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राम तेरे काम!*

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*(व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा)*

विरोधियों ने मार दी ना राम काज में भी भांजी। बताइए, बेचारे केंद्र सरकार से जुड़े कर्मचारियों को अब सिर्फ आधे दिन में प्राण प्रतिष्ठा की खुशी समेटनी पड़ेगी। यूपी वालों को पूरे दिन की छुट्टी। एमपी में पूरे दिन की छुट्टी। छत्तीसगढ़ में, उत्तराखंड में पूरे दिन की छुट्टी। राजस्थान में पूरे दिन की छुट्टी। बस सीधे मोदी जी की सरकार के हुकुम से चलने वालों के लिए आधे दिन की छुट्टी। राम काज की छुट्टी में से भी आधी कटवा दी। इन बेचारों की तपस्या में ही कुछ कमी रह गयी गयी होगी, जो उन्हें ही राम काज हड़बड़ी में निपटाना पड़ेगा। काश, उन्हें भी दफ्तर-वफ्तर भूलकर फुर्सत से रामलला को निहारते हुए मोदी जी को निहारने का मौका मिलता।

पर बेचारे कर्मचारियों के राम काज में ये भांजी मारना तो कुछ भी नहीं है। इन विरोधी भांजीमारों ने तो मोदी जी तक के राम काज में भांजी मार दी। इनकी कांय-कांय के चक्कर में ही तो बेचारे मोदी जी, मुख्य से प्रतीकात्मक यजमान हो गए। नहीं, नहीं, मुख्य तो रहेंगे। ईवेंट प्राण प्रतिष्ठा का सही, मुख्य तो मोदी जी रहेंगे। कैमरे के लिए तो कैमरे के लिए, रामलला के लिए भी मुख्य तो मोदी जी ही रहेंगे। आंखें खुलते ही रामलला जब दर्पण में देखेंगे, तो खुद को देखते हुए, मोदी जी को ही तो देखेंगे। फिर भी प्राण प्रतिष्ठा के कक्ष में पांच में से मुख्य होंगे, पर मोदी जी यजमान नहीं होंगे। शंकराचार्यों ने विधि-विधान का जो झगड़ा डाल दिया, उससे बेचारे मोदी जी की यजमानी चली गयी। मंदिर-मंदिर भटके। सात्विक भोजन किया। सिर्फ नारियल का जल ग्रहण किया। कंबल बिछाकर जमीन पर सोए। गा-बजाकर पूरे ग्यारह दिन का कठिन तप किया। तब भी यजमान का आसन चला गया। साथ में बैठने को जसोदा बेन जो नहीं थीं। माने थीं, पर साथ बैठ नहीं सकती थीं। सिर्फ सपत्नीकता के चक्कर में किन्हीं मिश्रा जी की लाटरी लग गयी। सब करते-कराते भी मोदी जी की तपस्या में ही कोई कमी रह गयी होगी, तभी तो रीयल मुख्य होकर भी ऑफीशियल यजमान नहीं बन पाएंगे।

कहीं ऐसा नहीं हो कि चुनाव के टैम पर ये विरोधी, अपने लाने वालों को रामलला के पहचानने के टैम पर भी भांजी मरवा दें और उनसे उंगली पकड़कर लाने वालों को भी, कंधे पर लादकर लाने से इंकार करा दें। आखिर, लला तो भोले लला ही रहेंगे।  

*(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*

[1/22, 8:12 AM] Sanjay Pareta Raipur: (अच्छा लगे, तो मीडिया के साथी *राजेंद्र शर्मा* का यह व्यंग्य ले सकते हैं। सूचित करेंगे, तो खुशी होगी।)

