कंवल भारती
‘हम कौन हैं?’ यह प्रश्न मुख्यधारा के साहित्य का नहीं है। हिंदी के किसी भी मुख्यधारा के द्विज लेखक ने न यह प्रश्न कभी अपने साहित्य में उठाया और न कभी इस प्रश्न पर विचार करने की उसे आवश्यकता पड़ी। मुख्यधारा की राजनीति के केंद्र में भी यह प्रश्न नहीं है। यहां तक कि धर्म-दर्शन और इतिहास के पंडितों को भी इस प्रश्न ने कभी चिंतित नहीं किया। अद्वैत ब्रह्म का सूत्रपात करने वाले शंकर ने भी जाति का समर्थन किया, और संपूर्ण विश्व को आर्य बताने वाले दयानंद सरस्वती ने भी जाति का गुणगान किया। तब यह प्रश्न स्वत: उपस्थित होता है कि मुख्यधारा के विद्वानों को इस प्रश्न से क्यों जूझना नहीं पड़ा? इसका उत्तर हमें 2012 में प्रकाशित रजत रानी मीनू के प्रकाशित कहानी-संग्रह ‘हम कौन हैं’ में मिलता है। इस संग्रह की कहानियां मुख्यधारा के साहित्य और समाज के प्रति आक्रोश की अभिव्यक्ति के साथ-साथ, जाति से आहत और पीड़ित समाज के अपमानजनक परिस्थितियों से गुजरने और उसके अंतहीन संघर्ष की भी कहानियां हैं।
असल में हिंदू समाज में जाति का प्रश्न पहचान का प्रश्न है और रजत रानी मीनू ने अपनी कहानियों में पहचान की इसी त्रासदी से पाठकों को रू-ब-रू कराया है। संग्रह की पहली ही कहानी ‘हम कौन हैं’ में यह प्रश्न इतनी सहजता से छोटी बच्ची अजातिका अज्जू के जीवन में आता है कि वह बेचैन हो जाती है। अजातिका का अर्थ है, जिसकी कोई जाति नहीं। लेकिन हिंदू समाज में कोई बिना जाति के रहना भी चाहे, तो रह नहीं सकता। जो जाति से परहेज करता है, उसे तुरंत हिंदू समाज में नीच जाति का समझ लिया जाता है। इस कहानी में यही दिखाया गया है। यह कहानी एक प्राइवेट स्कूल की है, जिसमे धनेश्वर और उमा भारी फीस देकर अपनी छोटी बेटी अजातिका का लोअर किंडरगार्डेन (एलकेजी) क्लास में दाखिला कराते हैं। कुछ दिन बाद क्लास में जब क्लास टीचर अजातिका से उसका सरनेम पूछती है, तो वह परेशान हो जाती है। वह अबोध बच्ची नहीं जानती कि सरनेम क्या होता है। एक दिन अजातिका घर पर अपनी मम्मी को बताती है, “गुप्ता मैम आज भी बार-बार सरनेम पूछ रही थीं। मैंने बता दिया, अजातिका अज्जू। मेरी बात सुनकर क्लास के सब बच्चे हंसने लगे।”
“अच्छा, मैम ने उनको डांटा नहीं?” मां ने पूछा।
“नहीं, मैम भी हंस रही थीं।”
“कोई बात नहीं, मैं उनसे बात करूंगी।”
बच्ची आगे पूछती है, “मम्मी, मेरी इतनी सारी फ्रेंड्स हैं– शालिनी मिश्रा, दीपिका गुप्ता, चंद्रिका तोमर, हबीबा बानू, गुरमीत कौर, रोज मैरी। इन सबसे सरनेम क्यों नहीं पूछा जाता?” जवाब में उसकी मां कहती है–
“बेटी, इनके नाम के आगे सरनेम पहले ही लगे हुए हैं। इसलिए नहीं पूछा होगा।”
असल में सरनेम आदमी की पहचान है। एकाध साल पहले लोकसभा में एक सांसद ने कहा था कि सरनेम से यह पता चलता है कि आदमी कहां तक जा सकता है और कहां तक नहीं जा सकता। अगर सरनेम ब्राह्मण वाला है, तो उसकी तरक्की के सारे द्वार खुले हुए हैं, और अगर सरनेम दलित या शूद्र जाति का है, तो उसे कहां तक जाना है, यह सरकार और उसका कानून तय करता है। सरनेम पूछे जाने का यही एक मतलब है, और कुछ नहीं है। इस देश में दलित जातियों की पढ़ाई-लिखाई और नौकरी जाति द्वारा खड़ी की गईं इन्हीं सब बाधाओं से गुजरकर और उससे संघर्ष करके हुई है, और हो सकती है। इस कहानी की लेखिका यह दिखाने में सफल हुई हैं कि वर्णव्यवस्था के दंभ में डूबे वर्चस्ववादी जातियों के लोग किस तरह अबोध बच्चों के मस्तिष्क में जाति का बीज बोते हैं, जो द्विज और अन्य उच्च जातियों के बच्चों के मस्तिष्क में विकसित होकर उन्हें दलित जातियों के प्रति नफ़रत से भर देता है।
अजातिका अपनी मम्मी से पूछती है कि उसका सरनेम क्या है? फिर वह बताती है, “वालियंटर दीदी कह रही थी कि जो सरनेम नहीं लगाते, वो नीची जाति के होते हैं।”
यहां यह सवाल उठता है कि गुप्ता मैम और वालियंटर दीदी के मस्तिष्क में यह जहरीली धारणा कहां से आई कि जो सरनेम नहीं लगाते, वो नीची जाति के होते हैं? जाहिर है कि यह उनके माता-पिता द्वारा बचपन में ही उनके मस्तिष्क में बोये गए जाति के बीज का दुष्परिणाम है, जिसने विकसित होकर उन्हें दलितों के प्रति नफरत से भर दिया है। इस कहानी का ट्रीटमेंट विचारोत्तेजक है। बच्ची और मां के बीच का यह अंतिम संवाद देखिए–
“जाति क्या होती है मम्मी? हम कौन हैं?”
