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त्वरित टिप्पणी:घोसी रिजल्ट : मायावती को झटका,अखिलेश का पीडीए पास, धराशायी हुए भाजपा के सारे प्रयास

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ये कहना आसान है कि घोसी की सीट समाजवादी पार्टी के खाते में थी और रह गई। नहीं, मेरा मानना है कि घोसी उपचुनाव रिजल्ट ने दिल्ली तक को प्रभावित करने वाले दूरगामी संकेत दिए हैं। घोसी में वोटिंग से दो दिन पहले की बेचैनी से शुरू करते हैं। भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी चुनाव आयोग से शिकायत करते हैं। वो कहते हैं- समाजवादी पार्टी के सेक्टर लिस्ट में गांव के नाम हैं। मखदूमपुर, घरौली, बनियापार में बूथ लेवल पर पैसे बांटे जा रहे हैं। चौधरी की तरह बीजेपी महासचिव राम प्रताप सिंह ने रोना रोया कि अखिलेश यादव की पार्टी मुसलमानों और दलित वोटरों को पैसे दे रही है। योगी आदित्यनाथ की बुलडोजर सरकार इतनी कमजोर तो हो नहीं सकती कि मऊ का प्रशासनिक महकमा गैर कानूनी तरीके से वोट खीरदने की इजाजत दे दे। फिर भाजपा पांच सिंतबर को वोटिंग से पहले ही बेचैन क्यों थी? इसका जवाब घोसी की जनता ने आज यानी आठ सितंबर को दे दिया है। दल बदलू भाजपा उम्मीदवार दारा सिंह चौहान बुरी तरह चुनाव हार गए हैं। वह सपा उम्मीदवार से 42759 वोटों के अंतर से हारे। समाजवादी सुधाकर सिंह के आगे योगी-मोदी फैक्टर भी फेल हो गया। इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलयांस की प्रयोगशाला सफल साबित हुई। लेकिन सबक मायावती को मिला है। विधानसभा चुनाव के दौरान ये साफ हो गया था कि बहुजन समाज पार्टी का वोट समाजवादी पार्टी में शिफ्ट हो रहा है। घोसी ने इसे पुख्ता कर दिया है।

जयप्रकाश नारायण

3:00 बजे के आसपास  टिप्पणी लिखे जाते समय तक घोसी में सपा के प्रत्याशी को निर्णायक बढ़त मिल चुकी है। तीन बजे तक मिली जानकारी के अनुसार सपा प्रत्याशी 45 हजार के अन्तर  से आगे हैं। वैसे पहले से ही यह अनुमान लगाए जा रहे थे कि सपा प्रत्याशी सुधाकर सिंह इस चुनाव में भाजपा के प्रत्याशी दारा सिंह चौहान पर भारी पड़ेंगे। लेकिन चुनाव परिणाम ने सारे  राजनीतिक विश्लेषकों के आकलन को गड़बड़ा दिया है। जिस तरह सत्ता पक्ष और विपक्ष ने पूरी ताकत झोंक दिया था।  उससे यह अनुमान लगाया जा रहा था कि अंतिम लड़ाई कांटे की होगी ।

घोसी विधानसभा अतीत में एक विशेष तरह की विधानसभा रही है जिसे कभी उत्तर प्रदेश का केरल कहा जाता था। अब यह बीते जमाने की बातें हैं। 90 के दशक के बाद बदली हुई भारत की सामाजिक राजनीतिक स्थितियों से घोसी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। जिस कारण कम्युनिस्ट पार्टी धीरे-धीरे हाशिए पर चली गई और बसपा ने सोशल इंजीनियरिंग द्वारा दलितों अति पिछड़ों, अल्पसंख्यकों का समीकरण बनाकर घोसी सहित मऊ जनपद पर अपना वर्चस्व कायम कर लिया।

कांग्रेस नेता कल्प नाथ राय के निधन के बाद मऊ में कोई ऐसा प्रभावशाली व्यक्तित्व नहीं बचा जो मऊ की राजनीति को प्रभावित कर सके। इस राजनीतिक खालीपन का फायदा उठाते हुए गाजीपुर से आकर अंसारी परिवार ने मऊ को अपना केंद्र बना लिया। अंसारी परिवार की पृष्ठभूमि कम्युनिस्ट राजनीति की  रही है। इसलिए मऊ में उन्हें आसानी से स्वीकृति मिल गई ।लेकिन मऊ शहर से बाहर घोसी और दूसरी विधानसभाओं पर उनका खास असर नहीं रहा।

बसपा ने मऊ की राजनीति में नए तरह का समीकरण बैठाया। जिसमें चौहान, निषाद, दलित, राजभर और मुस्लिम समाज का समीकरण बनाकर बसपा ने कई बार घोसी लोकसभा का चुनाव जीत कर अपना वर्चस्व कायम कर लिया। वर्तमान समय में भी बसपा से ही जीते हुए सांसद अतुल राय घोसी लोकसभा का प्रतिनिधित्व करते हैं।

