर मां अब तक नहीं लौटी थी।

रात दो बजे एक अनजान नम्बर से फोन आया।

     हेलो……. हेलो… पहले तो वो उठा नहीं रही थी पर कई बार घंटी बजती तो उठाई।उधर से आवाज आई

आप रीमा बोली रहीं हैं तो इसने कहा ,हां पर आप कौन मैं 

सिटी हास्पिटल से प्रदीप सुलेखा जी को जानती है।

हां …. हां…..

क्या हुआ उन्हें और वो वहां कैसे पहुंची वो तो आफिस गई थी।

जाने और कितने ही सवालों के घेरे में प्रदीप को ले लिया।

पर वो थे कि बस इतना बोलकर ” वैसे तो इन्होंने बुलाने से मना किया है पर इनके मोबाइल से पहला डायल नम्बर   आपका था तो मैंने आपको ही बताना उचित समझा जितनी जल्दी हो सके आप आ जाइए ये आखिरी सांसें गिन रही है कहते हुए  फोन काट दिया। पर ये झटपटाने लगी क्या करें ,कैसे करें कहां जाएं आधी रात को।कुछ समझ नहीं पा रही।

     जब कुछ समझ नहीं आया तो उस ओर गई जहां रवि बेसुध सो रहा था।

बदहवास सी भागी गई और दरवाज़ा पीटती हुई उठो …..।

  चलो हास्पिटल वरना बहुत देर हो जाएगी।

इस पर उसकी आंख खुली और हड़बड़ाकर उठा क्या हुआ।

कुछ नहीं बस चलो ,इस पर वो बोला मैं नहीं जाता क्यों जाऊं तू जा।

कहता हुआ करवट बदल फिर गहरी नींद सो गया।

      इस पर उसने उसी अनजान नम्बर पर फोन करके उनसे रिक्वेस्ट किया कि देखिए जहां से मेरा नम्बर मिला उसी के आस पास यादव नाम का नम्बर होगा ।सो प्लीज़ मुझे दे दीजिए।

        इस पर उस डाक्टर ने इंतज़ार करने को कहा ,फिर थोड़ी देर में नम्बर डायल करके राघव का नम्बर दिया।

और जैसे ही उनका नम्बर मिला इसने मिलाया और फूट फूट कर रोने लगी ,तो वो घबराते हुए क्या हुआ रो क्यों रही हो इस पर बड़ी हिम्मत करके इसने बताया मां…… वो कुछ आगे बोलती कि फिर वो बोला क्या हुआ मां को।

  मां हास्पिटल में है।

कैसे क्या हुआ?

इस पर ये बोली मुझे खुद नहीं पता अभी अभी वहीं से डाक्टर प्रदीप का फोन आया है।

कि वो वहां एडमिट है शायद रोड एक्सीडेंट हुआ है. अंकल मैं जाना चाहती हूं पर कैसे जाऊं?

भाई उठ नहीं रहा।

तो वो बोले मैं आता हूं तुम तैयार रहना साथ ही चलेंगे। और वो थोड़ी देर में हार्न दिया। पर वो बाहर नहीं आई।

शायद अजगर की तरफ पड़े अंदर उस शख्स ने रोक लिया था।

      वो उसकी डांट से सहमत गई थी।

जब वो नहीं आई तो बाहर खड़ा शख्स चला गया। वो तो चला गया पर छटपटाती रही धीरे धीरे भोर मुस्कुराई सुबह भी हुई।

       जब सुबह हो गई तो किसका डर ,निकलने ही वाली थी कि देखा राघव लाश लिए दरवाजे पर खड़े थे। जिस पर एक खोजें की जगह राखी रखी थी। क्या करता हर रक्षाबंधन पर  उसका जीते जी साथ निभाने का वचन जो लिया था। 🍃

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