“बेटी हम हिंदू ही तो हैं।”
“नहीं मम्मी, हम हिंदू नहीं हैं।”
“क्यों?”
“क्योंकि हम पूजा नहीं करते। न ही मंदिर जाते हैं।”
“ओह, अच्छा तो मान लो, मुस्लिम हैं, क्या फर्क पड़ता है?”
“नहीं मम्मी, हम मुस्लिम भी नहीं हैं, क्योंकि हम नमाज नहीं पढ़ते, न मॉस्क जाते हैं।”
“तो सिख मान लो बेटी।”
“नहीं, हम सिख भी नहीं हैं, कभी गुरुद्वारा गए हैं क्या? पापा ने केश-दाढ़ी रखाए हैं क्या?”
“हां, वह तो नहीं रखाए हैं। तो मान लो हम क्रिश्चियन हैं।”
“अगेन रांग। हम चर्च भी नहीं जाते। अच्छा मम्मी, यह सब छोड़ो। मेरे एक क्वेशचन का आंसर दो। यह बताओ, यह नीची-ऊंची जाति क्या होती है?”
यह संवाद एक दलित बच्ची और उसकी मां के बीच का है। और निश्चित रूप से यह दलित घर की ही समस्या है। किसी ब्राह्मण और द्विज घर में इस तरह का संवाद नहीं हो सकता। वहां बचपन में ही बच्चों में यह संस्कार डाल दिया जाता है कि कौन ऊंची जाति का है और कौन नीची। इसलिए जाति का प्रश्न जितना दलितों को अपमानित करता है, उतना किसी और को नहीं। कहानी के अंत में लेखिका ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है कि “क्या यह अंग्रेजी स्कूलों की पश्चिमी संस्कृति है या मनुस्मृति काल की वापसी?” सच तो यह है कि भारत में जाति का अंत किसी काल में नहीं हुआ है। पूंजीवाद और पश्चिमी संस्कृति के विकास में भी भारत का शासक वर्ग द्विज ही है, जो दलित जातियों को उनका सामाजिक स्तर बताना नहीं भूलता।
संग्रह की दूसरी कहानी ‘फरमान’ है। यह गांव में सवर्णों के अत्याचार की कहानी है और उस दौर की, जब उत्तर प्रदेश में सत्ता-परिवर्तन होता है, और एक दलित स्त्री मुख्यमंत्री बनती है। लेकिन सत्ता-परिवर्तन का मतलब समाज-परिवर्तन नहीं होता। दलित सरकार बनने के बावजूद समाज में न सवर्णों का वर्चस्व खत्म हुआ, और न गांवों में दलितों की स्थिति बदली थी। यह कहानी कर्मवीर चमार की है, जो गांव के चौधरी रामौतार सिंह के मवेशियों को चराने का काम करता है। पहले यह काम उसके पिता करते थे। पर पिता की मृत्यु के बाद गांव में कोई और काम न होने के कारण, अब कर्मवीर यह काम करता है। एक दिन कर्मवीर से चौधरी रामौतार सिंह की एक भैंस खो जाती है, और वही उसकी मौत का कारण बन जाता है। कर्मवीर लाख कहता है कि उसने भैंस नहीं चुराई, पर चौधरी पर उसका कोई असर नहीं पड़ता है। वह गांव की पंचायत बुलाते हैं, जिसमें अधिकांश पंच सवर्ण और दलित-विरोधी हैं। वे न परिस्थितियों पर गौर करते हैं और न कर्मवीर की बात पर विश्वास करते हैं। वे सर्वसम्मति से कर्मवीर को चोरी का दोषी मानकर मौत की सजा सुना देते हैं। फिर एक दिन कर्मवीर की लाश एक खेत में मिलती है।
गांवों में दलितों के लिए इस तरह की कठोर यातनाएं और सजाएं नई चीजें नहीं हैं। ऐसी ही यातना की एक कहानी ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘गोहत्या’ है, जिसमें सुक्का को गोहत्या का दोषी ठहराया कर, उसके हाथों पर मुखिया के हुक्म से आग में तपाई गई लाल दहकती फाल रख दी जाती है और उसकी चीख से सारा वातावरण दहल जाता है। ‘फरमान’ में पंचायत का पूरा वातावरण दलित-विरोधी है। एक भी व्यक्ति कर्मवीर के पक्ष में नहीं है, यहां तक कि खटीक और अन्य पिछड़ी जातियों के कुछ लोग भी चौधरी की ही हां में हां मिलाते हैं। सजा सुनाने से पूर्व के कुछ लोगों के विचार गौरतलब हैं, जो बताते हैं कि गांव में चमारों की क्या इज्जत थी? यथा–
“सरपंच ने अपने को थोड़ा उदार दिखाते हुए आगे की पंक्ति में बैठे लोगों से कर्मवीर के अपराध के लिए क्या सजा दी जाए, राय मांगी थी। एक ने कहा था– सरपंच जी इसके नाक-कान काट लिए जाएं। तभी दूसरे ने अपनी राय रखते हुए कहा– इसकी घर वाली को अपने पास रख लो, जब तक यह भैंस लायक पैसा वापस नहीं कर दे। तीसरे व्यक्ति ने अपने विचार इस प्रकार रखे– इसका मुंह काला करके गधे पर बिठाके आसपास के चार गांवों में घुमाओ। छोटे चौधरी बड़ी ही समझदारी प्रदर्शित करते हुए बोले– मेरी मानो तो एक काम कर सकते हैं हम सब। जाकी मेहरारू को नंगा करके गांव भर में घुमाए देओ। पंडित रामकिशोर ने हस्तक्षेप करते हुए कहा– तुम सब ऐसा नहीं कर सकते। तुम्हें पता है, सूबे में सरकार किसकी है? एक औरत ही इसकी मुखिया है। वह हम सबको छोड़ेगी नहीं। नैन सिंह यादव को लगा कि वह भी अपनी बात रख ही दे तो ठीक रहेगा। यह सोचकर वह बोले– हमें पतो है वह क्या करेगी?”