बाद के दिनों में जैसे-जैसे राजनीति में बाहुबल धनबल और जाति बल का वर्चस्व बढ़ता गया। बसपा में ऐसे उम्मीदवार आने लगे जो संसाधनों से संपन्न थे ।इसलिए आजमगढ़ से आए हुए फागू चौहान ने घोसी विधानसभा और दारा सिंह चौहान ने मऊ लोकसभा सीटों पर अपनी पकड़ बना ली।

लेकिन जैसे-जैसे आक्रामक हिंदुत्व का प्रभाव बढ़ने लगा वैसे-वैसे अति पिछड़ी जातियां भाजपा और संघ के दायरे में खिंचती गयीं। समय की गति को देखते हुए फागू चौहान और दारा सिंह दोनों भाजपा में चले गए।बसपा का समीकरण बिखरने लगा। मऊ, कोपा, घोसी, मोहम्मदाबाद, गोहना कस्बे बुनकर बहुल इलाके हैं। इसलिए मुस्लिम विरोधी अभियान को केंद्रित करते हुए भाजपा ने अति पिछड़ी जातियों के साथ सवर्ण जातियों को भी गोलबंद कर लिया और मऊ जनपद पर भाजपा का वर्चस्व दिखने लगा।

2017 में भाजपा ने मऊ की लोकसभा सीट सहित कई विधानसभा सीटों पर जीत हासिल कर ली थी। लेकिन 22 के विधानसभा चुनाव में दारा सिंह चौहान भाजपा छोड़कर सपा में आ गए और घोसी सीट से चुनाव जीत गए। लंबे समय से सत्ता के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने वाले दारा चौहान बहुत दिनों तक विपक्ष में नहीं रह सके और वे विधानसभा से त्यागपत्र देकर भाजपा में चले आए। उनके त्यागपत्र के बाद घोसी सीट खाली हो गई। जिसके चुनाव के परिणाम इस समय आ रहे हैं।

इस बार सपा ने पूर्व विधायक सुधाकर सिंह को अपना उम्मीदवार बनाया और  इंडिया का उन्हें पूरा समर्थन मिला। इस बार कांग्रेस, सीपीआई, सीपीएम, माले और ओमप्रकाश राजभर से टूटे हुए महेंद्र राजभर सपा के साथ मजबूती से खड़े रहे और चुनाव अभियान में सक्रिय भूमिका में उतरे। घोसी विधानसभा चुनाव में इंडिया का सशक्त गठबंधन स्पष्ट दिखाई दे रहा था। जिसने चुनाव के वातावरण को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

भाजपा में शामिल एनडीए के अन्य दलों का कोई खास अस्तित्व न होने के कारण वह मुख्यत: अपने परंपरागत जन आधार सवर्ण जातियों के साथ चौहान, निषाद तथा ओमप्रकाश राजभर की पार्टी पर आश्रित होती चली गई। दूसरा सकारात्मक पक्ष यह है कि भाजपा उत्तर प्रदेश की सत्ता में है। उसके पास एक आक्रामक व्यक्तित्व वाला मुख्यमंत्री है। कुछ इलाकों में क्षत्रिय, भूमिहार और ब्राह्मण जैसी सवर्ण जातियां ताकतवर हैं। इसलिए भाजपा ने इन जातियों को अपने साथ बनाए रखने की हर संभव कोशिश की। लेकिन दारा सिंह चौहान के बार-बार दल बदल करने और डेढ़ साल के अंदर ही इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल होने से उनकी साख बहुत गिर गई थी। जिस कारण से इन जातियों ने दारा सिंह चौहान के खिलाफ लगभग विद्रोह कर दिया।

सूचना के अनुसार यूपी के 40 मंत्री और कई केंद्रीय मंत्री घोसी में डेरा डाले रहे। योगी आदित्यनाथ के आक्रामक नफरती तेवर के बावजूद क्षत्रिय जाति ने भाजपा का साथ नहीं दिया। इसके अलावा लंबे समय से दल बदलकर कर आने वाले पिछड़ी जातियों के नेता घोसी का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। जिस कारण भूमिहार सहित सवर्ण जातियों में  असंतोष दिखाई दिया। जबकि पूर्वांचल में अभी तक भूमिहार कट्टरता के साथ भाजपा के साथ खड़ा रहा है। लेकिन घोसी में उसका बहुमत सपा के पक्ष में चला गया। इस बार भाजपा की हार का एक बड़ा कारण क्षत्रिय और भूमिहारों का बिखरना भी है ।

