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‘रंजीत भैया इंदौरी’… आम बोलचाल के शब्दों ने एक देहाती को रातों-रात स्टार बना दिया

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ओ ऐबले, सई साट कर दूंगा, लाल चट, ढीला ढस्स है ये तो, पोऐ खा रिया.., पेलवान ये भोत तेज चल रिया है… ये आम बोलचाल के शब्द हैं ठेठ इंदौरियों के। लेकिन इन्हीं शब्दों के तालमेल ने एक देहाती को रातों-रात स्टार बना दिया। आज वो अमेजन की वेब सीरीज में रोल कर रहा है।

ये हैं ‘रंजीत भैया इंदौरी’। अपने VIDEOs और इंदौरी बोली से लोगों को गुदगुदाने वाले रंजीत की जिंदगी, इतनी हंसमुख नहीं है। उसके पीछे इतना दर्द है कि एक बार तो वे जिंदगी से हार से गए थे। पर एक VIDEO ने उनकी जिंदगी बदल दी, हारते हौसले में जान फूंक दी।

शुरू करते हैं उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी…

40 साल पहले इंदौरियत से लबरेज गांव दूधिया (देवगुराड़िया के पास) में जन्मे रंजीत कौशल। पिता शंकरलाल सरकारी नौकरी में, मां शिवकला राजनीति में। सरपंच भी रही हैं। खेती-बाड़ी भी है और घरेलू टेंट व्यवसाय…। दो भाई भी हैं।

सबकुछ ठीक था, पर मैंने पढ़ाई से नाता रखा ही नहीं। शुरुआत से घुमक्कड़ टाइप रहा। पापा को इसी बात की सबसे ज्यादा टेंशन थी कि मेरा होगा क्या…।

पढ़ने में कम इंट्रेस्ट रखने वालों की बचपन से जवानी तक की लाइफ जैसी कटती है, बस वैसे ही कटती रही। मुझे एक्टर्स की मिमिक्री का शौक था, वही लोगों के बीच मेरी पहचान थी। यह भी लगता था कि बंबई भाग जाऊं..।

इसी डर के कारण पापा ने 2009 में मेरी शादी करा दी। 2012 में एक बच्ची भी हो गई। सबकुछ जैसे-तैसे चल रहा था और आगे क्या होने वाला है, इसकी कल्पना भी नहीं थी। तब यूट्यूब हल्का सा चर्चा में था। लोगों के VIDEOs चर्चा में आने लगे थे। मैं भी देखता रहता था। वीडियो बनाता भी था, पर अपलोड करने और एडिट करने की जानकारी नहीं थी।

2015 में मेरे मुंहबोले भांजे ने मुझसे कहा कि मामा, आप भी यूट्यूब पर अपने VIDEOs डाल दिया करो। मैंने कहा कि मुझे एडिटिंग नहीं आती। उसने कहा मैं कर दूंगा।

मैंने हां कर दी। कुछ VIDEOs बनाए जो समस्याओं पर थे। पानी की, सफाई की। किसी पर 16 व्यूज आए तो किसी पर 23 व्यूज। वाट्सएप पर पर्सनल भी भेजे पर मिले जुले ही कमेंट्स आए।

VIDEOs पर मेरे साथ रहने वाले ही ताने मारते थे। सामने तो नहीं बोलते थे, लेकिन मजाक बनाते थे। जब मैं निकलता तो कहते कि जाओ भाई सेल्फी ले लो, शाहरुख आ गया…। मैंने हंसी मजाक वाले वीडियो बनाए तो रिश्तेदार भी नाराज हो गए। कहते थे कि इसका दिमाग खराब हो गया है क्या, लोग हंसते हैं हम पर भी।

दिसंबर 2015 में ही पापा को अटैक आ गया, ब्रेन हेमरेज था। पैरालेसिस से शरीर का एक भाग पूरी तरह काम करना बंद कर दिया। घर की सारी जमा पूंजी और नौकरी से जो पैसा आया था, सबकुछ इलाज में खर्च हो गया।

ऐसा लगा कि जैसे सबकुछ उजड़ गया। काम-धंधे भी ऐसे हो गए कि बता नहीं सकता। जैसे-तैसे खेती बाड़ी से कुछ करने की कोशिश की। खुद का कैटरिंग भी शुरू किया, लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था।

बेटी चार से पांच साल की हो गई थी। पत्नी ने एक बार तो यह तक कह दिया कि क्यों हमारी जिंदगी बर्बाद कर दी। क्यों इसे भी पैदा किया। आप कल्पना कर सकते हो कि मुझ पर क्या गुजरी होगी, पर वो गलत कहां थी। उसका भी अपना ही दर्द था पर वो साथ खड़ी रही।

कुछ हाथ-पैर फिर मारे, लेकिन अब कोरोना का लॉकडाउन आ गया। न काम-धंधा था, न VIDEOs में इंट्रेस्ट रह गया था। लॉकडाउन में इतना डिप्रेशन में चला गया कि बस कह नहीं सकता। हिम्मत ही नहीं बची थी। सोचता था कि कैसे जीऊं। जीऊं भी या नहीं…। इतनी मौतें देख लीं कि यह समझ आ रहा था कि मौत तो झटके में आएगी, जीकर ही कुछ कर सकते हैं।

वीडियोज भी देखे तो तब यूट्यूब पर बाढ़ आ गई थी। इतने सारे लोग वीडियोज बनाकर डालने लगे थे कि मुझे लगा कि अब यहां भी मेरा क्या वजूद बनेगा? यह प्लेटफॉर्म भी अब मेरे लिए नहीं बचा है।

एक पल तो मुझे लगा कि सबकुछ खत्म हो गया…। अकेले ही फूट-फूटकर रोता रहा। मैंने तो डिप्रेशन तक का इलाज करा लिया था, पर कुछ नहीं बदल रहा था।

