सुसंस्कृति परिहार
16दिसम्बर 1971भारतीय सेना के इतिहास का वह सुनहरा दिन है जिस दिन भारत ने ,अपने पड़ोसी पूर्वी पाकिस्तान को वहां की अवामी लीग और मुक्तिवाहिनी सेना पर पाकिस्तानी फौजों के दमन पर पूर्णविराम लगा दिया तथा एक नए बांग्लादेश का जन्म हुआ।25 मार्च 21को बांग्लादेश नेअपनी आज़ादी की 50वीं जयंती मनाई गई।इस अवसर पर भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री का अभिनंदन किया गया।
बांग्लादेश की सभ्यता का इतिहास काफी पुराना रहा है। आज के भारत का अंधिकांश पूर्वी क्षेत्र जो कभी बंगाल के नाम से जाना जाता था। बौद्ध ग्रंथो के अनुसार इस क्षेत्र में आधुनिक सभ्यता की शुरुआत ७०० ईस्वी से माना जाता है। यहाँ की प्रारंभिक सभ्यता पर बौद्ध और हिन्दूधर्म का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। उत्तरी बांग्लादेश में स्थापत्य के ऐसे हजारों अवशेष अभी भी मौज़ूद हैं जिन्हें मंदिर या मठ कहा जा सकता है।
बंगाल का इस्लामीकरण मुगल साम्राज्य के व्यापारियों द्वारा 13 वीं शताब्दी में शुरु हुआ और 16वीं शताब्दी तक बंगाल एशिया के प्रमुख व्यापारिक क्षेत्र के रूप में उभरा। युरोप के व्यापारियों का आगमन इस क्षेत्र में 15वीं शताब्दी में हुआ और अंततः 16वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनीद्वारा उनका प्रभाव बढना शुरु हुआ। 18 वीं शताब्दी आते आते इस क्षेत्र का नियंत्रण पूरी तरह उनके हाथों में आ गया जो धीरे धीरे पूरे भारत में फैल गया। जब स्वाधीनता आंदोलन के फलस्वरुप 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ तब राजनैतिक कारणों से भारत को हिन्दू बहुल भारत और मुस्लिम बहुल पाकिस्तान में विभाजित करना पड़ा।
भारत का विभाजन होने के फलस्वरुप बंगाल भी दो हिस्सों में बँट गया। इसका हिन्दू बहुल इलाका भारत के साथ रहा और पश्चिम बंगाल के नाम से जाना गया तथा मुस्लिम बहुल इलाका पूर्वी बंगाल पाकिस्तान का हिस्सा बना जो पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना गया। जमींदारी प्रथा ने इस क्षेत्र को बुरी तरह झकझोर रखा था जिसके खिलाफ 1950 में एक बड़ा आंदोलन शुरु हुआ और 1952 के बांग्ला भाषा आंदोलन के साथ जुड़कर यह बांग्लादेशी गणतंत्र की दिशा में एक बड़ा आंदोलन बन गया। इस आंदोलन के फलस्वरुप बांग्ला भाषियों को उनका भाषाई अधिकार मिला। 1955 में पाकिस्तान सरकार ने पूर्वी बंगाल का नाम बदलकर पूर्वी पाकिस्तान कर दिया। पाकिस्तान द्वारा पूर्वी पाकिस्तान की उपेक्षा और दमन की शुरुआत यहीं से हो गई। और तनाव स्त्तर का दशक आते आते अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। बात दरअसल यह थी कि 1970के चुनाव में शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग ने उन्हें यहां 169सीटों में 167सीटों पर जिताया था पाकिस्तान की कुल 313 सीट थीीं जिनमें मुजीब उर रहमान को पूर्ण बहुमत मिला था लेकिन इससे पाकिस्तान ने मानने से इनकार कर दिया। तभी से शासक याहया खाँ द्वारा लोकप्रिय अवामी लीगऔर उनके नेताओं को बुरी तरह प्रताड़ित किया जाने लगा, जिसके फलस्वरुप बंगबंधु शेख मुजीवु्ररहमान की अगुआई में मुु्ति् बांग्लादेशा का स्वाधीनता आंदोलन शुरु हुआ। बांग्लादेश में खून की नदियाँ बही, लाखों बंगाली मारे गये तथा 1971 के खूनी संघर्ष में दस लाख से ज्यादा बांग्लादेशी शरणार्थियों को पड़ोसी देश भारत में शरण लेनी पड़ी। भारत इस समस्या से जूझने में उस समय काफी परेशानियों का सामना कर रहा था और भारत को बांग्लादेशियों के अनुरोध पर इस सम्स्या में हस्तक्षेप करना पड़ा जिसके फलस्वरुप 1971 का भारत पाकिस्तान युद्ध शुरु हुआ। बांग्लादेश में मुक्ति वाहिनी सेना का गठन हुआ जिसके ज्यादातर सदस्य बांग्लादेश का बौद्धिक वर्ग और छात्र समुदाय था, इन्होंने भारतीय सेना की मदद गुप्तचर सूचनायें देकर तथा गुरिल्ला युद्ध पद्धति से की। पाकिस्तानी सेना ने अंतत: 16 दिसम्बर 1971 को भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया, लगभग 93000 युद्ध बंदी बनाये गये जिन्हें भारत में विभिन्न कैम्पों में रखा गया ताकि वे बांग्लादेशी क्रोध के शिकार न बनें। बांग्लादेश एक आज़ाद मुल्क बना और मुजीबुर्रहमान इसके प्रथम राष्ट्रपति बने।