गांव के सवर्णों-दबंगों के ये विचार उनकी किस मानसिकता का परिचय देते हैं, उससे न दलित अनजान हैं और न स्वयं सवर्ण। लेकिन यह कहानी जिस तरह की फोटोग्राफी करती है, उस पर यहां विचार करना जरूरी है। यह कहानी, जैसा कि रजत रानी मीनू ने अपने कहानी-संग्रह में अपने दो शब्द ‘पहचान का प्रश्न’ में लिखा है, 2008 में एक दैनिक अखबार में छपी एक घटना पर आधारित है। मीनू के अनुसार, “उन्होंने उस समाचार में पढ़ा था कि हरियाणा के एक गांव में एक दलित पर भैंस चोरी करने के आरोप में उसे पंचायत ने मौत की सजा दी थी।” उत्तर प्रदेश के परिवेश में, और उस राजनीतिक परिवेश में, जहां एक दलित स्त्री मुख्यमंत्री थी, भले ही गांवों में सामाजिक परिवर्तन न हुआ हो, पर दलितों में राजनीतिक चेतना पैदा हो गई थी और उन्होंने बोलना सीख लिया था। पर इसी दलित-चेतना ने गांवों में सवर्णों को दलितों के प्रति और भी जहरीला बना दिया था। यह इसी जहरीले परिवेश की कहानी है।
तीसरी कहानी ‘सुनीता’ है, जिसमें एक गरीब चमार परिवार की लड़की के उस संघर्ष को दिखाया गया है, जिसे आम तौर पर ऐसे परिवारों की लड़कियां नहीं कर पातीं, और अपने माता-पिता के दबाव के आगे बेबस होकर रह जाती हैं। ऐसी लड़कियां पढ़-लिखकर कुछ बनने के सपने तो देखती हैं, लेकिन उसके लिए वे परिस्थितियों से लड़ती नहीं। हालांकि सुनीता का परिवार आंबेडकर और बुद्ध में विश्वास करने वाला होता है, पर इसके बावजूद उनकी सोच वही पुरानी पितृसत्ता वाली है कि लड़कियां परायी होती हैं, और वंश बेटों से चलता है। यही सोच कर वे सुनीता को आगे पढ़ने से रोकना चाहते हैं। गांव का मुखिया भी उसके पिता को उसकी पढ़ाई रोककर उसकी शादी करने का सुझाव देता है। लेकिन सुनीता अपनी मां को समझाती है कि भंगी-चमारों को इसलिए पुश्तों से शिक्षा से दूर रखा गया कि ये लोग अपना सफाई का, चमड़े का पुश्तैनी धंधा न छोड़ें। अगर पढ़ेंगे, तो ये लोग बोलने लगेंगे। ये अपने हक की बात करने लगेंगे और उन्हें पाने के लायक बन जायेंगे। आखिरकार सुनीता बार-बार आग्रह करके और परिस्थितियों से लड़कर अपनी पढ़ाई जारी रखती है। छात्रवृत्ति और कुछ ट्यूशन पढ़ाकर अर्जित धन की सहायता से वह बी.ए. तक पढ़ने के बाद बी.एड. भी कर लेती है। और कुछ समय बाद उसे दिल्ली में प्रशासनिक विद्यालय में शिक्षिका के पद पर नौकरी भी मिल जाती है। नौकरी करते हुए ही सुनीता एम.ए., एल.एल.बी. भी कर लेती है। उसका सपना अब आईएएस बनने का है, पर उसी दौरान वह ‘दलित जन हिताय’ संगठन के अध्यक्ष सीताराम के संपर्क में आती है, जो उसे समझाते हैं कि उसे समाज के हित में राजनीति में आना चाहिए। “कलक्टर बनकर क्या करोगी? कलक्टर जैसे लोग तो आपकी फाइलें लिए हुए जी-हजूरी किया करेंगे।” सीताराम सुनीता में राजनीतिक महत्वाकांक्षा जगा देते हैं। परिणामत: वह लोकसभा का चुनाव लड़ती है, और लगातार दो बार पराजित होने के बाद तीसरी बार विजयी होकर सांसद बन जाती है।
इस कहानी के बारे में रजत रानी मीनू का कहना है कि यह कहानी उन्होंने 1997 में लिखी थी, और इसमें सुनीता को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते हुए दिखाया गया था। पर, यह कहानी जब रमणिका गुप्ता को उनके द्वारा संपादित कहानी-संग्रह ‘दूसरी दुनिया का यथार्थ’ में प्रकाशनार्थ भेजी गई, तो वह हिस्सा उन्होंने संपादित कर दिया। उनका कहना था कि सुनीता के संघर्ष की सफलता उसके चुनाव जीतते ही सिद्ध हो जाती है। एक तरह से रमणिका जी ने ठीक ही संपादित किया, जिससे यह कहानी मायावती के जीवन की प्रतिलिपि बनने से बच गई।