*लो जी, आपने यजमान भी न बनने दिया!*

*(व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा)*  

बेचारे भक्तों को कम से कम अब इस तरह के सवालों से छुट्टी मिल जानी चाहिए कि बेचारे सीता और राम को अलग क्यों कर दिया? न सियाराम रहने दिया, न सीताराम। जै-जै राम, सीताराम भी नहीं। राम अकेले-अकेले। न सीता साथ में, न लक्ष्मण और तो और हनुमान भी साथ में नहीं। हां, धनुष जरूर साथ में, वह भी कंधे पर आराम से विश्राम करता हुआ नहीं, चढ़ी हुई प्रत्यंचा के साथ, हाथ में। बाण छोड़ने को हर क्षण तैयार। सदा क्रोध से भरे हुए। शांति और कोमलता से कोसों दूर। पहले के राम तो ऐसे नहीं थे। पर पहले ऐसा किसी पीएम के साथ भी तो नहीं हुआ था, जैसा अब मोदी जी के साथ हुआ है। सब करने-धरने के बाद भी बेचारे अपने ही राज में बने राम मंदिर में, अपने के निर्देशन में हो रही प्राण प्रतिष्ठा में, खुद मुख्य यजमान बनने से चूक गए। अरे चूक क्या गए, दुश्मनों ने मुख्य यजमान का मिला-मिलाया आसन छिनवा दिया, बेचारे से।

जिस आसान के लिए राजा होकर भी कठोर तप-त्याग किया, मंदिरों में झाड़ू-पोंछा तक किया और अपने सारे मंत्रियों से भी कराया, जमीन पर कंबल पर सोए, सिर्फ फलाहार किया और जल भी सिर्फ नारियल का पिया, गायों को चारा खिलाया, डटकर दान-पुण्य किया, राज्यों को घूम-घूमकर सरकारी खजाने से गिफ्ट पर गिफ्ट दिए। फिर भी, दुष्ट विरोधियों ने शंकराचार्यों से मिलकर मुख्य यजमान का आसन छिनवा दिया। और क्यों? सिर्फ एक अदद स्त्री के न होने की वजह से!

यजमान के आसन पर कोई सपत्नीक ही बैठ सकता है। हथौड़ामार दलील यह कि अश्वमेध यज्ञ के लिए तो राम को भी साथ में बैठने के लिए सोने की सीता बनवानी पड़ी थी। फिर मोदी जी कैसे जसोदा बेन के बिना मुख्य यजमान के आसन पर बैठ जाएंगे! तो जिस स्त्री का न होना तक बने-बनाए काम बिगड़वा सकता है, उसे पुरुष बेकार में क्यों सिर पर ढोते रहेंगे और कब तक! राम भी कब तक शुभ कार्यों में विघ्न डालने वाली सीता का नाम, अपने नाम के आगे लगाए रहते। तुलसीदास भी ऐंवें ही थोड़े ही कह गए थे — ढोल, गंवार…नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी! ताड़न करना या देना अगर ज्यादा ही लगे तब भी, कम से कम नारी को शुभ कार्यों से दूर तो रखा ही जा सकता है, जिससे अमृतकाल में किसी पुरुष को वह नहीं झेलना पड़े, जो त्रेता में अश्वमेध के समय राम से लेकर, कलियुग में अमृतकाल के द्वार पर मोदी जी तक को झेलना पड़ा है।

रही बात राम के पहले जैसा नहीं रहने की तो, पहले तो और भी बहुत कुछ वैसा नहीं था, जैसा अब है। पहले मोदी जी पीएम थे क्या? नहीं ना। पहले योगी जी अयोध्या के सीएम भी नहीं थे। और पहले अयोध्या कौन सी वही थी, जो अब है। बस नाम ही पहले वाला है। और वह भी मोदी जी-योगी जी की कृपा है कि इतना कुछ बदल दिया, फिर भी नाम नहीं बदला, जबकि वे तो नाम पहले बदलने में विश्वास करते हैं, बाकी कुछ बदले, नहीं बदले। अयोध्या नगरी थी, अवधपुरी थी, पर अयोध्या धाम कभी नहीं था। पर अब है। पुराना नाम, नया धाम।