भारत ने पड़ोसी के नाते इस जुल्म का विरोध किया और मुक्तिवाहिनी की मदद करने का फैसला लिया। मुक्तिवाहिनी दरअसल पाकिस्तान से बांग्लादेश को आजाद कराने वाली पूर्वी पाकिस्तान की सेना थी। मुक्तिवाहिनी में पूर्वी पाकिस्तान के सैनिक और हजारों नागरिक शामिल थे। 31 मार्च, 1971 को इंदिरा गांधी ने भारतीय सांसद में भाषण देते हुए पूर्वी बंगाल के लोगों की मदद की बात कही थी। 29 जुलाई, 1971 को भारतीय सांसद में सार्वजनिक रूप से पूर्वी बंगाल के लड़ाकों की मदद करने की घोषणा की गई। भारतीय सेना ने अपनी तरफ से तैयारी शुरू कर दी। इस तैयारी में मुक्तिवाहिनी के लड़ाकों को प्रशिक्षण देना भी शामिल था।अक्टूबर-नवंबर, 1971 के महीने में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके सलाहकारों ने यूरोप और अमेरिका का दौरा किया। उन्होंने दुनिया के लीडरों के सामने भरत के नजरिये को रखा। लेकिन इंदिरा गांधी और अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के बीच बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंची। निक्सन ने मुजीबुर रहमान की रिहाई के लिए कुछ भी करने से हाथ खड़ा कर दिया। निक्सन चाहते थे कि पश्चिमी पाकिस्तान की सैन्य सरकार को दो साल का समय दिया जाए। दूसरी ओर इंदिरा गांधी का कहना था कि पाकिस्तान में स्थिति विस्फोटक है। यह स्थिति तब तक सही नहीं हो सकती है जब तक मुजीब को रिहा न किया जाए और पूर्वी पाकिस्तान के निर्वाचित नेताओं से बातचीत न शुरू की जाए। उन्होंने निक्सन से यह भी कहा कि अगर पाकिस्तान ने सीमा पार (भारत में) उकसावे की कार्रवाई जारी रखी तो भारत बदले कार्रवाई करने से पीछे नहीं हटेगा।पूर्वी पाकिस्तान संकट विस्फोटक स्थिति तक पहुंच गया। पश्चिमी पाकिस्तान में बड़े-बड़े मार्च हुए और भारत के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की मांग की गई। दूसरी तरफ भारतीय सैनिक पूर्वी पाकिस्तान की सीमा पर चौकसी बरते हुए थे। 23 नवंबर, 1971 को पाकिस्तान के राष्ट्रपति याह्या खान ने पाकिस्तानियों से युद्ध के लिए तैयार रहने को कहा। 3 दिसंबर, 1971 को पाकिस्तान की वायु सेना ने भारत पर हमला कर दिया। भारत के अमृतसर और आगरा समेत कई शहरों को निशाना बनाया। इसके साथ ही 1971 के भारत-पाक युद्ध की शुरुआत हो गई। 16 दिसंबर, 1971 को पाकिस्तान की सेना के आत्मसमर्पण और बांग्लादेश के जन्म के साथ युद्ध का समापन हुआ।
।इस वक्त भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं जिनके कुुुशल नेतृत्व में लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोरा के सामने पाकिस्तान के जनरल नियाजी ने 93000 सैनिकों के साथ समर्पण किया। इसे ‘मुक्ति संग्राम’ भी कहते हैं। यह युद्ध वर्ष 1971 में 25 मार्च से 16 दिसम्बर तक चला था। इस रक्तरंजित युद्ध के माध्यम सेे बांग़्लादेश ने पाकिस्तान से स्वाधीनता प्राप्त की। भारत की पाकिस्तान पर इस ऐतिहासिक जीत को विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है। पाकिस्तान पर यह जीत कई मायनों में ऐतिहासिक थी।
यह युद्ध इसीलिए भी यादगार बन गया क्योंकि अमेरिका ने हिंदमहासागर में अपना जहाजी बेड़ा उतारकर पाकिस्तान को मज़बूती देने की कोशिश की लेकिन इंदिरा जी सुदृढ़ विदेश नीति के चलते रूस से हुई 25वर्षीय मैत्री काम आई। इससे जहां पाकिस्तान ने मुंह की खाई वहीं बांग्लादेश निर्माण कर पूर्वी सीमा सुरक्षित कर ली गई।यह विजय ऐतिहासिक थी।आज जब चीन भारत भू की सीमा में घुसकर गांव बसा रहा है तब इंदिरा जी और लाल बहादुर शास्त्री जी की बरबस याद आती है जो अपनी जीती हुई जमीनों को छोड़कर साम्राज्य का विस्तार नहीं किए लेकिन अपनी ज़मीन का एक इंच भी किसी को अधिकृत नहीं करने दिया।आज हमारी सेना को सही नेतृत्व की ज़रूरत है ताकि चीन को सबक सिखाया जाता।