संग्रह की अगली कहानी ‘वे दिन’ है, जिसके बारे में डॉ. तेज सिंह ने टिप्पणी की थी– “आंबेडकरवादी साहित्य में यह शायद पहली कहानी है, जिसमें एक दलित दंपत्ति के संबंधों में आए अलगाव को बड़ी ईमानदारी से प्रामाणिकता के साथ उभारा गया है अपनी कुछ कमजोरियों के साथ। इस तरह एक दलित परिवार में एक औरत के अस्तित्व का संकट उसकी समूची अस्मिता के संकट के रूप में सामने आता है, जिसके लिए वह संघर्षरत है।”
कहानी में स्त्री के अस्तित्व का संकट तो है, पर दुखद यह है कि स्त्री अपने अस्तित्व को बचा नहीं पाती है और परिस्थितियों के आगे समर्पण कर देती है। कहानी एक अंजू की है, जिसकी दसवीं की पढ़ाई के दौरान ही शादी कर दी जाती है। मां-बाप उसकी इतनी बात भी नहीं मानते कि उसे दसवीं की परीक्षा देने देते। ससुराल में भी उसकी पढ़ाई की किसी को जरूरत नहीं है। गर्भावस्था के दौरान ही वह किसी तरह ससुर को मनाकर परीक्षा तो दे आती है, पर उसे आगे नहीं पढ़ने दिया जाता। कथा लेखिका ने अंजू की स्थिति का वर्णन इस प्रकार किया है– “मैं इंटर का फार्म भरने के लिए लाई थी। इन्होंने देख लिया तो उस रात मेरी बेरहमी से पिटाई की थी। लात-घूंसे, चप्पल, जो भी हाथ लगता, मार रहे थे, और मारते-मारते कसम दी थी कि तुझे तेरे बेटे की कसम यदि तूने यह फार्म भरा। इन्हें हर समय भय सताता रहता था कि मैं कहीं उनसे आगे न निकल जाऊं। अपने आप को एकदम बदल लिया था मैंने। सब भुला दिया अपने बच्चों के लिए। अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं की कुर्बानी दी थी। हालांकि मुझे अभी भी पढ़ना अच्छा लगता है।”
निस्संदेह, दलित परिवारों में स्त्रियों की आकांक्षाओं का दमन नई बात नहीं है। नई बात होती है उस दमन का विरोध और उसके खिलाफ संघर्ष। ये दोनों ही चीजें इस कहानी में नहीं हैं। पर हर स्त्री से संघर्ष की अपेक्षा नहीं की जा सकती। अगर अंजू चुपचाप मार खाती रहने के सिवा प्रतिरोध की क्षमता नहीं जुटा पाती है, तो इसका कारण अंजू का पितृसत्ता के उस अत्यंत कठोर नियंत्रण में रहना है, जो स्त्री को घर की चारदीवारी में रखने में ही अपनी शान समझता है। ऐसे परिवारों में असंख्य अंजू हैं, जो अपनी अलग पहचान बनाना चाहती हैं, पर पति की इच्छा के विरुद्ध अपनी इच्छाओं का गला घोंटकर जीना उनकी मजबूरी होती है। लेकिन, इस तरह की कहानियां संवेदना के स्तर पर दलित चेतना को धार तो देती ही हैं।
रजत रानी मीनू की सबसे अच्छी कहानी, न सिर्फ कथ्य की दृष्टि से, बल्कि भाषा और बिंब की दृष्टि से भी, ‘मिट्ठू की विरासत’ है। इस कहानी में आज़ादी पर सवाल खड़ा किया गया है। उस आज़ादी पर, जो सवर्णों को तो मिली, लेकिन दलितों को, और उनमें भी सबसे निम्नतम दलित को, जिसे हम मेहतर या सफाई कर्मचारी कहते हैं, नहीं मिली। असल में आज़ादी की खुशी सबसे अधिक उसे होती है, जो कैद या गुलामी में होता है। जो पहले से ही आज़ाद है, उसके लिए आज़ादी कोई मायने नहीं रखती। इस कहानी में मिट्ठू के माध्यम से आज़ादी के महत्व को दिखाया गया है। यह आसफपुर कसबे की कहानी है, जहां बिजलीघर के एक सरकारी क्वार्टर में कथालेखिका का परिवार रहता है। वहां एक मिट्ठू था, जो पिंजड़े में बंद रहता था। एक दिन पिंजड़े में खाना रखते वक्त उसकी खिड़की खुली रह गई, और मिट्ठू उड़ गया। कुछ दिनों बाद नीम के पेड़ पर उसकी आवाज फिर सुनाई देती है। सब उसे पहचान लेते हैं। अब वह कभी भी आ जाता, और क्वार्टर की दीवार पर आकर बैठ जाता। घर के लोग भी उसे कुछ न कुछ खाने को देते, जिसे खाकर वह फिर उड़ जाता। उसके साथ घर और पड़ोसी के लोगों का कैसा व्यवहार था, इसे जानकर ही कहानी को समझा जा सकता है। कथालेखिका के अनुसार, “वह हमसे अपेक्षाकृत अधिक घुल-मिल गया था। कभी किसी के सिर पर बैठ जाता, तो कभी हाथ पर, और कभी-कभी साथ थाली में से खाना लेकर खाने लगता था। पड़ोस की चाचियां-भाभियां अक्सर उसे हाथ में पकड़ लेतीं। ऐसा करके वे सब प्रफुल्लित होतीं। मुझे दिखाकर कहतीं– छूकर देखो, कितना प्यारा है यह।”