समझ नहीं आ रहा था तो आखिरकार हिम्मत करके पत्नी के पास गया। बिना लाग लपेट उससे पूछ लिया- तू सच बता, मेरा कुछ होगा, क्या लगता है तुझे..। वो मुझे करीब से जानती थी। मेरी हालत के हर पल की गवाह थी। उसने यही कहा कि आप ये जो VIDEO बनाते हैं, इससे आपको तो खुशी मिलती है ना..। आप इससे खुश रहते हैं, बस यही काफी है। दुनिया की फिक्र छोड़िए, आप मस्त रहिए..।’

उसकी इस बात ने मुझमें हिम्मत भर दी। मैं फिर से अपने मुंह बोले भांजे के पास गया और उससे कहा कि वीडियोज फिर से बनाते हैं। वह तब तक एडवरटाइजिंग के धंधे में उतर गया था। उसने कहा कि अब मेरे पास इतना तो वक्त नहीं, फिर भी सोचकर बताता हूं।

मैंने सोचा कि VIDEO तो बनाना आता, पर कुछ अलग करना होगा। एडिट करना यूट्यूब पर देख-देखकर सीख लिया।

तब यूट्यूबर्स की बाढ़ देखकर सोचा कि इंदौर लोकल के हिसाब से कोई नहीं सोचता। उसी को ट्राय करता हूं। लॉकडाउन के सितंबर में ‘इंदौर की कसमें’ नाम से पहली बार इंदौरी अंदाज में VIDEOs बनाकर अपलोड कर दिया। मुझे नहीं पता था कि क्या होगा..।

इस वीडियो में असल में ऐसा था कि लोग कैसे बात-बात पर अपनी बात सही ठहराने के लिए कसम खा लेते हैं। जैसे चाय हाथ में है तो कहते हैं कि गोरस हाथ में है, झूठ नी बोलू रिया… गल्ले पर बैठे हैं तो कहते हैं कि रोजी पे बैठा हूं… यानी जो जैसा जहां मिलता, वहीं की कसम खा बैठता।

वो VIDEO इस कदर वायरल हुआ कि मुझे असल में ‘रंजीत भैया इंदौरी’ बना दिया। इसके बाद यही लगा कि कोरोना से लोग बहुत डिप्रेशन हो गए हैं, हंसना चाहते हैं। और फिर ये सिलसिला शुरू हो गया।

‘सिक्सर’ वेब सीरीज इंदौर के हिसाब से बन रही थी। तब कई लोगों ने ऑडिशन दिए। मुझे तो पता भी नहीं था। तब किसी ने मुंबई के लोगों को बताया कि इंदौरियत को जानना हो तो इनके वीडियो देख लो। तब उन्होंने मुझसे संपर्क किया और बुलवाया।

ऑडिशन के लिए कहा कि हम जो लाइन लिखकर दे रहे हैं, वो अपने हिसाब से बोलकर भेज दो। मैंने दिया तो सिलेक्शन हो गया। जब मैं मुंबई गया तो सब बोले- हमने आपके वीडियो से ही इंदौरी सीखी। इस फिल्म में मैंने इंदौरी लिहाज से ही कॉमेंट्रेटर का रोल किया है।

मेरी पहली फिल्म न मां देख पाई न पिता

तमाम संघर्ष के बाद आज मुझे पहचान मिल गई, पर मेरे लिए कुछ मिसिंग है तो वो मम्मी-पापा का ना होना। पिछले दिसंबर में पापा चल बसे। जून 2022 में मां भी छोड़कर चली गई। आज वो होते तो शायद बता पाता कि आपका लड़का अब स्टार है। मैं जब शूटिंग पर था, तभी मां का निधन हुआ था।

गाली नहीं देता शायद इसने लिए सबने सराहा

रंजीत कहते हैं कि मैं अपने वीडियो में कभी गाली या अपशब्द इस्तेमाल नहीं करता। जो शब्द होते हैं वो लोकल इंदौर में ही यूज होते हैं। शायद इसीलिए लोग मुझे पसंद करने लगे।

इंदौरी भाषा में फैमिली कंटेंट लाते हैं, YouTube देखकर ही TVF ने Amazon की सीरीज के लिए चुना।

रंजीत इंदौरी लहजे में बिना गाली के साफ सुथरा फैमिली कंटेंट लेकर आते हैं। उनका यह कंटेंट सभी वर्ग के लोगों में खूब पसंद किया जा रहा है। इतना ही नही TVF की वेबसीरीज सिक्सर के लिए भी कास्टिंग टीम ने उन्हें उनके कंटेंट के जरिए ही बिना ऑडिशन के लिए चुना।

उनके अनुसार उनकी एक खास फिल्म भी आने वाली हैं, जो बॉलीवुड की पहली वन शॉट फिल्म होगी। साथ ही साथ उनपर जल्द ही उनके जीवन पर आधारित एक किताब भी लिखी जा रही है।

मां कैंसर से लड़ रही थी, उन्हें बचाने के लिए पैसा भी नहीं बचा

मेरी माताजी कैंसर की लास्ट स्टेज पर थी, उन्हें बचाना नामुमकिन सा हो गया था। और यह बात तब की है जब मैं स्थापित हो चुका था। उनके इलाज का सारा खर्च जोड़कर भी मेरी इतनी सेविंग्स नहीं बनी। फिर मैंने अपनी कार बेच दी। आज मैं फिर उस शून्य पर आकर खड़ा हूं। मैंने एक नई शुरुआत की है। मैं यह मानता हूं कि यदि हाथ में हुनर हो तो इंसान कभी भी और कहीं से भी शुरुआत कर सकता है।

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