और भव्य राम मंदिर — उसकी तो पहले बात ही कौन करता? राम लला को पहली बार ही अपना पक्का घर मिला है, वर्ना तीस-बत्तीस साल से तो बेघरों की तरह तंबू में ही पड़े हुए थे। उसके पहले घर जरूर था और घर भी पक्का था, चार सौ साल से ज्यादा पुराना। फिर भी घर अपना नहीं था, जबरन कब्जे का था। और उससे पहले? दरवाजा तोड़कर मस्जिद में प्रकट होने से पहले की कहानी राम जी ही जानें! पर बाद की कहानी से डिफरेंट तो जरूर ही होगी।

असल में सीता जी तो तभी पीछे छूट गयी थीं, जब पिचहत्तर साल पहले रामलला प्रकट हुए थे। झगड़े के बीच अकेले ही प्रकट हो गए, इतना ही बहुत था। पूरे दरबार के साथ प्रकट होने चलते, तब तो हो लिया था प्राकट्य! ऐसे लड़ाई-झगड़े के कामों में बंदा अकेला ही सही रहता है। कम-से-कम लेडीज लोग का ऐसे मौकों पर कोई काम नहीं है। उल्टे उनके होने से बंदा लड़ाई में कमजोर ही पड़ता है। लेडीज को बचाए या विरोधियों से भिड़ने जाए! रही बाल रूप में भी योद्धाओं के तेवर की बात, तो लड़ाई-झगड़े में बंदा ऐसा हो ही जाता है। बचकाना भोलापन काम नहीं आता, हाथ में हथियार से लेकर, चेहरे पर रौद्र तक, विरोधियों को डराने के लिए सब कुछ चाहिए। भगवा पलटनों से बेहतर इसे कौन जानता है। मस्जिदों के सामने डीजे बजाकर डांस करते हैं, तब भी सिर्फ डराते हैं। डराना जरूरी है। तुलसी दास जी ही तो यह भी कह गए हैं कि — भय बिनु प्रीति होइ नहीं देवा! भय होगा, डराने वाले से प्रीति तो तब ही होगी। राहुल गांधी जैसे लोग बेकार मोहब्बत की दुकान का शोर मचाते हैं और डराने वालों को नाहक नफरत-नफरत कहकर बदनाम करते हैं। असली मोहब्बत तो नफरत फैलाने वाले ही फैलाते हैं। डरने वाले और डराने वाले, सब के बीच मोहब्बत। समरसता इसी को तो कहते है। मंदिर वहीं बनवाने वाले राम जी भी अगर मोहते कम हैं और डराते ज्यादा हैं, तो इसमें भी बुरा क्या है?  

*(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)*

[1/23, 4:46 PM] Sanjay Pareta Raipur: (अच्छा लगे, तो मीडिया के साथी *राजेंद्र शर्मा* का यह व्यंग्य ले सकते हैं। सूचित करेंगे, तो खुशी होगी।)

*करत रंग में भंग*

*(व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा)*

देखी, देखी, इन मंदिर विरोधियों की शरारत देखी। आखिर, आखिर तक मंदिर के रास्ते में अड़चन डालने से बाज नहीं आ रहे हैं। जब और कुछ काम नहीं आया, तो मोदी जी से मंदिर का उद्घाटन रुकवाने की कोशिश। बताइए, प्राण प्रतिष्ठा से पहले ही राम लला की फोटो वाइरल करा दी और वह भी खुली आंखों के साथ। और शोर मचा दिया कि यह तो असगुन हो गया। प्राण प्रतिष्ठा से पहले ही आंखें दिखाई दे गयीं। अब मोदी जी उद्घाटन में क्या करेेंगे? रामलला की आखों की पट्टी तो मोदी जी को ही खोलनी थी। अब क्या आंखों की पट्टी खोलकर, पहले ही सब को दीख चुकी आंखें दोबारा दिखाएंगे?