इसके बाद एक दूसरे मिट्ठू की कहानी शुरू होती है, जो साठ-बासठ वर्षीय मनुष्य है, बिजलीघर का सरकारी सफाई कर्मचारी है, पर बिजलीघर के क्वार्टरों की भी सफाई करता है। अगर वह एक दिन काम पर न आए, तो संडास सड़ने लगते थे और बदबू मुंह को आने लगती थी। और लोगों में गुस्सा बढ़ने कगता था। अगले दिन हर व्यक्ति दरोगा की भांति मिट्ठू पर टूट पड़ता– “कल क्यों नहीं आया?’”
“साब, तबीयत खराब हो गई थी।”
“तो किसी बच्चे को भेज देता।”
मेहतर के मामले में सिर्फ गैर-दलित का ही नहीं, दलित का बर्ताव भी सामंत वाला होता है। जैसे गांव में ठाकुर अपनी हवेली में काम करने वाले दलित मजदूरों से यह अपेक्षा करता है कि उनका पूरा घर उनकी गुलामी करे, मर्द बीमार हो, तो औरत हवेली में आए, उसी तरह एक मेहतर से भी यही अपेक्षा की जाती है कि उसका पूरा परिवार सफाई का ही काम करे और मर्द के बीमार होने पर उसकी औरत या लड़की या लड़का काम पर आवे। इसी मानसिकता के तहत कोई यह नहीं सोचता कि मिट्ठू के गंदे पेशे को उसके घर के बाकी सदस्य क्यों करें? पिंजड़े के मिट्ठू को सब प्यार करते हैं, उसे हाथ से छूते हैं, वह उनकी थाली से खाना लेकर खाता है, सब खुश होते हैं। लेकिन मनुष्य मिट्ठू किसी को छू नहीं सकता, उनकी थाली में से खाना लेना तो दूर, उसे रोटी भी उसके हाथ पर ऊपर से दूरी बनाकर डाली जाती है। वह खुद कॉलोनी का हैंडपम्प चलाकर पानी नहीं पी सकता, क्योंकि वह पेशे से नहीं, जन्म से अछूत है।
इस कहानी में एक नया मोड़ उस वक्त आता है, जब मिट्ठू बिजलीघर के इंचार्ज से, जो दलित जाति से है, अपनी ही जाति के ग्राम-प्रधान खचेड़ू की शिकायत करता है। वह खचेड़ू के साथ अपनी बातचीत का जो वर्णन करता है, उसका एक अंश यहां देना जरूरी है, क्योंकि उसमें अंतर्विरोध, प्रतिरोध और दलित चेतना तीनों मौजूद हैं। यथा– “मैं अपनी कुठरिया को उधड़बाय रहो थो। मैं सोच रओ थो ठाकुर, बावन, बनियों जैसो तो नांय, मगर एक छोटो सो गेरुए रंग की पक्की ईंटों को एक कोठो बन जातो बस्सात में गुजारो लायक। दुई कुठरिया की दीवार आदमी बरब्बर ठाड़ी भई थी। बाने मेरी नाक में दम कर दई। खुद दुइमंजिला मकान बनबाय लौ। खुद पूरे दिन गुलामी करत रहत है ठाकुर-बामन की। बाकी मेहरारू उन्हीं के घर में काम कत्त है और वो नेतागिरी के नाम पै अपनी कौम को ही गलो काटत है। आज मोसे सवेरे-सवेरे चौधरियों की तरियों बोलो, ‘मिट्ठू तोय मालूम है, मैं कौन हूं?’ साब, मैंने हूं कै दई, हां मालूम है, तू खचेड़ू है। इत्तो बोलो थो मैं, वो चीख कै बोलो, ‘मैं खचेड़ू हूं।’ कह कै वो मोसे चिपटन कूं थो। ऐसे समय में मैंने दबनो ठीक नांय समझो। सो मैं तन के ठाड़ो हुई गयौ। मैंने कही, ‘तू जब तें पिरधान बनो है, तब से अपनिन से ही काहे लड़त है? हमने तेरो का बिगाड़ो है? तोय लड़न को इतनौ ही सौक है तो जा उन ठाकुर, बाबन के घर लड़ जा कै। जहां तू अपनी पगड़ी पहनि के देहरी पर चढ़न की हिम्मत नांय रखत है। क्यों अपनों परधानी को बस्ता पंडित रामसरन के ढिंग रखत है? क्यों तू ठाकुर के सामने भीगी बिल्ली बनकै कहत है, ठीक है सरकार, जैसो आप ठीक समझें। आप लोगन की ही तो हम खात हैं। अरे हम और तुम काहू की नांय खात हैं। उलटे वे खात हैं हमारौ हिस्सो, हमारी मेहनत। हमारे घर में घुस कै बन गए सुथरे मुंह कै और हमें बनाए दौ अछूत।’”