बसपा ने अपने वोटर से कहा था कि या तो वोट न दें और देने जाएं तो नोटा पर बटन दबाएं । 15 अगस्त के बाद पूरे देश में यह संदेश गया है कि मोदी सरकार संविधान को बदलना चाहती है। जिस कारण से दलित समाज भाजपा से नाराज हो गया था और उसके अंदर इंडिया के प्रति रुझान दिखाई देने लगा था। इंडिया गठबंधन के पूर्ण समर्थन के कारण दलितों का भारी बहुमत सपा के पक्ष में चला गया। क्योंकि संविधान बदलने की बात आते ही गरीब से गरीब दलित परिवारों में यह धारणा बन गई कि यह सरकार बाबा साहब द्वारा बनाए गए संविधान को खत्म करने पर आमादा है। दलितों में गया यह संदेह आने वाले समय में राजनीति की नई दिशा की शुरुआत कर सकता है। दलितों के पढ़े लिखे नौजवान और कर्मचारी तथा सेवानिवृत अधिकारियों का बड़ा योगदान इस नैरेटिव को बनाने में है। घोसी विधानसभा में वोट की संख्या के आधार पर दूसरे नंबर पर रहने वाला दलित समाज बहुत संख्या में सपा के पक्ष में चला गया। जो उसके स्वभाव के विपरीत था।

महंगाई, बेरोजगारी और नफरत तथा हिंसा की भाजपाई राजनीति से आम जन अब परेशानी महसूस करने लगा है। जिस कारण जाति धर्म की सीमाएं कमजोर होती दिखाई दीं। ये प्रश्न सामाजिक और आर्थिक सवालों से उठकर राजनीतिक दिशाएं लेने लगे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी जैसे सवाल भी अब राजनीतिक आयाम ग्रहण कर रहे हैं। इसलिए इस चुनाव में जन मुद्दों ने भी अपनी भूमिका निभाई। इस बात के लिए सपा और इंडिया गठबंधन को श्रेय दिया जाना चाहिए कि मुस्लिम बहुल इलाका होने के बावजूद भी चुनाव को धार्मिक आधार पर विभाजित नहीं होने दिया। गठबंधन ने जनता के मुद्दे को ही चुनाव का एजेंडा बनाए रखा।

इस बार की खासियत यह थी कि जिन इलाकों में राजभर, चौहान, निषाद जातियां बहुमत में थी वहां भी भाजपा को भारी हार का सामना करना पड़ा है। घोसी विधानसभा के पश्चिमी इलाके बोझी से लेकर नदवा सराय और कोपागंज के बीच का इलाका भाजपा का मजबूत गढ़ हुआ करता था। वहां लगभग सभी पोलिंग बूथ पर एनडीए को हार खानी पड़ी है।

ओमप्रकाश राजभर की अवसरवादी राजनीति और दारा सिंह चौहान का दल बदल का फैक्टर भी इस चुनाव में जनता के लिए एक बड़ा मुद्दा था। साथ ही उम्मीदवार का चरित्र और व्यवहार भी गरीब जनता के बीच में आक्रोश का कारण बना। क्योंकि चुनाव जीतने के बाद दारा सिंह चौहान खुद अपने जाति आधार को भी कोई तरजीह नहीं देते हैं। चौहानों में जगह-जगह से आवाज उठती दिखाई दी कि वह जिनका काम करते हैं। जाकर उन्हीं से वोट मांगें। इसलिए निषाद, चौहान और राजभर में चुनाव को लेकर कोई उत्साह नहीं था।

पूर्वांचल की घोसी सीट का चुनाव इंडिया के लिए लिटमस टेस्ट की तरह था। इस सीट की सामाजिक संरचना बहुत जटिल है और कई तरह की विशेषताएं लिए हुए है।  इसलिए घोसी सपा और इंडिया गठबंधन की जीत आने वाले समय में उत्तर भारत की राजनीति पर गहरा असर डालेगी। 

सपा द्वारा सुधाकर सिंह को उम्मीदवार बनाए जाने के बाद चुनाव के शुरुआत से ही भाजपा पिछड़ती हुई दिखाई दे रही थी। लेकिन किसी भी कोण से ऐसा नहीं लगता था कि भाजपा इतने बड़े पराजय की तरफ जा रही है। इससे यह स्पष्ट है कि  उत्तर भारत के समाज में नई तरह की वैचारिक राजनीतिक अंतः क्रियाएं चल रही हैं जो इंडिया गठबंधन बनने के बाद अब एक निश्चित दिशा और आकर ले रही हैं। ऐसा लगता है कि आने वाले समय में भारत के राजनीतिक क्षितिज पर सर्वथा नए तरह के दृश्य और समीकरण दिखाई देंगे।

 (जयप्रकाश नारायण सीपीआई एमएल के नेता हैं।)

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