विरोधियों ने पहले तो सत्तर साल मंदिर बनने ही नहीं दिया। रामलला ने बयालीस-तेंतालीस साल मस्जिद में रहकर काटे। बाद में कार सेवकों के चक्कर में मस्जिद की जगह भी जाती रही और बेचारे को तीस साल से ज्यादा तंंबू में काटने पड़े। रो-पीटकर सुप्रीम कोर्ट से मंदिर बनाने के लिए हरी झंडी मिली और मंदिर बनना चालू हो गया, मोदी जी से मंदिर के उद्घाटन की डेट भी मिल गयी, तभी शंकराचार्यों ने इसका शोर मचा दिया कि अधूरे मंदिर में, पूरी प्राण प्रतिष्ठा कैसे? चुनाव से ठीक पहले का मुहूर्त निकला था, सो मुहूर्त का झगड़ा और पड़ गया। फिर मोदी की यजमानी पर झगड़ा। मंदिर में कौन से रामलला रहेंगे, इस पर भी झगड़ा। और जब वह सब भी नहीं चला, तो अब रामलला की बिना पट्टी की आंखें प्राण प्रतिष्ठा से पहले दीख जाने के असगुन का झगड़ा। विरोधी पूछ रहे हैं कि जब मोदी के खोलने से पहले ही रामलला की आंखों की पट्टी खुल गयी, मोदी जी अब रामलला को कैसे अपनी ही पट्टी पढ़ाएंगे। जिन आंखों ने पहले ही बहुत कुछ देख लिया, उन्हें गोदी मीडिया जो दिखाए, सिर्फ वही देखना कैसे सिखाएंगे!

सुना है कि मंदिर के मुख्य पुजारी सत्येंद्र दास तो आंखों वाली तस्वीर की खबर से इतने विचलित हो गए कि खुले आम इसकी जांच की मांग करने  लगे कि रामलला की खुली आंखों वाली तस्वीर लीक कैसे हो गयी? कौन है अपराधी? अपराधी का पता लगाया जाए। वह तो भला हो विहिप के भाइयों का, जो कर्मकांडियों वाले अंधविश्वासों में नहीं फंसे और बात को यह कहकर वहीं का वहीं दबा दिया कि उन्होंने तो ऑफीशियली कोई तस्वीर जारी नहीं की है। यानी यह तस्वीर फेक है, बल्कि डीप फेक भी हो सकती है यानी ऐसी फेक कि मूल से भी ज्यादा असली लगे। वर्ना पता नहीं पुजारी क्या वितंडा खड़ा कर देता? मालूम पड़ता कि मोदी जी दरवाजे पर खड़े इंतजार ही करते रह जाते और इधर पुलिस लला की खुली आंखों वाली तस्वीर लीक करने वाले को खोजती फिर रही होती!

फिर भी, लगता है कि विरोधियों के हाथ भागते भूत की लंगोटी तो लग भी गयी है। देखा नहीं, कैसे विरोधियों ने हे राम, हे राम कर के, एम्स जैसे बड़े सरकारी अस्पतालों की आधे दिन की छुट्टी भी मरवा दी। अच्छी खासी छुट्टी का एलान हो गया था, विरोधियों ने कैंसल करा दी। अब डाक्टर लोग रामलला में प्राण प्रतिष्ठा करते मोदी जी को देखना छोडक़र, मरीजों को देखने में ध्यान लगाएंगे। यानी मरीजों को देखना, रामलला का उत्सव देखने से भी ज्यादा जरूरी हो गया! डॉक्टर लोग चुनाव में विपक्ष वालों से इसका बदला जरूर लेंगे। और डाक्टर लोग तो शायद माफ भी कर दें, पर रामलला अपने उत्सव में खलल डालने वालों को कैसे भूल जाएंगे!                                   

*(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*

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