मिट्ठू की ये बातें बिजलीघर के दलित इंचार्ज को विचलित कर जाती हैं। उन्हें उस बूढ़े मेहतर की बातें तर्कसंगत लगती हैं, और वह अनुभव करते हैं कि वास्तव में “हमीं भारत के आदिनिवासी यानी मूल भारतीय हैं। हम पर जुल्म हुए हैं। हमें गुलाम बनाया गया है। हमारा हक मारकर हमें अछूत कहा।” मिट्ठू के माध्यम से कराया गया दलित चेतना का यह बोध इस कहानी में दलित-स्वतंत्रता का प्रस्थान बिंदु है। पर कहानी का क्लाइमेक्स वहां है, जहां मिट्ठू की मौत के बाद उसकी बूढ़ी पत्नी अपने दस वर्षीय पोते को लेकर मिट्ठू की विरासत संभालने के लिए लाती है। निस्संदेह, यह उस समाज की कहानी है, जो अन्याय को समझता तो है, पर उससे मुक्त होने का संघर्ष उसमें नहीं है।
इस कहानी में अखरने वाली बात मिट्ठू की बासठ साल की उम्र है, क्योंकि उस दौर में सरकारी कर्मचारी अट्ठावन वर्ष की उम्र में रिटायर्ड हो जाते थे। और, दस साल की उम्र का पोता भी सरकारी नौकरी पाने के लिए योग्य नहीं हो सकता था।
अगली कहानी ‘वह एक रात’ में वह एक रात ही सुरेश और उसके परिवार के लिए कहर बन जाती है। सुनते हैं कि पुराने जमाने में राजे-महाराजे राहगीरों के लिए सराय बनवाते थे। पर यह तय है कि उन सरायों में दलित जातियों के राहगीरों को नहीं ठहराया जाता होगा। जब धर्मशालाएं बनीं, तो वे भी दलितों के लिए निषिद्ध थीं। सारी सार्वजनिक सुविधाओं का निर्माण इस देश में सिर्फ द्विजों के लिए ही हुआ। आज़ाद भारत में भी ये सार्वजनिक सुविधाएं दलितों के लिए नगरों-महानगरों में तो खुलीं, पर कस्बों में ये आज भी द्विजों के लिए ही हैं। सुरेश अपनी बहन को पढ़ाने के लिए गांव से दिल्ली ले आया था, पर वह शहर में रहने को तैयार नहीं थी। वह दिनभर रोती और गांव जाने की जिद करती। विवश होकर सुरेश उसे गांव जाकर छोड़ने के लिए तैयार हो जाता है। पत्नी भी गांव देखने के लिए साथ चलती है। इस प्रकार सुरेश को अपनी पत्नी, छोटी बच्ची और बहन के साथ दिल्ली से अलीगढ़ के रास्ते अतरौली आते-आते रात हो जाती है, और कर्मपुरा के लिए कोई सवारी न मिलने के कारण रात अतरौली में ही बिताने के सिवाय उनके पास कोई चारा नहीं था। सुरेश परिवार को लेकर सेठ धर्मदास पाठक की धर्मशाला में जाता है। वहां साधुनुमा मैनेजर, जो शायद पुजारी भी है, उसे बड़ी आत्मीयता से रजिस्टर में नाम-पता लिखवाकर एक कमरा दे देता है। पर रात में ही पुजारी से मिलने गांव का एक गांधीवादी सवर्ण आता है, जो सुरेश को पहचान लेता है। वह पुजारी को बता देता है कि यह तो चमार है। यह सुनते ही पुजारी की सारी आत्मीयता घृणा में बदल जाती है। परिणामस्वरूप, सुरेश और उसके परिवार को रात में ही अपमानित करके निकाल दिया जाता है।
यह कहानी उस दौर की है, जब सूबे में मायावती और कांशीराम की सरकार बनी थी। कहा जाता है कि मायावती और कांशीराम की वजह से सूबे के दलितों में स्वाभिमान भर गया था। पर इसी वजह से दलितों के प्रति द्विजों के ह्रदय और भी कठोर हो गए थे। जिस बस से सुरेश अपने परिवार के साथ अतरौली आ रहा होता है, उसी में कुछ सवर्ण यात्री आपस में जाति पर चर्चा करते हैं। एक अधेड़ उम्र का यात्री कहता है, “का तमने अंगरेजनु कौ जमानों देखौ हतौ? अंगरेजनु कौ छोड़ो, आज़ादी मिलन के बाद के चालीस-पचास साल में कमीनी कौमें देखीं? हिम्मति और खुद्दारी तो इनकी आंबेडकर के संग ही मरि गई। गे तौ मायावती और कांशीराम की जब तें सरकार बनी है, तब से इन पासी-चमार, भंगि-लुहार, धोबी-कहार सबके दिमाग चढ़ गए हैं। इनको सबक सिखानो ही पड़ेगो। बाबन कहत है कि देश में आंबेडकर आग लगाए गयौ। तभी तो आरक्षन से नौकरियों में आय कैं बाबू बने घूमत हैं ये चमार-भंगी। अब बड़िनु की बराबरी कौ रौब शहर में भले चले, पर गाम में नांय चलैगो, शहर के पहनावे में तो पतौ ही नायि चलतु है कि कौन बाबन है और कौन भंगी है?”
शायद ही गांवों में सवर्ण समाज की इस मानसिकता में कोई फर्क आया है। और इसका कारण है उनकी सोच लोकतांत्रिक न होना। यह कहानी इसी यथार्थ को सामने लाती है।
संग्रह की अगली कहानी ‘सलोनी’ है, जो एक ऐसी लड़की के बारे में है, जिसका रंग गोरा नहीं है, काला है। उसकी शादी के लिए उसे देखने आने वाले लोगों के बीच उसे अजीबोगरीब सवालों, बल्कि अपमानजनक हालात से गुजरना पड़ता है। वह नुमाइश की वस्तु बनते-बनते और अपमानित होते-होते थक गई है। वह अब आगे सजने से इंकार कर देती है। यह लगभग हर उस घर की कहानी है, जहां चेहरे के रंग को ज्यादा महत्व दिया जाता है, और लड़की की पढ़ाई-लिखाई और अन्य गुणों की उपेक्षा की जाती है। यह वास्तव में सलोनी के भीतर चल रहे अंतर्द्वंद्व की कहानी है, जिसे बहुत ही मनोवैज्ञानिक तरीके कथालेखिका ने बुना है। इसलिए इसमें पात्र और संवाद ज्यादा नहीं है, बल्कि जो भी संवाद है, वह सलोनी के मन का ही है, जिसमें उसी के सवाल और उसी जवाब हैं। पर इस कहानी का अधूरा क्लाइमेक्स अखरता है।
अगली कहानी ‘भाईचारा’ है, जिसे पढ़कर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का दिमाग घूम सकता है। यह भाईचारा नाम से बने अपार्टमेंट के सवर्ण वाशिंदों की घोर जातिवादी मानसिकता की कहानी है। इसमें गीतांजली पाठक हैं, जिनके फ़्लैट में कालोनी की कुछ महिलाएं भाईचारा करने आई हैं। उनमें मिसेज दुबे हैं, मिसेज मिश्रा हैं, और नीता प्रसाद हैं। गीतांजली सबको चाय-नाश्ता कराती हैं। बातचीत के दौरान ही गीतांजली अपने कुछ संस्मरण सुनाने लगती है– “एक बार हमारे गांव से एक धोबी आया। उसे अगर खाना न खिलाओ, तो भी बुरी बात है। मैं बड़ी असमंजस की स्थिति में फंस गई। क्या करूं, क्या नहीं। तब हमें याद आया कि हमारे पास एक प्लास्टिक की प्लेट और कटोरा पड़ा था, जिसमें हम अपने प्यारे डॉनल (कुत्ते) को खाना खिलाते थे। उसके मरने के बाद उसकी याद में उसके बर्तन संभालकर रखे थे। मैंने वे बर्तन निकाले, उसी में परोसकर खाना खिलाया।” गीतांजली को मालूम नहीं था कि उसके सोफे पर बैठी नीता दलित थी, और उसे यह बात बुरी लग रही थी। उसे लगा कि गीतांजली उसे ही कुत्ते की प्लेट में खाना खिला रही है। खा-पीकर जब सब चली गईं, तो मिसेज मिश्रा ने गीतांजली को फोन करके बताया कि उसे नीता के सामने यह बात नहीं सुनानी चाहिए थी, क्योंकि वह दलित है। यह सुनते ही दलित के प्रति गीतांजली की घृणा बाहर आ जाती है, और उसे उबकाई आने लगती है। यह घृणा इतनी तीव्र हो जाती है कि उसके लिए वह सोफा भी बदबू मारने लगता है, जिस पर नीता बैठी थी। वह तुरंत एक डंडे से सोफे पर रखीं सारी गद्दियाँ और कुशन हटाकर बालकनी में खिसका देती है। गीतांजली का सारा भाईचारा हवा बनकर उड़ जाता है। और कुछ दिन बाद जब वह अपने यहां लिट्टी पार्टी का आयोजन करती है, तो उसमें उदयवीर प्रसाद और नीता प्रसाद के दलित परिवार को आमंत्रित नहीं किया जाता है। क्या ऐसे जातिवादी लोग भाईचारा बनाएंगे? यही इस कहानी का संदेश है। क्या यह कहानी किसी भी स्वाभिमानी दलित को सवर्ण के घर जाने से रोकने और अगर जाना ही पड़ा, तो उसके वहां जलपान करने से परहेज करने के लिए जागरूक नहीं करती है?
संग्रह की अंतिम तीन कहानियां ‘रिश्ता’, ‘महामहिम का भाषण’ और ‘गिरोह’ हैं। ‘रिश्ता’ साधारण कहानी है, और दलित चेतना की दृष्टि से संपन्न और गरीब दलित के भेद को जरूर कुछ रेखांकित करती है, पर प्रभाव नहीं छोड़ती है। पर, ‘महामहिम का भाषण’ कहानी शिमला के उच्च अध्ययन संस्थान का स्मरण कराती है। इस उच्चस्तरीय शोध संस्थान में पहली बार कोई ईसाई डायरेक्टर बनकर आता है, तो वहां के निम्न जातीय स्टाफ में खुशी छा जाती है, क्योंकि सालों से वहां द्विज डायरेक्टर के अधीन उनका उत्पीड़न हो रहा था। लेकिन जैसे ही पता चलता है कि ईसाई डायरेक्टर मूल रूप से द्विवेदी ब्राह्मण है, तो सारा सवर्ण स्टाफ खुश हो जाता है, और निम्न जातीय स्टाफ निराश हो जाता है। यह ईसाई डायरेक्टर अपने हाथ में लाल धागे का कलावा बांधता है और आवास में हिंदू देवताओं की मूर्तियां रखता है। वह संस्थान में उपराष्ट्रपति का भाषण कराता है, और उनके स्वागत के लिए लाखों रुपए खर्च करके संस्थान का सारा प्राचीन ऐतिहासिक स्वरूप तहस-नहस करके उसे नया रूप देने की कोशिश करता है। सभी द्विज उच्च अधिकारी डायरेक्टर की हां में हां मिलाते हुए संस्थान के कायाकल्प में लग जाते हैं। कोई भी यह हस्तक्षेप करना जरूरी नहीं समझता कि लाखों रुपए की फिजूलखर्ची संस्थान की ऐतिहासिकता मिटाने के लिए क्यों की जा रही है? दरअसल यह कहानी यह बताती है कि ब्राह्मण और द्विज किसी भी धर्म में चले जाएं, वे अपना मूल चरित्र नहीं भूलते। और उनका यह मूल चरित्र है संसाधनों को बर्बाद करके लूट-खसोट करना।
अंतिम कहानी ‘गिरोह’ ब्राह्मणों और सवर्णों के उस गिरोह का पर्दाफाश करती है, जो अपने रिश्तेदार उच्च अधिकारियों के माध्यम से अनुसूचित जाति के फर्जी प्रमाणपत्र बनवाकर आरक्षित पदों पर आसानी से नौकरियां पा लेते हैं। एक सवर्ण अपने दोस्तों को बताता है– “मेरे मामा की दोनों बेटियां और बेटे एम.ए. से पहले थर्ड क्लास थे, और एम.ए. में तिवारी जी से चतुर्वेदी को चिट्ठी लिखवा कर उनका बेटा ले गया। उन्होंने रोल नंबर दे दिए और दोनों को प्रथम श्रेणी मिली। प्रैक्टिकल में तो 100 में 99 अंक मिले, जबकि एस.सी. साले मुंह ताकते रह गए और फेल कर दिए गए। उन दोनों के लिए भी यही हुआ। 1993 तक स्वयं गाइड ने दस हजार लेकर एक थीसिस टाइप करा दी। लेक्चरशिप के इंटरव्यू में द्विवेदी जी बैठे थे, बनारस वाले। सलेक्शन हो गया।” कहानी में बताया गया है कि ऐसे मामले पकडे जाने पर भी उनमें कार्यवाही नहीं होती, और अगर होती भी है, तो नतीजा सवर्णों के पक्ष में ही आता है।
यह कहानी मंडल कमीशन की अनुशंसाएं लागू होने के बाद की परिस्थितियों को दर्शाती है। तब दलितों के लिए आज जैसी नौकरियों से वंचित रखने की स्थिति नहीं थी। तब सरकारें आरक्षण पूरा करने के लिए विशेष भर्ती अभियान चलाती थीं। ब्राह्मण और द्विज इस भर्ती अभियान के न केवल खिलाफ थे, बल्कि यह उनकी आंखों में खटकता भी था। इसलिए उन्होंने फर्जी दलित प्रमाणपत्र बनवाकर हजारों की संख्या में आरक्षित वर्ग की नौकरियां हासिल कर ली थीं। आज सत्ता में वही भारतीय जनता पार्टी है, जिसने 1992 में मंडल कमीशन की सिफारिशों के खिलाफ देशव्यापी प्रदर्शन किया था और हिंसा को अंजाम दिया था। अब जब वह अपने मूल आरक्षण-विरोधी एजेंडे के साथ शासन कर रही है, तो उससे लाभान्वित ब्राह्मण-द्विज वर्ग उसका कट्टर समर्थक बना हुआ है, क्योंकि इस शासन में दलितों के साथ-साथ पिछड़ी जातियों को भी नौकरियों से वंचित रखने का अभियान चलाया जा रहा है और कालेजों तथा विश्वविद्यालयों में संपूर्ण भर्ती ब्राह्मणों और द्विजों से की जा रही है।
रजत रानी मीनू की कहानियां यथार्थवादी हैं। वह घटनाओं का उसी रूप में चित्रण करती हैं, जिस रूप में वे घटती हैं। वह उनको अपने अनुकूल ढालने का प्रयास नहीं करतीं। हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि समाज में आदर्श नहीं हैं, पर मीनू की दृष्टि वहां जाती है, जहां समाज ठहर-सा गया है और जो उनकी संवेदना को उद्वेलित करता है।